निकल पर्वतों की चोटी से
नदी जब अपने उफान पर आती है ।
प्रचण्ड होती जाती चाल उसकी
मिले राह मॆं जो, साथ बहा ले जाती है॥
कल कल करती, झाग उगलती
नदी अपने पूरे वेग से बहती है ।
रास्ता रोक कर खड़े चट्टान कॊ भी
लहरें उग्र उसकी तोड़ देती है ॥
माँ की सी मूरत है नदी
सबको ममता देती चलती है ।
कहीं किसी कॊ पीने का पानी
तो कहीं खेतों कॊ सींचती चलती है ॥
बहा डाली लाशें कई हमने
ये तो राख कॊ भी पवित्र किये चलती है ।
बना देती है पत्थर कॊ भी रेत
ये तो लोगों के पाप धोते ढोते चलती है ॥
अजी नदी है , कोई सरकार नहीँ ये !
बिना देखे जात सबका भला किये चलती है ।
पर बन आती स्त्रीत्व पर जब इसके
बन बाढ़ महा विध्वंश भी किया करती है ॥
संदीप मुरारका
शुक्रवार 4 नवम्बर 2016
सम्वत 2073, कार्तिक शुक्ल 5
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