कोरोना.... एक बिन बुलाई हुई आपदा, एक वैश्विक महामारी, जो ना केवल अपने शहर में, बल्कि हर शहर, हर गाँव, हर देश में यूँ पाँव पसारती चली गई। मानो एक बार फिर विश्व विजय को ब्रिटिश या सिकन्दर की सेना निकल पड़ी हो। चारों ओर नकारात्मकता, बीमारी, दवाईयाँ, रेमेडिशीवीर, ऑक्सीजन, मास्क, आईसीयू, वेंटिलेटर, अस्पतालों में बेड की कमी का शोर। तो टीवी चैनलों पर आरोप प्रत्यारोप लगाते राजनैतिक प्रतिद्वन्दी और उन्हें उकसाते एंकरों की रिपोर्ट। हास्पिटल में चीखते चिल्लाते परिजन तो प्लास्टिक में लिपटी हुई लाशें। ना पूर्ण विधि विधान से अन्तिम संस्कार, ना अस्थि विसर्जन, ना मृत्यु भोज और ना दशकर्म। ऊपर से शमशान घाट पर लम्बी कतारें, खराब पड़े फर्नेस, लकड़ियों की कमी से जूझते घाट।
उन सबके ऊपर जीवनरक्षक दवाइयों के आसमान छूते दाम, इंजेक्शन की कालाबाजारी, ऑक्सीजन सिलेण्डर की कमी का लाभ उठाते कुछ निर्दयी, कोरोना टेस्ट के नाम पर खुली लूट, ऑनलाइन इलाज के नाम पर लूट मचाते कुछेक डाक्टर्स, एक एक दिन में हजारों का बिल थमाते कुछेक अस्पताल, आपदा में अवसर तलाशती एक अराजक बिरादरी ।
आश्वासनों का पिटारा लिए हुए राजनैतिक विज्ञापन, मौत और बीमारी के झूठे आंकड़े से लब्बोदार सरकारी विज्ञप्तियाँ, और फिर एक लॉकडाउन। बंद पड़े धंधे, भूख और भविष्य की चिन्ता में पिसता हुआ आम इंसान। घर को लौटते मजदूर, सूखे खेत, खाली पड़े आटा दाल के कनस्तर, असुरक्षित नौकरियाँ और अनिश्चित भविष्य। उसके ऊपर अभी तीसरी लहर का भय !
पहली लहर में बूढ़े बुजुर्गों को खोया, दूसरी लहर में हजारों युवा काल के गाल में समा गए, कोई छोटे बच्चों को छो़ड गया, तो कोई कम उम्र की पत्नी को, किसी का कर्ज बाकी रह गया तो किसी का सपना, बूढ़े माँ पिता को अपने बेटे की लाश भी देखने को ना मिली, पता नहीं उन युवा मृतकों की लाडली अब कैसे डाक्टर बनेगी, बेटा कैसे इंजिनियरिग कर पाएगा। ऊपर से तीसरी लहर में बच्चों के लिए चेतावनी!
किन्तु जिस प्रकार अंधेरे में भी जुगनू जगमगाया करते हैं, उसी प्रकार कोरोना काल की विकट परिस्थितियों में हमारे समाज की भूमिका साकारात्मक रही, सहयोगात्मक रही। जहाँ एक ओर लोग कोरोना पीड़ित होकर घरों में आइसोलेशन में कैद थे, ना कोई सब्जी लाने वाला, ना कोई खाना बनाने वाला, वैसे में कोई गुरु के लंगर के नाम से खाने का पैकेट बांट रहा था तो कोई अग्रसेन आहार के नाम से भोजन के पैकेट पहुँचा रहा था। कोई जैन, कोई चित्रगुप्त, तो कोई आदिवासी समाज के नाम पर विटामिन की गोलियाँ वितरित कर रहा था, तो कोई अपने इष्ट देवता के नाम पर फल, दूध, सब्जियाँ बांट रहा था।
जहाँ एक ओर आपदा में अवसर ढूंढते लोग ऑक्सीजन की कालाबाजारी कर रहे थे, वहीं उद्यमी वर्ग बिना प्रचार बिना जातपात पूछे निःशुल्क ऑक्सीजन सेवा प्रदान कर रहा था।
मैंने जहाँ एक ओर अखबार के पहले पन्ने पर हास्पिटल में बेड की कमी की रिपोर्ट पढ़ी, वहीं दूसरी ओर उसी अखबार के भीतरी पन्नों में मारवाड़ी धर्मशालाओं और गुरुद्वारों को अस्थायी कोविड सेन्टर में तब्दील होने की तस्वीरें भी देखी।
अत्यधिक लाशों के दबाव से इलेक्ट्रिक फर्नेस जब खराब हो गए, सरकार ने सामूहिक शवदाह प्रारम्भ कर दिया, एक एक चिता पर पंद्रह सोलह लाशें जलाई जाने लगी, शमशान घाटों में लकड़ियों की कमी हो गई, वैसे में एक आह्वान पर समाज के व्यवसायियों ने घाटों के बाहर लकड़ियों के ढ़ेर लगा दिए।
लॉकडाउन के दौरान जब पुलिस कर्मी, सफाईकर्मी और प्रशासन का निचला वर्ग सड़कों पर अपनी ड्यूटी निभा रहा था , सदियों से ही उपेक्षित वर्गविशेष सड़क के किनारे रिक्शे ठेले के नीचे दुबका हुआ टुकुर टुकुर खाली सड़क को निहार रहा था, स्टेशन बस स्टैंड के बाहर तिरपाल के नीचे अधनंगा इंसान भूखा पड़ा था, तब हमारे समाज के कुछ उत्साही समाजसेवियों ने ही उनके पेट में अन्न का दाना डाला।
जहाँ एक ओर लाखों करोड़ की सरकारी चिकित्सा व्यवस्था चरमरा उठी, तब भी आपसी सहयोग से संचालित होने वाले संघ मंच समिति कमिटी सम्मेलन जैसे संस्थान सेवा को खड़े दिखायी पड़े, कोई एम्बुलेंस सेवा दे रहा था, कोई भाप की मशीन उपलब्ध करा रहा था, कोई मास्क बांट रहा था, कहीं कोई सूद तो कहीं कोई विश्वास कोरोना कीट बांट रहा था, और तो और कई संस्थानों ने बेजुबान पशु पक्षियो के चारा दाना पानी तक की व्यवस्था की।
ना तख्त काम आए, ना ताज काम आए,
छतों पर लहराते झण्डे भी काम ना आए।
घर से निकलते ही करता था, राम सलाम जिनसे,
शायद उन्हीं में से कोई रुप बनाकर खुद राम आए॥
- संदीप मुरारका
(आदिवासी विमर्श पर लिखने वाले गैरआदिवासी लेखक)
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