प्रश्न : क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि वर्ग विशेष पर लिखकर आप पुरस्कार विजेताओं का वर्गीकरण कर रहे हैं?
संदीप : फलों के राजा आम की कई किस्में बाजार में उपलब्ध रहती है़- हाफूस, लंगड़ा, सिंदूरी, मालदा, चौसा, बंगनपल्ली, हिमसागर, दशहरी, बादामी, केशर, मनकुराड़ इत्यादि। आम की सभी प्रजातियाँ रसभरी हैं, सभी का अपना अपना स्वाद है़। किंतु किसी को लंगड़ा पसंद है़, तो किसी को सिंदूरी। उसी प्रकार पद्म पुरस्कार प्राप्त हर शख्शियत सम्मानित है़। किंतु बतौर पाठक सबके विषय में पढ़ पाना असंभव है़। अतः वर्गीकरण के आधार पर मैं इन प्रेरक व्यक्तित्वों की जीवनियों का एक नया पाठकवर्ग तैयार करने का प्रयास कर रहा हूँ।
प्रश्न : पद्म पुरस्कार विजेताओं की जीवनियों को लिखने के पीछे मुख्य उद्देश्य क्या है़?
संदीप : अपने देश में हर वर्ष हजारों छात्र छात्राएँ पीएचडी करते हैं। किंतु अधिंकाश के विषय समान हैं। जबकि आदिवासियों की संघर्ष गाथा बहुत कठिन है़, फूस के झोपड़े से निकलकर पुरस्कृत होने के लिए राष्ट्रपति भवन तक पहुँचने की कहानी को थीसिस में बदला जाए। मैं चाहता हूँ कि आदिवासियों में जो प्रेरक व्यक्तित्व हैं, उनपर शोध हो। इसके लिए जो बुनियादी जानकारी चाहिए, वो मेरी पुस्तकों में उपलब्ध है़। मेरी पुस्तकें शोधार्थियों के लिए नए द्वार खोले एवं संदर्भ पुस्तक बने, यही मेरा उद्देश्य है़।
प्रश्न : आप स्वयं ना डॉक्टरेट हैं, ना एमए, ना प्रोफेसर, ना शिक्षक, फिर भी आप लेखन कार्य कर रहे हैं। ऐसे में आपके लेखन की कितनी स्वीकार्यता होगी?
संदीप : क्या आपने कभी सुना है़ कि डॉ. गोस्वामी तुलसीदास या डॉ. कबीर या प्रो. सूरदास या प्रो. रहीम, नहीं ना। भारतेन्दु हरिश्चंद्र को आधुनिक हिंदी खड़ी बोली गद्य-साहित्य का जनक माना जाता है, किंतु उन्होंने तो स्कूली शिक्षा भी प्राप्त नहीं की थी। ना प्रेमचंद एमए एमफिल थे और ना ही दिनकर। साहित्य पुरोधा मैथिलीशरण गुप्त और माखनलाल चतुर्वेदी ने तो मैट्रिकुलेशन भी नहीं किया था।
मेरी पुस्तकों को पढें, आप पाएंगे कि कई ऐसे साहित्यकार हुए, जिनको पद्म सम्मान से विभूषित किया गया। किंतु वे ना तो डिग्री होल्डर हैं और ना कभी स्कूल कॉलेज जा पाए। यथा: पद्मश्री भीखुदान गोविंद भाई गढ़वी, पद्मश्री कवि दुला भाया काग, पद्मश्री बेनीचंद्र जमाटिया, पद्मश्री दादूदान गढ़वी, पद्मश्री पूर्णमासी जानी इत्यादि।
प्रश्न : आपको साहित्य सृजन की प्रेरणा कैसे मिली ?
संदीप : मेरे पिताजी को पढ़ने का बहुत शौक था, उनके पास हजारों पुस्तकें थी। गुरुदत्त की तो लगभग सारी पुस्तकें उनके संग्रह का हिस्सा थी। कहा जा सकता है़ कि मुझे पढ़ने की प्रेरणा बचपन में ही अपने पिता से मिली। मेरी प्रारंभिक शिक्षा जमशेदपुर के सबसे पुराने साहित्यिक केंद्र जगतबंधु सेवासदन पुस्तकालय द्वारा संचालित विद्यालय से हुई, सो मेरा जुड़ाव पुस्तकालय व वहाँ की साहित्यिक गतिविधियों से होता चला गया। वर्ष 1993 में मैंने मैट्रिकुलेशन किया, तबतक कविताओं से परिचय हो गया था। आकाशवाणी के विभिन्न कार्यक्रमों में सहभागिता एवं पत्रकारिता का दौर प्रारंभ हो चुका था।
प्रश्न : पत्रकारिता !
संदीप : जी, पत्रकारिता। वर्ष 1993 -95 में लगभग डेढ़ साल तक मैंने दैनिक आज में बतौर पत्रकार कार्य किया। मेरे विषय थे सामयिक आलेख, साक्षात्कार, साहित्यिक कार्यक्रमों की रिपोर्टिग। उन दिनों आकाशवाणी में एक कार्यक्रम आता था युवा वार्ता, मुझे कई बार उसके संचालन का सौभाग्य प्राप्त हुआ है़। उनदिनों पंद्रह मिनट के कार्यक्रम के पचहत्तर रुपए प्राप्त हुआ करते थे।
प्रश्न : वर्ष 1995 के बाद सीधे 2020 में पुस्तक, बीच में आप कहाँ खो गए?
संदीप : व्यवसायिक परिवार में जन्म लेने के कारण मेरा भी झुकाव व्यवसाय की ओर बढ़ता चला गया। व्यवसाय और पारिवारिक व्यस्तताओं के कारण लेखन कार्य भले ही बाधित हुआ, किंतु अध्ययन जारी रहा। जमशेदपुर पुस्तक मेले से प्रत्येक वर्ष मैं 8-10 पुस्तकें अवश्य खरीदता रहा हूँ। समय समय पर विभिन्न विषयों पर आर्टिकल्स भी लिखते रहा और स्थानीय समाचार पत्रों में प्रकाशित होता रहा। ईश्वरीय प्रेरणा से वर्ष 2017 से मेरा मन पुराणों के अध्ययन में लगने लगा। श्रीमद्भागवत, श्रीमद्भगवद्गीता, वाल्मीकि रामायण, श्रीरामचरितमानस, लवकुश चरित, विष्णु पुराण, शिव पुराण, वराह पुराण, देवी पुराण, ब्रह्म वैवर्त पुराण इत्यादि कई धार्मिक ग्रंथो के अध्ययन से लेखन के प्रति मेरी रुचि जागृत हो गई।
प्रश्न : इसका मतलब आप हिंदूवादी धार्मिक विचारधारा के हैं?
संदीप : निश्चित तौर पर। मेरा जन्म सरस्वती पूजा बसंत पंचमी की रात्रि का है़। लेकिन यह कहना गलत होगा कि मैं हिंदूवादी हूँ। मैं सभी धर्मों का समान रुप से सम्मान करता हूँ। मेरी हाई स्कूल की शिक्षा सेंट मेरीज मिशनरी स्कूल से हुई है़। मेरा मानना है़ कि जो अनुशासन आप मिशनरीज में सीख सकते हैं वो और कहीं संभव नहीं है़।
साथ ही मैं यह भी जोड़ता हूँ कि हिंदू धर्म का जितना नुकसान हमारे धर्मगुरुओं व मठाधीशों ने किया है़, उतना किसी दूसरे ने नहीं किया। एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत में 122 प्रमुख भाषाएँ हैं एवं 1599 अन्य बोलियाँ हैं। वहीं विश्व के 195 देशों में लगभग 7,117 भाषाएँ बोली जाती हैं। बीबीसी न्यूज के एक आर्टिकल के अनुसार भारत में लगभग 3,000 जातियाँ एवं 25,000 उपजातियाँ हैं। हर जाति के अपने नियम, अपनी धार्मिक परम्पराएं, अपने देवी देवता, अपने रीति रिवाज, अपनी मान्यताएँ और अपनी धार्मिक पुस्तक है़। भारत में प्रचलित ये धार्मिक पुस्तकें या तो उस धर्म को मानने वाले लोगों की अपनी निजी भाषा में उपलब्ध है, या बहुत हुआ तो हिंदी, अंग्रेजी, बांग्ला और ओड़िया में प्रकाशित हुई है। अपने देश में एकमात्र "श्रीमद्भागवत गीता" ही ऐसा लोकप्रिय धार्मिक ग्रंथ है, जिसका अनुवाद लगभग 75 भाषाओं में हो पाया है। किंतु
चर्च ने अपने धार्मिक ग्रंथ "पवित्र बाइबिल" का अनुवाद विश्व की लगभग हर भाषा में करवाया। पूर्ण बाइबिल का अनुवाद विश्व की लगभग 704 भाषाओं में हो चुका है। वहीं इसके पदों एवं कुछ अंशो को 3,415 भाषाओं में अनुवादित किया जा चुका है। उसपर भी सबसे मुख्य बात कि यदि किसी को बाइबिल पढ़नी हो तो निःशुल्क उपलब्ध हो जाएगी। जबकि करोड़ रुपए खर्च कर आयोजित किए गए हिंदू धार्मिक कार्यक्रमों में भी आपको श्रीमद्भागवत गीता या श्रीरामचरितमानस निःशुल्क नहीं मिलेगी।
प्रश्न : आपकी विचारधारा क्या है़?
संदीप : स्वभावतः कहा जाए तो मैं लोहिया के विचारों से प्रभावित रहा हूँ। मैं स्वयं को समाजवादी मानता हूँ। किंतु वो समाजवाद जिसकी नींव श्रीराम ने रखी, शबरी के हाथों जूठे बेर खाए। वो समाजवाद जिसके प्रवर्तक महाराजा अग्रसेन रहे, जिन्होंने एक ईंट एक रुपया का सिद्धांत दिया। वो समाजवाद जिसके पैरोकार डॉ. राममनोहर लोहिया रहे। ना कि काशीराम, मायावती या आज की राजनीति वाला समाजवाद।
प्रश्न : साहित्यिक आयोजनों में आपकी उपस्थिति ना के बराबर रहती है़ ?
संदीप : ऐसा नहीं है़! मैं सामाजिक व्यक्ति हूँ, कई सामाजिक संगठनों में दायित्व पर हूँ। व्यवसाय व समाज के कार्यक्रमों के कारण व्यस्तता रहती है़। यदि किसी साहित्यिक कार्यक्रम में निजी तौर पर बुलावा रहता है़, तो अवश्य भाग लेता हूँ। हाँ यह बात सही है़ कि मैं बिना समुचित निमंत्रण किसी कार्यक्रम में नहीं जाता।
प्रश्न : आपने अधिकांश कविताओं में सरल और सहज शब्दों का प्रयोग किया है। क्यों ?
संदीप : भारीभरकम शब्द लिखने वाला ही साहित्यकार है़, यह सोचना गलत है़। आप गौर कीजिए कि बाबा नागार्जुन से लेकर कुमार विश्वास तक सरल एवं तुरंत समझ में आने वाले शब्दों का ही प्रयोग करते हैं। मेरा पाठक किसी विभूति के विषय में यदि एक बार पढ़ ले, तो वह उस पर खुलकर चर्चा कर सके। इसीलिए मैंने असाधारण व्यक्तित्वों की जीवनियों को साधारण शब्दों में लिखा है़।
प्रश्न : क्या आपको लगता है़ कि साहित्य की इस विशाल दुनिया में आपकी पुस्तकें स्थान बना पाएँगी?
संदीप : क्यूँ बनाना है़ स्थान ! मैं अपनी पुस्तकों को संग्रहालय या पुस्तकालय का हिस्सा बनाने में इच्छुक नहीं।मेरी पुस्तकें तो शब्द रूपी "तर्पण" है समाज की उन विभूतियों का जिनके बहुमूल्य योगदान को भुलाया नहीं जा सकेगा और "दर्पण" है वैसे जुझारु युवाओं के लिए जो लीक से हटकर कुछ अलग करना चाहते हैं। मैं चाहता हूँ कि यूपीएससी की तैयारी करने वाला छात्र मेरी पुस्तक ढूंढकर पढ़े। मैं चाहता हूँ कि कॉलेज में आयोजित वाद विवाद प्रतियोगिताओं में छात्र छात्राएँ मेरी पुस्तक से विषय उठाएँ। मैं चाहता हूँ कि मेरी पुस्तक सामयिक पत्रकारिता में काम आए।
प्रश्न : साहित्य के क्षेत्र में आप स्वयं को कहाँ पाते हैं ?
संदीप : साहित्य का क्षेत्र खेल के मैदान में आयोजित दौड़ प्रतियोगिता तो है़ नहीं कि मैं किस स्थान पर आया। यह एक खूबसूरत बगीचा है़, जिसमें कहीं कहीं रिक्त भूमि खोजकर मैं भी दो चार पौधे लगाना चाहता हूँ। मेरे द्वारा लिखी पुस्तकों को संदर्भ ग्रंथ मानकर शोधार्थी पीएचडी करेंगे, ये मेरे लिए गर्व की बात है़। मेरी पुस्तकों में अंकित संघर्ष गाथाओं से प्रभावित होकर जिस दिन कोई युवा पद्म सम्मान प्राप्त करने राष्ट्रपति भवन की ड्योढ़ी तक जा पहुँचेगा, मैं समझूंगा मुझे समुचित पारिश्रमिक प्राप्त हुआ।
प्रश्न : अपकी पहली प्रकाशित रचना कौन सी थी?
संदीप : काव्य संग्रह आँख खोलती सुबह में प्रकाशित कविता 'दियासलाई', वर्ष 1993 में प्रकाशित इस पुस्तक के संपादक थे स्व. शैलेश पांडेय एवं कथाकार राकेश मिश्र।
प्रश्न : इन दिनों क्या लिख रहे हैं ?
संदीप : पुस्तक शिखर को छूते ट्राइबल्स के चौथे भाग पर कार्य जारी है़। साथ ही उसके भाग 1 एवं 3 के अंग्रेजी अनुवाद की भी तैयारी चल रही है़।
प्रश्न : आपकी पुस्तकों के संबंध में कोई विशेष बात, जो आप पाठकों तक पहुंचाना चाहें?
संदीप : पूरे देश में एकरूपता लाने हेतु केंद्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा देवनागरी लिपि तथा हिंदी वर्तनी का मानकीकरण कर दिया गया है़। मैं प्रयासरत हूँ कि मेरा लेखन आईएस 16500 : 2012 के अनुसार हो। शिखर को छूते ट्राइबल्स भाग 3 एवं पद्म अलंकृत विभूतियाँ (मारवाड़ी/अग्रवाल) उसी पैटर्न पर लिखी गई हैं।
प्रश्न : आजकल पुस्तकों के पाठक कम होते जा रहे हैं, ऐसे में आपके मन में कभी यह नही आता कि क्यों लिखा जाए ?
संदीप : कम होते जा रहे हैं या बढ़ते जा रहे हैं? कल तक पूर्वोत्तर में कोई हिंदी बोलना नहीं चाहता था, आज वहाँ हिंदी पाँव पसार चुकी है। एक अनुमान के मुताबिक हिंदी विश्व में सबसे ज्यादा लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा है़। ऐसे में सवाल उठता है़ कि इन हिंदीभाषियों तक अपनी पुस्तक कैसे पंहुचायी जाए। और इस प्रश्न का एक ही जवाब है़ कि कुछ ऐसा लिखा जाए जो लीक से अलग हट कर हो।
प्रश्न : नवोदित साहित्यकारों के लिए क्या संदेश देना चाहेंगे?
संदीप : दो बात। पहला अध्ययन अवश्य करें, क्योंकि बिना पढ़े अच्छा लिखना संभव नहीं। दूसरा प्रतिदिन लिखें, चाहे एक ही वाक्य लिखें, पर अवश्य लिखें। लिखने की आदत नित्यकर्म जैसी होनी चाहिए, आदत छूटी, लिखना छूटा समझो।