Sunday, 1 January 2023

जनजातीय संस्कृति और परंपराओं से समृद्ध भारतवर्ष



कहते हैं कि अपने देश की संस्कृति हजारों साल पुरानी है, लेकिन इतिहासकारों ने संस्कृति के असल संवाहको के साथ न्याय नहीं किया। मेरा मानना है कि भारतीय संस्कृति और सभ्यता की सबसे बड़ी संवाहक हैं यहां की विभिन्न जनजातियां, जो स्वयं में इतिहास की उन अनकही कहानियों को समेटे हुए हैं, जिन्हें कलमबद्ध नहीं किया जा सका। भारत के विभिन्न राज्यों में फैली इन जनजातियों ने ना केवल पौराणिक संस्कृति और परंपराओं को कायम रखा है बल्कि आधुनिकता की इस अंधी दौड़ में भी सांस्कृतिक विरासतों को सहेज रखा है।

जब भी हम आदिवासियों की बात करते हैं, तो नामचीन साहित्यकारों द्वारा बताया जाता है कि उनकी दुनिया हाशिए पर है, वे भूखे नंगे वंचित हैं, वे शहर कस्बे की बजाए पेड़ पौधे, नदी तालाब, पहाड़ कंदराओं और जंगलों में रहते हैं, वे दुनिया की तमाम आधुनिक सुख सुविधाओं से महरूम हैं और समाज की मुख्यधारा से अलग विचरते हैं। किंतु वास्तविकता में ऐसा नहीं है। शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र होगा जिसमें जनजातियों ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा ना की हो। जनजातीय संस्कृति सदैव से समृद्ध व समुन्नत रही है। झारखंड, बिहार और ओड़िशा के जनजातीय समुदाय की परंपराओं और संस्कृति से तो हम गाहे बेगाहे अवगत होते रहते हैं, चलिये आज बात करते हैं देश के अन्य राज्यों की, जहां के जनजातीय लोग स्वदेशी संस्कृति और विरासत को मजबूत करने में जुटे हैं।

त्रिपुरा -
त्रिपुरा की एक जनजाति है रेयांग (ब्रू), जिनकी संस्कृति उनके प्रसिद्ध लोकनृत्य 'होजागीरी' में परिलक्षित होती है। इस सामूहिक नृत्य में 4- 6 युवतियां  सिर पर पारंपरिक बोतल 'बोडो' और हाथ में मिट्टी के पारंपरिक दीपक 'कूपी' लेकर नृत्य करती हैं। साथ ही पुरुष पवन वाद्ययंत्र 'सुमी' बजाते हुए गायन करते हैं। वर्ष 2021 में देश की इस सांस्कृतिक विरासत को सहेजने के लिये रेयांग जनजाति के विख्यात लोकनृत्य गुरु माइत्याराम (सत्यराम) रेयांग को पद्मश्री सम्मान से विभूषित किया गया।

कहते हैं कि परंपराएं समुदायों का इतिहास बताती हैं और ऐसी ही एक पुरातन संगीत परंपरा के वाहक हैं त्रिपुरा की डारलोंग जनजाति के 102 वर्षीय थांगा डारलोंग, जिन्होंने ना केवल पारंपरिक वाद्य यंत्र 'रोजेम' को संरक्षित किया है,  बल्कि अपने समुदाय के युवाओं को उसमें पारंगत भी कर रहे हैं। रोजेम बांस का बना एक वाद्य यंत्र होता है। थांगा डारलोंग जब उसपर धुन छेड़ते हैं तो लोगों के पांव थिरकने लगते हैं। वर्ष 2019 में भारत सरकार ने उनको देश के चौथे सर्वोच्च सम्मान पद्मश्री से अलंकृत किया।

जमाटिया जनजाति के स्व. बेनीचंद्र जमाटिया त्रिपुरा की एक आध्यात्मिक विभूति थे, उन्होंने कोकबोरोक भाषा में 
भगवान श्रीकृष्ण पर आधारित असंख्य भक्ति गीतों की रचना की। फूलों को एकत्रित कर माली जिस प्रकार माला गूंथता है, उसी प्रकार शब्दों को पीरोकर बेनीचंद्र ने लैटिन अंग्रेजी एवं कोकबोरोक भाषा में एक पुस्तक को आकार दिया। वे स्वनिर्मित 'तीन तारा वाद्ययंत्र' बजा कर अपनी रचनाओं का गायन भी किया करते थे। वर्ष 2020 में जनजातीय संस्कृति के संवाहक बेनीचंद्र जमाटिया को पद्मश्री से सम्मानित किया गया।

गुजरात -
सूरत शहर से जुड़े लोगों के सांस्कृतिक जीवन का अभिन्न हिस्सा है 'डायरो', जो वहां की एक लोक संगीत परंपरा है, जिसमें कलाकार लोक कथाएं गाते हैं। अपनी आवाज के चुंबकीय आकर्षण से लोगों को खींचने वाले चारण जनजाति के भीखुदान गोविंद भाई गढ़वी ने डायरो लोकगीतों की एक अशेष श्रृंखला निर्मित की है, जिसमें 350 से ज्यादा ऑडियो एल्बम होंगे। भीखुदान भाई की लोकप्रियता का आलम यह है कि गुजराती भाषा व साहित्य का कोई सार्वजनिक कार्यक्रम हो और वहां उनकी मौजूदगी ना हो, ये हो नहीं सकता। वर्ष 2016 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से विभूषित किया है।

चारण जनजाति के अप्रतिम गीतकार कवि काग को संत मोरारी बापू ने एक नया नाम दिया है - 'काग ऋषि'। वर्ष 1962 में पद्मश्री से अलंकृत भगत बापू और काग बापू के नाम से विख्यात कवि दुला भाया काग को इस सदी के वाल्मीकि की संज्ञा दी जा सकती है। आम बोलचाल की भाषा में कविताएं लिखने वाले भगत बापू कहा करते थे कि "कवि की कविता और धनुष का बाण, यदि दिल में ना उतरे, तो उसका उपयोग कैसा?"

वर्ष 1990 में कला के क्षेत्र में पद्मश्री से विभूषित भील जनजाति की पार्श्वगायिका दिवालीबेन पुंजभाई भील को 'गुजरात की कोयल' कहा जाता है। जीवन के प्रारंभिक संघर्ष के दिनों में एक दवाखाना में साफ सफाई का काम करने वाली दिवालीबेन ने भजन व लोकगीत गायन में विश्वभर में ख्याति प्राप्त की। उन्होंने ना जाने कितनी ही फिल्मों में पार्श्व गायिका के रुप में गीत गाए और उनके कई आडियो एल्बम रिलीज हुए। सदैव पारंपरिक वेशभूषा में रहने वाली, सादगी की प्रतिमूर्ति, देश विदेश में हजारों कन्सर्ट कर चुकी महान लोक कलाकार पार्श्वगायिका पद्मश्री दिवाली बेन की साड़ी का पल्लू भी कभी सर से नीचे नहीं सरका। ऐसे महान जनजातीय लोककलाकारों से ही भारतवर्ष का हर हिस्सा सांस्कृतिक और पारंपरिक रुप से समृद्ध है।

तेलंगाना -
तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में कोया आदिवासी समुदाय की विलुप्त हो रही कला 'कंचुमेलम-कंचुथलम' को पुनर्जीवित करने वाले साकीनी रामचंद्रैया एक मुखर लोक गायक और ढोल वादक हैं। कोया कलाकार रामचंद्रैया ने आदिवासी योद्धाओं एवं पुरखों की कहानियां कहते गीतों का एक वृहत संग्रह तैयार किया है। वर्ष 2022 में पद्मश्री से सम्मानित लोकगायक रामचंद्रैया अपने गीतों के जरिये जनजातीय समुदाय के इतिहास को नई पीढ़ी को सौंपने एवं देश की संस्कृति को समृद्ध करने का महान कार्य कर रहे हैं।

मोर पंख, हिरण के सींग, बकरी के खाल की पगड़ी, कृत्रिम दाढ़ी- मूंछें, शरीर पर राख और रंग बिरंगी पोशाकों से सजे हुए कलाकार दीपावली के समय जब 'गुस्सादी नृत्य' प्रस्तुत करते हैं, तो विदेशी पर्यटकों का जमावाड़ा लग जाता है। ऐसा लगता है मानो अपने देश की संस्कृति कितनी समृद्ध है जिसे देखने विदेशी भी आतुर रहते हैं। इसी 'गुस्सादी' नृत्य शैली के संवर्द्धन का श्रेय जाता है तेलंगाना की राजगोंड़ जनजाति के लोक नर्तक कनक राजू को, जिन्हें वर्ष 2021 में पद्मश्री से अलंकृत किया गया।

महाराष्ट्र -
महाराष्ट्र के सुप्रसिद्ध वरली चित्रकार जिव्या सोमा माशे को वर्ष 2011 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया। उन्होंने 1200 साल पुरानी वरली आदिवासी चित्रकला में इतनी ख्याति बटोरी है कि राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनकी पेंटिंग्स की कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। सुप्रसिद्ध साहित्यकार पद्मभूषण डा. रामकुमार वर्मा उन जैसे चित्रकारों के लिए ही कहा करते थे - "कवि और चित्रकार में भेद है। कवि अपने स्वर में तथा चित्रकार अपनी रेखा में जीवन के तत्व और सौंदर्य के रंग भरता है।"

सिक्किम -
सिक्किम की थांका चित्रकला को नई पहचान दिलाने वाले कलाकार उस्ताद खांडू वांगचुक भूटिया 350 से अधिक लोगों को थांका पेंटिंग्स, लकड़ी पर नक्काशी और कालीन बुनाई का प्रशिक्षण दे चुके है। सिक्किम, हिमाचल प्रदेश, लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश में प्रचलित कपास या रेशम पर बनी हुई थांगका पेंटिंग में भगवान बुद्ध और उनकी शिक्षाओं के साथ-साथ अन्य देवताओं एवं बोधिसत्व को दर्शाया जाता है। थांका चित्रकला को देश-विदेश में नई पहचान दिलाने वाले भूटिया जनजाति के वांगचुक भूटिया को वर्ष 2022 में पद्मश्री से अलंकृत किया गया है। 

सिक्किम सरकार के सांस्कृतिक मामलों व विरासत विभाग में कार्य करते हुए श्रीमती हिलदामित लेपचा ने अनेकों राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय सांस्कृतिक आयोजनों में भाग लिया।
भूटिया एवं नेपाली लोकगीत गायिका हिलदामित लेपचा
तुनबुक, सुतसंग, पालित केंग, नाईम ब्रीयोप पालित, तुंगदारबोंग जैसे कई प्रकार के पारंपरिक वाद्ययंत्र बजा लेती हैं। वे एक बेहतरीन लोक गायिका, संगीतकार, गीतकार, कवि, निबंधकार और नाटककार हैं, जिनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हुईं और लोकगीतों के एल्बम रिलीज हुए। देश की जनजातीय परंपरा को सहेजने व समुन्नत करने हेतु लेपचा जनजाति की हिलदामित लेपचा को वर्ष 2013 में पद्मश्री से विभूषित किया गया था।

अपने प्रशंसकों के मध्य रोंग लापोन यानी लेपचा मास्टर के नाम से लोकप्रिय सोनम शेरिंग को "लेपचा संस्कृति" के पुनरुद्धार का श्रेय जाता है। वे कहते थे कि 'जिस प्रकार तारे कभी धरती पर नहीं गिर सकते, वैसे ही लेपचा संस्कृति कभी लुप्त नहीं हो सकती।' सोनम शेरिंग को सिक्किम के संगीत वाद्ययंत्रों पर किए गए शोध के लिए पहचाना जाता है।उन्होंने सदियों पुराने रिकॉर्ड संकलित किए और लेपचा वाद्ययंत्रों पर शोध कार्य किया। उनके द्वारा स्थापित लेपचा म्यूजियम में लेपचा समुदाय की जीवनशैली, संस्कृति और परंपराओं को संजोंने का अद्भुत काम किया गया है। वर्ष 2007 में उन्हें देश का चौथा सर्वोच्च सम्मान पद्मश्री प्रदान किया गया।

पश्चिम बंगाल -
यूनेस्को द्वारा मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत की प्रतिनिधि सूची में भारत की 14 धरोहरों को अंकित किया गया है, जिनमें पुरुलिया का विश्वविख्यात छऊ नृत्य भी एक है। जिसके संवर्द्धक व प्रतिपादक भूमिज जनजाति के विख्यात छऊ नर्तक गंभीर सिंह मुडा को वर्ष 1981 में पद्मश्री से अलंकृत किया गया। उन्होंने देश के विभिन्न राज्यों के अलावा लंदन, फ्रांस, जापान एवं यूसए में भी  जनजातीय नृत्य कला का प्रदर्शन किया और स्वदेशी सांस्कृतिक विरासत को विदेशी मंचों तक पहुंचाया था।

असम -
बोड़ो संस्कृति की रक्षा के लिए सतत प्रयत्नशील डॉ. कामेश्वर ब्रह्मा को वर्ष 2016 में साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में पद्मश्री पदक से सम्मानित किया गया। जनजातीय समुदायों के सामाजिक-आर्थिक विकास जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर गंभीर साहित्य का सृजन करने वाले
बोड़ो जनजाति के डॉ. कामेश्वर ब्रह्मा ने बोड़ो समुदाय के बच्चों की उच्च शिक्षा के लिए अतुलनीय प्रयास किए। डॉ. ब्रह्मा ने बोड़ो भाषा एवं साहित्य के प्रति समर्पित संस्था बोड़ो साहित्य सभा के अध्यक्ष पद को सुशोभित करते हुये  अपने कार्यकाल में जनजातीय संस्कृति पर किए गए शोध कार्यों पर आधारित कई पुस्तकें प्रकाशित की।


मेघालय -
पाश्चात्य संगीत जैज़ में पारंगत नील हर्बर्ट नोंगकिंरिह विख्यात पियानोवादक हैं। शिलांग चैंबर चॉयर के संस्थापक
नील हर्बर्ट अंतरराष्ट्रीय मंचो पर विश्वविख्यात द लंदन कॉन्सर्टेंट और द वियना चैंबर ऑर्केस्ट्रा के साथ मिलकर कई कार्यक्रम कर चुके हैं। स्वदेशी संस्कृति को मजबूत करने का एक अप्रतिम उदाहरण पेश करते हुये मेघालय की मूल भाषा खासी को पुनर्जीवित करने के उद्देश्य से नोंगकिंरिह ने स्थानीय लोककथा पर आधारित एक गानबद्ध नाटक 'ओपेरा - सोहलिंगंगेम' लिखा और उसे संगीतमय किया, जो काफी लोकप्रिय हुआ। खासी जनजाति के विख्यात पियानोवादक नील हर्बर्ट नोंगकिंरिह को वर्ष 2015 में पद्मश्री से अलंकृत किया गया।

अपने सुमधुर खासी गीतों के माध्यम से समाज को संदेश देने वाले संगीतकार स्केनड्रोवेल सियमलियेह अपने चार तार वाले वाद्ययंत्र 'दुईतारा' की मधुर ध्वनि और भावपूर्ण गायन से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया करते थे। स्केनड्रोवेल सियमलियेह दुईतारा, वायलिन और गिटार के साथ खासी भाषा के गीतों में अपने समुदाय का इतिहास, पुरखों के किस्से, लोककथाएं, मूल मिथक और लोकगीत सुनाया करते थे। वे ना केवल गीतकार और संगीतकार बल्कि एक इतिहासकार भी थे, जिन्होंने खासी समुदाय के लुप्तप्राय इतिहास का सरंक्षण व संवर्द्धन किया। खासी जनजाति के अद्वितीय गीतकार स्व. स्केनड्रोवेल सियमलियेह को वर्ष 2009 में पद्मश्री से विभूषित किया गया।

नागालैंड -
स्वदेशी संस्कृति और विरासत को बचाने में जनजातियों का क्या योगदान है, यह रानी गाईदिन्ल्यू की स्टोरी पढ़कर समझा जा सकता है। नागाओं के कबीलों में एकता स्थापित कर संयुक्त मोर्चा बना कर अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ने वाली वीर रानी गाईदिन्ल्यू की निर्भीकता एवं ओजस्विता के कारण जनजातीय समुदाय में उन्हें देवी का दर्जा दिया जाता है। किंतु पीड़ा का विषय यह है कि आजाद भारत में भी उन्हें कई वर्षों तक जेल की सलाखों के पीछे और कई वर्षों तक भूमिगत रहना पड़ा। नागालैंड की लक्ष्मी बाई, पहाड़ियों की बेटी, रानी मां, जननेता, स्वतंत्रता सेनानी, समाजसेविका रानी गाईदिन्ल्यु 'हेराका संस्कृति' के सरंक्षण के लिए जीवनपर्यंत समर्पित रहीं। यशस्वी प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने 2015 में उनकी जनशताब्दी पर रुपए 5 एवं 100 के सिक्के जारी किए। रोंगमेई नागा (काबुई) जनजाति की रानी गाईदिन्ल्यू को वर्ष 1982 में पद्मभूषण से विभूषित किया गया था।

मध्यप्रदेश -
जिस भारत भवन के निर्माण के समय भील जनजाति की भूरी बाई बरिया ने बतौर मजदूर छः रुपए दिहाड़ी पर ईंटें ढोयी और पसीना बहाया, आज वहां के जनजातीय संग्रहालय में उनकी पेंटिंग लगी हुई है। उन्होंने पिथौरा चित्रकारी को ना केवल देश में बल्कि विदेशों में पहचान दिलवाई। विख्यात पिथौरा चित्रकार भूरी बाई बरिया
महान व पुरातन भील जनजातीय समुदाय की सांस्कृतिक विरासत को आगे बढ़ा रहीं हैं। महामहिम राष्ट्रपति द्वारा वर्ष 2021 में उन्हें देश के प्रतिष्ठित पुरस्कार पद्मश्री से सम्मानित किया गया।

यूके, जर्मनी, हालैंड, रूस, नीदरलैंड, इटली इत्यादि देशों की आर्ट गैलरी में गोंड पेंटिंग्स की धूम मचाने वाले भज्जू श्याम के कारण पाटनगढ़ गांव की तस्वीर बदल चुकी है। वहां के अधिकांश लोगों की आजीविका का मुख्य साधन गोंड पेटिंग बन चुकी है। चित्रकला के व्यवसाय से समृद्व हुए इस गांव में तकरीबन 100 परिवार और भोपाल में 40 कलाकार गोंड़ पेंटिंग्स बना रहे हैं। ब्रिटिश संस्कृति का प्रतिबिंब देशी मिजाज में अपने कैनवास पर उकेरने वाले गोंड कलाकार भज्जू श्याम की कलाकृतियां दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं। गोंड - परधान जनजाति के विश्वविख्यात गोंड कलाकार व लंदन जंगल बुक के आर्टिस्ट भज्जू श्याम को कला के क्षेत्र में वर्ष 2018 में पद्मश्री से अलंकृत किया गया।

राजस्थान -
कल्पना कीजिये कि जो लड़की पैदा होते ही रेत में दफना दी गई, किंतु कुदरत ने उसे जीवित रखा। आगे चलकर अपने ही लिखे गानों को खुद ही गाने वाली और उन पर नृत्य करने वाली उसी लड़की गुलाबो सपेरा ने ऐसी ख्याति पाई कि डेनमार्क, ब्राजील, यूएसए, जापान, यूके इत्यादि 165 देशों में उनके कार्यक्रम आयोजित हो चुके हैं। नृत्य संगीत में वैश्विक पहचान बनाने वाली गुलाबो ने प्रसिद्ध फ्रांसीसी संगीतकार थियरी ’टिटी’ रॉबिन के साथ एसोसिएट होकर कई कार्यक्रम किए। विश्व फलक पर पारंपरिक कालबेलिया नृत्य की पहचान स्थापित करने वाली गुलाबो सपेरा ने कई हिंदी फिल्मों में नृत्य किया। उनका मानना है कि 'स्टेज ही उनके लिए मंदिर है और दर्शक ही उनके भगवान हैं।' कालबेलिया जनजाति की अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त नृत्यांगना
गुलाबो सपेरा को उनके सांस्कृतिक अवदान के लिए वर्ष 2016 में पद्मश्री से अलंकृत किया गया।

छत्तीसगढ़ -
तानपुरा लेकर मंच पर एक कोने से दूसरे कोने तक घूमते हुए लोक गायिका तीजन बाई जब एक विशेष संवाद शैली में पंडवानी अर्थात पांडवों की कथा सुनाती हैं और पौराणिक कथाओं को वर्तमान किस्सों से जोड़ देती हैं, तो श्रोता मंत्रमुग्ध हो स्वयं को उस कहानी का पात्र समझने लगते हैं। संगीत साधक तीजन बाई विदेशों में भारत की सांस्कृतिक राजदूत हैं। वे जापान, जर्मनी, इंग्लैड, स्विट्जरलैंड, इटली, रूस, चाईना इत्यादि चालीस से ज्यादा देशों में इस गौरवशाली जनजातीय कला का प्रदर्शन कर चुकी हैं। परधान (गोंड) जनजाति की पंडवानी लोक गीत-नाट्य की विख्यात महिला कलाकार डॉ. तीजन बाई को देश की संस्कॄति को समृद्ध करने हेतु किये गये अविस्मरणीय योगदान हेतु वर्ष 2019 में पद्मविभूषण से अलंकृत किया गया।

अरुणाचल प्रदेश -
देश की विरासत को नई पीढ़ी को सौंपने के क्रम में किये जा रहे कार्यों की सूची में जबतक शेरदुकपेन जनजाति के येशे दोरजी थोंगछी के योगदान की चर्चा ना हो, यह सूची पूर्ण नहीं हो सकती। पूर्वोत्तर में सबसे लंबे समय तक उपायुक्त पद पर आसीन रहने वाले येशे दोरजी थोंगछी पूर्वोत्तर के पहले लेखक हैं, जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से जनजातीय समुदायों की आंतरिक कहानियों से बाहरी दुनिया को परिचित करवाया है। साहित्य सुधी येशे ने सरल भाषा व हृदय को छूती संवाद शैली में कई नाटकों का लेखन किया। कलमकार येशे ने जनजातीय परंपरा के अंतर्गत बहु पति (एक से अधिक पति), पुनर्विवाह, विधवा विवाह, पुर्नजन्म, आंचलिक संस्कृति जैसे कई अनछुए पहलूओं पर कलम चलाई। इनकी कहानियों पर कई फिल्में बनी, जिनको राष्ट्रीय अवॉर्ड्स भी मिले। आदिवासी मुद्दों पर लिखने वाले असमिया उपन्यासकार येशे दोरजी थोंगछी को वर्ष 2020 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया।

कर्नाटक -
भारत का प्राचीन इतिहास गवाह है कि हमारी विरासतें ना केवल गीत संगीत में बल्कि पेड़ पौधे जंगलों पहाड़ों में भी बिखरी पड़ी हैं। संजीवनी बूटी हो या बाबा रामदेव की आयुर्वेदिक दवाईयां, सबका मूल जंगलों में ही है। जंगलों में बिखरे ज्ञान का जितना भान जनजातियों को है, शायद ही अन्य किसी को हो। हक्काली जनजाति की 78 वर्षीय पर्यावरणविद् तुलसी अम्मा उर्फ तुलसी गौड़ा ‘जंगलों की एनसाइक्लोपीडिया’ के रूप में कर्नाटक में विख्यात है। वे पिछले 60 वर्षो में एक लाख से ज्यादा पौधे लगा चुकी हैं। तुलसी अम्मा को पेड़ पौधों की विभिन्न प्रजातियों का  व्यापक ज्ञान है। जल, जंगल और जीवन के सरंक्षण के लिए संकल्पित जनजातीय समुदाय के लिए यह कहना अनुचित नहीं होगा कि 'जंगल हैं तो आदिवासी हैं, और आदिवासी हैं तभी जंगल हैं।' जंगल के जीवंत ज्ञानकोष तुलसी गौड़ा को वर्ष 2020 में पद्मश्री से विभूषित किया गया।

कन्नड़ भाषा व साहित्य के मूर्धन्य विद्वान डॉ. डोड्डारंगे गौड़ा शब्द शिल्पी हैं, जो फिल्मी गानों के बोल लिखते समय ऐसे शब्दों का प्रयोग करते हैं, जो कानों से उतरकर होठों पर आ जाए और लोगों के मन मस्तिष्क पर छा जाएं। उन्होंने कन्नड़ फिल्मों के लिए 500 से अधिक गीत रचे। डॉ. गौड़ा ने फिल्मों के लिए संवाद एवं सौ से अधिक टेली-धारावाहिकों की पटकथाएं लिखी। कर्नाटक विधान परिषद् के मनोनीत सदस्य रहे डॉ. गौड़ा ने विपुल लेखन कार्य किया। उनकी 80 से ज्यादा साहित्यिक पुस्तकें प्रकाशित हुईं और कई ऑडियो एलबम रिलीज हुए। भारतीय साहित्य को समृद्ध करने वाले
गौड़ालु जनजाति के विख्यात फिल्मी गीतकार डॉ. डोड्डारंगे गौड़ा को वर्ष 2018 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया।

जनजातीय संस्कृति और परंपराओं से समृद्ध भारतवर्ष में
हर विषय पर गीत हैं, जन्म से लेकर शादी तक, सालगिरह से लेकर मृत्यु तक, हर त्योहारों पर, रोजमर्रा के कामों में जैसे पानी लाना हो या जलावन की लकड़ी, खेतो में काम करने के दौरान, यानि हर अवसर पर गीत गाये जाते हैं। इस विरासत को संभाल कर अगली पीढ़ी को सौंपने के अप्रतिम कार्य में जुटी हैं हल्लाकी जनजाति की लोक गायिका सुकरी बोंमागौड़ा, जो स्वयं में एक गीत बैंक है। खेतों में मजदूरी करने वाली सुकरी बोंमागौड़ा सुर कोकिला सुकरी अज्जी के नाम से विख्यात हैं। वर्ष 2017 में उनको पद्मश्री से अलंकृत किया गया।

केरल -
कहते हैं कि भारत में प्राकृतिक चिकित्सा का इतिहास उतना ही पुरातन है जितनी स्वयं प्रकृति, हमारे पौराणिक ग्रंथों एवं वेदों में भी चिकित्सा और सर्जरी के जिक्र हैं। इन्हीं पुरातन विरासतों को आज भी किसी ने सहेज कर रखा है तो वे हैं जनजातीय समुदाय के लोग। केरल के तिरुवनंतपुरम के कल्लार जंगलों में रहने वाली कानीकर जनजाति की लक्ष्मीकुट्टी वहां 'वनमुथास्सी' के नाम से विख्यात है, इस मलयालम शब्द का हिंदी अर्थ है - 'जंगल की दादी'। लुप्तप्राय होती जा रही पारंपरिक चिकित्सा पद्धति की ज्ञाता लक्ष्मीकुट्टी अपने झोंपडे में 500 से ज्यादा तरह की हर्बल दवाईयां तैयार करती हैं। सांप काटने के बाद उपयोग की जाने वाली दवाई बनाने में तो उनको महारत हासिल है। उनके चमत्कारिक चिकित्सकीय ज्ञान का लाभ लेने विदेशी भी कल्लार पहुंचते हैं। 'पॉइजन हीलर' लक्ष्मीकुट्टी ने वनों में छिपी प्राकृतिक संपदा के औषधीय मूल्यों पर एक पुस्तक भी लिखी है। वर्ष 2018 में उनको देश के चौथे सर्वोच्च सम्मान पद्मश्री से विभूषित किया गया।

मणिपुर -
भारत के कोने कोने में सांस्कृतिक विरासतें बिखरी पड़ी हैं, कुछ नष्ट हो चुकी हैं, कुछ नष्ट होने के कगार पर है। किंतु यदि कहीं कोई इन विरासतों को सहेजने में सजग है तो वो है आदिवासी समुदाय। इसी क्रम में मणिपुर की तांगखुल जनजाति की संगीत परंपरा के अंतर्गत एक विशेष नागा वाद्ययंत्र 'यंगकहुई' बजाया जाता है, जिसमें चार छेद होते हैं। बांस द्वारा निर्मित यह पारंपरिक बांसुरी लगभग तीन फीट लंबी एवं बहुत पतली होती है और उसमें घोड़े की पूंछ के बालों से बने तार होते हैं। इस परंपरा को पुनर्जीवित करने वाले गुरु रेवबेन माशंग्वा एक प्रतिभाशाली गायक एवं संगीतकार होने के साथ साथ लोक संगीत शोधकर्ता और वाद्ययंत्र निर्माता भी हैं। विदेशी संगीत की तर्ज पर उन्होंने ब्लूज और बल्लाड रिदम पर आधारित कई नागा आदिवासी लोकगीत तैयार किए हैं। वर्ष 2021 में तांगखुल नागा जनजाति के विख्यात लोक गायक व संगीतज्ञ गुरु रेवबेन माशंग्वा को पद्मश्री से अलंकृत किया गया।

ये तो कुछेक उदाहरण हैं, ऐसे हजारों महान जनजातीय लोगों से हमारा देश का कोना कोना पटा पड़ा है, जो ना केवल देश की विरासत और परंपराओं को सहेजे हुये हैं बल्कि आने वाली पीढ़ियों को सौंपने हेतु प्रयासरत हैं।  स्वदेशी संस्कृति और विरासत को मजबूत करने में जो भूमिका जनजातीय समुदाय अदा कर रहा है, उसका अंश मात्र भी राज्य सरकारें नहीं कर पा रही हैं। जनजातीय समुदाय के गीत संगीत, लोकनृत्य, औषधीय ज्ञान, प्रकृति प्रेम का ही नतीजा है कि हमारा भारतवर्ष संस्कृति और परंपराओं से समृद्ध है।

संदर्भ सूची :
1. व्यक्तिगत साक्षात्कार
2. आलेख में अंकित पात्रों के क्षेत्र के स्थानीय निवासियों से वार्तालाप के आधार पर
3. आलेख में अंकित पात्रों के सोशल मीडिया पृष्ठ
4. यूट्यूब पर उपलब्ध संबंधित पात्र के इंटरव्यूज
5. भारत सरकार की वेबसाईट
क. www.padmaawards.gov.in
ख. गृह मंत्रालय की वेबसाईट
ग. विभिन्न केंद्रीय मंत्रालयों की वेबसाईट
घ. विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्रियों/राज्यपालों के सोशल मीडिया पृष्ठ एवं राज्यों की ऑफिशियल वेबसाईट

Key Words - जनजातीय समुदाय, जनजाति, पद्मश्री, आदिवासी संस्कृति, जनजातीय परंपरा, जनजातीय लोककला

लेखक संदीप मुरारका जनजातीय समुदाय के सकारात्मक पहलुओं पर लिखनेवाले कलमकार एवं शोधकर्ता हैं।