Friday, 28 February 2020

गोड़से .......एक हत्यारा

दिनांक  30 जनवरी 1948 ।  मेरी हत्या कर दी गई । मुझे क्यों मारा , किसके कहने पर मारा , मुझे नहीं पता । पर मुझे याद है कि मारने से पहले खाकी कपड़े पहने नाथूराम गोडसे ने मेरे पाँव छुए और कहा "नमस्ते बापू" ।

आजादी मिले 168 दिन ही तो हुए थे , उस समय तक ना पुलिस तैयार हो पाई थी , ना प्रशासन, ना खुफिया तन्त्र , सो पता ही नहीं लग पाया कि मैं क्यों मारा गया ? मुझे मारने से क्या लाभ हुआ ? 

दूसरे दिन मैं बिड़ला हाऊस में चिरनिद्रा में लेटा हुआ था , अंदर लोग मेरे शव का दर्शन कर रहे थे , बाहर लोगों का जुटान यमुना तक था , जहाँ राजघाट पर मेरा अन्तिम संस्कार होना था , संभवतः 25 लाख लोग रहे होंगे । मैं हर एक को देखना चाहता था कि किसकी आँखो में आँसू है , किनके चेहरे पर खुशी । असल में मैं ढूँढ़ना चाहता था वैसे चेहरे जो मेरी मौत पर खुश हों , क्योंकि कुछ तो अपराध किया होगा मैंने उनका , वरना इतनी घृणा क्यों ? मैं फिर निराश हुआ ! सभी अपने मिले । सभी रोते मिले । 

दिनांक 31 जनवरी । करीब पौने बारह बजे , लगभग 3.25 किलोमीटर लम्बे जुलूस के रूप में मेरी अन्तिम यात्रा प्रारंम्भ हुई , जो क्वींसवे, किंग्सवे और हार्डिंग एवेन्यू से होते हुए चार बजकर 20 मिनट पर यमुना किनारे पहुँची । मैं स्वयं के शव को धूप छिड़की हुई चंदन की लकड़ियों की चिता पर देख रहा था , मेरे तीसरे पुत्र रामदास ने ठीक पौने पाँच बजे मुझे मुखाग्नि दे दी । इधर मेरा मृत शरीर धू धू कर जलने लगा , उधर लाखों लोगों द्वारा भजन चलने लगा । क्या आज कोई घर नहीं जाएगा , क्या इन्हें भूख नहीं लग रही , अरे ! कोई यहाँ पानी की बोतले बांटने वाला भी तो नहीं, आजकल ये आराम है कि श्मशान घाट पर पैकेज्ड ड्रिंकिंग वॉटर की बोतल औऱ रजनीगंधा की पुड़िया अवश्य मिलती है । चिता चौदह घंटे तक जलती रही , मैं एक ओर अपने शव को जलता देखता रहा , दूसरी ओर बैठा बैठा गीता का पाठ सुनता रहा । चिता की लपटें आकाश की ओर उठ रही थी , सूरज डूब चुका था , लहरों की तरह लोग आगे बढ़ रहे थे, मै उनकी सिसकियों की आवाज सुन रहा था , लगता था मानो राजघाट पर कोई तूफान उतर आया हो, यह जनमानस की भावनाओं का तूफान था, कई राज्यपाल, राजदूत, केंद्रीय मंत्री , माताएँ , बहनें , क्या ग्रामीण , क्या शहरी सभी लोग चिता की परिक्रमा में लगे थे । 

तीसरे दिन 1 फरवरी , रात्रि 7.30 बजे विशेष प्रार्थना होने लगी , सभी तो थे , पंडित नेहरू, सरदार बल्लभभाई पटेल, देवदास गांधी, सरदार बलदेव सिंह, आचार्य कृपलानी, राजेंद्र प्रसाद , मौलाना आजाद, लार्ड माउंटबैटन , आजाद भारत के प्रथम प्रधान सेनापति मेजर जनरल राय बूचर , चार हजार सैनिक, एक हजार वायु सैनिक, पुलिस के हजारों सिपाही, पण्डित , मित्र , रिश्तेदार । 

प्रार्थना सभा सम्पन्न हुई , अब मेरी अस्थियाँ इकठ्ठी की जा रही थी , ओह ! उसमें एक गोली भी निकली । हाथ से बुनी गई सूत की थैली में अस्थियाँ एकत्र की जा रही थी , फिर उनपर यमुना के पवित्र जल का छिड़काव किया गया , मेरी अस्थियाँ अब तांबे के घड़े में बंद हो चुकी थी, कलश को वापस बिड़ला हाउस ले जाया जा रहा था, मैं भी साथ था । 

कहते हैं अन्तिम यात्रा से ही इन्सान की अच्छे व बुरे कर्म का पता चलता है , कोई किसी उम्र में मरे , श्मशान घाट पर लोगों के बीच दो बातें अवश्य होती है, "भला आदमी था जल्दी चला गया" अथवा "चला गया पर था तो .........ही " , मैंने बहुत ढूंढ़ा कि कोई तो मिले दूसरी वाली चर्चा करते , पर मैं फिर निराश हुआ। सभी दुःखी मिले। सभी उदास मिले । 

" मेरे पिता "

मैं खुश हूँ , कुछ ही देर में अपने पिता से मिलूँगा , करमचन्द उत्तमचन्द गाँधी, जो पोरबंदर , राजकोट , बीकानेर की राजसभा में उच्च पदों पर आसीन रहे , वे निरंकुश अयोग्य राजाओं की मनमानी पर दुःखी रहते , युगों से दबी कुचली प्रजा पर होते अत्याचार को देखकर सिसकते , ब्रिटिश सत्ता के निरंकुश प्रतिनिधियों के समक्ष दंडवत होते राजाओं को देख तिलमिला उठते , परन्तु मौन व मजबूर दिखते । आजाद भारत का सपना पहली बार मैंने अपने पिता की आँखो में ही देखा था , औऱ यह भी समझ पाया कि इस गुलामी के जितने जिम्मेदार अंग्रेज थे , उससे ज्यादा जिम्मेदार थे रियासतों में बँटे स्वार्थी राजपरिवार औऱ उनके महलों में तैरते षड़यंत्र । 

" कस्तूरबा "

पिछले तीन साल ग्यारह महीनों से कस्तूरबा भी तो वहीं है , कैसी होगी वो , धार्मिक , सादगी की प्रतिमूर्ति , दृढ़ , शाकाहारी , मेरी पत्नी कस्तूरबा , ना जाने कितनी बार जेल गई , कितनी यातनाएँ सही , दक्षिण अफ्रीका में "बा" जब तीन महीनो के बाद जेल से छूटीं तो उनका शरीर ठठरी मात्र रह गया था, चम्पारण में जब उसकी झोपड़ी जला दी गई , तो खुद पूरी रात जागकर घास का झोंपड़ा खड़ा करने में लगी रही , सत्याग्रह के दौरान कई बार नजरबंद रही , "बा" प्रायः उपवास पर रहती , एक समय खाया करती , अफसोस आजादी ना देख पाई , आज मिलेगी वो , तो बताऊँगा उसे , उसका भारत अब आजाद हो गया है । 

"बा" को बेटी ना होने की कमी सदा खलती रही , पर खुशी थी कि हमारे चार पुत्र थे , हरिलाल , मणिलाल , रामदास एवं देवदास । मुझे आज भी गर्व है कि मेरे चारों बेटों ने ना अंग्रेजों से पदवी ली , ना पद , ना आजाद भारत में कोई सरकारी नौकरी ली , ना ही राजनीति में आए , ना माइंस पट्टा हासिल किया , ना चाय के बगान खरीदे । 

"पहला बेटा हरिलाल" - 

मुझे याद है हरिलाल को ब्रिटेन जाकर पढ़ने के लिए स्कॉलरशिप का ऑफर दिया गया , किन्तु मैंने ही यह कह कर मना कर दिया कि गांधी के लड़के की जगह किसी ज़रूरतमंद को यह सुविधा मिलनी चाहिए । हरिलाल नाराज भी हुआ था , इसके बावजूद यदि आज कल के कुछ लोग मेरे आदर्शों पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं , मुझे दुःख होता है । मुझे तब दुःख नहीं हुआ जब गोड़से ने गोली चलाई औऱ मैं मारा गया , मुझे दुःख तब होता है जब नासमझ लोग गोड़से को आदर्श बना कर पेश करते हैं । 

हरिलाल का पुत्र कांतिलाल डॉक्टर था , उसके बेटे यानि मेरे पड़पोते डॉ. शांति गांधी की पहचान एक कुशल हार्ट सर्जन के तौर पर अमेरिका के टोपीका शहर में है , 70 की उम्र में शांति रिटायर्ड हुआ , उसने देखा कि अमेरिका के कई राज्यों की तरह कैनसस में भी नस्ली भेदभाव का पुराना इतिहास रहा है , तब उसने वहाँ सामाजिक समरसता पर कार्य प्रारम्भ किया औऱ वर्ष 2012 में वहाँ की प्रतिनिधि सभा में निर्वाचित हुआ । वो अमेरिका गया मेरे मरने के 19 साल बाद 1967 में , सो यह कलंक भी मुझपर नहीं कि मेरे पड़पोते की पैरवी मैंने की हो । 

कांतिलाल सरस्वती बेन का दूसरा बेटा प्रदीप चार्टड एकाउंटेंट है , वो भी अमेरिका में ही रहता है । 

"दूसरा बेटा मणिलाल" -

मणिलाल का जीवन साऊथ अफ्रीका में ही बीता , वहाँ रहकर भी भारत उससे नहीं छूटा , उसने मेरे द्वारा प्रारम्भ किए गए "इंडियन ओपिनयन पत्र " को आगे बढ़ाया , इंग्लिश और गुजराती में छपने वाले साप्ताहिक का सम्पादन मणिलाल जीवन के अन्तिम समय तक करता रहा । 

मणिलाल का पुत्र अरुण भी अपने पिता की तरह पत्रकारिता में आया , उसने टाईम्स ऑफ इण्डिया में काम किया । 

मणिलाल की बेटी सीता पेशे से नर्स थी , वहीं ईला दक्षिण अफ्रीका में पीस एक्टिविस्ट । 

"तीसरा बेटा रामदास " -

रामदास मेंरा सबसे प्रिय था , उससे भी ज्यादा प्रिय था उसका बेटा कनु , यदि आप 1930 की ऐतिहासिक "नमक सत्याग्रह" में दांडी से निकाली गई यात्रा की तस्वीरें देखेंगे तो मेरी लाठी पकड़कर जो बच्चा मेरे आगे आगे चल रहा है वही था कनु , मेरा पोता कनु , जो आगे चलकर वैज्ञानिक बना , अमेरिका के नासा में कार्य करता रहा , अच्छा लगा था मुझे जब अपने बुढ़ापे में कनु भारत आ गया , आलीशान वीआइपी जीवन जीने नहीं , बल्कि वृद्धाश्रम में रहने , उसकी पत्नी यानि मेरी पतोहू शिवालक्ष्मी भी प्रोफेसर थी । आजकल तो लोग मंत्री या सांसद के साथ फोटो खिंचवा कर उसे भी भुना लेते हैं , मेरा कनु मेरे साथ की तस्वीरें ना भुना सका , जबकि खुद एक अच्छा फोटोग्राफर था , क्योकि वो गाँधी का पोता था । फिर भी आजकल के कुछ लोग सोशल मीडिया में मेरे हत्यारे गोड़से को सही औऱ मुझे गलत साबित करने में लगे रहते हैं । 

रामदास की बेटी सुमित्रा आई ए एस अधिकारी रही , उसका विवाह आई आई एम के प्रोफेसर गजानंद कुलकर्णी के साथ हुआ । 

"चौथा बेटा देवदास" 

देवदास ने देश के पत्रकार जगत में ख्याति अर्जित की , वो भी सरस्वती पुत्र ही रहा , हिन्दुस्तान टाइम्स के संपादक के रूप में उसने अपनी सेवाएँ दी , उसका विवाह स्वाधीनता सेनानी सी.राजगोपालाचारी की पुत्री लक्ष्मी से हुआ था । 

देवदास के बेटे राजमोहन की बेटी सुप्रिया ने हार्वर्ड यूनिवर्सिटी से पीएचडी ली, आजकल वह पेनसेलविनिया यूनिवर्सिटी में पढ़ा रही है ।

देवदास का दूसरा बेटा गोपाल आई ए एस बना , इसने कई भाषाओं में स्तरीय लेखन किया , उसकी चर्चित पुस्तकें हैं ‘गांधी एंड साउथ अफ्रीका’, ‘नेहरू एंड श्रीलंका,’ तथा ‘गांधी इज गोन’। उसने विक्रम सेठ के उपन्यास ‘सूटेबल ब्याय’ का हिन्दी में ‘अच्छा लड़का’ नाम से अनुवाद किया। गोपाल पश्चिम बंगाल का राज्यपाल रहा साथ ही दक्षिण अफ्रीका और श्रीलंका में भारत का उच्चायुक्त भी । गोपाल 1945 में जन्मा , यानि इसकी तरक्की में मेरी कोई पैरवी नहीं थी । वैसे भी पैरवी से खेल संगठनो या सरकारी संगठनो में नौकरी दिलवाई जा सकती है , लोकसभा का टिकट दिलवाया जा सकता है , पैरवी के बल पर आप आई ए एस नहीं बन सकते । 

देवदास का सबसे छोटा बेटा रामचंद्र गांधी भारतीय दर्शन का चोटी का विद्वान रहा , उसे आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी ने डॉक्टरेट की उपाधी दी । 

" महात्मा "

अंग्रेज मुझे मिस्टर गाँधी कह कर सम्बोधित किया करते थे , लेकिन 12 अप्रेल 1919 को गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने मुझे एक खत लिखा , जिसमें मुझे "महात्मा" कह कर सम्बोधित किया , इसके पहले भी एक बार हरिद्वार के निकट कनखल स्थित गुरुकुल कांगड़ी में 8 अप्रैल, 1915 को स्वामी श्रद्धानंद ने मुझे "महात्मा" कहा था , मैं डरने लगा , मुझ्मे महात्मा जैसे कोई गुण नहीं थे , हाँ इतना दावे के साथ कह सकता हूँ कि मुझमे अवगुण भी नहीं बचे थे । मुझे तब बहुत प्रसन्नता नहीं हुई जब मुझे गहराई से जानने वालों ने "महात्मा" कहा , पर अब मन दुःखी होता है जब गोड़से को ना जानने वाले लोग भी उसे महान बताने की और मेरी हत्या को सही ठहराने की मूर्खतापूर्ण दलीलें देते हैं । 

राष्ट्रपिता बापू 

चंपारण का एक किसान राजकुमार शुक्ला मुझे बापू कहकर पुकारता था , फिर सुभाष चंद्र बोस ने 6 जुलाई 1944 को रेडियो रंगून से मुझे 'राष्ट्रपिता' कहकर संबोधित किया था, मेरी हत्या के बाद प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने रेडियो पर देश को संबोधित करते हुए कहा था "राष्ट्रपिता अब नहीं रहे" । कई बार कई विषयों पर तुम्हारे पिता से तुम्हारे विचार मेल नहीं खाये होगें , चाहे व्यापार का विषय हो , या पूँजी बँटवारे का , या लव मैरिज का , या नौकरी का , तुम्हें लगा होगा पिताजी की सोच पुरानी है , तो क्या तुम अपने पिता की हत्या कर दोगे ? नहीं ना ! किन्तु कृतघ्न गोड़से ने क्या किया , मार दिया मुझे । 

"रावण और गोड़से"

मध्यप्रदेश के विदिशा जिले में स्थित नटेरन तहसील के रावणग्राम में रावण की पूजा की जाती है, यहां रावण की करीब 10 फीट लंबी पाषाण प्रतिमा लेटी हुई मुद्रा में विराजित है , थोड़ी देर के लिए ये मान लो कि रावण को अपना आराध्य मानने वाले समुदाय का कोई व्यक्ति बड़ा नेता बन जाए या बॉलीवुड का हीरो बन जाए , और तुम्हें बताए कि राम की क्या क्या गलतियाँ थी और रावण में क्या क्या अच्छाईयाँ थी , तो क्या उसके कहने पर तुम अपने आराध्य श्रीराम को भूल जाओगे और रावण को सही साबित करने लगोगे ? नहीं ना ! जिस प्रकार यह सत्य है कि रावण माता सीता का अपहरणकर्ता था उसी प्रकार यह भी सत्य है कि गोड़से भी 79 वर्षीय मुझ बुड्डे का हत्यारा था । 

"हत्या का कारण"

8 नवम्बर 1948, दिल्ली के लाल क़िला । मेरी हत्या की सुनवाई चल रही थी , लाल क़िले के भीतर ही विशेष अदालत बनाई गई थी, जज थे आत्माचरण । गोडसे ने 93 पन्ने का अपना बयान 5 घंटो में पढ़ा । 

गोडसे ने 10:15 बजे से बयान पढ़ना शुरू किया, पहले हिस्से में साज़िश और उससे जुड़ी चीज़ें, दूसरे हिस्से में मेरी शुरुआती राजनीति, तीसरा हिस्से में मेरी राजनीति के आख़िरी चरण, चौथा हिस्सा भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई में मेरी भूमिका , पाँचवा हिस्सा आज़ादी के सपनों का बिखरना और आख़िरी हिस्सा 'राष्ट्र विरोधी तुष्टीकरण' की नीति थी । 

गोड़से जिसे तुष्टीकरण कहता था , मैं उसे मानवता समझता हूँ , मुझे वादाख़िलाफ़ी कदापि बर्दाश्त नही थी , चाहे दोस्त से हो या दुश्मन से । 

विभाजन के बाद दोनों देशों में संधि हुई थी कि भारत पाकिस्तान को बिना शर्त के 75 करोड़ रुपए देगा, इनमें से पाकिस्तान को 20 करोड़ रुपए मिल चुके थे और 55 करोड़ बकाया था, आजाद भारत की पहली कैबिनेट का फ़ैसला था कि जब तक दोनों देशों के बीच विभाजन का मसला सुलझ नहीं जाता है तब तक भारत पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए नहीं देगा । हालाँकि पाकिस्तान ने ये पैसे माँगना शुरू कर दिया था और भारत वादाख़िलाफ़ी नहीं कर सकता था । मैंने कहा कि जो वादा किया है उससे मुकरा नहीं जा सकता, अगर ऐसा होता तो द्विपक्षीय संधि का उल्लंघन होता । 

हाँ मैं भूख हड़ताल पर बैठा था , किन्तु मेरी भूख हड़ताल का मुख्य मक़सद पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए दिलवाना नहीं था बल्कि सांप्रदायिक हिंसा को रोकना और सांप्रदायिक सद्भावना क़ायम करना था, काश यह बात उस नासमझ गोड़से को समझ आ पाती । 

चलो माना कि वैचारिक मतभेद थे , मैं ही गलत रहा होऊंगा , लेकिन गोड़से अपने बयान में जब खुद स्वीकार करता है कि भारत के लिए, आजादी के लिए, मेरा क्या योगदान था , तो क्या वैसे में किसी एक वैचारिक अंतर होने से , हत्या जायज थी ? 

मन की बात 

मेरा मानना था कि अगर एक व्यक्ति समाज सेवा में कार्यरत है तो उसे साधारण जीवन जीना चाहिए , सादगी, ब्रह्मचर्य, अनावश्यक खर्च से बचना , साधारण शाकाहारी भोजन और अपने वस्त्र स्वयं धोना ये मेरे निजी जीवन के पहलू थे , मैं सप्ताह में एक दिन मौन धारण करता था , मेरा मानना था कि बोलने के परहेज से आतंरिक शान्ति मिलती है। 

मैंने भगवद् गीता की व्याख्या गुजराती में की , महादेव देसाई ने गुजराती पाण्डुलिपि का अतिरिक्त भूमिका तथा विवरण के साथ अंग्रेजी में अनुवाद किया था , मेरे द्वारा लिखे गए प्राक्कथन के साथ इसका प्रकाशन 1946 में हुआ था । मुझे लिखने पढ़ने की आदत थी , मैंने कई पत्रों का संपादन किया - हरिजन, इंडियन ओपिनियन, यंग इंडिया , नवजीवन आदि । मेरी कई पुस्तकें प्रकाशित हुई - हिंद स्वराज, दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास, सत्य के प्रयोग (आत्मकथा), गीता पदार्थ कोश । 

खैर ! बच्चों की पुस्तकों में मेरी चर्चा हो , या भारत के करोड़ों घरों में मेरी तस्वीर टंगी हो , या हजारो चौराहों पर मेरी मूर्तियाँ लगी हो , या मेरे नाम से सरकारी योजनाएँ चल रही हो , या पूरे विश्व में मेरा जन्मदिन 2 अक्टूबर "अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस" के रूप में मनाया जाता हो , या मैं आपके नोटों पर छपा होऊँ , या मेरे नाम पर अंतर्राष्ट्रीय गाँधी शांति पुरस्कार दिया जाता रहे , या मेरे नाम पर कुछ और स्मारक बना दो , या मुझ पर बनी फिल्मे बॉक्स आफिस पर हिट होती रहें , मुझे कोई प्रसन्नता नहीं होती , मुझे तो यह बात कचोटती रहती है कि मेरे अपने देश में एक भी व्यक्ति ऐसा क्यों है जो मेरे हत्यारे गोड़से के पक्ष में बात करता है । 

अपराधी गोड़से 

हर अपराध की अपनी एक वजह होती है और हर अपराधी की अपनी दलीलें । चोरी के पीछे भूखा पेट होता है , बलात्कार के पीछे आकर्षण या वासना , मारपीट के पीछे आवेश होता है , गालीगलौज के पीछे धैर्य में कमी , चाहे जो हो , अपराध अपराध होता है , अपराधी अपराधी होता है , गोड़से अपराधी था , मेरा अपराधी , गाँधी का अपराधी , आजाद भारत का पहला अपराधी । 

संदीप मुरारका 
दिनांक 29 फरवरी , 2020 शनिवार 
शुभ ५ , फाल्गुन शुक्ला , विक्रम संवत् २०७६

कूल शब्द - 2808


Sunday, 23 February 2020

तारा .......एक अनकही कथा


मैँ , तारा , क्या परिचय दूँ अपना ? नारी या वानरी अथवा वानर नारी ! कई रामायण अलग अलग भाषाओं मेँ लिखी गईं । राम के समकालीन महर्षि वाल्मीकि ने भी नहीं दिया पूरा परिचय मेरा । या यूँ कहूँ कि उनके लिखे को इतिहासकारों ने अपने अपने अनुसार समय के साथ वैसे ही बदल दिया, जैसे केन्द्र की सत्ता बदलने के साथ साथ न्यूज़एंकर के सोचने का नजरिया हर पाँच सालों मेँ बदल जाता है । फिर मेरी कहानी तॊ हजारों बर्षों पुरानी है । गोस्वामी तुलसीदास ......वो तॊ ठहरे पक्के रामभक्त , प्रभु श्रीराम को छोड़ सभी पात्रो को भूला सा बैठे । किष्किन्धाकाण्ड के 67 सर्ग के 2,455 श्लोक मेंं मात्र 5 बार मुझ तारा का नाम लिया मेरे गोस्वामीजी ने । कम्बन की इरामावतारम हो या  कुमार दास की जानकी हरण । किसी ने कुछ कहा , किसी ने कुछ न कहा । किसी ने कम लिखा , किसी ने ज्यादा लिखा । मैँ घटनाओं के दृश्यचक्र मेँ फंसती रही , उलझती रही । इतनी छोटी व आसान नहीं थी मेरी संघर्ष कथा ।

मैँ अभागन , कहने को किष्किन्धा राज्य की महारानी । महाबलशाली अंगद की माता । कहने को बुद्धिमान व महान चरित्र वाली नायिका । किन्तु क्या न्याय हो सका मेरे पात्र के साथ ? 

पुत्रमोह मेँ कहूँ या मनुष्य जीवन की मजबूरियाँ कहूँ ! अपनों से ही शोषित होती रही । जिन्दगी की इतनी उथल पुथल मेँ अपनी ही कहानी भूल बैठी हूँ । ना मुझे अपनी माता का नाम याद है , ना पिता का । कुछ ऋषियों ने मुझे देवताओं के गुरु बृहस्पति की पौत्री बतलाया किन्तु मुझे ना तॊ उनसे दादा वाला प्यार मिला और ना उन्होंने या मेरे पिता ने मेरा कन्यादान किया। इसका मतलब मैँ अनाथ थी ।

नहीं नहीं । कहानी रोचक है । कहते हैं , समुद्र मन्थन के समय की बात है । मन्दराचल पर्वत को मथनी तथा वासुकी नाग को नेती बनाया गया , समुद्र मंथन आरम्भ हुआ और भगवान कच्छप के एक लाख योजन चौड़ी पीठ पर मन्दराचल पर्वत घूमने लगा। एक के बाद एक चौदह रत्न निकलते गए , ऋषि देवता दानव उन्हें आपस मेँ बाँटते चले गए । भगवान विष्णु के हिस्से मेँ लक्ष्मी आई , तॊ शिव शंकर भोलेनाथ को कालकूट विष मिला , दैत्यराज बलि को उच्चैःश्रवा घोड़ा प्राप्त हुआ, वहीं ऋषियों को कामधेनु गाय मिली ।

लक्ष्मीः कौस्तुभपारिजातकसुराधन्वन्तरिश्चन्द्रमाः। 
गावः कामदुहा सुरेश्वरगजो रम्भादिदेवांगनाः। 
अश्वः सप्तमुखो विषं हरिधनुः शंखोमृतं चाम्बुधेः।
रत्नानीह चतुर्दश प्रतिदिनं कुर्यात्सदा मंगलम्। 

उन्हीं रत्नो मेंं एक रत्न था रम्भा आदि अप्सराएँ - 
जिनमें से एक मैँ भी थी । हाँ मैँ तारा । अप्सरा तारा । समुद्र मंथन से प्रकट हुई तारा । 

रम्भा का भाग्य उसे इन्द्र के दरबार मेँ ले गया , वहीं मुझे पाने के लिए दो लोगों ने दावा किया । हाँ मुझे याद है , पहले थे वैद्यराज सुषेण और दूसरे थे वानरराज बाली। बाली बलशाली था, किष्किन्धा का राजा था , देवताओं का सहायक था , देवराज इन्द्र का पुत्र कहलाता था , रावण पर विजय प्राप्त की थी , किन्तु था तॊ वानर ही ना ! 

सुषेण वैद्य , हाँ वही , जिन्होनें बाद मेँ लक्ष्मण को संजीवनी बूटी से इलाज कर जीवित कर दिया था , एक आकर्षक गौरवर्ण लम्बी कद काठी के स्वामी थे । चिकित्सक होने के नाते एक अलग तरह का आत्मविश्वास झलक रहा था उनके चेहरे पर , जिससे प्रभावित हुए बगैर मैँ ना रह सकी । 

मुझे पाने की लालसा दोनोँ मेँ , दोनोँ ही देवताओं के सहयोगी , निर्णय छोड़ दिया विष्णु पर और दोनोँ आकर मेरे दोनोँ ओर खड़े हो गए , मानों मैँ बाँट दी जाऊँगी । 

काश ! श्री विष्णु ने मेरी भी इच्छा पूछी होती , मेरी भी तॊ मन की बात सुनते । परन्तु फुर्सत कहाँ थी किसी को , अमृत जो निकलने वाला था , बेवजह बेसमय प्रकट हुई थी मैँ । विलम्ब ना करते हुए भगवान विष्णु ने फैसला सुना दिया कि धर्मपत्नी वामांगी होती है । 

"वामे सिन्दूरदाने च वामे चैव द्विरागमने, वामे शयनैकश्यायां भवेज्जाया प्रियार्थिनी"

मैंने तुरन्त देखा , मेरे दाहिनी ओर वानरराज बाली और बाई ओर वैद्य सुषेण खड़े थे । यानि मैँ बाली की वामांगी हुईं । 

आह किस्मत । स्वयं अप्सरा । सामने श्री विष्णु । एक ओर उस काल का महान विद्वान चिकित्सक । दूसरी ओर वानर । और मुझे निर्देश वानर पत्नी होने का । "मैं तारा ....वानर बाली की पत्नी ।"

लक्ष्मिपति विष्णु उतने पर ही नहीं रुके , कहा तुम्हारे बाईं ओर खड़े वैद्य सुषेण आज से तुम्हारे पिता हुए । हाय । चीत्कार उठा था मन मेरा । किन्तु धर्म , नियम , समाज , अनुशासन की डोर से बंधी अबला नारी की तरह चुपचाप सुनती रही । सत्य को स्वीकारती रही । नारी सदैव से समझौतावादी रही है , पुरुष सदैव ही अवसरवादी । मैं यूँ ही नहीं कह रही इतनी बड़ी बात , अपनी बातों का आगे प्रमाण दूँगी , मेरी अनकही आत्मकथा मेँ । 

क्षणभर पहले जो मुझपर आसक्त था , मुझपर दावा कर रहा था , मुझे पाना चाहता था , जिसके व्यक्तित्व से प्रभावित हुए बिना मैँ भी ना रह सकी , मेरे बगल मेँ आकर खड़ा हो चुका था , किन्तु दिशा के चक्कर मेँ , प्रभु ने मेरे भाग्य को चक्कर मेँ डाल दिया । मैँ सौंप दी गईं बाली के हाथों , हाँ एक वानर को ब्याह दी गईं । 

हाँ , अब मैँ रानी हूँ , वानरराज बाली की रानी , किष्किन्धा नगरी की महारानी । हाँ वही किष्किन्धा , जो आज का हम्पी नगर है, जो कर्नाटक राज्य मेंं तुंगभद्रा नदी के तट पर स्थित है । हम्पी नगर को तुम्हारे  यूनेस्को ने  विश्व के विरासत स्थलों में भी शामिल कर रखा है । 

मेरी पालकी दण्डक वन मेंं बसे राज्य किष्किन्धा मेंं प्रवेश कर रही है , मार्ग के दोनोँ ओर पुष्प बरसाये जा रहे हैं , कोलाहल के बीच मेंं महाराज बाली के जयकारे की आवाज मुझे सुनाई दे रही है , राजा बाली मेरी पालकी के आगे चल रहे रथ पर विराजमान हैं , एक बार दिल हुआ कि कूद जाऊँ इस पालकी से और जाकर कहूँ महाराज से कि मुझे भी रथ पर बैठा लें , मैँ भी दीदार कर सकूँ प्रकृति की सौन्दर्यता से भरपूर किष्किन्धा का , देख सकूँ वहाँ की महिलाओं को , उनके आभूषणों को , उनके पहनावे को , और मैँ ही क्यूँ , वो महिलाएँ भी उत्सुक थीं मुझे देखने के लिए , तभी तॊ बीच बीच मेंं कोई ना कोई वानरी मेरी पालकी का परदा हटा कर झाँक ही जाती थी । शहनाई की आवाज आ रही है , मीठी आवाज मेंं नगाड़े पिटे जा रहे हैं , लगता है महाराज का महल आ गया । हाँ , रथ रुका । कहारों के पाँव थम चुके हैं , मैँ बाहर झाँकना चाहती हूँ , लेकिन स्त्री सुलभ लज्जा , मुझे रोक देती है । 

आह , कोई समीप आ रहा है , अरे ! ये तॊ स्वयं महाराज बाली हैं , उन्होंने अपने हाथों से परदा हटाया और कहारों को शायद पालकी रखने का आदेश दिया । महाराज ने दाँया हाथ आगे बढ़ाया है , मेरी आँखे जमीन की ओर है , नववधू होने के कारण या किसी पुरुष का पहला स्पर्श , मैँ रोमांचित हूँ , मैंने भी आहिस्ता से अपना बायाँ हाथ उनके मजबूत हाथों पर रख दिया , या यूँ कहूँ कि स्वयं को उनके प्रति समर्पित कर दिया । 

"दुंदुभि धुनि घन गरजनि घोरा। जाचक चातक दादुर मोरा।।
सुर सुगन्ध सुचि बरषहिं बारी। सुखी सकल ससि पुर नर नारी।।" - नगाड़ों की ध्वनि मानो बादलों की घोर गर्जना है। याचकगण पपीहे, मेंढक और मोर हैं। देवता पवित्र सुगंध रूपी जल बरसा रहे हैं, जिससे खेती के समान नगर के सब स्त्री-पुरुष सुखी हो रहे हैं । 

"धूप धूम नभु मेचक भयऊ। सावन घन घमंडु जनु ठयऊ।।
सुरतरु सुमन माल सुर बरषहिं। मनहुँ बलाक अवलि मनु करषहिं।।" - धूप के धुएँ से आकाश ऐसा काला हो गया है मानो सावन के बादल घुमड़-घुमड़कर छा गए हों। देवता कल्पवृक्ष के फूलों की मालाएँ बरसा रहे हैं। वे ऐसी लगती हैं, मानो बगुलों की पाँति मन को अपनी ओर खींच रही हो । 

"मंजुल मनिमय बंदनिवारे। मनहुँ पाकरिपु चाप सँवारे।।
प्रगटहिं दुरहिं अटन्ह पर भामिनि। चारु चपल जनु दमकहिं दामिनि।।" - सुंदर मणियों से बने बंदनवार ऐसे मालूम होते हैं, मानो इन्द्रधनुष सजाए हों। अटारियों पर सुंदर और चपल स्त्रियाँ प्रकट होती और छिप जाती हैं , आती-जाती हैं , वे ऐसी जान पड़ती हैं, मानो बिजलियाँ चमक रही हों । 

हम दोनोँ महल की ड्योडी पर खड़े हैं , ब्राह्मण मंगलाचारण कर रहे हैं , महिलाएँ गीत गा रहीं हैं , छोटे वानर या बच्चे मुझे अपलक निहार रहें हैं , मैँ उस वातावरण मेंं खुश भी हूँ तॊ थोड़ी असहज भी।

समउ जानी गुर आयसु दीन्हा। प्रसाद प्रबेसु वानरराज कीन्हा।।
सुमिरि संभु गिरजा गनराजा। मुदित महीपति सहित समाजा।। - प्रवेश का शुभ समय जानकर गुरुजी ने आज्ञा दी। तब महाराज बाली ने शिवजी, पार्वतीजी और गणेशजी का स्मरण करके समाज सहित आनंदित होकर महल में प्रवेश किया॥

महाराज बाली के एक छोटा भाई भी था सुग्रीव । और उनकी पत्नी थी रूमा। सब अच्छा चलने लगा , परिवार , राजपाट , निजी जीवन । 

बाली मुझे बहुत प्यार करते , मैँ उनके राजदरबार जाया करती , प्रतिदिन शाम को उद्यान मेंं हम दोनोँ टहलते थे , उसी समय सुबह राजदरबार मेंं हुईं कारवाई पर मैँ अपनी राय दिया करती , कई बातें नीतिगत होती , कई बातें राज्यहित मेंं रहती , उनका सम्मान व राजस्व दोनोँ बढ़ने लगा , महाराज मेरी बात मानने लगे , साथ ही मुझे भी पहले से ज्यादा चाहने लगे । 

महाराज बाली भगवान श्रीविष्णु के अनन्य भक्त भी थे , साथ ही न्यायप्रिय शासक , और एक वीर योद्धा भी , एक बार तॊ उन्होंने रावण को अपनी कांख में छह माह तक दबाए रखा था। असल मेंं राजा बाली को उनके धर्मपिता इंद्र से एक स्वर्ण हार प्राप्त हुआ था, इस हार की शक्ति अजीब थी , इस स्वर्ण हार को ब्रह्मा ने मंत्रयुक्त करके यह वरदान दिया था कि इसको पहनकर बाली जब भी रणभूमि में अपने शत्रु का सामना करेगें, तो उनके शत्रु की आधी शक्ति क्षीण हो जाएगी और यह आधी शक्ति बाली को प्राप्त हो जाएगी, इसीकारण महाराज लगभग अजेय थे । उन्होंने कई युद्ध लड़े और सभी में वो जीतते रहे । बस एक बुराई थी उनमें कि क्रोध कूट कूट कर भरा था । गोस्वामी तुलसीदास भी कहते हैं -

काम क्रोध मद लोभ की, जब लौ मन में खान। 
तब लौ पण्डित मूर्खौ, तुलसी एक समान॥ 

मैँ माँ बन चुकी थी , सुन्दर , योग्य व पिता की तरह बलशाली बेटे की माँ । बेटा का नाम रखा गया अंगद । अंगद छोटा ही था , तभी की बात है महाराज बाली ने हजार हाथियों का बल रखने वाले दुंदुभि नामक असुर का वध कर दिया था। 

दुंदुभी का एक भाई था मायावी । वह अपने भाई की मौत का बदला लेना चाहता था । मायावी एक रात किष्किन्धा आया और महाराज बालि को द्वंद्व युद्ध के लिए ललकारा। मैँ उन्हें मना करती रही , समझाती रही , परन्तु सत्ता का घमण्ड जब इन्सान के सिर पर चढ़ जाए तॊ उसे अपनों की बात भी नहीं सुहाती। 

मेरे लाख मना करने के बावजूद महाराज बाली उस असुर के पीछे भागे । उनके साथ साथ में सुग्रीव भी पीछे दौड़े । भागते-भागते मायावी ज़मीन के नीचे बनी एक कन्दरा में घुस गया। बाली भी उसके पीछे-पीछे प्रवेश कर गए । जाने से पहले उन्होंने अपने अनुज सुग्रीव को यह आदेश दिया कि जब तक वे मायावी का वध कर लौटकर नहीं आते , तब तक सुग्रीव उस कन्दरा के मुहाने पर खड़ा होकर पहरा दे। एक वर्ष से अधिक अन्तराल के पश्चात कन्दरा के मुहाने से रक्त बहता हुआ बाहर आया। सुग्रीव ने असुर की चीत्कार तो सुनी परन्तु अपने भाई की नहीं। यह समझकर कि उसका अग्रज रण में मारा गया, सुग्रीव ने उस कन्दरा के मुँह को एक शिला से बन्द कर दिया और वापस किष्किन्धा आ गया और यह समाचार सबको सुनाया। मेरा मन यह मानने को तैयार ही नहीं था कि महाराज अब नहीं रहे , क्योंकि एक पत्नी अपने पति की हर कमजोरी और हर ताकत को जानती है । मैंने कई बार कहा कि उनके साथ जो कुछ भी हुआ हो , शरीर की खोज तॊ करनी चाहिए । परन्तु पता नहीं सबके मन मेंं मायावी का खौफ था या चोर , मंत्रियों ने आनन फानन मेंं सलाह की और सुग्रीव का राज्याभिषेक कर दिया। मैँ बैचेन थी किन्तु मौन रही , आँखे बन्द करती तॊ पति बाली दिखते , आँखे खोलती तॊ पुत्र अंगद , अजीब दुविधा थी मेरे समक्ष । 

होनी को कुछ और ही मंजूर था , कुछ समय पश्चात महाराज बाली लौट आए , थकी हुईं चाल , दुर्बल शरीर , किन्तु चेहरे पर विजयी होने की ओजस्वी गर्वीली मुस्कान । सभी चकित , वानर प्रजा , सैनिक , सभासद ! महाराज धीरे धीरे जब सभा मेंं प्रवेश कर रहे थे , सभी खड़े होकर सिर झुका रहे थे , मैँ खुशी से काँप उठी , अंगद तॊ दौड़ कर उनके चरणों मेंं ही लिपट गया , अपने पुत्र को उठा कर उन्होंने गले से लगा लिया , फिर मेरी ओर देखकर गर्व से मुस्कुराए , तभी उनकी नजर राजसिंहासन के समझ खड़े अपने अनुज सुग्रीव पर पड़ी , सुग्रीव के माथे पर अपना मुकुट देख उनकी भौंहे तन गयी , इसके पहले की सुग्रीव कुछ बोल पाता , महाराज का हाथ उठ चुका था । सुग्रीव ने उन्हें समझाने का भरसक प्रयत्न किया परन्तु कुपित हुए बालि ने उसकी एक न सुनी और सुग्रीव को राज्य से निकल जाने का हुक्म दिया , उसकी पत्नी रूमा जो मेरे ही बगल मेंं खड़ी थी , अपने पति सुग्रीव के पीछे लपकी । किन्तु क्रोधित बाली ने दूसरी गलती कि , रूमा की कलाई पकड़ ली । भयभीत सुग्रीव राज्य व पत्नी दोनोँ हारकर निकल पड़े , बाद मेंं पता चला कि वो ऋष्यमूक पर्वत में रहते हैं क्योंकी एक शाप की वजह से बालि वहाँ नहीं जा सकते थे ।

समय ने करवट ली , पवन पुत्र हनुमान जी ने रघुकुल नंदन श्रीराम और लक्ष्मण की मित्रता सुग्रीव से करवा दी । मित्रता तभी प्रगाढ़ होती है जब समय पर दोस्त दोस्त के काम आए । सुग्रीव ने तपस्वी राम को उनकी पत्नी जानकी को ढूंढ़ने का आश्वासन दिया , वहीं प्रभु राम ने सुग्रीव से बाली को मारकर राज्य व रूमा वापस दिलाने का वायदा किया । 

भगवान राम के कहने पर सुग्रीव किष्किन्धा आए और महाराज को ललकारा , राजसिंहासन पर बैठे बाली ने जब दरबार के बाहर से आ रही सुग्रीव की आवाज सुनी , उनके होंठ फड़फड़ाने लगे , बिना विलम्ब अजेय बाली गदा लिए दौड़े , पीछे पीछे अंगद , उनके मंत्रीगण , रूमा और मैँ भी । 
दोनोँ भाई आमने सामने पड़ते ही भिड़ गए , द्वंद युद्ध होने लगा , सुग्रीव भी कमजोर योद्धा नहीं था , कद काठी चेहरा लगभग सभी समान थे दोनोँ भाईयो के , पैंतरे बदल बदल कर दोनोँ भाई एक दूसरे पर जोर आजमाइश कर रहे थे , चोट उन्हें लग रही थी , दिल मेरा धड़का जा रहा था , रूमा और मैँ दोनोँ के माथे पर पसीने की बूंदे टपक रही थी , मैँ कुछ बोलना चाहती थी , किन्तु बोलूँ किसे ? सौतन रूमा को या पुत्र अंगद को , जो स्वयं अचंभित था , या मन्त्री जाम्बवन्त को , जो सत्ता के सिंहासन से बँधे थे , या उन वानरों को जो तालियाँ पीटा रहे थे , या महाराज बाली को जो सुनने की स्थिति मेंं ही नहीं थे । उनका पुरा ध्यान युद्ध कौशल पर था , तभी महाराज ने सुग्रीव को पटकनी दी और एक के बाद एक , कई प्रहार किए सुग्रीव पर , क्रोध कितना ही हो भाई भाई होता है , सुग्रीव को युद्ध मेंं भले ही हरा दिया , किन्तु जाने दिया , मारा नहीं । 

सुग्रीव मुँह की खा कर वापस लौट गए , महाराज बाली की जयजयकार होने लगी । मदमस्त हाथी की तरह , हवा मेंं विजयी हाथों को लहराते हुए महाराज महल की ओर बढ़े , राजदरबार की बजाए , उनके कदम शयनकक्ष की ओर मुड़ गए , शायद महाराज थक गए थे , आराम करना चाहते थे , मैँ भी यही चाहती थी कि उनकी पीड़ा बाँट सकूँ , चोट की पीड़ा , भाई से लड़ने की पीड़ा । मैँ चल पड़ी उनके साथ , ताकि उनके जख्मों पर हल्दी का लेप कर सकूँ , उन्हें गर्म दूध देकर सुला सकूँ , उनके मन से भाई के प्रति क्रोध को भुला सकूँ । 

लेकिन मेरे मन मेंं एक बात रह रह कर कौंध रही थी कि आखिर सुग्रीव मेंं इतनी हिम्मत कहाँ से आ गईं ? महाराज की शक्ति जानते हुए उनसे लड़ने की सोचना , नहीं यह अप्रत्याशित नहीं । सोची समझी चाल थी । परन्तु क्या ? कौन हैं इन सब के पीछे । महाराज लेट चुके थे , उन्हें नींद ने घेर लिया था , उनके पाँव मेरी गोद मेंं थे , मैँ अब भी उनके पैरों को दबा रही थी , किन्तु मेरे मस्तिष्क मेंं विचारों के बादल उमड़ रहे थे , मैंने इशारे से दासी को बुलाया और अपने पुत्र अंगद को बुलाने का हुकुम दिया । 

कुछ ही पलों मेंं युवराज अंगद आ गए , मैंने एक बार फिर महाराज की ओर देखा , वे गहरी निद्रा मेंं हैं , मैंने धीरे से उनके पाँव गद्दे पर रख दिए और आहिस्ता से उठी कि उनकी नींद मेंं खलल ना पड़ जाए । अंगद को बाहर चलने कों कहा , मैँ नहीं चाहती थी कि हमदोनो की वार्ता कोई सुने , दीवारों के भी कान होते हैं । फिर मेरे महल मेंं तॊ रूमा थी , जो चोट खाई नागिन की तरह बिफरी हुईं थी । 

मैंने अपने पुत्र से अपने ह्र्दय की बात कही कि तुम्हारे चाचा यूँ तॊ लड़ने आने वाले नहीं , कोई तॊ कारण है , पता लगाओ । अंगद बुद्धिमान होने के साथ साथ काफी फुर्तीला नौजवान था , उसने मुझे प्रणाम किया और एक घंटे के भीतर सारी रपट लाकर देने का वादा कर चल दिया । ये एक घंटे मैंने महल की छत पर चहलकदमी करते करते काटे , कभी चंद्रमा की ओर ताकती , कभी टूटते तारों को देख उसमें मतलब खोजने लगती , कोई तारा मुझे शगुन लगता , कोई तारा मुझे अपशगुन दिखलाई देता , मेरी बैचेनी बढ़ती जा रही थी , शायद वो रात मेरी जिन्दगी की सबसे लम्बी व भयावह रात थी । क्या मैँ इतना प्यार करने लगी थी बाली से या यही स्वभाव होता है हर स्त्री का अपने पति के प्रति । मैँ दार्शनिक हो रही थी । 

कदमों की आवाज आई , शायद बाली जाग गए हों , नहीं ! ये अंगद थे । चिन्तित अंगद । उसने मुझे जो बताया , मेरी चिंता और बढ़ गई । युवराज अंगद ने मुझे बताया कि चाचा सुग्रीव को अयोध्यापति राजा दशरथ के पुत्र महान वीर धनुर्धर श्री राम का आशीर्वाद व सरंक्षण प्राप्त हो चुका है , इसीलिए उसका मन बढ़ा हुआ है । और राजा राम की शक्ति कैसी थी , वो बतलाया -

येन सप्त महसाला गिरिभुमिष्च दारिता : ।
बाणेनैकेन काकुत्स्थत स्थाता ते को रणाग्रत: ॥ *
यानि श्रीराम ने एक ही बाण से सात शाल के वृक्ष , पर्वतों और पृथ्वी को विदीर्ण कर डाला । 

रात चिन्ता में कैसे बीती , पता ही नहीं चला , यह भी नहीं पता कि कल का सूरज क्या भविष्य लेकर उदय होगा , मुझे महाराज और युवराज दोनो की चिन्ता हो रही है , मैं सुग्रीव के प्रति क्रोधित थी , किन्तु उसका अहित भी नहीं सोच सकती थी , अजीब विडम्बना है । दुश्मन भी कोई और नहीं अपना ही है । भोर होने को है , शायद महाराज बाली उठने को हैं , मुझे अब नीचे जाना चाहिए । अरे ! ये धूल कैसी उड़ रही है , और ये गर्जना , क्या कोई प्राकृतिक आपदा आ गई । नहीं नहीं । ये तो सुग्रीव की आवाज है , वो महल की ओर चले आ रहा है । उसके पीछे पीछे दो वनवासी सुकुमार , कंधे पर तरकश , मंद मंद मुस्कुराते हुए , साथ ही गदा लिए मेरी पुरानी सहेली अंजनी के पुत्र हनुमान भी हैं । 

मैं घबराहट में नीचे की ओर दौड़ी , महाराज उठ चुके हैं , सुग्रीव की आवाज उनके कानों में पड़ चुकी है , वे काफी क्रोध में हैं , मुझे देखते ही बरस पड़े , मानो मेरी ही गलती हो । हाँ गलती तो थी मेरी , मैने ही कल उनसे सुग्रीव को जान से नहीं मारने का वायदा लिया था । मुझे समझ में आ गया कि आज कुछ अनर्थ होने वाला है 

महाराज गदा लेकर खड़े हो गए , मैं महाराज के सामने हाथ जोड़ कर खड़ी हो गई , महाराज की आँखे क्रोध से लाल थी , मेरी रात भर जागने के कारण । मैं उन्हें समझाने लगी , वे मुझे फटकारने लगे , मेरे आँसू गिरने लगे , रोते रोते मैं उनके पाँव पर गिर पड़ी । 

सुनत बालि क्रोधातुर धावा। गहि कर चरन नारि समुझावा॥
सुनु पति जिन्हहि मिलेउ सुग्रीवा। ते द्वौ बंधु तेज बल सींवा॥**

लेकिन था तो वो वीर अभिमानी और ऊपर से महाज्ञानी , ऐसी बात कही कि मेरा मुँह खुला का खुला रह गया , मेरे पास कहने को शब्द खत्म हो गए । 

कह बाली सुनु भीरु प्रिय समदरसी रघुनाथ।
जौं कदाचि मोहि मारहिं तौ पुनि होउँ सनाथ ॥**

बालि ने कहा- हे भीरु ! डरपोक प्रिये ! सुनो, श्री रघुनाथजी समदर्शी हैं। जो कदाचित् वे मुझे मारेंगे नहीं , और मार भी दिए तो मैं परमपद पा जाऊँगा । 

महाराज निकल पड़े , सुग्रीव की आवाज सुनकर , बाहर भीड़ लग चुकी थी , महल के छज्जों पर राजपरिवार की स्त्रियाँ भी आ खड़ी हुई , रूमा भी मौनदर्शक बनी हुई थी , वानर सैनिक महाराज के आदेश का इंतजार कर रहे थे , किन्तु महाराज ने इशारे से सबको रोक दिया , और ललकारते हुए सुग्रीव से जा भिड़े । युद्ध यदि दो वीरों के बीच होता तो शतप्रतिशत बाली जीतते , किन्तु इतिहास गवाह है कि बिना छलकपट के विश्व की कोई लड़ाई ना लड़ी गई , ना जीती गई । और यही प्रेरणा आज के तुम्हारे नेताओं ने सीख ली है कि बिना छल कपट के ना कोई चुनाव लड़ रहा है , ना जीत सकता है । 

मेरी नजरें श्रीराम को ढूँढ़ रही थी , मुसीबत में भगवान ही याद आते हैं , मैंने देखा कि वो वृक्ष के पीछे खड़े हैं , अरे ये क्या ? उन्होंने अपना धनुष उठा लिया , और निशाना साध लिया , इसके पहले कि मैं दौड़कर उन तक पहुँच पाती , उनके चरणों में गिरकर अपने स्वामी के लिए जीवनदान माँग पाती , उनका तीर चल चुका था , जो सीधे महाराज बाली की छाती पर लगा । एकाएक महाराज लड़खड़ा उठे , हाथ से गदा छूट गई , दोनों हाथों से छाती में धंसे तीर को थामे थामे भूमि पर गिर पड़े , श्रीराम पेड़ की ओट से बाहर निकल आए । सभी बाली के निकट दौड़े , मैं अंगद उनके मंत्रीगण उनकी जनता । सभी स्तब्ध । सभी शांत । एक बार के लिए वातावरण में चारों ओर शांति छा गई । मैं भूमि पर बैठ गई , महाराज के सिर को अपनी गोद में रख लिया , भगवान श्रीराम भी भ्राता लक्ष्मण के साथ बाली के समीप आ खड़े हुए । 

पुनि पुनि चितइ चरन चित दीन्हा। सुफल जन्म माना प्रभु चीन्हा॥
हृदयँ प्रीति मुख बचन कठोरा। बोला चितइ राम की ओरा॥ **

भावार्थ:-बालि ने बार-बार भगवान् की ओर देखकर चित्त को उनके चरणों में लगा दिया। प्रभु को पहचानकर उसने अपना जन्म सफल माना। उसके हृदय में प्रभु श्रीराम के प्रति अगाढ प्रीति थी, पर मुख में कठोर वचन थे। वह श्री रामजी की ओर देखकर बोला- ॥

* धर्म हेतु अवतरेहु गोसाईं। मारेहु मोहि ब्याध की नाईं॥
मैं बैरी सुग्रीव पिआरा। अवगुन कवन नाथ मोहि मारा॥**

भावार्थ:- हे गोसाईं। आपने धर्म की रक्षा के लिए अवतार लिया है और मुझे व्याध की तरह छिपकर मारा? मैं बैरी और सुग्रीव प्यारा ? हे नाथ ! किस दोष से आपने मुझे मारा ?

भक्त बाली और भगवान राम में वार्ता हुई , क्रोध , प्रेम , कारण , दंड , विधि का विधान सभी चर्चाओं के पश्चात बाली ने श्रीराम से अपने अपराधो की क्षमा माँगते हुए अपने पुत्र अंगद , अपने भाई सुग्रीव और मुझ अभागन के लिए प्रार्थना की । 

या ते नरपते वृत्तिभर्र्ते लक्ष्मणे च या । 
सुग्रीवे च अंगदे राजस्तां चिन्तयितुमहर्सि । 
मद्दौषकृतदोषा तां यथा तारा तपीस्वीनीम । 
सुग्रीवो नावमन्येत तथावस्थातुम्हर्सि ।***

बाली ने कहा - राजन ! नरेश्वर ! भरत और लक्ष्मण के प्रति आपका जैसा बर्ताव है , वही सुग्रीव तथा अंगद के प्रति भी होना चाहिए । आप उसी भाव से इन दोनों का स्मरण करें । बेचारी तारा की बड़ी शोचनीय अवस्था हो गई है । मेरे अपराध से उसे भी अपराधिनी समझकर सुग्रीव उसका तिरस्कार ना करे , इस बात की व्यवस्था कीजिएगा । 

सचमुच यह सुनकर उस दुःख की घड़ी में भी मेरा हृदय महाराज बाली के प्रति गदगद हो उठा , मन में आया कि एक बार जोर से गले लगा लूँ , इसलिए नहीं कि उन्होंने मेरी चिन्ता की , इसलिए भी नहीं कि अपने पुत्र की रक्षा की कामना की बल्कि इसलिए कि इतना होने के बावजूद उन्होंने अपने भाई सुग्रीव के लिए भी प्रभु से प्रार्थना की । सचमुच एक पत्थरदिल कठोर दिखने वाले बाली के भीतर एक प्रेम करने वाला सरल इन्सान छिपा था । आज उनके जीवन के अंतिम क्षणों में भले ही मैं दुखी थी परन्तु गौरवान्वित थी कि "मैं तारा .....महान बाली की पत्नी थी ।"

राम बालि निज धाम पठावा। नगर लोग सब व्याकुल धावा॥
नाना बिधि बिलाप कर तारा। छूटे केस न देह सँभारा ॥ **

महाराज बाली मुझे बिलखता छोड़कर , सारी जनता को रुलाकर चल दिए , प्रभु के धाम , उन्हें तो मुक्ति मिल गई , परंतु मैं रो पड़ी थी , पछाड़ खा कर रो पड़ी थी , शायद जीवन में पहली बार इतने बड़े दुःख का सामना हुआ था , मेरे बाल खुल गए , साड़ी सरक गई , मैं बेसुध हो गई । 

तारा बिकल देखि रघुराया। दीन्ह ग्यान हरि लीन्ही माया॥
छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा॥ **

भावार्थ: - तारा को व्याकुल देखकर श्री रघुनाथजी ने उसे ज्ञान दिया और उसका अज्ञान हर लिया । उन्होंने कहा- पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु- इन पाँच तत्वों से यह अत्यंत अधम शरीर रचा गया है॥

प्रगट सो तनु तव आगे सोवा। जीव नित्य केहि लगि तुम्ह रोवा॥
उपजा ग्यान चरन तब लागी। लीन्हेसि परम भगति बर मागी॥ **

भावार्थ: - वह शरीर तो प्रत्यक्ष तुम्हारे सामने सोया हुआ है, और जीव नित्य है। फिर तुम किसके लिए रो रही हो? जब ज्ञान उत्पन्न हो गया, तब वह भगवान् के चरणों लगी और उसने परम भक्ति का वर माँग लिया॥ 

स्वर्गीय बाली का अंतिम संस्कार हो गया , सुग्रीव का राज्याभिषेक हो गया , अंगद युवराज बने । राजपाट चलने लगा । श्रीराम अपने भाई लक्ष्मण के साथ प्रवर्षण पर्वत पर जाकर रहने लगे । यह वर्षा ऋतु का समय था , वन जंगलो में वर्षा ऋतु का अपना महत्व है , चारों ओर हरियाली ही हरियाली , ऊपर से नया नया राजतिलक , सारी शानोशौकत , सुग्रीव सुरा और सुन्दरियों में दिनरात डूबने लगा , भूल गया कि महात्मा राम से उसने कोई वादा भी किया था , कई माह यूँ ही पार हो गए , शरद ऋतु आ गई , तपस्वी राम का धैर्य जवाब देने लगा । उन्होंने अपने उग्र तेजस्वी भाई लक्ष्मण को किष्किन्धा भेजा , जब दूत ने अंतःपुर में आकर यह सूचना दी तब वहाँ संगीत चल रहा था , सभी के हाथों में मधु के प्याले थे , सुन्दर स्त्रियाँ नाच रही थी , कुछ स्त्रियाँ खाली हुए प्यालों को भर रही थी तो कुछ अन्य सेवाओ में लगी थी , माहौल बिल्कुल रमणीय था किन्तु कहीं से भी न्यायोचित नहीं था । 

क्रोधवंत लछिमन सुनि काना। कह कपीस अति भयँ अकुलाना॥ **

सूचना सुनकर राजा सुग्रीव भय से काँप उठे , लड़खड़ाते पाँवो से उन्होने उठने की कोशिश की , परन्तु स्वयं को संभाल ना सके । मैं भी दोषी थी , हाँ मैंने भी पी रखी थी , महर्षि वाल्मीकि ने तेरहवें सर्ग में सच ही लिखा था कि मेरे पैर मधुपान के कारण लड़खड़ा रहे थे । परंतु क्यों ? क्यों पीने लगी थी मैं ? पति के गम में ? या अपने ही अपराधी सुग्रीव के अधीन जीवन जीने की ग्लानि ? या पुत्र अंगद की चिन्ता ? या देवरानी रूमा से ईर्ष्या ? या प्रभु की लीला ? 

खैर , आज फिर , मैं रूमा और उसके पति पर भारी पड़ी , राजा सुग्रीव ने मुझसे आग्रह किया कि मैं लखनलाल को मनाऊँ । 

सुनु हनुमंत संग लै तारा। करि बिनती समुझाउ कुमारा॥
तारा सहित जाइ हनुमाना। चरन बंदि प्रभु सुजस बखाना॥**

भावार्थ:- हे हनुमान् सुनो, तुम तारा को साथ ले जाकर विनती करके राजकुमार को समझाओ , समझा-बुझाकर शांत करो। हनुमान जी ने तारा सहित जाकर लक्ष्मणजी के चरणों की वंदना की और प्रभु राम के सुंदर यश का बखान किया॥

मुझपर दृष्टि पड़ते ही राजकुमार लक्ष्मण सकपका गए , उन्होने अपनी दृष्टि झुका ली , मैंने स्नेह एवं निर्भीकता के साथ उन्हें समझाया और कहा - 

ऋषकोटिसह्स्त्त्राणि गोलागं गूलशतानि च । 
अद्य त्वामुपयास्यन्ति जहि कोपमरिन्दम । 
कोटयो अनेकास्तु काकूुत्स्थ कपीनां दीप्त तेजसाम ॥ *१

हे शत्रुदमन लक्ष्मण ! आज आपकी सेवा में कोटि सहस्त्र यानि दस अरब रीछ , सौ करोड़ लंगूर और बढ़ी हुई तेज वाले कई करोड़ वानर उपस्थित होंगे , इसलिए आप क्रोध को त्याग दीजिए । 

लक्ष्मण शांत हुए , वानरसेना जानकी की खोज में लग गई , श्रीराम ने वानरों की सेना के साथ समुद्र लाँघा , रावण मारा गया । विभीषण लंका के राजा हुए । राम अयोध्या के राजा बने । सबका अपना अपना लक्ष्य पूरा हुआ । किन्तु मैं कहाँ खड़ी थी ? राजमहल में किन्तु विधवा ! अप्सरा किन्तु वानरों के मध्य ! सुन्दरी किन्तु कान्तिहीन ! बुद्धिमान किन्तु बिना पहचान । 

असल में मेरी संघर्ष गाथा मेरी नहीं , हर भारतीय नारी की गाथा है । श्रीरामचरितमानस में राम व हनुमान की गाथा लिखी गई , सदियों से वही पढ़ी जा रही है , गाथा तो लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला के त्याग की लिखी जानी थी , गाथा तो मंदोदरी के धैर्य की लिखी जानी थी , गाथा तो मंथरा के पात्र की लिखी जानी थी , गाथा तो लवकुश की माता जानकी की तपस्या की लिखनी थी , गाथा तो सूपर्णखा के प्रेम की लिखी जाती , गाथा तो कैकयी के निरपराध की लिखी जानी थी , गाथा तो लंकीनि , त्रिजटा , सुरसा की भी रही होगी । भरत राज्य के बाहर और उनकी पत्नी माण्डवी माताओं की सेवा में राजमहल के भीतर , क्या बीती होगी उसपर , चौदह वर्षो में कितनी रात माण्डवी सो पाई होगी , उसका संघर्ष तो मुझसे भी बड़ा रहा होगा , एक गाथा तो वो भी लिखी जाती । 

मैं और भी बहुत कुछ बताना चाहती थी , किन्तु यह सोचकर चुप रही कि जब वाल्मीकि और तुलसीदास ने उन बातों को छुपा दिया तो अब चर्चा से क्या लाभ । किन्तु फिर सोचती हूँ कि नहीं जब खुद अपनी आत्मकथा लिखने बैठी हूँ तो छिपाने से क्या लाभ । हाँ मैं अपराधी हूँ , देवी जानकी की अपराधी । बाली जब श्रीराम के तीर लगने से गिर पड़े , उनका सिर मेरी गोद में था , थोड़ी देर के लिए मैं अच्छा बुरा भूला बैठी थी , दुःख इंसान के सोचने समझने की शक्ति खत्म कर देता है । महाराज बाली और प्रभु राम के वार्तालाप में मुझे अपने पति का पक्ष ज्यादा उचित जान पड़ा , मैंने पूरी ईमानदारी से पतिव्रत का निर्वाह किया था , उसी बल पर , पति के शोक में या मोह में या दैववश या राम की ईच्छा से ही राम को शाप दे बैठी कि भले जानकी आपको मिल जाएगी पर आपकी हो नहीं पाएगी , बिछुड़ जाएगी , और यही हुआ भी, जानकी राम द्वारा त्याग दी गई ।

पौराणिक ग्रन्थों में ऋषि मुनियों ने लिख दिया कि अहिल्या, द्रौपदी, कुन्ती, तारा तथा मन्दोदरी, इन पाँच कन्याओं का प्रतिदिन स्मरण करने से सारे पाप धुल जाते हैं । 

अहिल्या द्रौपदी कुन्ती तारा मन्दोदरी तथा।
पंचकन्या स्मरणित्यं महापातक नाशक॥

पापी या पापनाशिनि ! विवाहित स्त्री या कन्या ! बहुत से विरोधाभासों से जूझती हुई मेरी गाथा , मेरी संघर्ष गाथा , मेरी ..........अनकही कथा ॥ 

संदीप मुरारका 
जमशेदपुर 
दिनांक २४ फरवरी'२०२० सोमवार 
फाल्गुन शुक्ला प्रतिपदा, विक्रम संवत् २०७६
९४३१११७५०७


* वाल्मीकि रामायण किष्किन्धा काण्ड सर्ग १२, श्लोक संख्या ९
**श्रीरामचरितमानस किष्किन्धा काण्ड 
***वाल्मीकि रामायण किष्किन्धा काण्ड सर्ग १८, श्लोक संख्या ५४+५५
*१ वाल्मीकि रामायण किष्किन्धा काण्ड सर्ग ३५ श्लोक संख्या २२