होली के रंग में रंगा है कोई ,
कोई नशे में ही मशगूल है ।
चढ़ा नशा किसी को भंग का ,
कोई सत्ता के नशे में चूर है ।
हो रहा दहन गोबर के उपलों काठ का ,
पर राक्षसी होलिका अब जलती नहीँ ।
ना प्रह्लाद जैसे भक्त बच पाते है ,
ना ही नरसिंह अब बचाने आते हैं ।
अब अबीर गुलाल कम उड़ते हैं ,
ताश पत्तों के दौर ज्यादा चलते हैं ।
अब ठंडाई नहीँ पीसवायी जाती है ,
शराब की बोतलें खुलवाई जाती है ।
मिलन का रहा नहीँ अब त्योहार ,
बजाने गाने का बढ़ गया कारोबार ।
ढप चंग गीतों की मस्ती हुई धूमिल ,
इवेंट वालों की सजती फूहड़ महफिल ।
उपाधी वितरण से लोग ऊबने लगे ,
फेसबुक पर ही सबको विश करने लगे ।
महामूर्ख सम्मेलन में अब कोई जाता नहीँ ,
कवि सम्मेलन में दूसरा दौर आता ही नहीँ ।*
त्योहार नहीँ ये अब केवल सेलिब्रेसन है ,
किसी का हॉलिडे, किसी का सीजन है ।
दौर चला है अब पानी बचाने का ,
याद आता दौर वो ड्रम में डूबाने का ।
काश वो दिन फ़िर लौट आते ,
फटते कपड़े, पर दिल जुड़ जाते ।
उछलता कीचड़ भले सड़कों पर ,
पर मैल दिल के सारे मिट जाते ॥
संदीप मुरारका
दिनांक 12 मार्च 2017 रविवार
फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा 2073
*पहले दो दौर कवितायें पढी जाती थी , जिसमे केवल गम्भीर श्रोता रुकते थे एवम कवि अपनी श्रेष्ठ रचनओं का पाठ करते थे ।