*ग्रेट इंडिया*
स्वामी विवेकानंद के बचपन में घर का नाम वीरेश्वर रखा गया था, उनका औपचारिक नाम नरेंद्रनाथ दत्त था। आगे चलकर वे स्वामी विवेकानंद के नाम से प्रसिद्ध हुए। हालांकि उनके महान व्यक्तित्व के पीछे नेम गेम का कोई योगदान नहीं था, उनका नाम वीरेश्वर होता या नरेंद्र या विवेकानंद, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता, उनको महान बनाया उनकी विचारशीलता ने, उनको विश्वव्यापी पहचान मिली उनके ओजस्वी और सारगर्भित व्याख्यानों से। वे एक ऐसे धर्म गुरु हुए, जिनमें यह कहने की हिम्मत थी कि "इस देश के तैंतीस करोड़ भूखे, दरिद्र और कुपोषण के शिकार लोगों को देवी देवताओं की तरह मंदिरों में स्थापित कर दिया जाये और मंदिरों से देवी देवताओं की मूर्तियों को हटा दिया जाये।"
खैर अभी विषय उनके विचारों पर चिंतन का नहीं है़। अभी विषय है़ नाम बदलने का! हमने विकलांग को दिव्यांग कहना आरंभ कर दिया। आह! क्या सुकून!! बॉम्बे मुंबई बन गया, मद्रास चेन्नई, कलकत्ता कोलकात्ता, उड़ीसा ओड़िशा, इलाहाबाद प्रयागराज, बैंगलोर बेंगलुरु, गुड़गांव गुरुग्राम और ना जाने कितने शहरों के नाम बदल गए। सच में नाम बदलते ही ये सारे शहर व राज्य अविकसित से सीधे विकसित की श्रेणी में आ गए। भले सरकारी दस्तावेजों में नए नामकरण के लिए करोड़ों रुपए खर्च (स्वाहा) हो गए, पर विकास भी उतनी ही तेजी से दौड़ पड़ा। इन नए नाम वाले क्षेत्रों में एक तो भ्रष्ट्राचार बिल्कुल समाप्त हो गया, दूसरा इन स्थानों को पुराना नाम मिलते ही यहाँ अपराधिक घटनाएँ बिल्कुल समाप्त हो गई। यहाँ की जनता जो बंबई, मद्रास, कलकत्ता, उड़ीसा, इलाहाबाद, बैंगलोर, गुड़गांव जैसे शब्दों के बोझ तले दबकर नारकीय जीवन जीने को मजबूर थी, अब देवताओं के स्वर्ग तुल्य रमणीय स्थानों के समकक्ष स्थान पर रहने की फील कर रही है़।
अभी एक और राज्य के नाम बदलने की कवायद चल रही है़। पश्चिम बंगाल विधानसभा ने पश्चिम बंगाल का नाम बदलकर बांग्ला करने का प्रस्ताव पास किया है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का कहना है़ कि राज्य के नौकरशाहों को केंद्र सरकार द्वारा आयोजित बैठकों में वेस्ट बंगाल नाम होने के कारण वर्ण क्रम के अनुसार सबसे अंत में बोलने का मौका मिलता है। यानी कि केंद्र सरकार में अंग्रेजी वर्णमाला के अनुसार वक्ताओं को आमंत्रित किया जाता है़। वेस्ट बंगाल का नाम बदलते ही संभवतः उत्तराखंड एवं उत्तरप्रदेश सरकार सक्रिय हो जाएगी, क्योंकि उनके नाम अंतिम पायदान पर चले जाएंगे।
खैर, छोड़िए राज्य व राष्ट्रीय स्तर को, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बात करते हैं। आपको कितना फर्क पड़ता है़ कि ग्रेट ब्रिटेन को कोई ब्रिटेन कहे या यू के या यूनाइटेड किंगडम। आपको कितना फर्क पड़ता है़ कि कोई अमेरिका को यू एस कहे या यूएसए या अमेरिका या यूनाइटेड स्टेट ऑफ अमेरिका। बर्मा का नाम म्यांमार हो जाने से वहाँ से एक्सपोर्ट इंपोर्ट करने वालों के व्यापार में इजाफा हुआ क्या? अब हॉलैंड को नीदरलैंड कहा जाए या नीदरलैंड को हॉलैंड, किसी इंडियन को ही नहीं, विश्व के किसी देश के नागरिक को इससे ना फर्क पड़ता है़, ना कोई इस बात की नोटिस लेता है़।
नाम बदलने की मानसिकता या एक नाम रखने की संकीर्णता, ऐसे अभियानों से मुझे राजनीति की बू आती है़। जिनका मकसद होता है़ विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार जैसे गंभीर मुद्दों को छोड़कर नाम जैसे मुद्दों में उलझाए रखना और युवाओं को नाम अभियान की एक नई अफीम चटा कर उनके अर्द्धविकसित मस्तिष्कों में कूड़ा भरना।
अजी, हमें गर्व होना चाहिए इंडिया गेट पर, मेक इन इंडिया अभियान पर, एयर इंडिया पर, टीम इंडिया पर, रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया पर, टाइम्स ऑफ इंडिया पर, हर उस नाम पर जहाँ इंडिया जुड़ा हो, जहाँ भारत जुड़ा हो। वैसे भी अपने देश में कल्चर है़ घर में अलग नाम से पुकारा जाता है़, बाहर अलग नाम होता है़। मत चलाइए ऐसा कोई अभियान जिसमें इंडिया शब्द की पहचान खत्म होती हो। क्योंकि ऐसा होता है़ तो इससे उत्साहित एक वर्ग विशेष कल राष्ट्रगान जन गण मन को बदलने की बात करेगा, हो सकता है़ उसके बाद तिरंगे से हरा या केसरिया रंग हटाने की मांग हो, देवनागरी की जगह संस्कृत, पालि, मगधी या ब्रज लिपि लागू करने का मुद्दा उठ जाए। वैश्विक स्तर पर इंडिया की पहचान भारत के रुप में मत बनाइए, उसे ग्रेट इंडिया के रुप में बनाइए। यदि महा अभियान ही शुरु करना हो तो यह करें कि "हर धार्मिक संस्थान के अंतर्गत एक यूनिवर्सिटी प्रारंभ हो।"
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