Thursday, 30 July 2020

पद्मश्री रेन सोनम शेरिंग लेपचा, सिक्किम

पद्मश्री - 2007, कला के क्षेत्र में
जन्म : 3 जनवरी, 1928
जन्म स्थान : बोन्ग बस्टी, कलिम्पोंग, पश्चिम बंगाल
निधन : 30 जुलाई, 2020
पिता : निमग्ये शेरिंग तमसांग
माता : नेर्मू तमसांग पेजिंगमू
पत्नी : पद्मश्री हिलदामित लेपचा (द्वितीय विवाह)

जीवन परिचय - घोड़े की काठी के आकार के टीले और घुमावदार तीस्ता नदी की सुंदरता को खुद में समेटे पश्चिम बंगाल स्थित कलिम्पोंग हिल स्टेशन भारत के लोकप्रिय पर्यटक स्थलों में से एक है. बर्फ से ढके पहाड़ों से घिरा और विश्व की तीसरी सबसे ऊंची चोटी कंचनजंगा को अपने शिखर पर लिए कलिम्पोंग अपने प्राकृतिक सौंदर्य और औपनिवेशिक आकर्षण से सैलानियों को जम कर आकर्षित करता है. इसी खूबसूरत स्थान के एक ट्राइबल परिवार में जन्में सोनम शेरिंग लेपचा.

सविंधान (सिक्किम) अनुसूचित जनजाति आदेश, 1978 के आलोक में सिक्किम की जनजातियाँ है - भूटिया, लेपचा, लिंबू और तमांग. वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार सिक्किम में अनुसूचित जनजाति की कूल संख्या 1,11,405 है, जिसमें लेपचा जनजाति की आबादी 40,568 है. सोनम शेरिंग इसी लेपचा समुदाय से संबंधित हैं.

सोनम शेरिंग के बड़े भाई चोडुप शेरिंग लेपचा सेना में थे, उनकी मृत्यु द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान हो गई थी. वर्ष 1945, युवा सोनम तेशरिंग लेपचा 17 वर्ष की आयु में 10 गोरखा राइफल्स, पालमपुर में राइफलमैन के रूप में भर्ती हुए और देश की सीमा पर 8 माह 9 दिन अपनी सेवाएँ दी.

इनके तीन छोटे भाई हैं - ताशी, कुटेन, नुर्गी एवं एक छोटी बहन है मर्मिट. सोनम शेरिंग ने दो विवाह किए, इनके पाँच पुत्र और पाँच पुत्रियाँ हैं.

योगदान - अपने प्रशंसकों के मध्य रोंग लापोन (लेपचा मास्टर) के नाम से लोकप्रिय सोनम शेरिंग को "लेपचा - संस्कृति" के पुनरुद्धार का श्रेय जाता है. लेपचा में "लापोन" शब्द का अर्थ होता है - शिक्षक. वे कहते थे कि “जिस प्रकार तारे कभी धरती पर नहीं गिर सकते, वैसे ही लेपचा संस्कृति कभी लुप्त नहीं हो सकती."

कला और संस्कृति से प्रेम करने वाला व्यक्ति यदि दार्जलिंग, गैंगटाक व कलिम्पोंग की यात्रा करे, तो उसकी सूची में प्राकृतिक दृश्यों के अलावा एक महत्वपूर्ण स्थान का नाम रहता है - लेपचा म्यूजियम. कलिम्पोंग खासमहल के एच० एल० दीक्षित रोड़ - 734301 में अवस्थित लेपचा म्यूजियम. जहाँ लेपचा समुदाय की जीवनशैली, संस्कृति और परम्पराओं को अद्भभुत रूप से दर्शाया गया है. संगीत के प्राचीन वाद्ययंत्र, प्राचीन हथियार, हस्तशिल्प वस्तुओं, पांडुलिपियों, दुर्लभ कलाकृतियों और धार्मिक विरासतों को संजोए हुए है लेपचा म्यूजियम. सिक्किम के गावों में घूम घूम कर इन सांस्कृतिक विरासतों को एकत्रित करने व संजोने का अद्वितीय कार्य किया है सोनम शेरिंग लेपचा ने. उनके संग्रह में एक विशेष बांसुरी है, जिससे पक्षियों की आवाज निकाली जा सकती है और मधुमक्खी के छाते तक पहुंचने के लिए रस्सी की पारंपरिक सीढ़ी दर्शकों को आकर्षित करती है.

इसी म्यूजियम के एक हिस्से में सोनम शेरिंग के पुत्र नोरबू के द्वारा संगीत विद्यालय का संचालन किया जाता है, जहाँ पारम्परिक संगीत के शौकीन युवाओं को गीत, संगीत व नाटक का प्रशिक्षण दिया जाता है.

बचपन से ही सोनम शेरिंग का झुकाव लोकगीतों व नृत्य की ओर रहा. मूलतः वे माटी से जुड़े कलाकार हैं. गांव के वयोवृद्ध ट्राइबल्स के पास लोकगीतों के सिक्के बिखरे पड़े थे, सोनम शेरिंग गीतों के उन बिखरे सिक्कों को एकत्र करने लगे. ट्राइबल होने के नाते प्रकृति से उनका स्वभाविक प्रेम रहा. धीरे धीरे लोकगीतों के जरिए वे हिमालय, पहाड़ों, झरनों, नदियों, वन्य जीवों और वनस्पतियों से भरे वनों की सैर करने लगे. सोनम शेरिंग
जन्म के समय गाए जाने वाले गीत गाते, वैवाहिक अवसर एवं त्यौहारों के वैसे लोकगीत गाया करते, जिनको लोग भुला बैठे थे. लेपचा समुदाय में ऐसे भी गीत हुआ करते थे, जिनको किसी की मृत्यु हो जाने पर की जाने वाली रस्मों रिवाज के दौरान गाया जाता है - "अमाक अप्रया वाम " , संभवतः आज की तारीख में सोनम तेशरिंग एकमात्र लोकगायक है, जो इस लेपचा लोकगीत को गाते होंगे.

गायन के साथ साथ वे वाद्ययंत्र भी बजाया करते, विशेषकर ऐसे वाद्ययंत्र जो विलुप्त हो चुके थे. असल में उन्हें प्राचीन विरासत के संकलन का शौक था, इसी क्रम में वे गांवो से प्राचीन वाद्ययंत्र लाया करते और प्रायोगिक तौर पर उसे बजाया करते. कविवर वृन्द ने लिखा भी है -

करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत जात तें, सिल पर परत निसान।।


यह दोहा सोनम शेरिंग पर सटीक बैठता है. गांव के बुजुर्गों के साथ रहते रहते वे लोकनृत्य में भी पारंगत होने लगे. विभिन्न पर्व त्योहारों पर आयोजित होने वाले सार्वजनिक कार्यकर्मों में सोनम शेरिंग को लोकगीत, संगीत, नृत्य व नाटक के लिए आमंत्रित किया जाने लगा. सिक्किम में लोक कलाकर के रूप में सोनम शेरिंग की ख्याति बढ़ने लगी. कुछ युवा लड़के लड़कियों को साथ लेकर उन्होनें एक सांस्कृतिक मण्डली का गठन कर लिया.

वर्ष 1949, स्वतंत्रता दिवस पर आयोजित एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में भाग लेने सोनम शेरिंग की टीम कोलकता पहुंची, जहाँ उनके प्रदर्शन की भरपूर सराहना हुई.

वर्ष 1954, सिक्किम की राजशाही द्वारा आयोजित गीत व नृत्य आयोजन में तत्कालीन चोग्याल (राजा) सर ताशी नामग्याल द्वारा उन्हें मुख्य संयोजक मनोनीत किया गया.

वर्ष 1955, उनकी सांस्कृतिक मण्डली ने दिल्ली में आयोजित एक सरकारी कार्यक्रम में तत्कालिन प्रधानमंत्री की उपस्थिति में बेहतरीन प्रदर्शन किया.

वर्ष 1956, सिक्किम की एक संगीत प्रतियोगिता में सोनम शेरिंग को प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ, जहाँ उन्होनें
लेपचा समुदाय के लोक वाद्ययंत्र "पुनटोंग पालित" (विशेष प्रकार की बाँसुरी) का शानदार वादन किया.

14 अक्टूबर 1960, सोनम शेरिंग लेपचा अपने समुदाय के पहले व्यक्ति थे, जिनके गाए हुए लोकगीतों का प्रसारण ऑल इंडिया रेडियो में हुआ.

वर्ष 1961, दार्जलिंग के संस्कृति विभाग में लेपचा कला प्रशिक्षक के रूप में नियुक्त हुए, जहाँ वे युवाओं को लेपचा गीतों व वाद्ययंत्रों का प्रशिक्षण देते थे.

सोनम शेरिंग को लेपचा ट्राइबल एसोसिएशन का सांस्कृतिक सचिव मनोनीत किया गया. लेपचा समुदाय के पुजारियों एवं दार्जिलिंग व सिक्किम के लेपचा एसोसिएशन के सहयोग से उन्होनें 6 नवंबर 1967 को "लेपचा सामुदायिक गीत" की प्रस्तुति की.

28 दिसंबर 1967 को दार्जिलिंग में आयोजित एक भव्य समारोह में उनके द्वारा प्रस्तुत नृत्य नाटिका "तिस्ता- रोन गीत" काफी लोकप्रिय हुआ, जो सिक्किम और दार्जिलिंग हिल्स की दो प्रमुख नदियों की उत्पत्ति पर आधारित था. उन्होनें 400 से अधिक लोक गीतों, 102 लोक नृत्यों और 10 नृत्य नाटकों का मंचन किया.

8 अक्टूबर, 1969 को दार्जिलिंग में आयोजित एक राष्ट्रीय स्तरीय आयोजन में सोनम शेरिंग ने लुप्तप्राय वाद्ययंत्र "तुनबुक" और "सुतसंग" बजाया.

सोनम शेरिंग को सिक्किम के संगीत वाद्ययंत्रों पर किए गए शोध के लिए पहचाना जाता है. उन्होंने सदियों पुराने रिकॉर्ड संकलित किए और लेपचा संगीत वाद्ययंत्रों पर बारह वर्षों तक शोध कार्य किया. साथ ही गांव के ट्राइबल युवाओं को उन वाद्ययंत्रों का प्रशिक्षण दिया.

सोनम शेरिंग का यह मानना है कि परस्थितियों में आ रहे बदलाव के कारण ट्राइबल्स अपनी प्राचीन संस्कृति, परंपरा, भाषा और साहित्य को भूल रहे हैं. बिना संस्कृति वाला आदमी , बिना रीढ़ की हड्डी के आदमी की तरह होता है. अतएव उन्होनें लुप्त होते लेपचा साहित्य के पुनरुद्धार व संरक्षण के लिए मासिक पत्रिका "अचूले" का प्रकाशन आरम्भ किया. जिसका पहला अंक 2 अप्रेल, 1967 को तत्कालीन साइक्लोस्टाइल पद्धति द्वारा मुद्रित किया गया, यह प्रकाशन 1969 तक जारी रहा.

वर्ष 1970 में लेपचा भाषा में उनकी पुस्तक " लेपचा और उनके स्वदेशी संगीत वाद्ययंत्र" प्रकाशित हो चुकी है.
वर्ष 1977 में सिक्किम सरकार के शिक्षा विभाग द्वारा उनकी पुस्तक "लेपचा लोक गीत" का प्रकाशन किया गया. वर्ष 2011 में सोनम शेरिंग द्वारा संकलित लेपचा लोकगीतों की पुस्तक "वोम जाट लिंग छायो" प्रकाशित हुई.

अन्य कृतियाँ -
सम्पादन -


(i) Muk-Zek-Ding-Rum-Faat - प्रकृति की प्रार्थना
(ii) Tungrong Hlo Rum Faat - लेपचा समुदाय के पवित्र पर्वत की प्रार्थना
(iii) Lyaang Rum Faat - पृथ्वी, माटी, जल व सूर्य की प्रार्थना
(iv) Sakyoo Rum Faat - पौराणिक कथाएँ एवं प्रार्थना
(v) Tungbaong Rum Faat - देवी देवताओं की प्रार्थना
(vi) Chyu Rum Faat - हिमालय की प्रार्थना

नृत्य नाटिका -

(i) Rangyoo-Rangeet - दो नदियों पर आधारित
(ii) Nahaan Bree - लेपचा विवाह पद्धति
(iii) Konkibong - कलिम्पोंग के गांव से सम्बन्धित

हिमालय की गोद में बसे दार्जिलिंग और सिक्किम के गांव गांव की व्यापक यात्रा करने वाले बहुमुखी प्रतिभा के धनी सोनम शेरिंग लेपचा लेखक, गीतकार, संगीतज्ञ, नर्तक, लोक कलाकार, शिक्षक, शोधकर्ता, इतिहासकार व पूर्व सैनिक थे.

सम्मान एवं पुरस्कार - लोक गीत संगीत में अनुपम योगदान के लिए सोनम शेरिंग लेपचा को वर्ष 2007 में कला के क्षेत्र में देश का चौथा सर्वोच्च सम्मान पद्मश्री प्रदान किया गया. वर्ष 2011 में, गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर के 150 वें जन्म दिवस पर संगीत नाटक अकादमी ने देश के 100 प्रख्यात कलाकारों को "टैगोर अकादमी रत्न" से विभूषित किया, उस सम्मानित सूची में लोक कलाकार लेपचा का नाम टॉप 50 में अंकित किया गया. उन्हें 1995 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार भी प्रदान किया जा चुका है. सिक्किम सरकार के संस्कृति विभाग ने 1995 में उनकी उत्कृष्ट उपलब्धियों पर उन्हें "नूर मायेल कोहोम" सम्मान प्रदान किया. लेपचा संस्कृति के संरक्षण और संवर्धन हेतू उनके अतुलनीय समर्पण के लिए स्वदेशी लेपचा ट्राइबल एसोसिएशन द्वारा वर्ष 1973 में उन्हें "नूर मायेल" उपाधि से सम्मानित किया गया.