Thursday, 5 January 2017

विशुद्ध प्रेम

नाना उग्रसेन के मथुरा नगरी की शोभा आपार ,
थी बड़ी बड़ी हवेलियाँ औ' ऊँचे ऊँचे तोरण द्वार ।

वृंदावन था ठेठ गाँव, केवल गौएँ बाछे और ग्वाल,
रोज़ वही माखन, वही दही, वही चावल और दाल ।

मथुरा में तो हाय वासुदेव जी के ठाट ही निराले थे,
गहने तो गहने , वहाँ के तो कपड़े भी चमक वाले थे ।

यहाँ वृंदावन में वन वन भटकती गँवार ग्वालन गोपियाँ,
गले तुलसी, माथे मोरपंख, हाथ में बाँसुरी वाले कन्हैया ।

मथुरा नगर की सजी धजी सुंदर सुंदर नवयौवनाएँ,
वृंदावन में रहा करती थी बँजारिनो सी गोप बालायें ।

मथुरा की गलियों में, इत्र लगा युवतियाँ फिरा करती थी,
पर बाँसुरी कृष्ण की तो वृंदावन में ही बजा करती थी ।

कर ले सोलह शृंगार , भले मथुरा की कन्यायें,
रास लीला तो वृंदावन जी में ही हुआ करती थी ।

कपड़े , तन, खूबसूरती या पैसा जहाँ, वहाँ प्रेम कैसा ?
मन,समर्पण औ त्याग जहाँ, मिले प्रेम वहाँ कृष्ण जैसा ॥

संदीप मुरारका
दिनांक 5 जनवरी'2017 गुरुवार
सम्वत 2073, पौष शुक्ल सप्तमी

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