Wednesday, 29 April 2020

अनुदान नहीँ लाभांश

ये पहाड़ हम भी तोड़ सकते हैँ
फिजूल क्यूँ मशीन लगाते हो ।

ये पत्थर हम भी बेच सकते हैँ
क्यूँ किसी को लीज दिलवाते हो ।

हमारे जंगल हमारी जमीन हमारे पत्थर
वो राज करें और हम भटक रहे दर दर ।

क्यूँ नहीँ पोटका को पत्थर क्लस्टर बना देते हो,
क्यूँ नहीँ यहॉ सेल्फ हेल्प ग्रुप शुरू करा देते हो ।

पत्थर के पट्टों को एसएचजी में बांट दो,
हर एसएचजी को एक हेक्टेयर पट्टा दो ।

दस दस एसएचजी के बना दो कई संघ,
लगाना हो क्रशर जिसे, लगाए उनके संग ।

ना ग्रामसभा में दिक्कत आएगी,
ना रोजगार की चिंता सतायेगी ।

विक्रय मूल्य तय करें सरकार, उसके हिस्से हों चार,
रायल्टी, जीएसटी, एसएचजी और क्रशर साझेदार ।

विकास का मॉडल ऐसा बनाओ,
अनुदान नहीँ लाभांश दिलवाओ ।

संदीप मुरारका
29 अप्रेल' 2020

गाव में रहने वाले वैसे ट्राइबल्स को समर्पित, जिनके गांव में पत्थर के पट्टे दिए जा रहे हैँ और उन्हें कोई मजदूरी भी नहीँ मिल रही ।



पद्मश्री लेडी टार्जन जमुना टुडू


जन्म : 19 दिसम्बर 1980
जन्म स्थान : रांगामटिया, ब्लॉक - जामदा, जिला- मयूरभंज, ओडिशा
वर्तमान निवास : बेड़ाडीह, मुटुरखाम गांव , प्रखण्ड चाकुलिया, जिला पूर्वी सिंहभूम, झारखण्ड
पिता - बाघराय मुर्मू
माता- बबिता मुर्मू

जीवन परिचय - झारखण्ड के पूर्वी सिंहभूम जिले के चाकुलिया प्रखंड की रहनेवाली 'लेडी टार्जन जमुना टुडू' का जन्म ओडिशा के एक गांव में ट्राइबल परिवार में हुआ, छः बहनों में सबसे छोटी जमुना ने दसवीं कक्षा तक पढ़ाई की । जमुना के पिता के पास सात-आठ बीघा पथरीली जमीन थी , किन्तु उसपर खेती तो हो नहीँ सकती थी, अतएव उनके माता पिता ने स्वयं अपने मेहनत कर उस पथरीली जमीन को समतल करके वहाँ पेड़ लगाना आरम्भ कर दिया, जमुना भी अपनी बहनों के साथ पौधे लगाया करती, धीरे धीरे एक बड़ा जंगल तैयार हो गया । इसप्रकार जमुना को पेड़ लगाने व इनका संरक्षण करने की प्रेरणा बचपन में ही अपने पिता से प्राप्त हो चुकी थी । इनका विवाह 1998 में झारखण्ड के गांव मुटुरखाम, बेडाडीह टोला में मानसिंह टुडू से हुआ, इनके कोई सन्तान नहीँ हुई।

योगदान - विवाह के बाद जमुना टुडू चाकुलिया के गांव मुटुरखाम में रहने लगीं । पेशे से कृषक परिवार की ट्राइबल जमुना प्रतिदिन आसपास के जंगल में फल फूल चुनने व जलावन की लकड़ी लाने चली जाया करती । कई बार वें देखती कि कुछ पेड़ काट कर गायब कर दिए गए हैँ तो कभी कुछ पेड़ काटकर वहीँ गिराए हुए हैँ । उनके विचार में यह आया कि ये पेड़ काटता कौन है ? वे सतर्क होकर इस विषय पर दृष्टि रखने लगी, धीरे धीरे उनको समझ में आ गया कि कुछ लकड़ी माफिया ना केवल पेड़ो को काटकर ले जाते है वरन काफी वन सम्पदा भी चोरी की जा रही है । उन्होने यह बात अपने घर के अन्य सदस्यों से साझा की, किन्तु किसी ने इन बातो को गम्भीरता से नहीँ लिया । जमुना बैचेन रहने लगी, रातो को सोते हुए भी उन्हें कटे हुए पेड़ और पेडों को काटती कुल्हाड़ी व हाथ दिखने लगे । उन्हें ऐसा प्रतीत होता मानो स्वयं वन देवी लहूलुहान होकर पुकार रही है ।

वर्ष 2000 आते आते उनका नित्यकर्म बदलने लगा, वे जल्दी जल्दी अपने घर का काम निपटा कर जंगलो में चली जातीं और जंगलो में घूम घूम कर पेड़ काटने वाले माफियाओं को ढूंढती और उन्हें वन से खदेड़ती । वर्ष 2002 में अन्य 3- 4 महिलाओं ने जंगलों की पेट्रोलिंग में जमुना का साथ दिया, धीरे-धीरे ये संख्या बढ़कर 60 तक जा पहुंची। सभी ने पाया कि पेडों की कटाई कम हो रही है साथ ही फल फूल भी पहले की अपेक्षा सुरक्षित हैँ ।
इसी बीच रक्षा बंधन का त्यौहार आया, उन्होने ग्रामीण महीलाओ से अपील की कि प्रत्येक महिला एक पेड़ को अपना भाई मानकर राखी बांधे, वैसे भी ट्राइबल प्रकृति का प्रेमी होता है और पेड़ पौधों को वो परिवार के सदस्य सा स्नेह देता है । जमुना के गांव में हर रक्षा बंधन पर वनों के संरक्षण के लिए पेडों को राखी बाँधने की परम्परा आज भी जारी है ।

जमुना जंगल माफियाओं से भिड़ जाती थी, उन लोगों ने पहले तो जमुना को रुपयों का लालच दिया, जब वह नहीँ मानी तो धमकाया गया । किन्तु जमुना पर तो पेडों को बचाने का जुनून सवार था, वो भीड़ गई, हाथापाई हुई, जमुना स्वयं भी टांगी रखती थी और निडरता से वन माफिया के गुर्गों से लड़ी और उनलोगों को खाली हाथ लौटने पर मजबूर कर दिया । एक नहीँ कई बार जमुना लहूलुहान होकर घर लौटीं, पर जंगल की बेटी जंगल में जंगल चोरों से जंग जीत कर लौटी । इसीलिए जमुना
लेडी टार्जन के नाम से विख्यात हुई ।

एक बार वर्ष 2007 में सात लोग हथियार लेकर रात डेढ़ बजे जमुना के घर में आ गए और जंगल बचाने की इस मुहीम को बंद करके को कहा, जमुना ने उस वक़्त तो उनकी हाँ में हाँ मिला दी, किन्तु समझदार जमुना ने कानून का सहारा लिया और उन्हें जेल भिजवाने की ठान ली। एक सप्ताह के भीतर ही वो सातों अपराधी ना केवल जेल भेज दिए गए बल्कि उन्हें कारावास की सजा भी हुई। निडर व बहादुर जमुना पर वन माफियाओं की धमकियों और हमलों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा , वरन उनका आत्मविश्वास बढ़ता चला गया ।

गांव में जमुना के घर के बाहर एक ईमली का पेड़ है, वही जमुना का कार्यालय है और वही उनकी सहयोगी महिलाओ के साथ वार्ता करने का मीटिंग प्लेस है। अब जमुना महिलाओं के साथ हर सुबह छह बजे जंगल चली जातीं और दोपहर ग्यारह बजे तक लौट आती, फिर उसी ईमली के पेड़ के नीचे बैठकर बातचीत करती, सबको अगली रणनीति समझाती और अपराह्न दो तीन बजे तक फिर जंगल चली जाया करती थी।

जमुना ने अपनी सहयोगी महिलाओं को लेकर ग्राम वन प्रबन्धन एवं संरक्षण समिति का गठन किया, जिसकी पंजीकरण संख्या 144/2003 है । 15 महिला और 15 पुरुषों से बनी इस पहली समिति का अध्यक्ष जमुना को ही चुना गया। समिति बनने के बाद जमुना अपने गांव से बाहर दूसरे गावों में भी जाने लगी। धीरे-धीरे इन्होने पूर्वी सिंहभूम जिले के चाकुलिया प्रखण्ड में 300 से ज्यादा वन सुरक्षा समितियों का गठन किया। आज भी प्रत्येक समिति से हर दिन चार पांच महिलाएं अपने-अपने क्षेत्रों में वनों की रखवाली लाठी-डंडे , टांगी, कुल्हाड़ी और तीर-धनुष के साथ करती हैं ।

एक बार जमुना वन समिति का गठन करने दूसरे गाँव में गई हुई थी, पीछे से वन माफियाओं ने उनके गांव में 70 हरे भरे पेड़ काट लिए। उनकी वन समिति की महिलाओं को जैसे ही खबर लगी वो वहां पहुंच गयी और जंगल से लकड़ी नहीं उठने दी। दूसरे गांव से लौटकर जमुना ने थाना में सनहा दर्ज करवाई और चार लोगों को तीन महीने के लिए जेल भिजवा दिया।

जमुना ने पेड़ के पत्तो से दोने व पत्तल बनाने की आजीविका से अपनी वन समितियों को जोड़ा है । जमुना अधिक से अधिक पौधारोपण को प्रोत्साहित करती हैँ, स्वयं इन्होंने अपनी सहयोगियो के साथ मिलकर तीन लाख से ज्यादा पौधे लगाए हैँ । जमुना के गांव में बेटी पैदा होने पर 18 ‘साल’ वृक्षों का रोपण किया जाता है। बेटी के ब्याह के वक्त 10 'साल' वृक्ष उपहार में दिए जाते हैं। जमुना ने स्कूल व नलकूप के लिए अपनी जमीन भी दान में दे दी। जमुना टुडू पर्यावरणप्रेमी, बहादुर, समाजिक महिला होने के साथ साथ कुशल संगठनकर्ता भी हैँ ।

सम्मान एवं पुरस्कार - लेडी टार्जन 'जमुना टुडू ' को पर्यावरण के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए वर्ष 2019 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया । वर्ष 2017 में दिल्ली में नीति आयोग ने वुमन ट्रांसफॉर्मिंग इंडिया अवार्ड द्वारा जमुना को सम्मानित किया । उन्हें गॉडफ्रे फिलिप्स इंडिया लिमिटेड द्वारा 2014 में गॉडफ्रे फिलिप्स नेशनल ब्रेवरी अवार्ड से पुरस्कृत किया गया । उसी वर्ष उन्हें कलर्स टीवी चैनल द्वारा आयोजित भव्य समारोह में फिल्म निर्देशक सुभाष घई ने स्त्री शक्ति अवार्ड प्रदान किया था । वर्ष 2016 में जमुना को राष्ट्रपति द्वारा भारत की प्रथम 100 महिलाओं में चुना गया और राष्ट्रपति भवन में सम्मानित किया गया।प्रधानमंत्री ने अपने पहले कार्यकाल के अन्तिम व 53 वें एपिसोड में 24 फरवरी 2019 को 'मन की बात' में जमुना टुडू की कहानी को राष्ट्र के समक्ष रखा ।


Tuesday, 28 April 2020

पद्मश्री डॉ दमयन्ती बेसरा

जन्म : 16 फरवरी 1962
जन्म स्थान : बॉबेजोड़ा, जिला मयूरभंज, ओड़िशा
वर्तमान निवास : वार्ड न 9, मधुबन, पोस्ट बारीपदा, जिला मयूरभंज, ओड़िशा
पिता : राजमल माझी
माता : पुनगी माझी

जीवन परिचय - धिगिज उर्फ दमयन्ती का जन्म बारीपदा से 90 किलोमीटर दूर गांव बॉबेजोड़ा में एक ट्राइबल परिवार में हुआ था । गांव में कोई स्कूल नहीँ था पर गांव में एक शिक्षित व्यक्ति थे जो एक छोटे से शेड में बच्चों को अक्षर ज्ञान करवाया करते थे । भाई बहनों में बड़ी दमयन्ती भी वहाँ चली जाया करती और चॉक से जमीन पर आड़ी तिरछी लकीरें खींचा करती थी । एक बार उनके ताऊ बुधन माझी और ताई मनी माझी उनके घर आए, तब उनको दमयन्ती के शिक्षा के प्रति झुकाव के विषय में ज्ञात हुआ । ताऊ निःसंतान थे, वे दमयन्ती को अपने साथ देवली गांव ले आए और वहाँ के सरकारी स्कूल में दाखिला करवा दिया । उस स्कूल में अभिभावक के रूप में ताऊजी का नाम ही दर्ज है, दमयन्ती ने वहाँ तीसरी कक्षा तक की पढ़ाई की । आगे की पढ़ाई के लिए गांव से दो किलोमीटर दूर चांदीदा विद्यालय जाने लगीं, जहाँ उन्होने कक्षा चौथी और पांचवी की पढ़ाई की । आगे की शिक्षा के लिए दमयन्ती रायरंगपुर कन्या आश्रम में रहकर पढ़ने लगी । कक्षा पांचवी से हाई स्कूल तक की पढ़ाई उन्होने टीआरडब्ल्यू गर्ल्स हाई स्कूल , रायरंगपुर से करते हुए 1977 में मैट्रिक की परीक्षा पास की । उसके बाद उनके ताऊजी ने कॉलेज की पढ़ाई के लिए दमयन्ती का नामांकन भुवनेश्वर के रमादेवी वीमेंस कॉलेज में करा दिया, जहाँ वे पोस्ट मैट्रिक गर्ल्स हॉस्टल में रहती थी । गरीबी के कारण ताऊजी प्रतिमाह मात्र 40- 50 रुपए ही भेज पाते थे, जबकि मासिक खर्च 60 रुपए था । विलक्षण प्रतिभा की धनी दमयन्ती समय की पाबन्द तथा अनुशासन में रहने वाली छात्रा थी, जो हर परीक्षा में अच्छे मार्क्स लाती । दमयन्ती के पास केवल दो जोड़ी कपड़े हुआ करते थे, किन्तु वो सदैव साफ स्वच्छ रहा करती । नतीजा धीरे धीरे वो सभी शिक्षिकाओं की प्रिय बन गई, विशेषकर वार्डन व्रजेश्वरी मिश्रा उन्हें छोटी बहन सा स्नेह दिया करती थी, इसीलिए पूरी फीस ना चुका पाने पर भी कभी दमयन्ती की पढ़ाई बाधित नहीँ हुई । उन्होने 1979 में इंटरमीडिएट एवं 1981 में ओडिया ऑनर्स में स्नातक कर लिया । 1983 में उन्होने उत्कल यूनिवर्सिटी, भुवनेश्वर से एम ए की परीक्षा पास की । 1985 में संबलपुर में जूनियर रोजगार पदाधिकारी के रूप में उनका कैरियर प्रारम्भ हुआ । नौकरी के दौरान ही उन्होने कर्मचारी चयन आयोग की परीक्षा दी और क्लर्क सह टंकक पद पर उनकी नियुक्ति एजी ओड़िशा के कार्यालय भुवनेश्वर में हो गई । मेहनती व प्रतिभावान दमयन्ती ने ओडिशा लोक सेवा आयोग की परीक्षा भी पास कर ली । यहाँ से प्रारम्भ हुआ उनकी शिक्षा एवं साहित्य में सेवा का पहला चरण, 1987 में उनकी नियुक्ति बारीपदा के महाराजा पूर्णचंद्र कॉलेज में लेक्चरर के रूप में हो गई । 1988 में उनका विवाह साहित्यप्रेमी, नाटक लेखक एवं बैंककर्मी गंगाधर हांसदा से हुई । अपने पति के प्रोत्साहन से दमयन्ती ने 1994 में ओड़िया में एम फील की डिग्री प्राप्त की । वर्ष 1995 में उनका तबादला फूलबनी कॉलेज में हो गया, जहाँ से पुनः 2001 में बारीपदा लौटीं । फिर प्रारम्भ हुआ दमयन्ती से डॉ दमयन्ती बनने का सफर । उन्होने पीएचडी के लिए मयूरभंज की नार्थ ओड़िशा यूनिवर्सिटी में निबंधन करवाया , उनका विषय था - ' मयूरभंजा संथाल एको सामाजिक सांस्कृतिक अध्ययन ' । डॉ दमयन्ती को 2005 में पीएचडी की डिग्री प्राप्त हुई ।

साहित्यिक परिचय - स्कूल में पढ़ने के दौरान ही दमयन्ती ओड़िया व संथाली में कविताएँ लिखा करती थी । 1987 से उनकी रुचि निबंध लेखन में भी हो गई । 1990 में उनकी पहली कविता ' ओनोलिया' एवं पण्डित रघुनाथ मुर्मू पर लिखा एक निबंध पत्रिका ' फागुन कोयल ' में प्रकशित हुआ । 1994 में उनका पहला काव्य संकलन 'जीवी झरना' प्रकशित हुआ, किसी संथाल महिला साहित्यकार का पहला काव्य संकलन का श्रेय दमयन्ती को जाता है । प्रकृति और मानव जाति की विविधताओं को अपनी कविताओं में समेटने वाली दमयन्ती ने पण्डित रघुनाथ मुर्मू की जीवनी पर ओडिया में पुस्तक लिखी । कविता, निबंध, व्याकरण, जीवनी, आलोचना, संथाल इतिहास, स्तम्भ लेखन के अलावा उन्होने देवनागरी से ओड़िया व संथाली में कई अनुवाद किए । वे एक कुशल वक्ता एवं शिक्षिका के रूप में भी पहचानी जाती हैँ । ट्राइबल समुदाय में इनकी पहचान शांत विनम्र किन्तु मजबूत इरादों वाली महिला की है । संथाल शोधार्थी डॉ दमयन्ती ने 2011 में संथाली भाषा में पहली पत्रिका 'काराम डार ' का प्रकाशन प्रारम्भ किया । डॉ दमयन्ती ने ग्यारहवीं शताब्दी के विख्यात फारसी साहित्यकार उमर खय्याम की रूबाईयों का अनुवाद संथाली में किया । ओड़िया की विख्यात कविता संग्रह का संताली अनुवाद 'आड़ा रेयाग सेरमा' का प्रकाशन 2012 में हुआ । डॉ दमयन्ती ने कई प्रांतीय, राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय साहित्यिक आयोजनों, कार्यशालाओं व सेमिनारों में भाग लिया ।

वर्ष 2004 से 2007 तक डॉ दमयन्ती साहित्य अकादमी, नई दिल्ली के संथाली भाषा बोर्ड की पहली संयोजक रही । वे यूपीएससी, नई दिल्ली के संथाली भाषा सिलेबस कमिटी, संबलपुर यूनिवर्सिटी के परीक्षा आयोजक बोर्ड एवं बारीपदा की नार्थ ओडिशा यूनिवर्सिटी के सिलेबस कमिटी की सदस्य रही हैँ। डॉ दमयन्ती संथाल लेखक संघ ओडिशा एवं अखिल भारतीय संथाल संघ झारग्राम की सलाहकार हैँ ।


कृतियाँ -
ओड़िया में - पण्डित रघुनाथ मुर्मू की जीवनी, चाइ चम्पारू भंज दिशोम, दामोद धारे धारे सन्थालो संस्कृतिरो सूचीपत्र, समाज ओ संस्कृति पृष्ठपट्टरे मयूरभंजा सन्थाल , झूमोरोरो कीछी गुमरो ओ ओन्य प्रबन्ध
काव्य संकलन (संथाल) - जीवी झरना, ओ ओत ओंग ओल आर जूरीजीता , साए साहेंद
बाल काव्य (संथाल) - कुइण्डी मीरु
आलोचना (संथाल) - गुरु गोमकेयाग ज्ञेनेल आर ज्ञानालाग
इतिहास - संताली सावंहेद रेयाग नगम
व्याकरण - रोनोड़ टुपलाग
निबंध (संथाल) - सागेन सावंहेद , पारसी साउँता सावंहेद, रोर सानेस
बाल कहानी - गीदड़ाभूलाव कहनी

सम्मान एवं पुरस्कार- संथाली भाषा की साहित्यकार एवं कवि 'डॉ. दमयंती बेसरा' को साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में 2020 में पद्मश्री से पुरस्कृत किया गया । 1994 में अखिल भारतीय संथाल लेखक संघ द्वारा इन्हें ' पॉएट ऑफ द ईयर' सम्मान से नवाजा गया था । वर्ष 2004 में भुवनेश्वर में दमयन्ती को असम के विधानसभा अध्यक्ष ने पण्डित रघुनाथ मुर्मू फेलोशिप प्रदान किया था एवं उसी वर्ष उन्हें साधु रामचन्द्र मुर्मू पुरस्कार से सम्मानित किया गया । 2009 में उन्हें प्रो. खगेश्वर महापात्रा फाऊंडेशन सम्मान पत्र प्राप्त हुआ, 2010 में इन्हें साहित्य अकादमी अवार्ड से भी पुरस्कृत किया जा चुका है । वर्ष 2012 में डॉ दमयन्ती को उड़ीसा के राज्यपाल ने भुवनेश्वर में साहित्य सम्मान प्रदान किया था । इनके अलावा डॉ दमयन्ती को समय समय पर विभिन्न संस्थानो ने भंजपुत्र अवार्ड, माँ टांगरासुणी सम्मान, महेश्वर नायक सम्मान, डॉ रामकृष्ण साह मेमोरियल अवार्ड , जनजाति प्रतिभा सम्मान इत्यादि से सम्मानित किया ।

एक रचना - ......


संथाल कविता की इन प्रेरक पंक्तियों का हिन्दी अनुवाद-
....


Monday, 27 April 2020

पद्मश्री ट्रिनिटी साइओ

जन्म : 1968
जन्म स्थान : जिला पश्चिमी जैंतीय़ा हिल्स, मेघालय
वर्तमान निवास : गांव मुलीहा, जिला पश्चिमी जैंतीय़ा हिल्स, मेघालय

जीवन परिचय - मेघालय के पश्चिमी जैंतीय़ा हिल्स के एक ट्राईबल परिवार में जन्मी ट्रिनिटी साइओ पेशे से स्कूल टीचर हैँ । अपने गांव की हल्दी को राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय बनाने वाली ट्रिनिटी के छः बच्चे हैँ, तीन पुत्रियाँ और तीन पुत्र । ट्रिनिटी एक शिक्षिका, कृषक, व्यवसायी, संगठनकर्ता व मजबूत नेतृत्वकर्ता है ।

योगदान - हल्दी की लगभग 133 ज्ञात किस्में हैं लेकिन सबसे अच्छी प्रजाति 'लकाडोंग हल्दी' है । पूर्वोत्तर भारत के मेघालय के जैंतिया हिल्स जिले के प्रखण्ड लास्केन सीडी के एक छोटे से लकडोंग गाँव और इसके आसपास के क्षेत्रों को छोड़कर यह हल्दी दुनिया में कहीं नहीं उगती है, इस क्षेत्र में औसत वार्षिक वर्षा 4000 मिमी होती है , वहां की मिट्टी अम्लीय, रंग में बहुत गहरी और बनावट में मध्यम से हल्की होती है।

वहाँ हल्दी की पारम्परिक खेती बहुतायत में की जाती थी, 'ट्रिनिटी साइओ' शिक्षण के अलावा इस जीविका से भी जुड़ी थी । वर्ष 2003 में उन्होने लकाड़ोंग प्रजाति की हल्दी का उत्पादन किया, मार्केट में उनकी हल्दी अद्वितीय स्वाद और सुगंध के कारण तुरन्त बिक गई , साथ ही बड़ी कम्पनियो के एजेंट्स ने उनके उत्पाद की गुणवत्ता के कारण उनको मुंहमांगी दर भी दी । ट्रिनिटी ने पाया कि उनकी आय दुगनी हो गई है, उन्होने अपनी साथी कृषकों को यह बात साझा की । अगले वर्ष कुछ और महिलाएँ उनके साथ लकाडोंग हल्दी के उत्पादन में जुट गई । धीरे धीरे उनकी हल्दी की डिमांड बढ़ने लगी और उन्हें समुचित मूल्य मिलने लगा । ट्रिनिटी ने खेती के आइडिया के साथ साथ हल्दी की पिसाई, पैकिंग व मार्केटिंग सभी जगह सहयोगी महिलाओ का साथ दिया, नतीजा उनसे जुड़ी लगभग 800 महिला किसानों की आय तीन गुणा हो चुकी है । ट्रिनिटी ने इन निरक्षर महिला कृषकों को ऑर्गेनिक सर्टिफिकेशन करवाने एवं सरकार से इन्हें सब्सिडी दिलवाने हेतू आवश्यक डॉक्युमेंट्स तैयार करवाने में हर कदम पर इनकी मदद की ।

उस के पूर्व स्थानीय महिलाएँ लचेन एवं दूसरी प्रजाति की हल्दी की खेती में संलग्न थीं । लकाडोंग हल्दी की विशेषता को देखते हुए बड़ी कम्पनियो ने दूसरे स्थानो पर इसकी खेती करवानी चाही किन्तु समान गुणवत्ता वाली पैदावार नहीँ हो सकी । अपने गांव की मिट्टी और जलवायु की इस विशेषता को ट्रिनिटी ने पहचाना और इसका वाणिज्यिक लाभ स्थानीय महिलाओ को दिलवाने में अपनी मह्त्ती भूमिका निभाई । पारम्परिक हल्दी की खेती मे जो बीज प्रयोग में लाए जाते थे, उसके मुकाबले लकाडोंग प्रजाति के बीज महंगे थे, स्थानीय महिला कृषकों के लिए इन्हें खरीदना सम्भव नहीँ था । तब ट्रिनिटी ने शिलांग में स्पाइस बोर्ड से सम्पर्क कर महिलाओ को वित्तीय एवं तकनीकी सहायता उपलब्ध करवाई ।

हल्दी में एक विशेष तत्व पाया जाता है 'करक्यूमिन' , जो अन्य किस्म की हल्दी में मात्र 3% होता है जबकि लकाडोंग हल्दी में 7.5% पाया जाता है । ट्रिनिटी के गांव का स्वच्छ वातावरण एवं उनके खेती के तरीकों से इस हल्दी का स्वाद और भी बढ़ा क्योंकि ट्रिनिटी रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के उपयोग की घोर विरोधी है । प्रयोगशाला की जाँच में पाया गया कि खाना पकाने में लकाडोंग हल्दी इस्तेमाल करने पर इसकी कम मात्रा की खपत होती है ।

गांव मदनकिनशॉ, म्यनकटूंग, रीतियांग, पिनतेई और लास्केन में लगभग 100 सेल्फ हेल्प ग्रुप के द्वारा हल्दी की व्यापक खेती व मार्केटिंग करने वाली कृषक ट्रिनिटी ने व्यापार में ईमानदारी के सिद्धांत को अपनाया । उन्होंने हल्दी की खेती करने वाली महिलाओं से लेकर खरीददार तक, सभी को हल्दी की पहचान, गुणवत्ता इत्यादि की जानकारी दी । ट्रिनिटी ने हल्दी की किस्मों के फर्क जानने की साधारण पहचान बताई जैसे कि लकाडोंग की जड़ें लंबाई में पतली, लंबी और समानांतर होती हैं जबकि अन्य किस्म की हल्दी की जड़ें मोटी होती हैं।

ट्रिनिटी ने 30.10.2016 को लेंगस्खेम स्पाइस प्रोड्यूसर इंडस्ट्रियल को-ऑपरेटिव सोसाइटी का गठन किया, जिसकी पंजीकरण संख्या जेडब्ल्यूआई/43/2015-16 है । हल्दी मिशन को आगे बढ़ाते हुए उसे लाइफ स्पाइस फेडरेशन ऑफ सेल्फ हेल्प ग्रुप, लास्केन सी ड़ी ब्लॉक से जोड़ा । फेडरेशन ने लाइफ स्पाइस नामक अपनी खुद की प्रोसेसिंग फैक्ट्री शुरू की है ।

सम्मान एवं पुरस्कार- महिला किसान 'ट्रिनिटी साइओ' को उनके द्बारा की जा रही हर्बल खेती व प्रशिक्षण के लिए वर्ष 2020 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया । भारत सरकार के कृषि मंत्रालय द्वारा राष्ट्रीय महिला किसान दिवस के अवसर पर15 अक्टूबर 2018 को ट्रिनिटी को 'एक्सीलेंस इन होर्टिकल्चरल' अवार्ड दिया गया था ।

Sunday, 26 April 2020

पद्मश्री तुलसी गौड़ा


जन्म : 1944
जन्म स्थान : जिला उत्तर कन्नड़, कर्नाटक
वर्तमान निवास : गांव होन्नाली, तालुक अंकोला, जिला उत्तर कन्नड़, कर्नाटक

जीवन परिचय - तुलसी अम्मा के नाम से विख्यात तुलसी गौड़ा ट्राईबल्स परिवार में जन्मी एक अनपढ़ महिला हैं , कभी स्कूल नहीँ गई, किन्तु पौधों और वनस्पतियों का इनका ज्ञान अदभुत है । कोई शैक्षणिक डिग्री नहीं होने के बावजूद भी तुलसी गौड़ा को प्रकृति से उनके  लगाव को देखते हुए उन्हें  कर्नाटक सरकार के वन विभाग में नौकरी मिली । आज रिटायरमेंट के बाद भी वे अनवरत निःशुल्क सेवा दे रही हैँ । तुलसी निःसंतान है, प्रकृति ही उनका परिवार है और पेड़ पौधे उनके बच्चे हैँ ।

योगदान - कर्नाटक की 72 वर्षीय पर्यावरणविद् तुलसी गौड़ा ‘जंगलों की एनसाइक्लोपीडिया’ के रूप में प्रख्यात हैँ । ये पिछले 60 वर्षो में एक लाख से भी अधिक पौधे लगा चुकी हैं। कहते हैँ इनके द्वारा लगाया गया एक भी पौधा आज तक नहीँ सूखा। तुलसी पौधों की देखभाल अपने बच्चों की तरह करती हैं । छोटी झाड़ियों से लेकर ऊंचे पेडों तक, कब किसे कैसी देखभाल की जरूरत है, तुलसी अच्छी तरह जानती हैं , वे पौधों की बुनियादी जरूरतों से भलीभांति परिचित हैं। तुलसी अम्मा की खासियत है कि वह केवल पौधे लगाकर ही अपनी जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो जाती हैं, अपितु पौधरोपण के बाद एक पौधे की तब तक देखभाल करती हैं, जब तक वह अपने बल पर खड़ा न हो जाए। उन्हें पौधों की विभिन्न प्रजातियों और उसके आयुर्वेदिक लाभ के बारे में भी गहरी जानकारी है। पेड़ पौधों की जानकारी के लिए ना केवल स्थानीय लोग तुलसी के पास आते हैं बल्कि वन विभाग के पदाधिकारी भी प्रकृति सरंक्षण हेतू कई विषयों में इनकी राय को महत्व देते हैं । पेड़ पौधों की विभिन्न प्रजातियों पर तुलसी अम्मा के व्यापक ज्ञान को सरकार द्वारा मान्यता दी गई है क्योंकि ऐसा ज्ञान किसी वनस्पति वैज्ञानिक के पास होना भी दुर्लभ हैं ।

ट्राइबल समुदाय से संबंध रखने के कारण पर्यावरण संरक्षण का भाव उन्हें विरासत में मिला । दरअसल धरती पर मौजूद जैव-विविधता को संजोने में ट्राइबल्स की प्रमुख भूमिका रही है। ये सदियों से प्रकृति की रक्षा करते हुए उसके साथ साहचर्य स्थापित कर जीवन जीते आए हैं। जन्म से ही प्रकृति प्रेमी ट्राइबल लालच से इतर प्राकृतिक उपदानों का उपभोग करने के साथ उसकी रक्षा भी करते हैं। ट्राइबल्स की संस्कृति और पर्व-त्योहारों का पर्यावरण से घनिष्ट संबंध रहा है। यही वजह है कि जंगलों पर आश्रित होने के बावजूद पर्यावरण संरक्षण के लिए ट्राइबल सदैव तत्पर रहते हैं। ट्राइबल समाज में ‘जल, जंगल और जीवन’ को बचाने की संस्कृति आज भी विद्यमान है और तुलसी उसका जीता जागता उदाहरण है ।

सम्मान एवं पुरस्कार - तुलसी गौड़ा को वर्ष 2020 में पद्मश्री सम्मान प्रदान किया गया । वनीकरण और बंजर भूमि विकास के क्षेत्र में अग्रणी और अनुकरणीय कार्य हेतू तुलसी को पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा इंदिरा प्रियदर्शनी वृक्ष मित्र पुरस्कार प्रदान किया जा चुका है । तुलसी को कर्नाटक राज्योत्सव सम्मान, कविता मेमोरियल अवार्ड,
इंद्रावलू होनैय्या समाज सेवा पुरस्कार सहित कई अन्य सम्मनों से नवाजा जा चुका है । अम्मा को अदभुत सम्मान देते हुए बेंगलुरु के बन्नेरुघट्टा जैविक उद्यान
ने कुछ दिन पहले जन्मी हथिनी का नाम तुलसी रखा है ।

पद्मश्री प्रो. दिगम्बर हांसदा

जन्म : 16 अक्टूबर 1939
जन्म स्थान : दोवापानी, पोस्ट बेको, घाटशिला क्षेत्र, जिला पूर्वी सिंहभूम, झारखण्ड
वर्तमान निवास : सारजोम टोला, करनडीह, जमशेदपुर
पिता : सोमाय हांसदा
माता : सुरबलि हांसदा


जीवन परिचय - प्रो. दिगम्बर हांसदा का जन्म जमशेदपुर के समीप गांव दोवापानी में एक ट्राइबल कृषक परिवार में हुआ था । कुशाग्र बुध्दि हांसदा की प्राथमिक शिक्षा राजदोहा मिडिल स्कूल से हुई, उन्होने बोर्ड की परीक्षा मानपुर हाई स्कूल से दी । उन्होने 1963 में राँची यूनिवर्सिटी से राजनीति विज्ञान में स्नातक और 1965 में एमए किया । उसके बाद टिस्को आदिवासी वेलफेयर सोसायटी से जुड़ गए । कॉलेज के दिनोँ से ही प्रो. हांसदा समाजसेवा व ट्राइबल्स हितों की रक्षा के कार्यों में रुचि लेने लगे थे । इनकी पत्नी पार्वती हांसदा का स्वर्गवास हो चुका है , इनके दो पुत्र पूरन एवं कुंवर और दो पुत्रियाँ सरोजनी व मयोना हैँ. एक पुत्री तुलसी का निधन हो चुका है।

योगदान - ट्राईबल्स और उनकी भाषा के उत्थान के क्षेत्र में प्रोफेसर हांसदा का महत्वपूर्ण योगदान है। वे केन्द्र सरकार के ट्राईबल अनुसंधान संस्थान एवं साहित्य अकादमी के भी सदस्य रहे और उन्होंने सिलेबस की कई पुस्तकों का देवनागरी से संथाली में अनुवाद किया। उन्होंने इंटरमीडिएट, स्नातक और स्नातकोत्तर के लिए संथाली भाषा का कोर्स संग्रहित किया। उन्होंने भारतीय संविधान का संथाली भाषा की ओलचिकि लिपि में अनुवाद करने के साथ ही कई पुस्तकें भी लिखीं । स्कूल कॉलेज की पुस्तको में संथाली भाषा को जुड़वाने का श्रेय प्रो दिगम्बर को ही जाता हैं । प्रो. हांसदा लालबहादुर शास्त्री मेमोरियल कॉलेज के प्राचार्य एवं कोल्हान विश्वविद्यालय के सिंडिकेट सदस्य भी रहे । रिटायरमेंट के बाद भी काफी समय तक कॉलेज में संथाली की कक्षाएँ लेते रहे । वर्ष 2017 में दिगंबर हांसदा आईआईएम बोधगया के गवर्निंग बॉडी के सदस्य बनाए गए । प्रो हांसदा ने ग्रामीण क्षेत्रो में टाटा स्टील एवं सरकार के सहयोग से कई विद्यालय प्रारम्भ करवाए । प्रो. हांसदा ज्ञानपीठ पुरस्कार चयन समिति (संथाली भाषा) के सदस्य रहे हैँ, सेंट्रल इंस्टीच्यूट ऑफ इंडियन लैंग्वैज मैसूर , ईस्टर्न लैंग्वैज सेंटर भुवनेश्वर में संथाली साहित्य के अनुवादक, आदिवासी वेलफेयर सोसाइटी जमशेदपुर, दिशोम जोहारथन कमिटी जमशेदपुर एवं आदिवासी वेलफेयर ट्रस्ट जमशेदपुर के अध्यक्ष रहे, जिला साक्षरता समिति पूर्वी सिंहभूम एवं संथाली साहित्य सिलेबस कमेटी, यूपीएससी नयी दिल्ली और जेपीएससी झारखंड के सदस्य रह चुके हैँ । दिगंबर हांसदा ने आदिवासियों के सामाजिक व आर्थिक उत्थान के लिए पश्चिम बंगाल व ओडिशा में भी काम किया। ज्वलंत समस्या पत्थलगढी को गलत परम्परा मानने वाले विद्वान प्रो. हांसदा सादगी पूर्ण जीवन जीने वाले वृहत व्यक्तिव के स्वामी हैं ।
ट्राइबल्स में शिक्षा के प्रसारक, शिक्षाविद, साहित्यकार, ट्राइबल एक्टीविस्ट, समाजसेवी व उससे बढ़कर नेक इंसान के रूप में प्रो. हांसदा से झारखण्ड की अलग पहचान है ।


कृतियाँ - सरना गद्य-पद्य संग्रह, संथाली लोककथा संग्रह, भारोतेर लौकिक देव देवी, गंगमाला , संथालों का गोत्र

सम्मान एवं पुरस्कार - वर्ष 2018 में संथाली भाषा के विद्वान ' प्रो. दिगम्बर हांसदा' को साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया गया । ऑल इण्डिया संथाली फिल्म एसोसिएशन द्वारा प्रो. हांसदा को लाईव टाइम ऐचिवमेंट अवार्ड प्रदान किया गया है । वर्ष 2009 में निखिल भारत बंग साहित्य सम्मेलन ने उन्हे स्मारक सम्मान से सम्मानित किया वहीँ भारतीय दलित साहित्य अकादमी नई दिल्ली द्वारा उन्हें डॉ. अंबेदकर फेलोशिप प्रदान किया जा चुका हैँ । इंटरनेशनल फ्रेंडशीप सोसायटी नई दिल्ली ने इनको भारत गौरव सम्मान से सम्मानित किया हैं , इसके अलावा 37 बटालियन एनसीसी व अन्य कई संघठनो द्वारा प्रो. हांसदा को सम्मानित किया जा चुका हैं ।

Friday, 24 April 2020

टाना भगत


जन्म : सितम्बर 1888
जन्म स्थान: चिंगरी नवाटोली गांव, विशुनपुर, गुमला, झारखण्ड
निधन: 1915
मृत्यु स्थल : विशुनपुर, गुमला
पिता : कोदल उरांव
माता : लिबरी

जीवन परिचय - टाना भगत के नाम से लोकप्रिय जतरा भगत उर्फ जतरा उरांव का जन्म झारखंड के गुमला जिला के बिशनुपुर थाना के चिंगरी नवाटोली गांव में हुआ था। हेराग गाँव के तुरिया उराँव को गुरु बनाया और उनसे झाड़ फूँक की सच्चाई सीखी । अंधविश्वास में उलझे ट्राइबल्स को ओझा भूत भूतनी का भय दिखलाते थे । टाना भगत जानते थे कि यदि सीधे सीधे ट्राइबल समुदाय को अंग्रेजों का विरोध करने के लिए कहेंगे तो , य़ा तो ट्राइबल्स डरेंगे य़ा अंग्रेजों के कारिन्दे जमींदार इन्हें प्रताड़ित करेंगे । सो इन्होंने प्रचारित किया कि वे ईश्वरीय सत्ता धर्मेश से सीधे सम्पर्क में हैं और धर्मेश ने कहा है कि भूत भूतनी हमारे अंदर नहीं हैं बल्कि अंग्रेजों और जमींदारों के रूप में हमारी धरती पर आ बसे हैं । इन्हें टान कर यानी खींच कर बाहर करना है , इनका राज खत्म करना है ।

"टन-टन टाना, टाना बाबा टाना, भूत-भूतनी के टाना
टाना बाबा टाना, कोना-कुची भूत-भूतनी के टाना
टाना बाबा टाना, लुकल-छिपल भूत-भूतनी के टाना"

अर्थात, ओ पिता ! ओ माता ! देश की जान लेने वाले, ट्राइबल्स को लूटने-मारने वाले सभी तरह के भूत-भूतनियों को खींच कर देश से बाहर करने में हमारी मदद करो ।

टाना जतरा भगत का विवाह भी हुआ था, उपलब्ध दस्तावेजो के अनुसार इनके एक पुत्र का नाम देशा था ।

स्वतंत्रता संग्राम में योगदान - टाना भगत ने 1912 में ब्रिटिश राज और जमींदारों के खिलाफ अहिंसक असहयोग का आंदोलन प्रारम्भ किया । जतरा टाना भगत के नेतृत्व में उराँव जनजाति के लोगों ने संकल्प लिया कि वो ज़मींदारों के खेतो में मज़दूरी नहीं करेंगे और अंग़्रेज़ी हुकूमत को लगान नहीं देंगे । इसके लिए उन्होने प्रचारित किया कि 'सारी जमीन ईश्वर की है, इसलिए उस पर लगान कैसा ?' टाना भगत ट्राइबल समुदाय में विद्रोह की आग भड़काने में कामयाब हुए, गांव गांव सभाएँ होने लगी , ट्राइबल महिलाएँ एवं पुरुष लगान के विरोध में उठ खड़े हुए, खेतो में जोताई बन्द होने लगी, इस विद्रोह की गूँज दूर तक गई । अंग्रेजो ने जाल बिछाकर 21 अप्रेल 1914 को टाना भगत को गिरफ्तार कर लिया, ब्रिटिश सरकार का विरोध करने का आरोप लगाकर उन्हें सजा सुना दी गई । टाना 2 जून 1915 को रिहा हुए । उन्होने अंग्रेजों के विरुद्ध जो विद्रोह का बिगुल फूंका उसे 'टाना आन्दोलन' के नाम से जाना जाता है । टाना आन्दोलन झारखण्ड के गुमला पलामू से होते हुए छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले तक फैल गया था । नतीजन अंग्रेजों ने टाना समुदाय की भूमि छीनकर नीलाम करना प्रारम्भ कर दिया ।

टाना आन्दोलन की लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि देश आजाद होते ही 30 दिसम्बर 1947 को भारत के गवर्नर जनरल ने टाना भगतों की अंग्रेजों द्वारा 1913 से 1942 के बीच छीनी गई उनकी जमीन पर कब्जा बहाल करने हेतू एक्ट पर हस्ताक्षर किए जिसे 'राँची जिला ताना भगत रैयत कृषि भूमि पुनर्स्थापना अधिनियम, 1947' के नाम से जाना जाता है । यह एक्ट बिहार के असाधाराण गजट मे 23 जनवरी 1948 को प्रकाशित हुआ । अब टाना भगत समुदाय को यह उम्मीद जगी कि उन्हें उनकी क़ुर्बानी का फल ज़रूर मिलेगा और उनकी ज़मीनें वापस हो जाएंगी ,
मगर सूत्र बताते हैं कि विभिन्न जिलॉ मे टाना भगतों की लगभग 2486 एकड़ ज़मीन आज भी उन्हें वापस नहीं मिल पाई हैं और इस संबंध में 703 मामले झारखंड की विभिन्न अदालतों में चल रहे हैं ।

टाना भगत शराबबन्दी और शाकाहार के पक्षधर थे ।
'टाना आन्दोलन' ने आगे चलकर पंथ का रूप ले लिया , रीति-रिवाजों में भिन्नता के कारण टाना भगतों की कई शाखाएं पनप गयीं। उनकी प्रमुख शाखा को सादा भगत कहा जाता है। इसके अलावे बाछीदान भगत, करमा भगत, लोदरी भगत, नवा भगत, नारायण भगत, गौरक्षणी भगत आदि कई शाखाएं हैं। 

जेल से रिहा होने के बाद टाना भगत की मुलाकात
महात्मा गांधी से हुई, टाना गांधीजी से इतने प्रभावित हुए कि सादी ज़िंदगी जीने का संकल्प लिया , जिस पर आज भी क़ायम हैं । गांधीजी से मिलने के बाद टाना भगत खादी का ही कपड़ा पहनना, स्वयं चरखा चला कर सूत काटने, सर पर गाँधी टोपी लगाने , कंधे पर छोटे डंडे में तिरंगा झंडा रखना शुरू कर दिये। टाना आन्दोलन पूर्णत: गांधीमय हो गया। आज भी टाना समुदाय के हर घर मे तुलसी का चौरा और लहराता हुआ तिरंगा झण्डा अवश्य मिलेगा । टाना समुदाय तिरंगे को ही देवता मानते हैं और प्रतिदिन इसकी पूजा करते हैँ ।

टाना जतरा भगत के निधन के बाद भी टाना आन्दोलन समाप्त नहीं हुआ बल्कि आगे बढ़ा और इसे आगे बढ़ाया उनके अनुयायियों ने , ट्राइबल महिला लिथो उराँव , माया उराँव, शिबू उराँव व टाना भगतों ने । बेड़ो प्रखण्ड में उनके मूर्ति स्थल पर हरिवंश टाना भगत समेत 74 स्वतंत्रता सेनानी टाना भगतों के नाम के पत्थर पर अंकित हैँ । कांग्रेस के इतिहास में भी दर्ज है कि 1922 में कांग्रेस के गया सम्मेलन और 1923 के नागपुर सत्याग्रह में बड़ी संख्या में टाना भगत शामिल हुए थे। 1940 में रामगढ़ कांग्रेस में टाना भगतों ने महात्मा गांधी को 400 रुपए की रकम भेट की थी।

टाना आन्दोलन का मूल मंत्र -
धरती हमारी। ये जंगल-पहाड़ हमारे। अपना होगा राज। किसी का हुकुम नहीं। और ना ही कोई टैक्स-लगान या मालिकान। 

सम्मान - टाना जतरा भगत के पैतृक गाँव विशुनपुर गुमला मे उनका स्मारक बना हुआ हैं और एक विशाल प्रतिमा स्थापित हैं । बेड़ो प्रखण्ड के खकसी टोली गांव में भी टाना जतरा की मूर्ति स्थापित हैं । वर्ष 1966 में बिहार में टाना भगत वेलफ़ेयर बोर्ड की स्थापना हुई थी, हालाँकि उसका पुर्नगठन नहीं हो पाया । गुमला के पुग्गु में जतरा टाना भगत हाई स्कूल संचालित हो रही हैं । राँची के चान्हो प्रखण्ड में सोनचीपी में संचालित आवासीय विधालय का नामकरण टाना भगत के नाम पर हैं । टाना भगतों का संगठन 'अखिल भारतीय टाना भगत विकास परिषद' काफी सक्रिय हैं ।