Saturday, 1 April 2017

जिंदगी शहर हो गयी

रोज़मर्रा की रेल्लम रेल , ठेलम ठेल,
जिंदगी की भागा भागी , आपा धापी ॥

टेढ़ी मेढि चाल चलते ऑटो रिक्शा ,
हाथ दिखाते ही रुक जाती है बस ॥

मिलती नहीँ यहाँ फुर्सत खाने की भी ,
हो रहे सबके सब बेवजह व्यर्थ व्यस्त ॥

ऊँची ऊँची बिल्डिंगें , बड़े बड़े मॉल ,
गंदी गंदी नालियाँ ,गंदी गंदी गालियाँ ॥

बड़ी बड़ी गाडियाँ, बड़े बड़े लोग ,
मन के खाली , सूट बूट का बोझ ॥

जलने को कतार में सजी अर्थियाँ,
ऑफीस को लेट होती उनकी पीढियाँ ॥

ना भौंरे ना मधुमक्खी ना फूलों का रस ,
बेवजह जिंदगी ने लगा रखी कशमकश ॥

बहते बहते हाय , नदी भी यहाँ ज़हर हो गयी ,
यूँ लगता है मानो, जिंदगी अब शहर हो गयी ॥

संदीप मुरारका
दिनांक 8 जनवरी' 2017 रविवार
सम्वत 2073, पौष शुक्ल दशमी

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