Friday, 8 May 2020

पद्मश्री तुलसी मुण्डा


जन्म : 15 जुलाई 1947
जन्म स्थान : गांव काइन्सि, ब्लॉक केन्दुझरगढ़ सदर, जिला क्योंझर, ओड़िशा

जीवन परिचय - ओडिशा के एक छोटे से गांव काइन्सि के ट्राइबल परिवार में देश की आजादी के ठीक एक माह पूर्व डॉ. तुलसी मुण्डा यानी तुलसी आपा वहाँ के बच्चों के साक्षर भविष्य की उम्मीद लेकर जन्मी । दो भाई और चार बहनों से छोटी तुलसी को पिता का प्यार ना मिल सका । विधवा माँ के साथ उनके कामों में हाथ बंटाते हुए, चूल्हा चाकी माटी से खेलती तुलसी बड़ी हो रही थी , गांव में स्कूल तो था नहीँ, जो पढ़ाई करती । उस समय 12 साल की भी नहीँ रही होगी तुलसी, जब अपनी बहन के साथ दो जून की रोटी की तलाश में अपने गांव से 63 किलोमीटर दूर बड़बिल ब्लॉक के सेरेण्डा गांव में पहुंच गई । रोजगार तो मिला , पर क्या, आयरन ओर माइंस में मजदूरी, फूल से हाथ और पत्थर को तोड़ने का काज, और तनख्वाह कितनी , 2 रुपए प्रति सप्ताह यानी 29 पैसे प्रतिदिन । यदि मुद्रास्फीति की दर को देखा जाए तो 1959 से 2020 में लगभग 7634% * की वृद्धि हुईं है, यानी आज के दृष्टिकोण से भी मात्र 22.43/- प्रतिदिन । ये आंकड़ा देना इसलिए जरूरी है, क्योंकि कुछ विद्वान कहेंगे कि उस जमाने में 29 पैसे बहुत होते थे । परन्तु इससे इतर सच्चाई यह है कि जंगलो के मालिकों को ही मजदूर बना दिया गया, उन्ही की खानों से लोहा निकालकर, उन्ही के खून से भट्टी जलाकर, लोहा गलाया गया, और ये काम बदस्तूर जारी है ।

इसी बीच वर्ष 1961 में लडकियो की शिक्षा के लिए समाज में जागरूकता फैलाने के उद्देश्य से समाजिक कार्यो के लिए प्रतिबद्ध निर्मला देशपांडे, मालती चौधरी और रोमा देवी ओडिशा आई, संयोगवश उनकी मुलाकात 14 वर्षीय मजदूर तुलसी से हुईं, जो इतना अक्षरज्ञान जरूर चाहती थी कि साप्ताहिक मजदूरी देते समय माइंस का मुंशी उससे कितने रुपयों पर अँगूठा लगवाता है और देता कितना है , यह पता रहे। गरीबी और भूख इंसान को जल्दी समझदार बना देती है, तुलसी अशिक्षित थी, उसे किताबी ज्ञान नहीँ था, किन्तु इन महिलाओं के सम्पर्क में आकर उसे शिक्षा का महत्व समझ में आने लगा । तुलसी की नई यात्रा प्रारम्भ होने लगी, राज्य के विभिन्न हिस्सों में चल रहे समाजिक शैक्षणिक संघर्ष में तुलसी उनके साथ भाग लेने लगी । वर्ष 1963 में भूदान आंदोलन पदयात्रा के दौरान विनोबा भावे ओड़िशा पहुँचे । गरीब ग्रामीणों के जीवन को उत्कृष्ट बनाने के लिए आचार्य विनोबा की प्रतिबद्धता में युवती तुलसी उनके पदचिन्हों पर चल पड़ी । उस पदयात्रा पर तुलसी ने विनोबा से वादा किया कि वह जीवन भर उनके दिशानिर्देशों और सिद्धांतों का पालन करेगी। तुलसी दी ने सभी ट्राइबल्स को अपना परिवार माना, अविवाहित रहीं ।


योगदान - लगभग एक साल बाद वर्ष1964 में आचार्य विनोबा के आदर्शों और लक्ष्यों से उत्साहित और उनकी सामाजिक सेवा प्रशिक्षण से लैस हो कर तुलसी सेरेण्डा गांव लौटी और माइंस में कार्यरत ट्राइबल श्रमिकों के बच्चों के लिए महुआ वृक्ष के तले एक स्कूल खोला ।

ट्राइबल्स बहुल इलाकों की जितनी अनदेखी हुईं है, वह पीड़ा एक ट्राइबल ही समझ सकता है । सेरेण्डा गांव को चयन करने का कारण यह नहीँ था कि तुलसी आपा ने इस गांव में मजदूरी की, बल्कि कारण यह था कि उन्होनें गांव के दर्द को ठीक से समझा । वर्ष 2011 की जनगणना के दौरान सेरेण्डा गांव की कूल जनसंख्या 2282 है , जिसमें 63% लोग ट्राइबल हैँ ।

लेकिन यह सफर इतना आसान नहीँ था, बच्चे अपने माता पिता के साथ माइंस में लौह अयस्क चुनने का कार्य किया करते थे । तब तुलसी आपा ने रात्रि विद्यालय प्रारम्भ किया, स्वयं घर घर जाकर श्रमिकों के घरों से बच्चों को बुलाकर लाती, गांव के मुखिया समझदार थे, और आने वाली पीढ़ी के लिए चिन्तित भी, धीरे धीरे बच्चे स्कूल में जुटने लगे । पढ़ाई प्रारम्भ हुईं, देश के स्वतंत्रता आन्दोलन के किस्से, महान नेताओं और महापुरुषों की कथा कहानियाँ सुनाकर, यानी चरित्र निर्माण कार्यशाला से । धीरे धीरे रात वाली कक्षाएँ दिन में लगने लगी, ट्राइबल्स अपने बच्चों को पूरा दिन तुलसी आपा की देखरेख में स्कूल में छोड़कर काम पर चले जाया करते, तुलसी मुड़ी और सब्जी बेचा करती, वही मुड़ी वह बच्चों को भी खिलाया करती, अब 30 बच्चे जुटने लगे थे ।

दो तीन ऐसे ग्रामीण नवयुवक भी साथ जुड़ गए, जो प्राथमिक शिक्षा प्राप्त थे, वे भी छोटे बच्चों को अक्षर ज्ञान करवाते । खर्च बढ़ने लगा, लेकिन जहाँ चाह वहाँ राह, ग्रामीणों ने स्कूल को मदद के रूप में चावल देना शुरू कर दिया । बच्चों का व्यवहार बदल रहा था, वे साफ स्वच्छ रहने लगे, ग्रामीण माता पिता को यह बदलाव भा रहा था । गर्मी की कड़ी धूप और बारिश में महुआ के पेड़ के नीचे स्कूल का संचालन असम्भव था, इसका उपाय भी ट्राइबल ग्रामीणों ने ही निकाला, 1966 में पहाड़ के पत्थरों को काटकर गांव के बाहर एक भवन तैयार किया गया, उस पर पैन्ट से नाम लिखा गया ' आदिवासी विकास समिति ' ।

तुलसी आपा ने उड़ीसा के खनन क्षेत्र में एक विद्यालय स्थापित कर भविष्य के सैकड़ों ट्राइबल बच्चों को शोषित दैनिक श्रमिक बनने से बचाया है। समय के साथ टाटा स्टील एवं त्रिवेणी के अलावा वैसी कम्पनियों ने अपने निगमित समाजिक उत्तरदायित्व (सी.एस.आर.) के तहत मदद करना आरम्भ कर दिया, जो उस क्षेत्र में खनन कार्य कर रही थीं ।

शिक्षा के प्रति समर्पित तुलसी आपा निःस्वार्थ भाव से अनवरत सक्रिय रहीं , अगले 50 वर्षों में, उनके प्रयास से 17 स्कूलों की स्थापना हुईं, उस ट्राइबल क्षेत्र के 100 किलोमीटर के दायरे में लगभग 25000 लड़के लड़कियों को शिक्षित करने का श्रेय तुलसी को जाता है । आज आदिवासी विकास समिति स्कूल 10 वीं कक्षा तक शिक्षा प्रदान करता है , प्रतिवर्ष 500 से अधिक छात्र छात्राएं मैट्रिक की परीक्षा पास करते हैँ, जिनमें आधे से अधिक लड़कियां होती हैं।

तुलसी आपा का मानना ​​है कि ट्राइबल्स की दासता के कारण हैँ - गरीबी, बेरोजगारी,नशा, अंधविश्वास और भय , किन्तु सबसे मुख्य कारण है - निरक्षरता । हमारा देश भले आजाद हो गया है, किन्तु गावों में आज भी मानसिक गुलामी है और सभी समस्याओं का जड़ है अशिक्षा । डॉ तुलसी ने समाज सेवा, शिक्षा के प्रसार, ग्रामीणों के जीवन स्तर को ऊपर उठाने और नशा उन्मूलन अभियान में ही अपना सर्वस्व जीवन परमार्थ में अर्पित कर दिया ।

सम्मान- ट्राइबल्स के मध्य साक्षरता के प्रसार के लिए विख्यात सामाजिक कार्यकर्ता तुलसी मुण्डा को वर्ष 2001 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी के कार्यकाल में पद्मश्री से सम्मानित किया गया ।
उन्हें 2008 में कादिम्बनी सम्मान प्रदान किया गया । महामहिम उपराष्ट्रपति ने 10 जून 2009 को तुलसी आपा को लक्ष्मीपत सिंहानिया- आई आई एम लखनऊ राष्ट्रीय नेतृत्व पुरस्कार से सम्मानित किया । 2011 में ओडिशा डेयरी फाऊंडेशन द्वारा तुलसी मुण्डा को समाज सेवा के लिए ओडिशा लिविंग लीजेंड अवार्ड प्रदान किया गया था । सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ ओडिशा , कोरापुट के तृतीय दीक्षांत समारोह में 1 जुलाई 2013 को तत्कालिन केंद्रीय मन्त्री, मानव संसाधन विभाग द्वारा तुलसी मुण्डा को डाक्टरेट की मानद उपाधि प्रदान की गई । फरवरी 2016 में द टेलीग्राफ द्वारा इन्हें ट्रू लिजेण्ड्स अवार्ड से सम्मानित किया गया ।

निर्माता अनुपम पटनायक एवं निर्देशक आमीया पटनायक द्वारा उनके जीवन पर आधारित 121 मिनट की बायोपिक 'तुलसी आपा' में उनकी भूमिका वर्षा नायक ने अदा की है, इस फिल्म का प्रीमियर 2015 में 21वें कोलकाता अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में सम्पन्न हुआ, जहाँ इसे भरपूर प्रशंसा मिली । 2016 में चतुर्थ तेहरान जैस्मीन इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के अलावा शिमला, बेंगलुरु, नासिक एवं हरियाणा में भी इस फिल्म की स्क्रीनिंग की गई और फिर 19 मई 2017 को भारत के सिनेमाघरों में रिलीज हुईं । नवम्बर 2019 से एमेजॉन प्राईम वीडियो पर आने वाली पहली ओडिया मूवी है तुलसी आपा ।


*Inflation rate in India between 1959 and today has been 7,633.95% 

Wednesday, 6 May 2020

पद्मश्री भज्जू श्याम


जन्म : 1971
जन्म स्थान : गांव पाटनगढ़, जिला डिंडौरी, मध्यप्रदेश
वर्तमान निवास : भोपाल, मध्यप्रदेश
माता : मात्रे सिंह
पत्नी : दीपा श्याम


जीवन परिचय - ट्राइबल जाति गोंड की एक शाखा है 'प्रधान' । जब ग्रामीण कृषकों की फसल तैयार हो जाती थी, तो प्रधान लोग घर घर जाकर पुराने किस्से कहानी सुनाया करते, देवी देवताओं की कथा सुनाते, उनकी वंशावली बताते - इसी परम्परागत ट्राइबल परिवार में जन्मे भज्जू सिंह श्याम । अपने गांव की स्कूल से10वीं कक्षा तक की पढ़ाई करने के बाद भज्जू के पास गांव में कोई जीविका का साधन नहीँ था, सो सोलह वर्ष की आयु में अमरकंटक चले गए, वहाँ पौधे लगाने का काम मिला पर भज्जू वहाँ टिक नहीँ पाए । वहाँ से भज्जू भोपाल चले गए और चौकीदार की नौकरी ज्वाइन कर ली, किन्तु एक दिन भोर में सोते हुए पकड़ लिए गए, उनकी तनख्वाह काट ली गई, उन्होने उस नौकरी को छोड़ दिया और इलेक्ट्रिशियन का कार्य करने लगे, पर मन उसमें भी नहीँ रमा । क्योंकि भज्जू के अंदर का कलाकार हिलौरे भर रहा था ।

भज्जू के दो भाई और एक बहन हैँ, इनकी माँ अपनी परम्परा के अनुसार गोंड त्यौहारों में दीवार, आंगन और लकड़ी के दरवाजों में लिपाई पुताई किया करती थीं, सफेद, पीली, गेरु मिट्टी से की जाने वाली इस कलाकारी को ढींगना कहते हैँ , इस कार्य में भज्जू अपनी माँ का सहयोग करते थे, कहा जा सकता है कि उनके भीतर के कलाकार को उनकी माँ ने ही पहला अवसर प्रदान किया था । भज्जू की पत्नी दीपा भी कलाकार हैँ, इनके एक पुत्र नीरज और एक पुत्री अंकिता हैँ ।

भज्जू के चाचाजी जनगढ़ सिंह श्याम ने कम उम्र में ही गोंड कलाकृति में अपना विशिष्ट स्थान बना लिया था, उनकी पेंटिंग्स की एक्जीबिशन लगने लगी थी, वे मात्र 22 वर्ष की उम्र में 1980 में मध्य प्रदेश के प्रसिद्ध कला व सांस्कृतिक केंद्र एवं संग्रहालय 'भारत भवन' से जुड़ चुके थे, उनके पास गोंड आर्ट के आर्डर आने लगे थे, उन्होने गांव से कुछ लोगों को अपने सहायक के रूप में जोड़ लिया था, उन्होने भज्जू को भी 1993 में अपने पास बुला लिया । जनगढ़ सिंह श्याम स्केच बनाया करते और भज्जू उनमें रंग भरा करते, धीरे धीरे भज्जू पॉइंट भी करने लगे । लगभग तीन वर्ष तक भज्जू यही करते रहे और जनगढ़ श्याम के साथ ही रहा करते ।

बाघ, हिरण, कछुए, मगरमच्छ जैसे पशु , पेड़ पौधे, पत्तियाँ, ठाकुर देव, बाड़ा देव, कलसिन देवी आदि अन्य गोंड देवी देवताओं को अपने कैनवास पर उकेरने वाले जनगढ़ की गोंड कलाकृति 'जनगढ़ कलम' की लोकप्रियता और माँग देश विदेश में बढ़ रही थी, भज्जू श्याम की भी कुछ पेंटिंग्स तैयार हो चुकी थी, उनके चाचा और उनके सहयोगियों की गोंड पेटिंग्स की एक प्रदर्शनी दिल्ली में आयोजित हुई, जिसमें भज्जू की पाँच पेंटिंग्स रुपए 1200/- में बिक गई ।

उपलब्धियाँ - और फिर सफर प्रारम्भ हुआ भज्जू की लोकप्रियता का, वर्ष 1998 में पेरिस में आयोजित ट्राइबल आर्ट प्रदर्शनी 'मूसी डेस आर्ट्स डेकोरेटिफ्स' में उनको आमंत्रण मिला । वर्ष 2001 में विख्यात क्यूरेटर पद्म भूषण राजीव सेठी उन्हें लंदन के एक रेस्तरां की दीवारों पर एक म्यूरल्स (भित्ति चित्र) बनाने के लिए ले गए । भज्जू और राम सिंह इन दो कलाकारों ने 'मसाला जोन' रेस्टूरेंट में दो महीनों तक अद्भभुत काम किया, यह काम उनके लिए एक वर्कशॉप (कार्यशाला) की तरह था, उन्होने ऐक्क्रेलिक कलर से दीवारों पर पेड़ पौधे पत्तियों को बिल्कुल अलग तरह से उकेरा, जिसकी भरपूर सराहना हुई ।

जब वो भारत लौटे, तो लोगों से अपने लंदन भ्रमण का अनुभव साझा किया और अपने लंदन प्रवास के दौरान हुए अनुभवों व यादों को गोंड शैली में कैनवास पर उकेरा । इसी बीच किसी कार्यशाला के दौरान उनकी मुलाकात चेन्नई के पब्लिकेशन हाउस तारा बुक्स की संस्थापक गीता वोल्फ से हुई, उन्होने भज्जू की लंदन प्रवास यादो पर आधारित पेंटिंग्स देखी और देखती रह गईं, उन पेंटिंग्स में छिपी कामर्शियल संभावनाओं को गीता वोल्फ ने पहचाना और उनको एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया । नवम्बर 2004 में तारा बुक्स ने 48 पृष्ठ की 'द लंदन जंगल बुक' नाम से पेंटिंग्स का संकलन प्रकाशित किया, जो अत्यधिक सराहा गया, ना केवल भारत में इसका दूसरा एडिशन प्रकाशित हुआ बल्कि यूरोप , फ्रांस, नीदरलैंड, इटली, कोरिया, ब्राजील, मेक्सिको, स्पेन में विभिन्न भाषाओं में यह पुस्तक छपी और खूब बिकी, अनुमानतः इसकी 35000 प्रतियां बिक चुकी हैँ । अब तक भिन्न भिन्न देशों और भाषाओं में उनकी 12 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैँ । इनकी पुस्तक द नाइट लाइफ ऑफ ट्रीज को बोलोग्ना रागज्‍जी पुरस्‍कार प्राप्‍त हुआ है , इस पुस्तक में दुर्गाबाई और राम सिंह उरवेली के साथ मिलकर भज्जू ने कार्य किया । भज्जू की अन्य पुस्तकें हैँ - ऑरिजिन्स ऑफ आर्ट : द गोंड विलेज ऑफ पाटनगढ़, अलोन इन द फॉरेस्ट, दैट्स हाऊ आई सी थिंग्स, द फ्लाइट ऑफ मेरमेड । भज्जू ने गोंड समुदाय की कहानियों को समेटते हुए एक पुस्तक भी लिखी है 'क्रिएशन', जिसका प्रकाशन मार्च 2015 में हुआ ।

उनकी हर पेंटिंग के पीछे एक कहानी या संस्मरण छिपा है । द लंदन जंगल बुक के कवर पर छपी तस्वीर में एक मुर्गा और लंदन के एलिजाबेथ टॉवर को दर्शाया गया है । गांव में लोगों को समय का आभास मुर्गे की बांग से होता है तो लंदन में समय बताने के लिए एलिजाबेथ टॉवर पर बिग बेन घड़ी लगी है , दोनोँ का एक ही काम है, इन दोनोँ कल्पनाओं को मिश्रित कर भज्जू ने कैनवास पर उतार दिया, जिसकी सराहना पूरे यूरोप में हुई ।



भज्जू लंदन की जिस होटल में ठहरे हुए थे और जिस किंग क्रॉस में अवस्थित मसाला जोन रेस्टूरेंट में कार्य कर रहे थे, वहाँ आना जाना एक लाल रंग की 30 नम्बर की बस से किया करते थे, उनकी कल्पना की दौड़ान ने माना कि यह बस एक वफादार साथी की तरह है, जो रास्ता नहीँ भटकती, उन्होने गोंड शैली में उस बस का चित्रण एक कुत्ते के रूप में किया, जो कलाप्रेमियों को बहुत भाया ।

भज्जू ने देखा कि लंदन में धरती के ऊपर जितने लोग नहीँ दिखते, उससे ज्यादा लोग अण्डरग्राउण्ड मेट्रो रेल में दौड़ रहे हैँ, ट्राइबल्स केंचुआ को पाताल का देवता मानते है, भज्जू ने अपनी कल्पनाशक्ति से मेट्रो रेल और केंचुआ का सम्मिश्रण उकेर दिया, कलाप्रेमियों को इस पेंटिंग ने काफी आकर्षित किया।

बादलों के ऊपर उड़ता हुआ हाथी, जिसके पंख लगे हों, इस कल्पना को पहली बार भज्जू ने ही कैनवास पर उतारा । भज्जू की विख्यात पेंटिंग्स हैँ - सेड कैट, द मून एट नाइट, लिव्स, व्हेन टू टाइम्स मीट, द किंग ऑफ द अंडरवर्ल्ड, द मिरक्ल ऑफ फ्लाइट, बीकमिंग ए फॉरनर, द एग ऑफ ओरिजिन्स, द अनबॉर्न फिश, एयर, द बर्थ ऑफ आर्ट, द सैक्रेड सीड्, द होम ऑफ द क्रिएटर, स्नेक्स एण्ड अर्थ, फैट कैट, जर्नी ऑफ द माइंड । ये पेंटिंग्स इतनी पसंद की गई कि इनकी हजारॉ प्रतियाँ प्रकाशित हुईं ।



नवम्बर 2004 में ही भज्जू की पेंटिंग्स की प्रदर्शनी म्यूजियम ऑफ लंदन में लगाई गई, जो तीन माह तक चली, वहाँ इनकी पुस्तक ने इनको विश्वव्यापी ख्याति दिलवाई और फिर तो प्रारम्भ हो गया भज्जू की कलाकृतियों के विश्वभर में प्रदर्शनियों का दौर । यूके, जर्मनी, हालैंड, रूस इत्यादि कई देशों की आर्ट गैलरी में भज्जू की कला की धूम मच गई । वर्ष 2005 में इटली के विख्यात शहर मिलान की अर्टेयुटोपिया गैलरी 'प्रोविंसिया डि मिलानो' में , नीदरलैंड के शहर हेग में सालाना आयोजित होने वाले लोकप्रिय 'क्रॉसिंग बॉर्डर फेस्टिवल' में, लंदन के द म्यूजियम ऑफ डॉकलैंड्स एवं नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम में आयोजित उनकी प्रदर्शनियाँ चर्चित रहीं ।

भज्जू श्याम की एकल प्रदर्शनी 'माँ मात्रे' की लोकप्रियता बढ़ते जा रही है, वर्ष 2016 में ओजस आर्ट्स नई दिल्ली में, 2017 कनाड़ा में, 2018 हॉन्गकॉन्ग, 2019 भारत भवन भोपाल में गोंड आर्ट छाया रहा । देश विदेश के कई निजी एवं संस्थागत संग्रहालयों में भज्जू की पेंटिंग्स ने अपना विशिष्ट स्थान बनाया है । भज्जू पहले ट्राइबल कलाकार हैँ जिन्होंने सेंट आर्ट इण्डिया फ़ाऊंडेशन के साथ लोदी डिस्ट्रिक्ट दिल्ली में अपनी कला प्रदर्शित की ।

एक ओर भज्जू श्याम की कला शैली में निखार आता चला गया, उनकी व गोंड पेंटिंग्स की लोकप्रियता व माँग विदेशो में बढ़ती गई, दूसरी ओर उनके गांव पाटनगढ़ के लोगों में गोंड पेटिंग के प्रति जुड़ाव बढता गया, आज पाटनगढ़ समृद्ध हो रहा है, वहाँ के लोगों की आजीविका का मुख्य साधन गोंड पेटिंग है, इस कला व व्यवसाय से गांव में तकरीबन 100 परिवार और भोपाल में 40 कलाकार जुड़े हैँ ।



सम्मान - ब्रिटिश संस्कृति का प्रतिबिंब अपने कैनवास पर उकेरने वाले दुनिया भर में प्रसिद्ध गोंड कलाकार भज्जू श्याम को 2018 में पद्मश्री अवार्ड से सम्मानित किया गया । वर्ष 2001 में इन्हें मध्यप्रदेश सरकार ने 'बेस्ट इंडिजिनस आर्टिस्ट' का अवार्ड दिया था, 2008 में इटली के बोलोग्ना चिल्ड्रेन बुक फेयर में द नाइट लाइफ ऑफ ट्रीज के लिए, वर्ष 2011 में इन्हें ब्राजील में क्रेसकर मैगजीन द्वारा बेस्ट चिल्ड्रेन बुक अवार्ड एवं वर्ष 2015 में विख्यात जयपुर साहित्य महोत्सव में ओजस आर्ट सम्मान से सम्मानित किया गया । रविवार, 28 जनवरी 2018 को प्रधानमंत्री ने मन की बात में खुले दिल से भज्जू श्याम की तारीफ की ।


























Sunday, 3 May 2020

पद्मश्री 'जंगल की दादी' लक्ष्मीकुट्टी


जन्म : 1943
जन्म स्थान : कल्लार वन क्षेत्र, जिला तिरुवनंतपुरम, केरल
वर्तमान निवास : कल्लार, जिला तिरुवनंतपुरम, केरल
पिता : चथाडी कानी
माता : कुन्जु थेवी
पति : माथन कानी

जीवन परिचय - पर्यटकों को आकर्षित करने वाले केरल के तिरुवनंतपुरम के कल्लार जंगलों में रहने वाली ट्राइबल महिला 'लक्ष्मीकुट्टी' वहाँ 'वनमुथास्सी' के नाम से विख्यात है । वनमुथास्सी एक मलयालम शब्द है जिसका हिन्दी अर्थ है - 'जंगल की दादी' । वे जंगल के दो किलोमीटर भीतर बसी एक ट्राइबल कॉलोनी में बांस और ताड़ के पत्तों की झोपड़ी में रहती है और उस झोपड़ी का नाम उन्होनें 'शिवज्योति' रखा है । लक्ष्मीकुट्टी को बचपन में पिता का प्यार नहीँ मिला, जब वे मात्र दो वर्ष की थी तब उनके पिता चल बसे । चार भाई बहनों में सबसे छोटी लक्ष्मीकुट्टी का बचपन संघर्षमय रहा, एक ओर अपनी माँ को कड़ी मेहनत करते देखती , दूसरी ओर गांव से 9 किमी दूर वीधुरा गांव में अवस्थित सरकारी स्कूल में पढ़ने जाती । उस स्कूल में कक्षा पांचवी तक पढ़ाई करने के बाद कुशाग्र बुद्धि लक्ष्मीकुट्टी कल्लार के एकल विद्यालय में एक अनुशासनप्रिय कठोर शिक्षक इंचियम गोपालन से पढ़ने लगी और 8 वीं कक्षा तक पढ़ी ।

केवल 16 वर्ष की आयु में ही लक्ष्मीकुट्टी का विवाह उनके सगे ताऊ के बेटे माथन से हुआ । लक्ष्मीकुट्टी का दाम्पत्य जीवन लगभग सफल रहा, इनके तीन पुत्र हुए, धरणीन्द्रन, लक्ष्मणन और शिवा । किन्तु धरणीन्द्रन की मृत्यु वन में हाथियों द्वारा कुचले जाने से हो गई, वहीँ शिवा भी अपने पीछे एक पुत्री पूर्णिमा को छोड़कर हार्टअटैक से ईश्वर के धाम को सिधार चुके हैँ, पति माथन की मृत्यु भी 2016 में हो गई थी, अब लक्ष्मीकुट्टी अपने दूसरे बेटे लक्ष्मणन, जो रेलवे में टिकट परीक्षक हैँ , के साथ रहती हैँ ।

लक्ष्मीकुट्टी के ताऊ सह ससुर स्थानीय चिकित्सक थे, लक्ष्मी उन्हें सहयोग किया करती, उन्होने लक्ष्मी के भीतर छिपी प्रतिभा को पहचाना और उन्हें चिकित्सा के क्षेत्र में प्रोत्साहित करने लगे । लक्ष्मीकुट्टी का झुकाव जड़ी बूटी व झाड़ियों की तरफ बढ़ता गया । समय के साथ साथ लक्ष्मीकुट्टी को पाँच सौ से ज्यादा तरह के औषधीय गुणों वाले पौधों का गहरा ज्ञान हो गया । मलयालम, संस्कृत, हिंदी और अंग्रेजी की जानकार लक्ष्मीकुट्टी ने वनों में छिपी प्राकृतिक सम्पदा के औषधीय मूल्यों के गहन अध्ययन पर आधारित एक पुस्तक लिख ड़ाली 'नाट्टारीवूकल कट्टारीवूकल' , जिसका प्रकाशन वर्ष 2007 में हुआ । जिसके साथ ही लक्ष्मीकुट्टी चर्चा में आई, एक बार स्थानीय कवि सम्मेलन के मंच पर उनकी पुस्तक का उदाहरण देते हुए केरल की प्रसिद्ध कवियत्री सुगाथा कुमारी ने कहा कि -

'कभी लिखना बंद मत करो , अपने शब्दों के माध्यम से अपना संघर्ष जारी रखना चाहिए '

योगदान - जंगल के बीच वेंचिपारा नदी के समीप शिवज्योति , यानी लक्ष्मीकुट्टी का घर, गाय के गोबर से लीपी हुई कच्ची जमीन वाला झोपड़ा, जिसके छोटे से किचन में रखा है लकड़ी का एक बड़ा सा चूल्हा, झौपडे के हर कोने में फैली जड़ी-बूटियाँ, पत्तियाँ और जड़ें , चारों ओर फैली आयुर्वेदिक औषधियों की मनभावन गंध, पास ही देवी पार्वती का मन्दिर - एक नजर में ये दृश्य है लक्ष्मीकुट्टी की क्लीनिक सह दवा निर्माण यूनिट का ।

लुप्तप्राय सी होती जा रही पारम्परिक चिकित्सा पद्धति की ज्ञाता लक्ष्मीकुट्टी अपने झोपडे में 500 से ज्यादा तरह की हर्बल दवाईयाँ तैयार करती हैँ । सालों भर ना केवल देश भर से बल्कि विदेशो से भी लोग उनसे इलाज करवाने एवं उनके चमत्कारिक चिकित्सकीय ज्ञान का लाभ लेने कल्लार पहुंचते हैँ ।

कल्लार के वनक्षेत्र के कोने कोने में घूमकर औषधीय पौधों को खोजने वाली लक्ष्मीकुट्टी के मस्तिष्क में वहाँ के वन का मानचित्र अंकित हो गया है । वनों में साँप व विषैले जीव बहुतायत में पाए जाते हैँ, लक्ष्मीकुट्टी को सांप काटने के बाद उपयोग की जाने वाली दवाई बनाने में महारत हासिल है, इस दवा को बनाने की विधि उन्होने अपनी माँ से सीखी । पहले यदि किसी ग्रामीण को कोई साँप काट देता था, तो ग्रामीण उस साँप को पत्थरो से कुचल कर मार डालते थे, लक्ष्मीकुट्टी ने कहा कि कभी भी उस जीव को मारो मत , केवल पहचानो कि किस सरीसृप या कीड़े ने काटा है ताकि उपचार बेहतर हो सके । धार्मिक लक्ष्मीकुट्टी अपने मरीज के लिए प्रार्थना करती हैँ , दीपक जलाती हैँ और जिस विषैले जीव ने काटा हो, उसके लिए भी प्रार्थना करती है ।

अम्मा लक्ष्मीकुट्टी 'केरला फॉलक्लोर एकेडमी' में शिक्षण का कार्य भी कर रही हैँ, कई विश्वविद्यालयों में वे गेस्ट लेक्चरर की हैसियत से व्याख्यान देती है । साथ ही वे शौकिया कविताएँ और कहानियाँ भी लिखती हैँ । उन्होने अपने घर के आसपास काफी औषधीय पौधरोपण किया है ।

वैद्यरानी लक्ष्मीकुट्टी आमलोगों को कहती हैँ कि यदि सम्भव हो तो अपने किचन गार्डेन में या अपने घर के आंगन में या अपने फेक्ट्री परिसर में करीया पत्ता, हल्दी और मक्का अवश्य लगायें, इन तीनों में औषधीय गुण हैँ । करीया पत्ता वातावरण को शुद्ध करता है, वायु प्रदूषण को कम करता है वहीँ हल्दी शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को विकसित करती है और मक्का में कैंसर प्रतिरोधक क्षमता है ।

विश्वस्तरीय पहचान होने के बावजूद सादगी पूर्ण जीवन जीने वाली लक्ष्मीकुट्टी का यह मानना है कि इंसान को संतुलित जीवन जीना चाहिए, खुशी मिलने पर ना अत्यधिक प्रसन्न होना चाहिए और कष्ट मिलने पर ना अत्यधिक दुखी होना चाहिए । मंत्र हों या दवा हो अथवा रोग हो, सभी ईश्वर का स्वरूप हैँ , हमें पूरी श्रध्दा से उनका वन्दन करना चाहिए ।

'पॉइजन हीलर' लक्ष्मीकुट्टी बहुआयामी प्रतिभा की धनी हैँ , 76 वर्ष की आयु में भी सक्रिय लक्ष्मीकुट्टी चिकित्सक, शिक्षक, लेखिका, कवि , पर्यावरणविद, गहरे जंगलो की रक्षक एवं सबसे बड़ी बात कि वे एक ऐसी समाजसेविका हैँ जिनका कोई विकल्प नहीँ है ।

सम्मान - वनमुथास्सी यानी जंगल की दादी 'लक्ष्मीकुट्टी ' को पारम्परिक दवाइयों के क्षेत्र में सराहनीय कार्य के लिए वर्ष 2018 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया । रविवार, 28 जनवरी 2018 को प्रधानमंत्री ने मन की बात में लक्ष्मीकुट्टी की चर्चा की और यह भी कहा था कि आज हम 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' की बात करते हैं लेकिन सदियों पहले हमारे शास्त्रों में, स्कन्द-पुराण में कहा गया है कि एक बेटी 10 बेटों के बराबर होती है । वर्ष 2016 में भारतीय जैव विविधता कांग्रेस ने उनके योगदान को मान्यता दी। लक्ष्मीकुट्टी को केरल सरकार ने 1995 में 'नाट्टू वैद्य रत्न पुरस्कार' से सम्मानित किया था । केरल की ट्राइबल संस्कृति व सभ्यता से भलीभाँति परिचित वैद्यरानी लक्ष्मीकुट्टी को जवाहरलाल नेहरू ट्रॉपिकल बोटैनिकल गार्डन, केरल विश्वविद्यालय, केरल राज्य जैव विविधता बोर्ड, अंतर्राष्ट्रीय जैव विविधता केंद्र इत्यादि कई संस्थानों ने सम्मानित किया है।

Saturday, 2 May 2020

गंगा (लॉकडाउन पीरियड में)

हिमालय की चोटियों से निकलकर
तुम्हारे गांव गांव में डोलती गंगा
मैं गंगा
कल कल करती गंगा
कल कल बहती गंगा ।

मेरे ही पानी से खेती करते हो,
मेरे पानी से 400 तरह की मछलियाँ पाते हो,
अब तो मेरे पानी से बिजली भी बनाने लगे हो,
हरिद्वार हो या इलाहबाद मेरे ही पानी में नहाते हो,
बोतलों में भरकर मेरा पानी पूजा के लिए ले जाते हो, ऋषिकेश में रैफ्टिंग क्याकिंग स्पोर्ट्स भी करने लगे हो ।

पहले मेरे पानी से कमाया,
जब पेट नहीं भरा ,
तो मुझ पर पुल और बाँध बनाकर कमाया,
फिर पोर्ट बना कर कमाया,
फिर भी पेट नहीं भरा,
तो अब मेरी सफाई के नाम पर ही कमा रहे हो !

जानते हो ,
धरती के नुकीले पत्थरो से
स्वयं को चोट पहुंचाती हुई
2525 किलोमीटर बहती हूँ ।

क्यों ?
क्योंकि तुम मुझे माँ कहते हो,
माँ गंगा !

इसीलिए बहती हूँ
तुम्हें पीने का पानी देने के लिए,
तुम्हारी भूख मिटाने के लिए,
तुम्हारे खेतो को सींचने के लिए ।

और तुम !
एक ओर माँ कहते हो,
सुबह शाम आरती करते हो,
दूसरी ओर
डेली 3000 टन कचड़ा मेरे सर पर डाल देते हो ।

समय के साथ बुढ़ापा,
स्वाभाविक हैं, आना ही था ,
किन्तु बीमार नहीं थी मैं ।
अरे ! मेरे भारत में,
मेरे अपनों ने,
हाँ तुमने !
मुझे बीमार बना दिया ।

लेकिन आज तुम खुद डरे हुए हो
खुद से
खुद के पैदा किए हुए कोरोना से
कोविड 19 से !

घरों में कैद हो
गाड़ियां बन्द
फैक्ट्रियां बन्द
सबकुछ बन्द ।

सब चिन्तित हैँ....
पर सच कहूँ
मैं निश्चिन्त हूँ खुश हूँ !
मेरे ऊपर कचड़े का प्रेशर कम हो रहा है
मैं साफ हो रही हूँ
स्वयं प्रकृति मुझे साफ कर रही है
स्वयं समय मुझे साफ कर रहा है ।

मैं गंगा
कल कल करती गंगा
कल कल बहती गंगा
कही स्वर्णरेखा बनकर
कहीं कावेरी बनकर बहती गंगा ।

संदीप मुरारका
शनिवार, 2 मई' 2020 

पद्मश्री कमला पुजारी


जन्म : 1949
जन्म स्थान : जिला कोरापुट, ओड़िशा
वर्तमान निवास : गांव पटरापुट, जेयपोर से 15 किमी, बोईपारीगुड़ा के समीप, जिला कोरापुट, ओड़िशा


जीवन परिचय - ओडिशा के कोरापुट जिले के एक छोटे से गांव में ट्राइबल परिवार में जन्मी कमला पुजारी बचपन से ही खेतों की मिट्टी और बीजों के साथ खेलती हुई बड़ी हुई । इनोवेशन या एक्सप्रिमेण्ट्स केवल इंडस्ट्रीज में ही नहीँ होते, एक गरीब किसान का बच्चा अपने खेतॉ में भी कई नए प्रयोग करता है, कुछ वैसा ही था कमला का बचपन । कमला का परिवार पारम्परिक खेती से जुड़ा हुआ था, वही वर्षा के जल पर निर्भरता, वही रासायनिक खाद, वही सरकारी बीज , किन्तु कमला इन परम्परागत पद्धतियों को छोड़ने हेतू ओडिशा के जेयपोर में एमएस स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन से जुड़ गई, वहाँ उन्होने बुनियादी खेती की तकनीक सीखी। अनपढ़ होने के बावजूद कमला पुजारी ने धान के विभिन्न किस्म के संरक्षण को लेकर अपनी अलग पहचान बनाई है।

योगदान - एमएस स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन में प्रशिक्षण समाप्त होने के बाद कमला जैविक खेती में जुट गई । कमला स्वयं तो जैविक खेती करती ही थी , साथ ही गांव के अन्य किसानों को भी रासायनिक उर्वरकों का उपयोग बंद करने के लिए प्रोत्साहित करने लगी। जैविक खेती के लिए समर्पित कमला पुजारी ने फाउंडेशन के सहयोग से अपने गांव की कुछ अन्य महिलाओं के साथ मिलकर एक बीज बैंक की स्थापना की ।

कमला और उनकी सहयोगी ग्रामीण महिलाओं ने कुछ समूह बनाए और आस-पास के गांवों में घर-घर जाकर जैविक खेती के बारे में जागरूकता फैलाने लगी । किसानो ने पाया कि रासायनिक खाद का उपयोग छोड़ने पर उनके खेतों की मिट्टी की उर्वरता पहले की अपेक्षा बढ़ने लगी है । नतीजा, कमला के प्रयासों के परिणामस्वरूप पटरापुट एवं आस पास के कई गावों में किसानों ने रासायनिक खाद का इस्तेमाल करना बन्द कर दिया ।

कमला ने लुप्तप्राय और दुर्लभ प्रकार के 100 से ज्यादा बीज जैसे धान, हल्दी, तिल्ली, काला जीरा, महाकांता, फूला , घेंटिया आदि एकत्र किए हैं। विशेषकर कमला ने धान की वैसी देशी किस्मों का एकत्रण व सरंक्षण किया, जो प्रजातियां विलुप्तप्राय हो गई थी ।

वर्ष 2002 में, कमला जैविक खेती पर आयोजित एक कार्यशाला में भाग लेने के लिए दक्षिण अफ्रीका के सबसे बड़े शहर जोहान्सबर्ग में गई । जहाँ जैविक खेती के लिए किए जा रहे उनके प्रयासों के लिए दुनिया भर के प्रतिभागियों ने उनकी सराहना की ।

वर्ष 2018 में, मुख्यमंत्री ने 'ओडिशा राज्य योजना बोर्ड' के सदस्य के रूप में कमला को मनोनीत किया । कमला पहली ट्राइबल महिला हैँ, जिन्हें ओड़िशा में यह गौरव प्राप्त हुआ ।

सम्मान - आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणास्रोत 'कमला पुजारी' को धान के बीज की प्रजातियों के संग्रहण एवं जैविक खेती के क्षेत्र में किए गए अभूतपूर्व योगदान के लिए 2019 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया । उन्हें वर्ष 2002 में दक्षिण अफ्रीका में 'इक्वेटर इनिशिएटिव अवार्ड' से सम्मानित किया गया था । उन्हें 2004 में ओडिशा राज्य सरकार द्वारा 'सर्वश्रेष्ठ महिला किसान' का सम्मान प्रदान किया गया । वहीँ नई दिल्ली में इन्हें ' कृषि विशारद सम्मान' से सम्मानित किया गया । 26 मार्च 2017 को ओड़िशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने भुवनेश्वर के ओड़िशा युनिवर्सिटी ऑफ़ एग्रीकल्चर एण्ड टेक्नोलॉजी में 'कमला पुजारी महिला हॉस्टल' का शिलान्यास किया है ।

Friday, 1 May 2020

पद्मश्री कैनाल मैन दैतारी नायक


जन्म : 1949
जन्म स्थान : गांव तालबैतरणी, जिला क्योंझर, ओड़िशा
वर्तमान निवास : गांव तालबैतरणी, प्रखण्ड बांसपोल, जिला क्योंझर, ओड़िशा
पत्नी : समीरा नायक

जीवन परिचय - 'कैनाल मैन यानी नहर पुरुष' के नाम से विख्यात दैतारी नायक का जन्म ओड़िशा के छोटे से गांव वैतरणी में ट्राइबल परिवार में हुआ । दैतारी का परिवार कृषि कार्यो से जुड़ा है, ये केन्दु पत्ता व आमपापड़ बना कर बेचते हैँ । इनके पुत्र का नाम आलेख है । दैतारी की कहानी की तुलना बिहार के माउंटेन मैन दशरथ मांझी से की जा सकती है ।

योगदान - दैतारी नायक के गांव के लोग खेती पर निर्भर थे, किन्तु सिंचाई की व्यवस्था नहीँ होने के कारण खेती नगण्य थी और गांव के किसान गरीबी का जीवन जीने को मजबूर थे । गांव के लोगों ने कई बार स्थानीय प्रशासन से अनुरोध किया किन्तु उनका गांव नजरंदाज होता रहा । प्रखण्ड बांसपोल, तेलखोई, हरिचंदनपुर के गांव पहाड़ियों से घिरे थे, इसलिए यहाँ ना केवल सिंचाई की बल्कि पीने के पानी की भी किल्लत थी । ये सभी गांव ट्राइबल बहुल हैँ, दैतारी ने अपने पुरखों से सुन रखा था कि 'वर्षा के जल को सामने वाले पहाड़ों की श्रृंखला ने रोक रखा है यदि वो पहाड़ ना होते तो हमारे गावों में भी जल होता ।' दैतारी ने यह बात ग्रामीणों से साझा की तो सभी ने यह कहकर टाल दिया कि इसी कार्य के लिए वे लोग प्रशासन से गुहार कर रहे हैँ । तब दैतारी ने कंहा कि यदि प्रशासन सहयोग नहीँ कर रहा तो ना करे, यह कार्य हम गांव वाले मिलकर करे । यह तो वही बात हो गई कि राजा भागीरथ कठोर तपस्या कर गंगा को पृथ्वी पर ले आए थे । पर इतना कठोर तप, इतनी कड़ी मेहनत, करे कौन ? सभी ग्रामीण इस प्रस्ताव पर हँस पड़े और उनका मजाक उड़ाकर अपने अपने घरों को लौट गए । मानो दैतारी को यह बात चुभ गई, आज का भागीरथ एक कुदाल और बरमा लेकर पहाड़ो को काटकर जल देवता के लिए नई राह बनाने में जुट गया । ट्राइबल किसान 'दैतारी नायक' वर्ष 2010 से 2013 तक अकेले ही गोनासिका के पहाडो को खोदता रहा, खोदता रहा, चार साल, लगातार, खोदता रहा, तीन किलोमीटर एकल नहर को खोद डाला । जहाँ चाह वहाँ राह, एक दिन ऐसा आया जब पानी की धारा उन पहाड़ों के बीच से उस 'दैतारी नहर ' से होती हुई ग्रामीणों के खेतॉ तक पहुँच गई ।

सिंचाई के लिए वर्षा जल पर निर्भर रहने वाले और पीने के लिए तालाबों के गंदे पानी का उपयोग करने वाले ग्रामीण आश्चर्य व खुशी से झूम उठे । तीन किलोमीटर नहर अब बैतरणी गाँव के आसपास लगभग 100 एकड़ भूमि को पानी प्रदान करती है और आज तक पानी की कमी नहीं हुई है।

ठीक ही कंहा जाता है कि मीडिया हनारे देश के लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ है, कैनाल मैन दैतारी की कहानी गांव तक सीमित ना रह सकी, मीडिया के जरिए अखबारों से होती हुई यह चर्चा संसद के गलियारों तक जा पहुँची ।

असीमित इच्छाशक्ति के धनी दैतारी समाज के लिए चिंतनशील हैँ, वे चाहते हैँ कि उनके द्वारा निर्मित नहर को उचित स्वरूप प्रदान करते हुए कंक्रीट का बना दिया जाए ताकि उनके गांव में आने वाली पीढ़ी को कभी सिंचाई एवं पेयजल की कमी ना हो ।

सम्मान - समाज के सामने प्रस्तुत इस अप्रतिम उदहारण के लिए को 2019 में 71वें गणतन्त्र दिवस पर 71 वर्षीय कैनाल मैन दैतारी नायक को पद्मश्री से सम्मानित किया गया । 

Wednesday, 29 April 2020

अनुदान नहीँ लाभांश

ये पहाड़ हम भी तोड़ सकते हैँ
फिजूल क्यूँ मशीन लगाते हो ।

ये पत्थर हम भी बेच सकते हैँ
क्यूँ किसी को लीज दिलवाते हो ।

हमारे जंगल हमारी जमीन हमारे पत्थर
वो राज करें और हम भटक रहे दर दर ।

क्यूँ नहीँ पोटका को पत्थर क्लस्टर बना देते हो,
क्यूँ नहीँ यहॉ सेल्फ हेल्प ग्रुप शुरू करा देते हो ।

पत्थर के पट्टों को एसएचजी में बांट दो,
हर एसएचजी को एक हेक्टेयर पट्टा दो ।

दस दस एसएचजी के बना दो कई संघ,
लगाना हो क्रशर जिसे, लगाए उनके संग ।

ना ग्रामसभा में दिक्कत आएगी,
ना रोजगार की चिंता सतायेगी ।

विक्रय मूल्य तय करें सरकार, उसके हिस्से हों चार,
रायल्टी, जीएसटी, एसएचजी और क्रशर साझेदार ।

विकास का मॉडल ऐसा बनाओ,
अनुदान नहीँ लाभांश दिलवाओ ।

संदीप मुरारका
29 अप्रेल' 2020

गाव में रहने वाले वैसे ट्राइबल्स को समर्पित, जिनके गांव में पत्थर के पट्टे दिए जा रहे हैँ और उन्हें कोई मजदूरी भी नहीँ मिल रही ।