कलियुग के कृष्ण विवश हो उठे ,
करुणावश रुदन स्वर वो बोल उठे ॥
सखा भाई शिष्य भक्त तुम प्रियवर ,
हे अर्जुन , कहो कहाँ बैठे हो छिपकर ॥
माना यहाँ कोई कुरुक्षेत्र नहीँ है ,
माना महाभारत का उद्घोष नही है ॥
ना पन्चाली का उपहास हुआ है ,
ना कुंती पुत्रों का अपमान हुआ है ॥
फ़िर खड़े क्यों ये लिये बिष बुझे तीर ,
न भीष्म न द्रोण न शकुनी अबकी अधीर ॥
सुशासन सुयोधन युधिष्ठिर नहीँ गरजेगें ,
ना ही महाबली कर्ण अब शस्त्र उठायेगें ॥
ना अभिमन्यु का रुधिर बहेगा ,
ना ही अश्वत्थामा मारा जायेगा ॥
लेटने कॊ तीर शय्या पर ,कोई भीष्म तैयार नहीँ ,
अंधा बनकर जीना गांधारी कॊ अब स्वीकार नहीँ ॥
अरे कौन पूछेगा संजय तुमको ,
बर्बरीक विदुर की अब पहचान नहीँ ॥
कहो फ़िर क्यों करूँ पाठ मैं गीता का ,
हे गांडीवधारी, जब तुम हो ही नहीँ मैदान में ॥
क्यों दिखाउँ रुप अपना भयँकर मनोहर ,
अन्याय अधर्म के विरूद्ध कहो किसको उकसाऊँ ॥
सारथी बनाने कॊ जब तुम ही तैयार नहीँ ,
हे धनंजय , कहो किसके लिये सुदर्शन उठाउँ ॥
धरती भारत तुलसी गंगा और गीता ,
मातायें सभी फूट फूट कर रो रही हैं ॥
देख अवस्था पृथ्वी की अब रहा नहीँ जाता ,
भार शेषनाग देव से भी अब सहा नहीँ जाता ॥
धुर्व प्रह्लाद विदुर विभीषण द्रौपदी मीरा रहे नहीँ ,
अब तो अजामील के द्वारा भी मैं पुकारा नहीँ जाता ॥
हूँ जहाँ मैं , वहाँ कोई आता नहीँ ,
भीड़ लगी है जहाँ , वहाँ मैं जाता नहीँ ॥
गौ अग्नि ब्राह्मण तीनों के कण्ठ सूखे पड़े ,
इत्र गुलाब और रातों की जाग मुझको भाती नहीँ ॥
व्यासपीठ भी हुई दूषित कलंकित ,
कहो सव्यसाची अब मैं क्या करूँ ॥
कर रहा महसूस असहाय मजबूर लाचार ,
हे श्वेतवाहन , हो दूर विवशता ऐसा उपाय करो ॥
संदीप मुरारका
15 नवम्बर 2016 मंगलवार
सम्वत 2073 कार्तिक कृष्णा 1
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