नाम : श्री शिबू सोरेन
जन्म : 11 जनवरी,1944
जन्म स्थान : टोला नामरा, गांव बरलंगा, प्रखंड गोला, जिला रामगढ़, झारखंड
वर्तमान निवास : मोराबादी, राँची, झारखंड - 834008
स्थायी पता : 14, सेक्टर 1C , पोस्ट राम मन्दिर , बोकारो स्टील सिटी, झारखंड - 827001
पिता : स्व. सोबरन मांझी
माता : स्व. सोना मनी
पत्नी : श्रीमती रूपी सोरेन
जीवन परिचय - वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार झारखंड राज्य की 32 जनजातियों की कुल जनसंख्या है़ 86,45,042, जो राज्य की कुल जनसंख्या 3,29,88,134 का 26.2 प्रतिशत है़। उसमें भी संताल जनजाति की आबादी है़ 27,52,727 यानी कुल जनसंख्या का 8.34 प्रतिशत एवं आदिवासी जनसंख्या का 31.84 प्रतिशत। संताल जनजाति की आबादी झारखंड में ही नहीं बल्कि पश्चिम बंगाल में 25,12,331, ओड़िशा में 8,94,764, बिहार में 4,06,076, असम में 2,13,139, बांग्लादेश में 3,00,061, नेपाल में 51,735 एवं देश के विभिन्न हिस्सों में फैली हुई है़। देश की सबसे बड़ी जनजाति संताल में जन्में दिशोम गुरु के नाम से विख्यात शिबू सोरेन उर्फ शिवचरण लाल मांझी।
उनदिनों शिबू सोरेन के गांव में महाजनी सूद प्रथा जोरों पर थी। गरीब किसानों को ऊँची ब्याज दर पर कर्ज देकर उनकी भूमि के कागजातों पर अँगूठा लगवा लिया जाता था, फिर ब्याज ना चुका पाने की स्थिति में महाजनों के गुर्गे गरीब किसानों के खेत हड़प लिया करते और उनपर जुल्म भी किया करते। बालक शिबू के पिता गांव में शिक्षा के प्रचार प्रसार में सक्रिय थे। दूरदर्शी विचारधारा के सोबरन मांझी की सोच थी कि आदिवासियों में इतना अक्षर ज्ञान तो अवश्य होना चाहिए कि कितनी राशि पर अँगूठा लगवाया जा रहा है, वह तो किसान स्वयं पढ़ सके। किंतु सामंती ताकतों ने अंधेरे में जल रहे उस दीपक को बुझा दिया, दिनांक 27 नवंबर,1957 को शिबू सोरेन के पिता की हत्या कर दी गई।
जब उनके पिता की निर्मम हत्या हुईं, तब बालक शिबू मात्र 13 वर्ष के थे। उनका मन उद्वेलित रहने लगा, उनकी शिक्षा जारी थी। वे बचपन से ही अपने पिता की दिखाई राह पर चल पड़े। महाजनों, सूदखोरों, सामंतवादी व्यवस्था के विरुद्ध उनका आक्रोश बढ़ता चला गया। उन्होनें सामंतवाद के खिलाफ शंख फूँक दिया, धीरे धीरे उनकी यह लड़ाई हर शोषित, पीड़ित व वंचितों की लड़ाई बन गई।
शिबू सोरेन कहते थे कि 'जमीन आदिवासियों की और कब्जा महाजनो का' - यह नहीं चलेगा। ट्राइबल्स के खेतों को ट्राइबल्स जोतते, जब फसल तैयार हो जाती, तो उसे काटने महाजनों के लोग पहुँच जाया करते। गुरुजी ने नारा दिया - 'धान काटो बाल काटो'। जब फसल तैयार हो जाती तो गुरुजी अपने साथियों के साथ पारंपरिक हथियार (तीर धनुष) लेकर पहुंच जाते और अपनी निगरानी में धान कटवाया करते। उनके सरंक्षण में किसान अपनी फसल अपने घर ले जाने लगे, इसप्रकार ग्रामीणों को उनका हक मिलने लगा।
समाज सुधारक - ट्राइबल्स में व्याप्त सामाजिक कुरुतियों से शिबू सोरेन भली भांति अवगत थे। विशेषकर देशी शराब (हड़िया, महुआ, ताड़ी) के विरुद्ध शिबू प्रतिदिन ग्रमीणों को समझाया करते। उनकी बातों से प्रभावित होकर ग्रामीण महिलाओं में जागरूकता आने लगी, उन्होनें गांवो में शराब की कई अवैध भट्टियों को ध्वस्त कर दिया।
नशाखोरी एवं अशिक्षा के विरुद्ध धरती पुत्र शिबू सोरेन ने वर्ष 1962 में मारफारी, बोकारो में 'संताल नवोदय संघ' का गठन किया। मजदूरी करने वाली आदिवासी महिलाओं का शारीरिक व आर्थिक शोषण किया जाता था, गुरुजी ने उनके हित में 'आदिवासी सुधार समिति' का गठन किया। वर्ष 1968 में समिति का पहला सम्मेलन रामगढ़ के औरंडीह गोला में संपन्न हुआ। धनबाद के टुंडी प्रखंड के पोखरिय़ा गांव में गुरुजी ने संतालों के लिए आश्रम की स्थापना की।
शिक्षा का प्रसार - वर्ष 1970 में जनजाति बाहुल्य गांवो में गुरुजी ने कई प्राथमिक विद्यालय खुलवाए। मजदूरों के लिए रात्रि विद्यालयों की शुरुआत की। उनदिनों गांवो में बिजली की व्यवस्था नहीं थी, गुरुजी ने रात्रि विद्यालयों में रोशनी के लिए हजारों लालटेन का वितरण किया।
महाजनी सूद प्रथा, अशिक्षा, शराब व आदिवासी शोषण के विरुद्ध इनके प्रयासों को कभी भुलाया ना जा सकेगा। वर्ष 1957 से लगातार 6 दशकों तक शिबू सोरेन सामाजिक जीवन में सक्रिय रहे हैं। झारखंड राज्य के गठन से लेकर विकास की गाथा कहती हर पुस्तक का एक महत्वपूर्ण व स्वर्णिम अध्याय है़ - "दिशोम गुरु शिबू सोरेन"।
झारखंड आंदोलनकारी - आजादी के पूर्व से ही ट्राइबल्स हितों की अनदेखी होती रही। दिनांक 25 अप्रैल, 1939 को झारखंड के ओड़िशा बार्डर पर सिमको नामक स्थान पर अंग्रेजों ने सैकड़ों आदिवासियों को मार गिराया, जिसका पुरजोर विरोध प्रदर्शन आदिवासी महासभा ने किया। दिनांक 1 जनवरी,1948 को सरायकेला खरसावां जिले में नरसंहार हुआ। उसके बाद ही दिनांक 1 जनवरी 1950 को आदिवासी महासभा के राजनीतिक विंग के रूप में झारखंड पार्टी का गठन हुआ और तभी से अलग झारखंड राज्य के गठन की माँग उठने लगी थी।
किंतु झारखंड गठन की माँग के आंदोलन को परवान चढ़ाया दिशोम गुरु शिबू सोरेन ने। दिनांक 4 फरवरी 1973 को धनबाद गोल्फ ग्राउंड में आयोजित विशाल सम्मेलन में गुरुजी ने अलग राज्य के आंदोलन को नई दिशा एवं गति प्रदान की। वे अपने साथियों के साथ सेम के पत्ते का रस निचोड़कर खजूर के डंठल से टॉर्च की रोशनी में दीवारों पर नारे लिख कर चेतना जगाने का कार्य किया करते थे। एक समय ऐसा आया जब आदिवासियों के परंपरागत हथियार तीर-धनुष पर बैन लगा दिया गया। इसका व्यापक विरोध होने लगा। गुरुजी दिल्ली जाकर तत्कालीन प्रधानमंत्री से मिले और तीर-धनुष पर लगा प्रतिबंध तत्काल हटाने का आदेश जारी करवाया। यह उनके करिश्माई नेतृत्व एवं चरणबद्ध आंदोलन का ही फल था कि केंद्रीय सरकार को झारखंड के गठन की स्वीकृति प्रदान करनी पड़ी और 15 नवंबर 2000 को झारखंड राज्य अस्तित्व में आया।
राजनीतिक जीवन - दिनांक 9 अगस्त 1995 में केंद्रीय सरकार ने झारखंड क्षेत्र स्वशासी परिषद् (जैक) का गठन किया, जिसके प्रथम अध्यक्ष बने आंदोलनकारी शिबू सोरेन।
मात्र 36 वर्ष की उम्र में शिबू सोरेन शोषितों की आवाज बनकर संसद पहुंचे। दिशोम गुरु की लोकप्रियता का आलम यह है कि दुमका लोकसभा क्षेत्र की जनता ने इनको 8 बार अपना सांसद चुना। निर्दलीय शिबू सोरेन पहली बार 112,160 वोट लाकर सातवीं लोकसभा में संसद पहुंचे। दूसरी बार नौवीं लोकसभा में उन्होंने झारखंड मुक्ति मोर्चा से चुनाव लड़ा और 247,502 वोट लाकर विजयी हुए। धीरे धीरे जनप्रिय शिबू सोरेन के वोट बढ़ते चले गए, चौदहवीं लोकसभा में उन्हें 339,516 वोट प्राप्त हुए।
संसदीय सफर -
सातवीं लोकसभा - 18.1.1980 से 31.12.1984
नौवीं लोकसभा - 2.12.1989 से 13.3.1991
दसवीं लोकसभा - 20.6.1991 से 10.5.1996
ग्यारहवीं लोकसभा - 16.5.1996 से 19.3.1998
तेरहवीं लोकसभा उपचुनाव - 3.6.2002 से 6.2.2004
चौदहवीं लोकसभा - 17.5.2004 से 18.5.2005
पंद्रहवी लोकसभा- 22.5.2009 से 18.5.2014
सोलहवीं लोकसभा - 16.5.2014 से 11.4.2019
राज्यसभा - गुरुजी के नाम से लोकप्रिय शिबू सोरेन 10 अप्रैल 2002 से 2 जून 2002 तक राज्यसभा सांसद रहे। वर्ष 2004 में सोरेन ने कोयला मंत्री दायित्व का भी निर्वहन किया।
मुख्यमंत्री - आदिवासी बहुल राज्य झारखंड में आदिवासियों के सर्वमान्य नेता शिबू सोरेन तीन बार मुख्यमंत्री बने. -
2.3.2005 से 12.3.2005
27.8.2008 से 19.1.2009
30.12.2009 से 1.6.2010
सर्वमान्य ट्राइबल नेता - झारखंड में 26.2 प्रतिशत ट्राइबल जनसंख्या है और इस सत्य को कोई नहीं झुठला सकता कि शिबू सोरेन ट्राइबल समुदायों के सर्वमान्य नेता हैं. आदिवासियों, वंचितों के साथ ही सभी जातियों और समुदायों के लोग शिबू सोरेन का सम्मान करते हैं। ईव्हीएम (EVM) की दलगत राजनीति अपनी जगह है, किंतु किसी भी पार्टी के वरिष्ठ नेता दिशोम गुरु शिबू सोरेन से मिलने जाते हैं तो पूरे सम्मान व आदर के साथ उनके पांव छूते हैं। झारखंड में गुरुजी शिबू सोरेन का स्थान सर्वोच्च है। जनजातीय समुदाय के नेताओं के मध्य नेतृत्व क्षमता के विकास का श्रेय दिशोम गुरु शिबू सोरेन को जाता है़।
सर्वसुलभ शिबू सोरेन सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों में सक्रिय रहे। वे ट्राइबल्स के शोषण के विरुद्ध कार्य करते रहे। गुरुजी ट्राइबल्स में व्याप्त सामाजिक बुराइयों पर दुःखी रहा करते। वे सदैव ट्राइबल्स युवाओं के मध्य शिक्षा, लोक गीत और नृत्य के प्रसार में सक्रिय रहे। गुरुजी जब अपने लोकसभा क्षेत्र दुमका में रहते, तो उनसे मिलना बहुत आसान होता था। वैसे गुरुजी को केवल दुमका तक सीमित करना गलत होगा, झारखंड ही नहीं असम, बिहार, पश्चिम बंगाल आदि राज्यों के हर उस गांव में गुरुजी की लोकप्रियता है, जहाँ एक आदिवासी भी निवास करता है़। समाज में इनके अविस्मरणीय योगदान को शब्दों में समेटना असंभव है। झारखंड की माटी का कण कण गुरुजी का आभारी है।
संतान - तीन पुत्र
स्व. दुर्गा सोरेन, पूर्व विधायक, जामा विधानसभा क्षेत्र
श्री हेमंत सोरेन, मुख्यमंत्री, झारखंड सरकार
श्री बसंत सोरेन, विधायक, दुमका विधानसभा क्षेत्र
पुत्रवधू -
श्रीमती सीता सोरेन, विधायक, जामा विधानसभा क्षेत्र
पुत्री -
श्रीमती अंजली सोरेन
Sunday, 31 May 2020
Friday, 29 May 2020
पद्म भूषण कड़िया मुंडा, झारखण्ड
पद्म भूषण - 2019 सार्वजनिक मामलों के क्षेत्र में
जन्म : 20 अप्रैल' 1936
जन्म स्थान : टोला चांडिलडीह, गांव अनिगाड़ा, जिला खूँटी, झारखण्ड
वर्तमान निवास : गांव अनिगाड़ा, ब्लॉक खूँटी, जिला खूँटी, झारखण्ड
पिता : हाडवा मुण्डा
माता : चाम्बरी देवी
पत्नी : सुनन्दा देवी
जीवन परिचय - झारखंड के खूँटी जिला के अनिगाड़ा गांव में गुलामी के दौरान एक ट्राइबल परिवार में कड़िया मुंडा का जन्म हुआ. उन्होंने मैट्रिक तक की पढ़ाई गांव से ही की. फिर गांव से 40 किलोमीटर दूर रांची आ गए. कुशाग्र मुंडा ने रांची विश्वविद्यालय से स्नातक और फिर मानवशास्त्र में एम ए किया. मुंडा के दो पुत्र जगरनाथ एवं अमरनाथ और तीन पुत्रियाँ हैँ. इनकी पुत्री चंद्रावती शारु जो पेशे से शिक्षिका हैँ, 2015 में अपने खेत के कच्चे आमों को स्वयं सब्जी बाजार में बैठकर बेचा और सादगी की एक मिसाल कायम की.
राजनीतिक परिचय - मुंडा अपने कॉलेज के दिनोँ में ही सामाजिक कार्यों में रुचि लेने लगे. उन्होंने समाज के अतीत और वर्तमान के विभिन्न पहलुओं का गहन अध्ययन किया. पंडित दीनदयाल उपाध्याय की विचारधारा एवं अटल बिहारी बाजपेयी के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर मुंडा भारतीय जनसंघ से जुड़ गए. गांव के किसानों की बीज , खाद या सिंचाई की समस्याओं को लेकर अक्सर प्रखण्ड कार्यालय जाया करते एवं उनके निदान का भरसक प्रयास करते. अनुशासित व समय के पाबंद मुंडा संगठन में भी जगह बनाने लगे. ट्राइबल क्षेत्र की मूलभूत आवश्कताओं की समझ रखने वाले मुंडा की पैठ गहरी होती गई. मण्डल व जिला स्तर पर अपने दायित्वों का बखूबी निर्वहन करने वाले मुंडा को 1975 में बिहार प्रांतीय कमिटी के सह सचिव का दायित्व दे दिया गया.
1977 में लोकसभा चुनाव आ गए. उनदिनों 'भारतीय लोक दल' के 'हलधर किसान' चिन्ह पर चुनाव लड़ा गया. पार्टी ने कूल 405 सीटों पर प्रत्याशी उतारे, जिनमें 295 सीटों पर जीत हासिल हुईं. पार्टी ने खूँटी लोकसभा के लिए कड़िया मुंडा पर विश्वास जताया और वे उस खरे उतरे. मुंडा 91859 वोट लाकर विजयी हुए. पहली बार केंद्र में गैर-कांग्रेसी सरकार बनी. मुंडा पहली बार सांसद बने. पहली बार में ही उन्हें स्टील एवं माईन्स मंत्रालय के राज्यमंत्री के रूप में बड़ी जिम्मेदारी मिली.
1996 में अटल बिहारी वाजपेयी के तेरह दिन के कार्यकाल में कड़िया मुंडा कल्याण मंत्री रहे. वर्ष 2000 में कृषि एवं ग्रामीण उद्योग मंत्री बने. 2003 में कोयला मंत्री एवं 2004 में गैर-पारंपरिक ऊर्जा स्रोत मंत्री पद का निर्वहन किया. मुंडा ने 8 जून 2009 से 12 अगस्त 2014 तक लोकसभा उपाध्यक्ष पद को सुशोभित किया.
यूँ तो कड़िया मुंडा आठ बार सांसद रहे. किन्तु भारतीय राजनीति की विडम्बना देखिए, इनके मात्र तीन कार्यकाल ही पूरे हुए. शेष पाँचो लोकसभा किसी ना किसी कारण से अल्पावधि में ही भंग हो गई. यदि आठों कार्यकाल पूर्ण होते तो वे लगभग 14575 दिनोँ तक सांसद रहते, किन्तु इनका संसदीय कार्यकाल मात्र 8852 दिन का रहा. भारत की छठी लोकसभा तो मात्र 298 दिनोँ तक ही चल सकी थी. जबकि नौवीं 467 दिन, ग्यारहवीं 673 दिन एवं बारहवीं लोकसभा मात्र 404 दिन की रही.
सांसद :
छठी लोकसभा - 23.3.1977 से 14.1.1980
नौवीं लोकसभा - 2.12.1989 से 13.3.1991
दसवीं लोकसभा - 20.6.1991 से 10.5.1996
ग्यारहवीं लोकसभा - 16.5.1996 से 19.3.1998
बारहवीं लोकसभा- 19.3.1998 से 26.4.1999
तेरहवीं लोकसभा- 10.10.1999 से 6.2.2004
पंद्रहवीं लोकसभा - 22.5.2009 से 18.5.2014
सोलहवीं लोकसभा- 26.5.2014 से 23.5.2019
खूँटी लोकसभा देश में अपने आप में एक विचित्र लोकसभा है. इसका एक किनारा ओडिशा को छूता है तो दूसरा किनारा छत्तीसगढ़ को. यदि लोकसभा क्षेत्र में एक कोने से दूसरे कोने तक सफर तय करना हो तो दूरी लगभग 250 किलोमीटर है. इसके अंतर्गत अलग अलग 4 जिलों में छह विधानसभा क्षेत्र हैँ. सरायकेला-खरसांवा जिला के 'खरसांवा', रांची जिला के 'तमाड़', खूंटी जिला में 'खूंटी' व 'तोरपा' तथा सिमडेगा जिला में 'सिमडेगा' व 'कोलेबिरा' विधानसभा क्षेत्र आते हैं. किन्तु यह मुंडा का करिश्माई व्यक्तित्व ही था जो हर बार चुनाव में वोट बढ़ते चले गए. 2014 के चुनाव में मुंडा को 269185 वोट मिले.
अपने क्षेत्र में प्रायः पैदल घूमने वाले कड़िया मुंडा विधायक भी रहे. वर्ष 1982 में बिहार के खिजरी विधानसभा क्षेत्र में जब उपचुनाव हुआ तो मुंडा पहली बार विधायक बने. झारखंड गठन के बाद 2005 में एक बार पुनः मुंडा ने खिजरी का प्रतिनिधित्व किया.
संगठन में मुंडा ने विभिन्न दायित्वों का निर्वहन किया. 1980 में भाजपा के राष्ट्रीय कार्यसमिति सदस्य, 1982 में भाजपा अनुसूचित जनजाति मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष, 1998 भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष इत्यादि.
सरकार की विभिन्न समितियों एवं महत्वपूर्ण पदों की जिम्मेदारी समय समय पर कड़िया मुंडा को सौपी गई. 1977 में इस्पात मंत्रालय की हिन्दी समिति के अध्यक्ष.1990 में सदस्य - विज्ञान प्रौद्योगिकी समिति , वन एवं पर्यावरण समिति, उद्योग मंत्रालय की परामर्शदात्री समिति. 1991 में अनुसूचित जाति एवं जनजाति के कल्याण के लिए समिति, 1994 शहरी एवं ग्रामीण विकास समिति, अनुसूचित जाति जनजातियों के आरक्षण सम्बन्धी समिति, खाद्य आपूर्ति एवं सार्वजनिक वितरण समिति, नागरिक उड्डयन के लिए परामर्शदात्री समिति , चीनी एवं खाद्य तेल मामलों की समिति.
संसद में कई समितियों उसमितियों के अध्यक्ष के तौर पर मुंडा की उल्लेखनीय भूमिका रही - संसद भवन की सुरक्षा सयुंक्त समिति, बजट समिति, निजी सदस्य विधेयक एवं प्रस्ताव समिति, पुस्तकालय समिति, सांसदो के लिए कार्यालय एवं कंप्यूटर उपलब्ध कराने सम्बन्धित समिति.
जमीनी राजनेता मुंडा भारतीय संसदीय समूह समिति, चिल्ड्रेन फोरम, जल संरक्षण और प्रबंधन फोरम, यूथ फोरम, जनसंख्या और सार्वजनिक स्वास्थ्य फोरम, ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन फोरम के उपाध्यक्ष भी रहे.
सर्वसुलभ मुंडा सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों में सक्रिय रहे. वे ट्राइबल्स के शोषण के विरुद्ध कार्य करते रहे. मुंडा ट्राइबल्स में व्याप्त सामाजिक बुराइयों पर दुःखी रहा करते. वे सदैव ट्राइबल्स युवाओं के मध्य शिक्षा, लोक गीत और नृत्य के प्रसार में सक्रिय रहे. मुंडा यदि अपने लोकसभा क्षेत्र में रहते, तो उनसे मिलना बहुत आसान था. वे गांवों के लोगों से घूम- घूम कर जानते कि इस बार की खेती कैसी रही और पेड़ों पर फल की पैदावार कैसी हुईं. ऐसे सरल मुंडा चीन, फ्रांस, लंदन, नेपाल, नॉर्थ कोरिया, सिंगापुर, थाईलैंड व युएई इत्यादि देशों का भ्रमण कर चुके हैँ.
केंद्र में मंत्री रहते हुए खेतों में हल चलाने वाले सरल स्वभाव के मुंडा अपनी राजनीतिक व्यस्तताओं के बावजूद खेल आयोजनों के लिए समय अवश्य निकाल लिया करते थे. हॉकी एवं फुटबॉल उनके पसंदीदा खेल रहे. मुंडा के लम्बे राजनैतिक जीवन में किसी अपराध, भ्रष्टाचार या विवाद में उनका नाम कभी नहीं आया. वे चुनावों में होने वाले बेहिसाब खर्चों के विरुद्ध प्रयासरत रहे.
सम्मान - अपनी सादगी और कार्य के प्रति समर्पण के लिए पहचाने जाने वाले ट्राइबल राजनेता सह पूर्व लोकसभा उपाध्यक्ष कड़िया मुंडा को वर्ष 2019 में सार्वजनिक मामलों के क्षेत्र में उनके अविस्मरणीय योगदान के लिए देश का तीसरा सर्वोच्च सम्मान पद्म भूषण प्रदान किया गया. झारखण्ड में यह सम्मान उनके अलावा मात्र टाटा स्टील के पूर्व चैयरमैन रूसी मोदी एवं क्रिकेटर महेन्द्र सिंह धौनी को प्राप्त हुआ है.
पद्मश्री डॉ आर डी मुंडा
जन्म : 23 अगस्त' 1939
जन्म स्थान : देवड़ी, तमाड़, राँची, झारखण्ड
निधन: 30 सितम्बर' 2011 कैंसर से
मृत्यु स्थल : अपोलो हास्पिटल,राँची, झारखण्ड
पिता : गंधर्व सिंह मुंडा
माता : लोकमा मुंडा
पत्नी : अमिता मुंडा
जीवन परिचय - झारखण्ड के राँची जिले के प्रसिद्ध देवड़ी माता मन्दिर वाले गांव के ट्राइबल परिवार में रामदयाल मुंडा का जन्म हुआ. उनकी प्राथमिक शिक्षा अमलेसा लूथरन मिशन स्कूल तमाड़ में एवं माध्यमिक शिक्षा खूंटी हाई स्कूल में हुई. उन्होने 1963 में रांची विश्वविद्यालय से मानव विज्ञान में स्नातक किया. कुशाग्र बुध्दि मुंडा उच्चतर शिक्षा अध्ययन एवं शोध के लिए शिकागो विश्वविद्यालय, अमेरिका चले गए जहां से उन्होंने भाषा विज्ञान में 1968 में पीएचडी की. फिर वहाँ उन्होंने तीन वर्षोँ तक दक्षिण एशियाई भाषा एवं संस्कृति विभाग में शोध और अध्ययन किया. डॉ मुंडा 1972 - 81 से अमेरिका के मिनिसोटा विश्वविद्यालय के साउथ एशियाई अध्ययन विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर के रूप में अध्यापन कार्य करने लगे. वहाँ शिक्षण कार्य के अलावा साऊथ एशिया फोक की नृत्य संगीत टीम के सदस्य रहे और सांस्कृतिक आयोजनों में भाग लेते रहे.
मिनिसोटा विश्वविद्यालय में रहते हुए डॉ मुंडा को अमेरिकन युवती हेजेल एन्न लुत्ज से प्रेम हो गया फिर दोनों ने 14 दिसंबर 1972 को विवाह भी किया, किन्तु कुछ वर्षोँ बाद वह संबंध टूट गया. हेजेल से तलाक के बाद 28 जून 1988 को उन्होंने अमिता मुंडा से दूसरा विवाह किया. उनके इकलौते पुत्र हैँ प्रो. गुंजल इकिर मुण्डा.
योगदान - डॉ रामदयाल मुंडा भारत के ट्राइबल समुदायों के परंपरागत और संवैधानिक अधिकारों को लेकर बहुत सजग थे. लेकिन उनका मानना था कि प्रत्येक ट्राइबल का शिक्षित होना अति आवश्यक है, तभी ट्राइबल आन्दोलन सफल होगा, ट्राइबल्स को उनके अधिकार प्राप्त हो सकेंगे और ट्राइबल्स का विकास होगा.
रांची विश्वविद्यालय में तत्कालिन कुलपति डॉ कुमार सुरेश सिंह के आग्रह पर डॉ मुंडा 1982 में भारत लौट आए और जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग के गठन एवं विकास में अपना योगदान देने लगे. डॉ मुंडा 1983 में ऑस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी, कैनबेरा में विजिटिंग प्रोफेसर रहे. न्यूयॉर्क की साईरॉक्स यूनिवर्सिटी में 1996 में एवं जापान की टोक्यो यूनिवर्सिटी ऑफ फॉरेन स्टडीज में 2011 में भी उन्होंने विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में अपनी सेवाएँ दी.
डॉ मुंडा 1985 - 86 में रांची विश्वविद्यालय के उप-कुलपति रहे और फिर 1986 - 88 तक कुलपति रहे.
राँची यूनिवर्सिटी में उनकी सादगी के कई किस्से लोकप्रिय हैँ, अपने कक्ष की अपनी टेबल और चेयर वे स्वयं साफ किया करते. राँची यूनिवर्सिटी में सरहुल महोत्सव की परम्परा की शुरुआत उनके द्वारा ही की गई थी. डॉ मुंडा 1990- 95 जेएनयू , नई दिल्ली एवं 1993 - 96 नॉर्थ इस्टर्न हिल यूनिवर्सिटी, मेघालय के कार्यसमिति सदस्य रहे.
डॉ मुंडा ने 1977- 78 में अमेरिकन इन्स्टिट्यूट ऑफ इण्डियन स्टडीज से , 1996 में यूनाइटेड स्टेट्स - इण्डिया एजुकेशन फ़ाऊंडेशन से एवं 2001 में जापान फाऊंडेशन से फेलोशिप प्राप्त की.
उन्होंने झारखंड की आदिवासी लोक कला, विशेषकर ‘पाइका नृत्य’ को वैश्विक पहचान दिलाई. जुलाई 1987 में मास्को, सोवियत संघ में भारत महोत्सव हुआ था, जिसमें डॉ मुंडा ने सांस्कृतिक दल का नेतृत्व किया एवं उनकी टीम ने 'पाइका नृत्य' की अविस्मरणीय प्रस्तुति की.
वर्ष 1988 में बाली, इंडोनेशिया में हुए अंतरराष्ट्रीय संगीत कार्यशाला में भी डॉ मुंडा और उनके दल ने भाग लिया. मनीला, फिलीपींस में आयोजित अन्तराष्ट्रीय नृत्य एलायंस, ताइपे, ताईवान के अन्तराष्ट्रीय लोक नृत्य महोत्सव, यूरोप के ट्राइबल एवं दलित अभियान में डॉ मुंडा ने पाइका नृत्य की प्रस्तुतियाँ दी.
डॉ मुंडा 1988 में संयुक्त राष्ट्र संघ से जुड़ गए. वे जेनेवा में यू एन कार्यसमूह में नीति निर्माता रहे. न्यूयॉर्क के द इण्डियन कॉनफेडेरेशन ऑफ इण्डिजिनियस एण्ड ट्राइबल पीपुल्स आईसीआईटीपी में वरिष्ठ पदाधिकारी रहते हुए डॉ मुंडा ने बेबाक तरीके से ट्राइबल हितों को रखा. उनका मानना था पूरा देश मरुभूमि बनने के कगार पर है. केवल जहाँ जहॉ ट्राइबल्स रहते हैं, वहीं थोड़ा जंगल बचा है. अतः यदि जंगल को बचाना है तो ट्राइबल्स को बचाना होगा.
भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय के अन्तर्गत भारतीय मानवविज्ञान सर्वेक्षण विभाग में डॉ मुंडा ने वर्ष 1988 से 91 तक अपनी सेवाएँ दी. झारखण्ड आंदोलन के दौरान गृह मंत्रालय भारत सरकार द्वारा एक झारखंड विषयक समिति का गठन किया गया था, डॉ मुंडा 1989-1995 तक इसमेँ सदस्य रहे. कमिटी के कार्यकलापों एवं उनके अनुभवों पर आधारित कई आर्टिकल्स इण्डिया इंटरनेशनल सेंटर के त्रैमासिक पत्रिका में प्रकाशित हुए.
राष्ट्रीय शिक्षा नीति की समीक्षा के लिए 1990 में आचार्य राममूर्ति की अध्यक्षता में एक समीक्षा समिति का गठन हुआ था, जिसमें बतौर सदस्य डॉ मुंडा ने झारखण्ड (तत्कालिन बिहार) का प्रतिनिधित्व किया. डॉ मुंडा 1997 में अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के सलाहकार समिति सदस्य तथा 1998 में केंद्रीय वित्त मंत्रालय की फाइनांस कमेटी के सदस्य रहे. नवम् योजना आयोग, राष्ट्रीय महिला आयोग, मानवाधिकार शिक्षा की स्थायी समिति, विश्विद्यालय अनुदान आयोग, सामाजिक और आर्थिक कल्याण के संवर्धन के लिए राष्ट्रीय समिति , साहित्य अकादमी, राष्ट्रीय शिक्षक शिक्षा परिषद, वन अधिकार अधिनियम के अंर्तगत गठित अनुसूचित जनजाति एवं वनवासियों के लिए नीति निर्धारण समिति, सामाजिक न्याय और अधिकारिता समिति, जनजातीय मामलों के मंत्रालय की सलाहकार समिति इत्यादि कई केंद्रीय स्तरीय समितियों में डॉ मुंडा को सदस्य मनोनीत किया गया.
सामाजिक कार्यों व ट्राइबल्स उत्थान में सक्रिय डॉ मुंडा विभिन्न संस्थानों व संगठनो से जुड़े रहे तथा समय समय पर विभिन्न दायित्वों का निर्वहन किया. यथा भारतीय आदिवासी संगम, आदिम जाति सेवा मंडल, राँची यूनिवर्सिटी पीजी टीचर्स एसोसिएशन, बिंदराय इंस्टीट्यूट फॉर रिसर्च स्टडी एण्ड एक्शन चाईबासा, अखिल भारतीय साहित्यिक मंच नई दिल्ली, भारतीय साहित्य विकास न्यास.
देशज पुत्र डॉ मुंडा ने पूरी दुनिया के ट्राइबल समुदायों को संगठित किया. प्रत्येक वर्ष 9 अगस्त को "वर्ल्ड ट्राइबल डे" मनाया जाता है, इस परंपरा को शुरू करवाने में उनका अहम योगदान रहा है. खूँटी जिला में डोमबारी पहाड़ी पर बिरसा मुण्डा की 18 फिट ऊँची प्रतिमा की स्थापना में उनकी मुख्य भूमिका रही.
झारखण्ड आंदोलन के दौरान मोटर साइकिल में घूमने वाले प्रोफेसर मुंडा ने सांस्कृतिक साहित्यिक अलख जगाई -
अखंड झारखंड में
अब भेला बिहान हो
अखंड झारखंड में..
और समय अइसन आवी न कखन,
लक्ष भेदन लगिया,
उठो-उठो वीर,
धरु धनु तीर
उठो निजो माटी लगिया ...
राजनीतिक पारी खेलते हुए डॉ मुंडा 1991 से 1998 तक झारखंड पीपुल्स पार्टी के प्रमुख अध्यक्ष रहे. राज्यसभा में 245 सदस्य होते हैं. जिनमे 12 सदस्य भारत के राष्ट्रपति के द्वारा नामांकित होते हैं. इन्हें 'नामित सदस्य' कहा जाता है. डॉ मुंडा की अतुलनीय योग्यता व विद्वता को देखते हुए दिनांक 22 मार्च 2010 को राज्यसभा के लिए नामित किया गया.
डॉ मुंडा ने अमेरिका, रूस, आस्ट्रेलिया, फिलीपिंस, चीन, जापान, इंडोनेशिया, ताईवान सहित कई देशों का दौरा किया. 1987 में स्विट्जरलैंड के जेनेवा में आयोजित इण्डिजिनियस पापुलेशन, 1997 में डेनमार्क के कोपेनहेगन में आयोजित इण्डिजिनियस एकॉनामी , 1998 में नागपुर में इंटरनेशल एलायंस फॉर इण्डिजिनियस पीपुल्स ऑफ द ट्रॉपिकल फॉरेस्ट, 1999 में इंदौर में सयुंक्त राष्ट्र संघ के स्थायी फोरम, 2000 में जर्मनी के बर्लिन में खेल एवं शिकार , 2002 में स्वीडेन के उपसाला, न्यूयॉर्क एवं बैंकाक में देशज लोगों के विभिन्न मुद्दों पर आधारित अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों में डॉ मुंडा ने भाग लिया.
साहित्यकार डॉ रामदयाल ने मुंडारी, नागपुरी, पंचपरगनिया, हिंदी, अंग्रेजी में गीत-कविताओं के अलावा गद्य साहित्य रचा है. उनकी संगीत रचनाएं बहुत लोकप्रिय हुई हैं. इन्होंने कई महत्वपूर्ण अनुवाद किए.
कृतियाँ -
मुंडारी गीत - हिसिर
कुछ नए नागपुरी गीत
मुंडारी गीतकार श्री बुधु बाबू और उनकी रचनाएँ
मुंडारी व्याकरण
मुंडारी, हिन्दी व नागपुरी कविताएँ - सेलेद
प्रोटो खेरवारियन साउंड सिस्टम - शिकागो यूनिवर्सिटी
एई नवा कानिको - मुंडारी में सात कहानियाँ
नदी और उसके सम्बन्ध तथा अन्य नगीत
वापसी, पुनर्मिलन और अन्य नगीत
कविता की भाषा
देशज व ट्राइबल का परिचय
आदिवासी अस्तित्व और झारखंडी अस्मिता के सवाल
आदि धर्म, भारतीय आदिवसियों की धार्मिक आस्थाएं
अदान्दि बोंगा - वैवाहिक मंत्र
बा (एच) बोंगा - सरहुल मंत्र
गोनोई पारोमेन बोंगा - श्रद्धा मंत्र
सोसो बोंगा - भेलवा पूजन
जी टोनोल - मन बंधन
जी रानारा - मन बिछुड़न
एनीयोन - जागरण
महाश्वेता देवी की ' बिरसा ' का बंग्ला से हिन्दी अनुवाद
अंग्रेजी में अनुवाद -
जगदीश्वर भट्टाचार्य का संस्कृत नाटक हास्यार्णव प्रहसनम्
जितेंद्र कुमार का हिन्दी उपन्यास 'कल्याणी'
नागार्जुन का आंचलिक उपन्यास 'जमनिया का बाबा'
जयशंकर प्रसाद का प्रसिद्ध हिन्दी नाटक 'ध्रुवस्वामिनी'
जयशंकर प्रसाद का हिन्दी उपन्यास 'तितली'
रामधारी सिंह दिनकर का काव्य 'रश्मिरथी'
वर्ष 2010 में अखरा द्वारा निर्मित फिल्म गाड़ी लोहरदगा मेल में प्रेरणास्त्रोत डॉ मुंडा कहते हैँ नाच गाना ट्राइबल का कल्चर है, जब काम पर जाओ तो नगाड़ा लेकर जाओ और जब थकान हो जाए, काम से जी ऊबने लगे तो थोड़ी देर नगाड़ा बजाओ.
डॉ मुंडा कहते थे 'नाची से बांची' - इसी को शीर्षक बनाकर राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता एवं पहले ट्राइबल फिल्म निर्माता बीजू टोप्पो ने 2017 में डॉ रामदयाल के जीवनचरित पर आधारित 70 मिनट की फिल्म का निर्माण किया है. फिल्म में जनजातीय जीवन को काफी जीवंत तरीके से सामने रखा गया . इस फिल्म ने कई राष्ट्रीय पुरस्कार बटोरे हैँ.
शोधार्थी, शिक्षक, अंतरराष्ट्रीय स्तर के भाषाविद्, समाजशास्त्री, साहित्यकार, अप्रतिम ट्राइबल कलाकार , बाँसुरी वादक, संगीतज्ञ, राज्यसभा सांसद डॉ रामदयाल मुंडा के बहुमुखी व्यक्तित्व की गाथा को शब्दों में समेटना असम्भव है.
सम्मान एवं पुरस्कार - झारखण्ड की प्रमुख बौद्धिक और सांस्कृतिक शख्सियत रामदयाल मुंडा को 2010 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया. 2007 में उन्हें संगीत नाटक अकादमी का सम्मान प्रदान किया गया. झारखण्ड सरकार द्वारा मोहराबादी, राँची में डॉ रामदयाल मुंडा जनजातीय कल्याण शोध संस्थान एवं संग्रहालय का संचालन हो रहा है. वर्ष 2013 में राँची होटवार स्थित कला भवन में डॉ मुंडा की प्रतिमा की स्थापना की गई.
23 अगस्त 2018 को शोध संस्थान में उनकी मूर्ति का अनावरण किया गया. राँची राजकीय अतिथशिाला के सामने रामदयाल मुंडा पार्क बना हुआ है.
उनकी रचना सरहुल मंत्र की दो पंक्तियाँ -
हे स्वर्ग के परमेश्वर, पृथ्वी के धरती माय... जोहार !
हम तोहरे के बुलात ही, हम तोहरे से बिनती करत ही, हामरे संग तनी बैठ लेवा, हामरे संग तनी बतियाय लेवा, एक दोना हड़िया के रस, एक पतरी लेटवा भात, हामर संग पी लेवा, हामर साथे खाय लेवा..
इन पंक्तियों में डॉ मुंडा स्वर्ग के परमेश्वर को, पृथ्वी की धरती माता को, शेक्सपीयर, रवींद्रनाथ टैगोर, मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन, सिदो-कान्हु, चांद-भैरव, बिरसा मुंडा, गांधी, नेहरू, जयपाल सिंह मुंडा जैसे धरती पुत्रों को, जो ईश्वर के पास चले गए हैँ, उनको आमंत्रण भेजते हैँ

Tuesday, 26 May 2020
पद्मश्री गुलाबो सपेरा, राजस्थान 2016 कला
पद्मश्री - कला (लोक नृत्य)
जन्म : 3 नवम्बर' 1972
जन्म स्थान : गांव कोटड़ा, जिला अजमेर, राजस्थान
वर्तमान निवास : मुखर्जी कॉलोनी, गेट संख्या 4, शास्त्रीनगर, जयपुर, राजस्थान
पति : सोहन नाथ, लोक कलाकार (ढोलक)
जीवन परिचय - राजस्थान की एक घुमक्कड़ जाति है कालबेलिया, जो शहर या गांव के बाहर तंबू लगाकर रहती है. एक स्थान पर ये लोग ज्यादा नहीँ टिकते थे. राजस्थान की इसी ट्राइबल जाति में पैदा हुई थी गुलाबो सपेरा.
गुलाबो के जन्म की कहानी भी बड़ी विचित्र है. गुलाबो के पिता साँपो का खेल दिखाने शहर की ओर गए हुए थे. गुलाबो की माँ को प्रसव पीड़ा हुई. कालबेलिया औरतों ने प्रसव करवाया, शाम को 5 बजे के आसपास लड़की पैदा हुई. पहले ही तीन भाई तीन बहन मौजूद थे, अब एक और लड़की. उस जमाने में लड़की पैदा करना भी गुनाह था. गुलाबो की माँ बेसुध थी. उनकी नवजात लड़की छीन ली गई और रेत में दफना दी गई. गुलाबो की मौसी अंधेरा होने का इंतजार करने लगी और रात 11 बजे जाकर नवजात शिशु को निकाल लाई. ताकि गुलाबो की माँ एक बार अपनी बच्ची को गले लगाकर रो सके. पाँच घंटे रेत में दबा नवजात बच्चा भी कहीं जीवित रह सकता है भला. मौसी ने शिशु को लाकर माँ की गोद में डाल दिया. माँ फफककर रो पड़ी और गोद में पड़ी बच्ची भी. दैवीय कृपा से बच्ची जीवित थी. दूसरे दिन पिता वापस लौट आए. चूँकि बच्ची धनतेरस के दिन पैदा हुई थी सो उसका नाम रखा गया 'धनवंती' .
पिता अपनी बेटी से बहुत प्यार करते और डरते कि कबीले की औरतें इसे पुनः मारने का प्रयास ना करें. वे साँपो का खेल दिखाने जहाँ भी जाया करते , धनवंतरी को साथ ले जाया करते. साँपो का खेल देखने के बाद श्रध्दालु उन्हें दूध पिलाया करते. जो दूध बच जाता, उसे धनवंती को पिला दिया जाता. इसप्रकार साँपो का बचा हुआ दूध बड़ी होने लगी धनवंतरी.
सड़कों पर साँप का खेल चलता रहता वहीँ चादर पर शिशु धनवंती सोयी रहती, कभी कभार संपेरे पिता उसके ऊपर साँप डाल दिया करते. दर्शकों को बड़ा आनन्द आता. पैसे अच्छे मिलने लगे. साँपो के साथ खेलते खेलते बड़ी होने लगी धनवंती.
साल भर की हुई थी धनवंती कि उसकी तबीयत बहुत बिगड़ गई, इतनी कि वैद्य ने जवाब दे दिया. उस समय उनलोगों का तंबू जहाँ बना हुआ था, वहीँ समीप ही एक मजार थी. पिता धनवंती को बहुत प्यार करते थे, उसे गोद में लेकर दौड़े, मजार के समक्ष भूमि पर लिटा दिया और रोते रोते प्रार्थना करने लगे. थोड़ी ही देर में मजार पर चढ़ा हुआ एक गुलाब फूल बच्ची धनवंती के ऊपर गिरा और वह आँखे खोल अपने पिता को पुकारने लगी. आश्चर्यचकित पिता धनवंती व उस गुलाब फूल को लेकर अपने तंबू में लौट आए और अपनी बेटी को नया नाम दिया 'गुलाबो' .
गुलाबो पढ़ नहीँ पाई. 1986 में चौदह वर्ष की उम्र में ही इनका विवाह हो गया. इनकी पाँच संतान हैँ दो पुत्र दिनेश और भवानी एवं तीन पुत्रियाँ हैँ राखी, हेमा एवं रूपा.
योगदान - गुलाबो तीन वर्ष की उम्र से ही गले में साँप लपेटे सड़कों पर नाचने लगी थी. बीन, पूंगी और डफली की धुन पर उसका लचीला शरीर थिरकने लगता था. राजस्थान में प्रत्येक वर्ष कार्तिक पूर्णिमा के समय पुष्कर मेला का आयोजन होता है, जिसमें बड़ी संख्या में देशी विदेशी पर्यटक आते हैँ. मेले में गुलाबो के समुदाय के लोग भी इस आस से पहुंचते कि कुछ अतिरिक्त आमदनी हो जाएगी. गुलाबो 8 वर्ष की उम्र से पुष्कर मेला में जाने लगी और बीन की धुन पर अपनी नृत्य करती. सिक्कों के साथ साथ नोट भी उछलते.
वर्ष 1985 में पुष्कर मेले में घूमते हुए राजस्थान पर्यटन विभाग के अधिकारी हिम्मत सिंह एवं सांस्कृतिक कार्यकर्ता सह विख्यात लेखिका तृप्ति पाण्डे एक गोलाकार भीड़ के पास पहुंचे. झांककर देखा कि वहाँ कुछ संपेरे साँपो को नचा रहे थे, उन्ही साँपो के बीच नाच रही थी तेरह वर्षीय लड़की. दोनोँ की दृष्टि कालबेलिया नृत्य कर रही गुलाबो पर पड़ी और वे देखते ही रह गए. नृत्य समाप्त होने पर तृप्ति ने गुलाबो के पिता से कहा कि आपकी लड़की के शरीर में मानो हड्डी ही नहीँ है. इतना लचीलापन और इतनी शानदार प्रस्तुति. इस कलाकार का स्थान सड़कों पर नहीँ मंच पर है.
कुछ ही दिनोँ बाद दिल्ली में एक कार्यक्रम आयोजित था. राजस्थान पर्यटन विभाग की ओर से गुलाबो को दिल्ली लाया गया. जहाँ गुलाबो ने पहली बार मंच पर अपनी कला का प्रदर्शन किया. एक ऐसा प्रदर्शन जिसमें दर्शकों से उसे सिक्के नहीँ मिले, उसे मिली तालियों की गड़गड़ाहट.
उसी दर्शक दीर्घा में उपस्थित थे विख्यात क्यूरेटर पद्म भूषण राजीव सेठी , जो बड़े शांत भाव से उस ट्राइबल कलाकार की कला को देख रहे थे. उनके दिमाग में यूएसए में चल रहे फेस्टिवल ऑफ इण्डिया को और यादगार बनाने की योजना चल रही थी. जून 1985 में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी भी उस आयोजन में शरीक होने वाले थे. राजीव सेठी कालबेलिया नृत्य से प्रभावित हुए ना रह सके और इसी के साथ तय हो गया गुलाबो की यूएसए यात्रा का कार्यक्रम. परन्तु सफलता इतनी आसानी से नहीँ आती, गुलाबो दिल्ली में ही थी, उसके घर से खबर आई कि उसके पिता का निधन हो गया है. गुलाबो जयपुर के लिए रवाना हुई. शाम को अपने घर पहुँची. अपने पिता के शव के अन्तिम दर्शन किए. दूसरे दिन पिता की अंत्येष्टि थी और दूसरे ही दिन गुलाबो की यूएसए फ्लाईट. निर्णय कठिन था. किन्तु आँखो में आँसू लिए पिता की यादों और उनके चरणों के स्पर्श को अपने हृदय में अंकित कर गुलाबो रात दो बजे जयपुर से दिल्ली की ओर निकल पड़ी. इधर जयपुर में पिता के शव की आग ठण्डी नहीँ हुई थी, उधर वाशिंगटन में घूँघट से अपने आंसुओ को छिपाए गुलाबो थिरक रही थी. ऐसे शुरू हुआ मेलों में नाचने वाली गुलाबो का अंतरराष्ट्रीय स्तर की नृत्यांगना बनने का सफर.
अपने ही लिखे गानों को खुद ही गाने वाली और अपने ही गीतों पर नृत्य करने वाली गुलाबो ने ऐसी ख्याति पाई कि आज तक डेनमार्क ,ब्राजील, यू एस ए, जापान इत्यादि 165 देशों में उनके कार्यक्रम आयोजित हो चुके हैँ.
नृत्य संगीत में वैश्विक पहचान बनाने वाली गुलाबो ने प्रसिद्ध फ्रांसीसी संगीतकार थियरी ’टिटी’ रॉबिन के साथ एसोसिएट होकर कई कार्यक्रम किए. वर्ष 2002 उनदोनों का एक सयुंक्त 14-ट्रैक एल्बम 'राखी' काफी लोकप्रिय हुआ. थियरी रॉबिन और वेरोनिक गुइलियन द्वारा फ्रेंच में गुलाबो पर एक पुस्तक 'डांसेस गिताने डू राजस्थान' भी लिखी गई है.
विख्यात तो गुलाबो 1985 में हुई, जब पहली बार उनका कार्यक्रम दिल्ली एवं यूएसए में हुआ. उसके पूर्व 1983 में एक हॉलीवुड मूवी की शूटिंग राजस्थान में हो रही थी, उसमें इनका नृत्य शामिल हुआ. उसके बाद कई हिन्दी फिल्मों में इन्होंने नृत्य किए. गुलामी, बंटवारा, क्षत्रिय इत्यादि, विशेषकर निर्देशक जे. पी. दत्ता की फिल्मों में गुलाबो अवश्य दिखा करती थी. वर्ष 2013 में राजस्थान की फिल्म भंवरी का जाल एवं 2014 में राजु राठौड़ की सफलता में भी गुलाबो का योगदान है.
संजय दत्त और सलमान खान की मेजबानी में कलर्स टीवी के रियलिटी शो बिग बॉस सीजन 5 में शक्ति कपूर, जूही परमार, महक चहल जैसे फिल्म कलाकारों के साथ गुलाबो सपेरा ने भाग लिया. वर्ष 2011 में आयोजित इस लोकप्रिय टीवी शो में वे 14 दिनोँ तक रहीं.
गुलाबो का मानना है कि स्टेज ही उसके लिए मन्दिर है और दर्शक ही भगवान. वह कहतीं हैँ कि पूरे समर्पित भाव से नृत्य करें, इतनी तन्मयता से नृत्य करें कि यदि नृत्य के बीच में चाहे साउंड सिस्टम बन्द हो जाए या गीत की आवाज आनी बन्द हो जाए, पूरा होने तक नृत्य नहीँ रुकना चाहिए. उनकी इन्हीं विशेषताओं के कारण जयपुर की महारानी गायत्री देवी उन्हें पुत्री तुल्य स्नेह दिया करती. एक बार जैसलमेर में महारानी गायत्री देवी द्वारा आयोजित एक समारोह में गुलाबो बतौर अतिथि आमंत्रित थी. लोगों ने उन्हें नृत्य के लिए आग्रह किया. रात 10 बजे जो नृत्य प्रारम्भ हुआ वो सुबह 5 बजे तक चला. दर्शक डिनर करना भूल गए, ऐसी अदाकारा है गुलाबो सपेरा.
विश्व फलक पर कालबेलिया नृत्य की पहचान स्थापित करने वाली गुलाबो सपेरा नई पीढ़ी की छात्राओं को प्रशिक्षण दे रहीं हैँ. देश विदेश में विशेष कर जयपुर और डेनमार्क में इनके द्वारा प्रशिक्षण शिविर आयोजित किए जाते हैँ. आजकल गुलाबो पुष्कर में डांस एकेडमी की स्थापना में भी सक्रिय हैँ. गुलाबो सपेरा ने जयपुर में एक एनजीओ ' गुलाबो सपेरा नृत्य एवं संगीत संस्थान ' की भी स्थापना की है, जो राजस्थान सोसायटी एक्ट में पंजीकृत है, पंजीकरण संख्या 28/जयपुर/2006-07 दिनांक 13.04.2006 है.
गुलाबी शहर जयपुर में रहने वाली गुलाबो नृत्य करते समय 16 किलो राजस्थान के पारम्परिक चाँदी के जेवर और काले कपड़े पहनती है. इस ड्रेस की भी अपनी एक कहानी है. गुलाबो ने अपने जीवन में पहली फिल्म सात वर्ष की आयु में देखी 'आशा' . फिल्म देखकर लौटने के बाद गुलाबो के मन मस्तिष्क में रीना रॉय का लोकप्रिय गीत 'शीशा हो ये दिल हो' और उनकी काली ड्रेस छा गई. जो आगे चलकर उनका पसंदीदा लिबास बन गया.
सम्मान एवं पुरस्कार - अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त ट्राइबल नृत्यांगना गुलाबो सपेरा को 2016 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया. फरवरी' 2019 में गुलाबो को जापान में यूनेस्को पुरस्कार प्रदान किया गया. उन्हें विभिन्न संस्थानो द्वारा समय समय पर कई पुरस्कारों से नवाजा गया - राष्ट्रपति पुरस्कार, संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, टाइम्स म्यूजिक अवार्ड, राणा अमेरिका अवार्ड, अम्बेडकर अवार्ड, राजस्थान गौरव अवार्ड, गुजरात गौरव अवार्ड, गुंजन पुरस्कार आदि. वे 2010 में भास्कर वीमेन फॉर द ईयर के लिए नामित हुईं.
Ref :
i) The Indian Express , Jaipur Edition 29 January' 2016 story Written By Sri Mahim Pratap Singh .
ii) Interview of Gulabo Sapera on YouTube , Total Junction dated 7 April 2019
Saturday, 23 May 2020
पद्मश्री थांगा डारलोंग, त्रिपुरा 2019
पद्मश्री - कला (बाँसुरी)
जन्म : 20 जुलाई ' 1920
जन्म स्थान : बॉबे कैलाशाहर, जिला उनाकोटि ,
अगरतल्ला से 150 किलोमीटर, त्रिपुरा
पिता : हाकवुंगा डारलोंग
जीवन परिचय - नार्थ ईस्ट की एक अनुसूचित जनजाति है डारलोंग, इस समुदाय के लोग भारत में केवल त्रिपुरा में मिलेंगे, वो भी संख्या में 25000 से कम. यानि 37 लाख की आबादी वाले त्रिपुरा में डारलोंग समुदाय 1% से भी कम है. इसी समुदाय में जन्में थांगा डारलोंग.
योगदान - आधुनिकता की दौड़ में परम्पराओं को ताक पर रख दिया जाता है. लेकिन परम्पराएँ ही इंसान को उसके अतीत से जोड़ती है. परम्पराएँ समुदायों का इतिहास बताती हैँ. ऐसी ही एक परम्परा के वाहक हैँ थांगा डारलोंग.
नृत्य, गीत और संगीत यह ट्राइबल समुदायों की विशेषता होती है. डारलोंग समुदाय में बांस से एक वाद्य यंत्र 'रोजेम' बनाया जाता था. थांगा के पिता रोजेम बनाने और बजाने में निपुण थे. उन्हें देखकर थांगा बचपन से ही रोजेम बजाने लगे. फिर उन्हें उस्ताद डारथुमा डारलोंग का सान्निध्य मिला और वे रोजेम वाद्ययंत्र में पारंगत होने लगे.
थांगा रोजेम की बारीकियों से अवगत होने लगे और धीरे धीरे गांव के हर त्यौहार में बजाने लगे. थांगा जब धुन छेड़ते तो लोगों के पांव थिरकने लगते. उनकी लोकप्रियता बढ़ने लगी. देश के विभिन्न स्थानों में थांगा को रोजेम बजाने का अवसर मिला. थांगा अपनी संगीत कला के प्रदर्शन के लिए जापान आदि कई देशों में गए.
मिट्टी की दीवारों और टीन की छत वाली झोपड़ी में रहने वाले थांगा पारम्परिक संगीत के वाहक हैँ. उन्होने ना केवल पारम्परिक वाद्य यंत्र को संरक्षित किया बल्कि अपने समुदाय के युवाओं को प्रशिक्षित भी कर रहे हैँ.
त्रिपुरा यूनिवर्सिटी में वर्ष 2016 में थांगा डारलोंग के जीवनचरित पर 74 मिनट की फिल्म 'ट्रि ऑफ टंग्स' बनी, जिसके निर्देशक थे जोशी जोसेफ.
सम्मान एवं पुरस्कार - त्रिपुरा में आज तक मात्र पाँच लोगों को पद्मश्री अवार्ड्स प्राप्त हुए हैँ, जिनमें चौथे हैँ थांगा डारलोंग. वैसे ये राज्य के पहले ट्राइबल हैँ जिनको पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया गया. वर्ष 2014 में नईदिल्ली में इनको संगीत नाटक अकादमी सम्मान प्रदान किया गया. 2015 में थांगा को शैक्षणिक फेलोशिप अवार्ड प्राप्त हुआ. 2016 में थांगा राज्य स्तरीय वयोश्रेष्ठ सम्मान से सम्मानित हुए. भारत सरकार के सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने 2017 में इन्हें राष्ट्रीय वयोश्रेष्ठ सम्मान प्रदान किया. 2019 में पद्मश्री सम्मान के पश्चात 28 फरवरी 2019 को त्रिपुरा के मुख्यमंत्री ने 99 वर्षीय थांगा को अटल बिहारी बाजपेयी लाइफटाइम ऐचिवमेंट अवार्ड से सम्मानित किया.
जन्म : 20 जुलाई ' 1920
जन्म स्थान : बॉबे कैलाशाहर, जिला उनाकोटि ,
अगरतल्ला से 150 किलोमीटर, त्रिपुरा
पिता : हाकवुंगा डारलोंग
जीवन परिचय - नार्थ ईस्ट की एक अनुसूचित जनजाति है डारलोंग, इस समुदाय के लोग भारत में केवल त्रिपुरा में मिलेंगे, वो भी संख्या में 25000 से कम. यानि 37 लाख की आबादी वाले त्रिपुरा में डारलोंग समुदाय 1% से भी कम है. इसी समुदाय में जन्में थांगा डारलोंग.
योगदान - आधुनिकता की दौड़ में परम्पराओं को ताक पर रख दिया जाता है. लेकिन परम्पराएँ ही इंसान को उसके अतीत से जोड़ती है. परम्पराएँ समुदायों का इतिहास बताती हैँ. ऐसी ही एक परम्परा के वाहक हैँ थांगा डारलोंग.
नृत्य, गीत और संगीत यह ट्राइबल समुदायों की विशेषता होती है. डारलोंग समुदाय में बांस से एक वाद्य यंत्र 'रोजेम' बनाया जाता था. थांगा के पिता रोजेम बनाने और बजाने में निपुण थे. उन्हें देखकर थांगा बचपन से ही रोजेम बजाने लगे. फिर उन्हें उस्ताद डारथुमा डारलोंग का सान्निध्य मिला और वे रोजेम वाद्ययंत्र में पारंगत होने लगे.
थांगा रोजेम की बारीकियों से अवगत होने लगे और धीरे धीरे गांव के हर त्यौहार में बजाने लगे. थांगा जब धुन छेड़ते तो लोगों के पांव थिरकने लगते. उनकी लोकप्रियता बढ़ने लगी. देश के विभिन्न स्थानों में थांगा को रोजेम बजाने का अवसर मिला. थांगा अपनी संगीत कला के प्रदर्शन के लिए जापान आदि कई देशों में गए.
मिट्टी की दीवारों और टीन की छत वाली झोपड़ी में रहने वाले थांगा पारम्परिक संगीत के वाहक हैँ. उन्होने ना केवल पारम्परिक वाद्य यंत्र को संरक्षित किया बल्कि अपने समुदाय के युवाओं को प्रशिक्षित भी कर रहे हैँ.
त्रिपुरा यूनिवर्सिटी में वर्ष 2016 में थांगा डारलोंग के जीवनचरित पर 74 मिनट की फिल्म 'ट्रि ऑफ टंग्स' बनी, जिसके निर्देशक थे जोशी जोसेफ.
सम्मान एवं पुरस्कार - त्रिपुरा में आज तक मात्र पाँच लोगों को पद्मश्री अवार्ड्स प्राप्त हुए हैँ, जिनमें चौथे हैँ थांगा डारलोंग. वैसे ये राज्य के पहले ट्राइबल हैँ जिनको पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया गया. वर्ष 2014 में नईदिल्ली में इनको संगीत नाटक अकादमी सम्मान प्रदान किया गया. 2015 में थांगा को शैक्षणिक फेलोशिप अवार्ड प्राप्त हुआ. 2016 में थांगा राज्य स्तरीय वयोश्रेष्ठ सम्मान से सम्मानित हुए. भारत सरकार के सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने 2017 में इन्हें राष्ट्रीय वयोश्रेष्ठ सम्मान प्रदान किया. 2019 में पद्मश्री सम्मान के पश्चात 28 फरवरी 2019 को त्रिपुरा के मुख्यमंत्री ने 99 वर्षीय थांगा को अटल बिहारी बाजपेयी लाइफटाइम ऐचिवमेंट अवार्ड से सम्मानित किया.
Thursday, 21 May 2020
पद्मश्री भागवत मुर्मू ' ठाकुर'
पद्मश्री - सामाजिक कार्य
जन्म : 28 फरवरी ' 1928
जन्म स्थान : गांव बेला, पोस्ट माटिया, जिला जमुई, बिहार - 811312
निधन: 30 जून ' 1998
मृत्यु स्थल : गांव के अपने घर में
जीवन परिचय - बिहार के जमुई जिला के खैरा प्रखण्ड के बेला गांव के ट्राइबल परिवार में भागवत मुर्मू का जन्म हुआ. स्कूली शिक्षा पूर्ण होने पर भागवत मुर्मू राँची आ गए और वहीँ संत जेवियर कॉलेज में पढ़ने लगे.
योगदान - कॉलेज के दिनोँ में ही भागवत सामाजिक कार्यों में रुचि लेने लगे. स्नातक के बाद वे 1952 में संथाल पहाड़िया सेवा मंडल, देवघर से जुड़ गए. भागवत मुर्मू 'ठाकुर' ट्राइबल, दलित, पिछड़े व कमजोर वर्ग के उत्थान कार्यों में सक्रिय रहने लगे. 1957 में बिहार विधानसभा चुनावों की घोषणा हो गई. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भागवत को 'झाझा विधानसभा' से चुनावी मैदान में उतार दिया. उस जमाने में कांग्रेस का चुनाव चिन्ह 'दो बैलों की जोड़ी' थी. भागवत ने जीत दर्ज की और पाँच वर्षोँ तक लगातार ट्राइबल्स व पिछड़े वर्ग की आवाज बन कर बिहार विधानसभा में शोभायमान रहे. भागवत 1989 से 1991 विधान परिषद सदस्य रहे.
साहित्यकार भागवत मुर्मू 'ठाकुर' कविता, कहानी, गीत लिखते रहे. उनकी रचनाएँ हिन्दी, संथाली व बंग्ला में होती थी. उन्होंने देवनागरी लिपि में कई संथाली पुस्तकें लिखी. उनकी कई पुस्तकें एवं रचनाएँ विभिन्न यूनिवर्सिटी के सिलेबस में शामिल हैँ. विशेष कर उनके द्वारा लिखे गए दोङ गीत यू पी एस सी सिलेबस का हिस्सा है.उनकी पुस्तक दोङ सेरेञ (दोङ गीत) के संथाली ( ᱥᱟᱱᱛᱟᱲᱤ ) एवं हिन्दी दोनोँ संस्करण एमेजॉन पर उपलब्ध हैँ.
कृतियाँ -
सोहराय सेरेञ ( सोहराय गीत)
सिसिरजोन राङ ( काव्य संग्रह)
बारू बेड़ा (उपन्यास)
मायाजाल (कहानी)
संथाली शिक्षा
हिन्दी संथाली डिक्शनरी
कोहिमा (12 लोककथाएँ ) नागालैंड भाषा परिषद द्वारा प्रकाशित
जन्म : 28 फरवरी ' 1928
जन्म स्थान : गांव बेला, पोस्ट माटिया, जिला जमुई, बिहार - 811312
निधन: 30 जून ' 1998
मृत्यु स्थल : गांव के अपने घर में
जीवन परिचय - बिहार के जमुई जिला के खैरा प्रखण्ड के बेला गांव के ट्राइबल परिवार में भागवत मुर्मू का जन्म हुआ. स्कूली शिक्षा पूर्ण होने पर भागवत मुर्मू राँची आ गए और वहीँ संत जेवियर कॉलेज में पढ़ने लगे.
योगदान - कॉलेज के दिनोँ में ही भागवत सामाजिक कार्यों में रुचि लेने लगे. स्नातक के बाद वे 1952 में संथाल पहाड़िया सेवा मंडल, देवघर से जुड़ गए. भागवत मुर्मू 'ठाकुर' ट्राइबल, दलित, पिछड़े व कमजोर वर्ग के उत्थान कार्यों में सक्रिय रहने लगे. 1957 में बिहार विधानसभा चुनावों की घोषणा हो गई. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भागवत को 'झाझा विधानसभा' से चुनावी मैदान में उतार दिया. उस जमाने में कांग्रेस का चुनाव चिन्ह 'दो बैलों की जोड़ी' थी. भागवत ने जीत दर्ज की और पाँच वर्षोँ तक लगातार ट्राइबल्स व पिछड़े वर्ग की आवाज बन कर बिहार विधानसभा में शोभायमान रहे. भागवत 1989 से 1991 विधान परिषद सदस्य रहे.
साहित्यकार भागवत मुर्मू 'ठाकुर' कविता, कहानी, गीत लिखते रहे. उनकी रचनाएँ हिन्दी, संथाली व बंग्ला में होती थी. उन्होंने देवनागरी लिपि में कई संथाली पुस्तकें लिखी. उनकी कई पुस्तकें एवं रचनाएँ विभिन्न यूनिवर्सिटी के सिलेबस में शामिल हैँ. विशेष कर उनके द्वारा लिखे गए दोङ गीत यू पी एस सी सिलेबस का हिस्सा है.उनकी पुस्तक दोङ सेरेञ (दोङ गीत) के संथाली ( ᱥᱟᱱᱛᱟᱲᱤ ) एवं हिन्दी दोनोँ संस्करण एमेजॉन पर उपलब्ध हैँ.
कृतियाँ -
सोहराय सेरेञ ( सोहराय गीत)
सिसिरजोन राङ ( काव्य संग्रह)
बारू बेड़ा (उपन्यास)
मायाजाल (कहानी)
संथाली शिक्षा
हिन्दी संथाली डिक्शनरी
कोहिमा (12 लोककथाएँ ) नागालैंड भाषा परिषद द्वारा प्रकाशित
श्रीमद्भागवत जिस तरह सरल व लोकप्रिय धार्मिक ग्रंथ है, अपने नाम की ही तरह भागवत मुर्मू का जीवनचरित भी सरल व लोकप्रिय रहा.
पुरस्कार एवं सम्मान - भागवत मुर्मू ' ठाकुर' देश के पहले ट्राइबल थे, जिनको पद्मश्री सम्मान से नवाजा गया. सामाजिक कार्यों एवं साहित्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान के लिए उन्हें 16 मार्च 1985 को पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया गया. इन्हें नालंदा विद्यापीठ द्वारा कवि रत्न सम्मान प्राप्त हुआ एवं भारतीय भाषा पीठ द्वारा डी लिट् की उपाधि दी गई.
पुरस्कार एवं सम्मान - भागवत मुर्मू ' ठाकुर' देश के पहले ट्राइबल थे, जिनको पद्मश्री सम्मान से नवाजा गया. सामाजिक कार्यों एवं साहित्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान के लिए उन्हें 16 मार्च 1985 को पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया गया. इन्हें नालंदा विद्यापीठ द्वारा कवि रत्न सम्मान प्राप्त हुआ एवं भारतीय भाषा पीठ द्वारा डी लिट् की उपाधि दी गई.
पद्मश्री चित्तू टुडू, बिहार
जन्म : 31 दिसम्बर ' 1929
जन्म स्थान : साहूपोखर, पोस्ट श्याम बाजार, प्रखण्ड बौंसी, जिला बांका, बिहार - 813104
निधन: 13 जुलाई ' 2016
मृत्यु स्थल : गांव के अपने घर में
पत्नी : रानी सोरेन
जीवन परिचय - बिहार के भागलपुर प्रमण्डल के बौंसी गांव के एक ट्राइबल परिवार में चित्तू टुडू का जन्म हुआ. गांव में स्कूली शिक्षा हुई, चित्तू की पहचान एक योग्य व अनुशासित छात्र की रही. चित्तू ने ब्रिटिश शासन में मैट्रिक की परीक्षा पास की. देश में स्वतंत्रता आंदोलन जोरों पर था, हर युवा आजादी के यज्ञ में अपनी आहुति देना चाहता था. चित्तू के मन भी से देश के लिए कुछ करने का एक जज्बा हिलोरे ले रहा था. चित्तू ने अपनी भूमिका तय की और कूद पड़े. वे संथाल परगना कांग्रेस कमेटी से जुड़ गए. उसी क्रम में उनका सम्पर्क स्वतंत्रता सेनानी लाल बाबा से हुआ. चित्तू को स्वतंत्रता आंदोलन के बड़े नेताओं की जन सभा में दुभाषिये के रूप में कार्य करने का दायित्व दिया गया . चित्तू ट्राइब्ल्स बहुल क्षेत्रों में जाकर जनसम्पर्क करते एवं स्वतंत्रता सेनानियों के संदेश जनजातीय समुदाय तक पहुँचाते.
आजादी के बाद वर्ष 1950 में सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग में प्रचार संगठनकर्ता के रूप में सरकारी नौकरी में उनकी नियुक्ति हो गई. सूचना एवं जन-सम्पर्क विभाग में गीत नाट्य शाखा के संथाली भाषा के संगठनकर्ता, 1958 में अपर जिला जन-सम्पर्क पदाधिकारी, 1959 में जिला जनसम्पर्क पदाधिकारी, 1977 में उप जनसम्पर्क निदेशक और 1984 में संयुक्त निदेशक के पद पर प्रोन्नत हुए. अपने परिश्रम, व्यवहार व योग्यता के बल पर पदोन्नति प्राप्त करते हुए चित्तू अपनी सेवावधि में पाकुड़, चाईबासा, डाल्टनगंज, राँची और भागलपुर में कार्य किया तथा 1990 में संयुक्त निदेशक के पद से सेवानिवृत हुए। सफल वैवाहिक जीवन जीने वाले चित्तू को एकमात्र सन्तान हुई हीरामनी टूडू .
योगदान - सरकारी सेवा में रहते हुए ही चित्तू संथाली लोक गीत लिखने लगे. विभिन्न पत्र–पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ प्रकाशित और आकाशवाणी से प्रसारित होने लगी. इनके संथाली लोक गीतों का संग्रह 'जवांय धुती' काफी लोकप्रिय कृति है. इस पुस्तक के कई गीत सिदो कान्हु यूनिवर्सिटी के पाठ्यक्रम में शामिल हैँ. उन्होंने कई जीवनियों एवं नाटकों का संथाली में अनुवाद किया.
इनकी पुस्तक 'सोने की सिकड़ी - रुपा की नथिया ' आज भी साहित्यप्रेमियों की पसंद बनी हुई है और अमेजॉन पर उपलब्ध है. झारखण्ड में तेजी से बदलते सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिदृश्य में संथालों की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती जा रही है. आज की बदली हुई स्थिति में संथाल ट्राइबल्स के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन के विभिन्न पहलुओं पर गहन शोध एवं अध्ययन की आवश्यकता प्रबल होती जा रही है. संथाल समुदाय में प्रत्येक मौसम, त्योहार और अवसरों के लिए अलग-अलग गीतों के विधान हैं. दोङ अर्थात् विवाह गीतों के अतिरिक्त सोहराय, दुरूमजाक्, बाहा, लांगड़े रिजां मतवार, डान्टा और कराम प्रमुख संथाली लोकगीत हैं. बापला अर्थात् विवाह संथालों के लिए मात्र एक रस्म ही नहीं, वरन् एक वृहत् सामाजिक उत्सव की तरह है जिसका वे पूरा-पूरा आनन्द उठाते है. इसके हर विधि-विधान में मार्मिक गीतों का समावेश है. इन गीतों में जहाँ एक ओर ट्राइबल्स जीवन की सहजता, सरलता, उत्फुल्लता तथा नैसर्गिकता आदि की झलकें मिलेंगी, वहीं दूसरी ओर उनके जीवन-दर्शन, सामाजिक सोच, मान्यता, जिजीविषा तथा अदम्य आतंरिक शक्ति से भी अनायास साक्षात्कार हो जाएगा. विविधताओं से परिपूर्ण परम्परागत संथाली जीवन की झलक 'सोने की सिकड़ी - रुपा की नथिया ' में है. इसके अलावा इन्होंने संथाल में प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की जीवनी लिखी.
रास बिहारी लाल के हिन्दी नाटक ’’नए-नए रास्ते ’’ का संथाली भाषा में अनुवाद किया.
बिहार सरकार के सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग ने चित्तू टुडू द्वारा रचित संथाली लोक गीतों का उनके ही कंठ स्वर और संगीत निर्देशन में ग्रामोफोन रिकार्ड तैयार कराकर ट्राइबल क्षेत्रों में वितरण करवाया. संथाली लोक गीतों की संरचना और नृत्य संगीत निर्देशन, कोरियोग्राफी में उनकी दक्षता, प्रवीणता और पांडित्य को देखते हुए बिहार सरकार ने उनके नेतृत्व और निर्देशन में 1976 से 1986 तक प्रतिवर्ष गणतंत्र दिवस के समारोह पर लाल किला दिल्ली में होनेवाले आयोजन में ट्राइबल नर्तक दल को भेजा.
चित्तू को राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के सानिध्य का अवसर भी प्राप्त हुआ. चित्तू साहित्यिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों में काफी सक्रिय रहते. वे विभिन्न संस्थानों से जीवनपर्यंत जुड़े रहे. चित्तू संथाली सांस्कृतिक सोसाइटी, रांची के संस्थापक उपाध्यक्ष तथा संथाली साहित्य परिषद, दुमका के अध्यक्ष रहे. टुडू नई दिल्ली स्थित नृत्य कला अकादमी के सदस्य भी रहे. 1970 के दशक में होड़ संवाद नामक साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन होता था. चित्तू इसके सम्पादक मंडल में सदस्य रहे.
यत्र-तत्र बिखरे आदिवासी लोक नर्तकों की खोज कर उन्हें संगठित करने, संरक्षण देने और उनको मंच प्रदान करने की दिशा में चित्तू ने अहम् भूमिका निभायी. शिक्षा के पैरोकार चित्तू चाहते थे कि हर ट्राइबल बच्चा शिक्षित हो और इसके लिए हर गांव में एक स्कूल हो. अपने पैतृक गाँव बौंसी में छात्रावास एवं विद्यालय निर्माण हेतू चित्तू ने पाँच एकड़ भूमि दान की.
टुडू बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे. साहित्यकार , नर्तक , गायक , वादक , समाज सुधारक औऱ इन सबसे बढ़कर एक महान इंसान.
पुरस्कार एवं सम्मान - सामाजिक कार्यों एवं आदिवासी लोक संस्कृति के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान के लिए 6 अप्रैल 1993 को चित्तू टुडू को पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया गया. वे पूरे भारत में दूसरे ट्राइबल थे, जिन्हें पद्मश्री सम्मान से नवाजा गया. वर्ष 1986 में इनको बिहार राजभाषा विभाग द्वारा सम्मानित किया गया.
जन्म स्थान : साहूपोखर, पोस्ट श्याम बाजार, प्रखण्ड बौंसी, जिला बांका, बिहार - 813104
निधन: 13 जुलाई ' 2016
मृत्यु स्थल : गांव के अपने घर में
पत्नी : रानी सोरेन
जीवन परिचय - बिहार के भागलपुर प्रमण्डल के बौंसी गांव के एक ट्राइबल परिवार में चित्तू टुडू का जन्म हुआ. गांव में स्कूली शिक्षा हुई, चित्तू की पहचान एक योग्य व अनुशासित छात्र की रही. चित्तू ने ब्रिटिश शासन में मैट्रिक की परीक्षा पास की. देश में स्वतंत्रता आंदोलन जोरों पर था, हर युवा आजादी के यज्ञ में अपनी आहुति देना चाहता था. चित्तू के मन भी से देश के लिए कुछ करने का एक जज्बा हिलोरे ले रहा था. चित्तू ने अपनी भूमिका तय की और कूद पड़े. वे संथाल परगना कांग्रेस कमेटी से जुड़ गए. उसी क्रम में उनका सम्पर्क स्वतंत्रता सेनानी लाल बाबा से हुआ. चित्तू को स्वतंत्रता आंदोलन के बड़े नेताओं की जन सभा में दुभाषिये के रूप में कार्य करने का दायित्व दिया गया . चित्तू ट्राइब्ल्स बहुल क्षेत्रों में जाकर जनसम्पर्क करते एवं स्वतंत्रता सेनानियों के संदेश जनजातीय समुदाय तक पहुँचाते.
आजादी के बाद वर्ष 1950 में सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग में प्रचार संगठनकर्ता के रूप में सरकारी नौकरी में उनकी नियुक्ति हो गई. सूचना एवं जन-सम्पर्क विभाग में गीत नाट्य शाखा के संथाली भाषा के संगठनकर्ता, 1958 में अपर जिला जन-सम्पर्क पदाधिकारी, 1959 में जिला जनसम्पर्क पदाधिकारी, 1977 में उप जनसम्पर्क निदेशक और 1984 में संयुक्त निदेशक के पद पर प्रोन्नत हुए. अपने परिश्रम, व्यवहार व योग्यता के बल पर पदोन्नति प्राप्त करते हुए चित्तू अपनी सेवावधि में पाकुड़, चाईबासा, डाल्टनगंज, राँची और भागलपुर में कार्य किया तथा 1990 में संयुक्त निदेशक के पद से सेवानिवृत हुए। सफल वैवाहिक जीवन जीने वाले चित्तू को एकमात्र सन्तान हुई हीरामनी टूडू .
योगदान - सरकारी सेवा में रहते हुए ही चित्तू संथाली लोक गीत लिखने लगे. विभिन्न पत्र–पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ प्रकाशित और आकाशवाणी से प्रसारित होने लगी. इनके संथाली लोक गीतों का संग्रह 'जवांय धुती' काफी लोकप्रिय कृति है. इस पुस्तक के कई गीत सिदो कान्हु यूनिवर्सिटी के पाठ्यक्रम में शामिल हैँ. उन्होंने कई जीवनियों एवं नाटकों का संथाली में अनुवाद किया.
इनकी पुस्तक 'सोने की सिकड़ी - रुपा की नथिया ' आज भी साहित्यप्रेमियों की पसंद बनी हुई है और अमेजॉन पर उपलब्ध है. झारखण्ड में तेजी से बदलते सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिदृश्य में संथालों की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती जा रही है. आज की बदली हुई स्थिति में संथाल ट्राइबल्स के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन के विभिन्न पहलुओं पर गहन शोध एवं अध्ययन की आवश्यकता प्रबल होती जा रही है. संथाल समुदाय में प्रत्येक मौसम, त्योहार और अवसरों के लिए अलग-अलग गीतों के विधान हैं. दोङ अर्थात् विवाह गीतों के अतिरिक्त सोहराय, दुरूमजाक्, बाहा, लांगड़े रिजां मतवार, डान्टा और कराम प्रमुख संथाली लोकगीत हैं. बापला अर्थात् विवाह संथालों के लिए मात्र एक रस्म ही नहीं, वरन् एक वृहत् सामाजिक उत्सव की तरह है जिसका वे पूरा-पूरा आनन्द उठाते है. इसके हर विधि-विधान में मार्मिक गीतों का समावेश है. इन गीतों में जहाँ एक ओर ट्राइबल्स जीवन की सहजता, सरलता, उत्फुल्लता तथा नैसर्गिकता आदि की झलकें मिलेंगी, वहीं दूसरी ओर उनके जीवन-दर्शन, सामाजिक सोच, मान्यता, जिजीविषा तथा अदम्य आतंरिक शक्ति से भी अनायास साक्षात्कार हो जाएगा. विविधताओं से परिपूर्ण परम्परागत संथाली जीवन की झलक 'सोने की सिकड़ी - रुपा की नथिया ' में है. इसके अलावा इन्होंने संथाल में प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की जीवनी लिखी.
रास बिहारी लाल के हिन्दी नाटक ’’नए-नए रास्ते ’’ का संथाली भाषा में अनुवाद किया.
बिहार सरकार के सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग ने चित्तू टुडू द्वारा रचित संथाली लोक गीतों का उनके ही कंठ स्वर और संगीत निर्देशन में ग्रामोफोन रिकार्ड तैयार कराकर ट्राइबल क्षेत्रों में वितरण करवाया. संथाली लोक गीतों की संरचना और नृत्य संगीत निर्देशन, कोरियोग्राफी में उनकी दक्षता, प्रवीणता और पांडित्य को देखते हुए बिहार सरकार ने उनके नेतृत्व और निर्देशन में 1976 से 1986 तक प्रतिवर्ष गणतंत्र दिवस के समारोह पर लाल किला दिल्ली में होनेवाले आयोजन में ट्राइबल नर्तक दल को भेजा.
चित्तू को राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के सानिध्य का अवसर भी प्राप्त हुआ. चित्तू साहित्यिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों में काफी सक्रिय रहते. वे विभिन्न संस्थानों से जीवनपर्यंत जुड़े रहे. चित्तू संथाली सांस्कृतिक सोसाइटी, रांची के संस्थापक उपाध्यक्ष तथा संथाली साहित्य परिषद, दुमका के अध्यक्ष रहे. टुडू नई दिल्ली स्थित नृत्य कला अकादमी के सदस्य भी रहे. 1970 के दशक में होड़ संवाद नामक साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन होता था. चित्तू इसके सम्पादक मंडल में सदस्य रहे.
यत्र-तत्र बिखरे आदिवासी लोक नर्तकों की खोज कर उन्हें संगठित करने, संरक्षण देने और उनको मंच प्रदान करने की दिशा में चित्तू ने अहम् भूमिका निभायी. शिक्षा के पैरोकार चित्तू चाहते थे कि हर ट्राइबल बच्चा शिक्षित हो और इसके लिए हर गांव में एक स्कूल हो. अपने पैतृक गाँव बौंसी में छात्रावास एवं विद्यालय निर्माण हेतू चित्तू ने पाँच एकड़ भूमि दान की.
टुडू बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे. साहित्यकार , नर्तक , गायक , वादक , समाज सुधारक औऱ इन सबसे बढ़कर एक महान इंसान.
पुरस्कार एवं सम्मान - सामाजिक कार्यों एवं आदिवासी लोक संस्कृति के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान के लिए 6 अप्रैल 1993 को चित्तू टुडू को पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया गया. वे पूरे भारत में दूसरे ट्राइबल थे, जिन्हें पद्मश्री सम्मान से नवाजा गया. वर्ष 1986 में इनको बिहार राजभाषा विभाग द्वारा सम्मानित किया गया.
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