Tuesday, 25 January 2022

अप्रतिम 2 - मुकेश रंजन

"अप्रतिम- 2"

दोस्तों "अप्रतिम" श्रृंखला में आज जिक्र संदीप मुरारका का।

संदीप मुरारका जानेमाने उद्यमी हैं । पिछले कुछ दिनों से लेखन की दुनिया में इन्होंने खूब ख्याति बटोरी है। विश्व आदिवासी दिवस 9 अगस्त 2020 को आई इनकी पहली किताब "शिखर को छूते ट्राइबल्स" ने साहित्य और पत्रकारिता की दुनिया में नए कीर्तिमान गढ़े हैं। और ये हो भी क्यों नहीं। झारखंड बनने के दो दशक बाद भी इतनी प्रामाणिक और शोधपूर्ण पुस्तक कभी नहीं लिखी गई थी। कौन हैं संदीप मुरारका! जानने के लिए आपको फ्लैशबैक में लिए चलते हैं।

संदीप मुरारका का जन्म 12 फरवरी 1978 को सरस्वती पूजा की रात्रि में जमशेदपुर के व्यवसायी परिवार पुरुषोत्तम दास मुरारका और पदमा देवी के यहां हुआ। संदीप भी बचपन में सामान्य बच्चों की तरह ही थे । प्राथमिक शिक्षा जगतबंधु सेवासदन पुस्तकालय द्वारा संचालित विद्यालय से हुई। ऊपरोक्त पुस्तकालय में 10,000 से ज्यादा पुस्तकें हुआ करती थीं । कहा जा सकता है कि उन पुस्तकों ने ही लिखने की पहली प्रेरणा दी होगी।
संदीप के पिता पुरुषोत्तम दास मुरारका किताबों के बेहद शौकीन थे। महान लेखक गुरुदत्त के तो वे जबरा फैन थे। उनके घर पर गुरुदत्त की लिखी लगभग तमाम पुस्तकें हुआ करती थीं । संभवत: संदीप में भी इसका कुछ ना कुछ प्रभाव तो अवश्य पड़ा ही होगा। संदीप ने अपनी पहली कविता "दियासलाई" आठवीं कक्षा में पढ़ते हुए महज तेरह साल की उम्र में लिखी। ये एक भावी रचनाकार के उदय की आहट थी। इसके बाद संदीप ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। अपने स्कूली दिनों में बहुत सी कविताएं और लघुकथाएं लिखीं। और प्रतिभाशाली तो इतने की कॉलेज तक आते आते "दैनिक आज" के माध्यम से पत्रकारिता भी करने लगे थे और आकाशवाणी जमशेदपुर के कार्यक्रमों में भी भाग लेते । तब के काल 1991-95 को उनके लेखन का शुरुआती दौर मानना चाहिए । किंतु बाद के दिनों में व्यवसायिक व्यस्ताओं में लेखन कहीं खो सा गया । मगर पठन पाठन व पुस्तक प्रेम जारी रहा। जमशेदपुर में हर साल दिसंबर में आयोजित होने वाला पुस्तक मेला उनको खींचता और लौटते समय कुछ पुस्तकों का थैला हाथ में होता।

व्यवसायिक जगत व समाज में भले ही संदीप मुरारका पहचान के मोहताज ना हों। भले ही उनकी पहचान एक कुशल संगठनकर्ता व प्रखर वक्ता की हो। मगर अंदर एक टीस भी थी। व्यवसायिक व्यस्ताओं ने उनके अंदर के रचनाकार को उनसे दूर कर दिया था । ये सोच कराह उठते थे संदीप मुरारका। ये वो समय था जब पूरी दुनिया पर कोविड-19 का खतरा मंडरा रहा था। जब लोग मायूसी के दौर से गुजर रहे थे, तब इन सब से दूर एक युवा उद्यमी हाथों में कलम थामे ऐसा कुछ लिखने की कोशिश कर रहा था जो अब से पहले कभी लिखा ना गया था । ना भूतो, ना भविष्यति....     

विगत 2 सालों में समय कितना बदल गया है। झारखंड के गांव कस्बों व आदिवासी समस्याओं को बहुत करीब से देखने समझने वाले संदीप मुरारका आज सफल उद्यमी के साथ एक सफल लेखक भी हैं । राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय कीर्तिमान गढ़नेवाली जनजातीय समाज की 26 महान हस्तियों की जीवनी पर आधारित उनकी किताब "शिखर को छूते ट्राइबल्स भाग- 1" ने सफलता के कई नए आयाम रच डालें हैं । आज से पहले जनजातीय समुदाय के भी किसी लेखक ने आदिवासियों की उपलब्धियों पर ऐसा कुछ नहीं लिखा था।

आदिवासियों की जीवंत जीवन गाथा कहती इस किताब का दूसरा और तीसरा खंड भी आ चुका है़। दूसरे में कुल 23 शख्सियतों एवं तीसरे में कुल 28 हस्तियों की संघर्ष कथाएँ और उनकी जीवंत दास्तान है। विशेष कर पूर्वोत्तर की जनजातीय हस्तियों के विषय में शायद ही हिंदी में कुछ लिखा मिले, किंतु लेखक ने इस अवधारणा को तोड़ा है़। शायद इसीलिए हिंदी पट्टी के रुप में विकसीत हो रहे पूर्वोत्तर राज्यों में ये पुस्तकें काफी पसंद की जा रही हैं। किताब का प्रथम और द्वितीय खंड मुंबई के स्टोरी मिरर ने प्रकाशित किया है, जिनका लोकार्पण झारखंड की तत्कालीन राज्यपाल द्रोपदी मुर्मू ने राजभवन, राँची में किया था। तृतीय खंड का प्रकाशन प्रलेक, मुंबई ने किया है, जिसका लोकार्पण झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन एवं स्वास्थ्य व आपदा प्रबंधन मंत्री बन्ना गुप्ता ने विधानसभा भवन, राँची में किया।

इन पुस्तकों के अलावा ऑटोबायोग्राफी स्टाइल में लिखी गई तीन कहानियों और हॄदय को छूती कुछ कविताओं का संकलन "बिखरे सिक्के" भी प्रकाशित हो चुका है़। अप्रतिम- 2 के इस अप्रतिम युवा लेखक की पांचवी व अद्भुत पुस्तक है़ "पद्म अलंकृत विभूतियाँ (मारवाड़ी/अग्रवाल)", जो नवंबर, 2021 में प्रकाशित हुई है़। इस पुस्तक में वे देश की वैसी 60 हस्तियों से रुबरु कराते हैं, जिनको उत्कृष्ट कार्य के लिए राष्ट्रपति भवन में पद्म सम्मान से अलंकृत किया जा चुका है़। बातचीत के क्रम में पता चला कि इन पुस्तकों के अंग्रेजी संस्करण पर भी काम चल रहा है़।

प्रिय मित्र और बड़े भाई संदीप मुरारका को भविष्य की अनंत शुभकामनाएं ।

परिचय : संदीप मुरारका

नाम : संदीप मुरारका
जन्म : 12 फरवरी'1978, जमशेदपुर
माता : श्रीमती पदमा देवी मुरारका
पिता : स्व. पुरुषोत्तम दास मुरारका
पत्नी : सविता मुरारका
शिक्षा : बी. कॉम
अल्मा मेटर - सेंट मेरीज हिंदी हाई स्कूल, बिस्टुपुर, जमशेदपुर 
करीम सिटी कॉलेज 
कॉपरेटिव कॉलेज 
पता : जमशेदपुर- 831001 झारखंड
मोबाइल : 9431117507
वेबसाइट : www.sandeepmurarka.com
ई मेल : keshav831006@gmail.com
ब्लॉग : http://sandeepmurarka.blogspot.com

कृतियाँ :
1. "शिखर को छूते ट्राइबल्स" (वर्ष 2020) - पद्म पुरस्कार से विभूषित जनजातीय समुदाय के 18 व्यक्तित्वों की
संक्षिप्त जीवनियों का संकलन। इस पुस्तक का अंग्रेजी संस्करण प्रकाशनाधीन है़, अंग्रेजी अनुवाद जमशेदपुर के श्री आनंद मोहन चौबे ने किया है़।

2. "बिखरे सिक्के" (वर्ष 2021) - ऑटोबायोग्राफी स्टाइल में लिखी गई तीन कहानियों और हॄदय को छूती कुछ कविताओं का संकलन

3. "शिखर को छूते ट्राइबल्स भाग 2" (वर्ष 2021) - देश के विभिन्न राज्यों से जनजातीय समुदाय के ऐसे 19 नायकों की संक्षिप्त जीवनियों का संकलन, जिनको देश के सर्वोच्च पद्म सम्मान प्राप्त हुए।

4. "शिखर को छूते ट्राइबल्स भाग 3 - अनकही जनजातीय गाथाएँ" (वर्ष 2021) - देश के विभिन्न राज्यों से 20 जनजातीय नायकों एवं 8 ऐसे महान व्यक्तित्वों की संक्षिप्त जीवनियों का संकलन, जो देश के उच्च पदों पर पदस्थापित हैं।

5. पद्म अलंकृत विभूतियाँ (मारवाड़ी/अग्रवाल) - 60 महान व्यक्तित्वों का प्रेरणा दायक परिचय ( जनवरी,2022)

विभिन्न समाचार पत्रों - पत्रिकाओं में सामयिक आलेखों का प्रकाशन एवं आकाशवाणी से प्रसारण । आँख खोलती सुबह, मानस में स्त्री पात्र, साहित्यिक विमर्श एवं नई सांस्कृतिक चुनौतियाँ, हिंदी साहित्य में आदिवासी विमर्श 'अक्षरा'(रिसर्च जनरल, जून 2021), आकाश की सीढ़ी है़ बारिश, समुन्नत भारत के निर्माण में साहित्य की भूमिका, क्रांति स्मरण 2021, अरुणाभा, उर्वशीयम 2022, संकल्प, जनजातीय संस्कृति और सामाजिक गतिशीलता, जनकृति (द्विभाषी अंतरराष्ट्रीय मासिक पत्रिका) देवघर पुस्तक मेला विशेषांक 2023 इत्यादि काव्य कथा संग्रहों में कविताएँ एवं आलेख  प्रकाशित ।

पुरस्कार : अपने व्यवसायिक जीवन में उद्योग विभाग, झारखंड सरकार, झारखंड राज्य प्रदूषण नियंत्रण पर्षद, वर्ल्ड बैंक, टाईम्स ऑफ इंडिया द्वारा पुरस्कृत ।

मरुधर साहित्य ट्रस्ट, जमशेदपुर द्वारा "मरुधर साहित्य एवं संस्कृति सम्मान" (5 अगस्त, 2017)

हिन्दी अकादमी, मुंबई द्वारा "नवयुवा रचनाकार सम्मान"
(19 फरवरी, 2021)

सोशल संवाद नेशनल न्यूज नेटवर्क, जमशेदपुर द्वारा शिखर को छूते ट्राइबल्स भाग 2 के लिए सम्मानित (26 मार्च, 2021)

पूर्वी सिंहभूम जिला मारवाड़ी सम्मेलन द्वारा लेखन सम्मान (8 अगस्त, 2021)

डॉ. राममनोहर लोहिया रिसर्च फाउंडेशन द्वारा वंचित समुदाय पर किए गए उल्लेखनीय कार्यों के लिए डॉ. राममनोहर लोहिया पुरस्कार गोवा के मुख्यमंत्री डॉ. प्रमोद द्वारा सम्मानित (27 नवंबर, 2021) मंचासीन विभूतियाँ - गोवा के राज्यपाल महामहिम पी. एस. श्रीधरन पिल्लई, गोवा विधानसभा के नेता प्रतिपक्ष दिगंबर कामत, झारखंड सरकार के स्वास्थ्य एवं आपदा प्रबंधन मंत्री बन्ना गुप्ता एवं  फाउंडेशन के अध्यक्ष अभिषेक रंजन सिंह

श्रीनाथ यूनिवर्सिटी, जमशेदपुर द्वारा आदिवासी साहित्य में लेखन हेतु श्री सुखदेव महतो द्वारा सम्मान (18 दिसंबर, 2021)

झारखंड डेवलपमेंट कॉन्क्लेव 2022 में जनजातीय खिलाडियों पर उत्कृष्ट लेखन हेतु श्री राजीव रंजन सिंह आई पी एस द्वारा सम्मान (18 जून, 2022)

प्रेमचंद जयंती के अवसर पर भारतीय-नार्वेजीय सूचना एवं सांस्कृतिक फोरम, ओस्लो, नार्वे एवं द्विभाषी पत्रिका स्पाइल दर्पण द्वारा अंतरराष्ट्रीय  प्रेमचंद सम्मान (30 जुलाई 2022) मंचासीन डॉ शरद आलोक, ओस्लो एवं ब्रिटेन के सांसद श्री वीरेंद्र कुमार शर्मा, उसी मंच पर सम्मानित पद्मश्री डॉ विद्या बिंदु सिंह, विख्यात लेखिका श्रीमती ममता कालिया, डियर साहित्यकार डॉ राकेश कुमार, जयपुर

16 अप्रैल, 2023 मरुधर साहित्य ट्रस्ट, जमशेदपुर द्वारा अजय भालोटिया मरुधर जनजातीय शोध परक सम्मान (राशि रुपये 5100/-) 

पुस्तक समीक्षा : सुश्री ऋचा यादव, उत्तरप्रदेश, 5.02.2023, श्री सतीश कुमार सिंह, एजीएम, एसबीआई, मुंबई ( 23.01.2022, दैनिक देशबन्धु, नई दिल्ली, रायपुर, भोपाल, जबलपुर, बिलासपुर), श्रीमती विजयलक्ष्मी वेडुला, सेवानिवृत्त हिंदी शिक्षिका, सेंट मेरीज हिंदी उच्च विद्यालय, जमशेदपुर (22.01.2022, फेसबुक),
श्री सतीश कुमार सिंह, पत्रकार, मुंबई (16.01.2022 दैनिक राष्ट्रीय सहारा), श्री रमेश कुमार रिपु, छत्तीसगढ़ व मध्यप्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार व लेखक (दिनांक 9.10. 2021), श्री कृपा शंकर, वरिष्ठ पत्रकार एवं कथाकार (सामयिक पत्रिका दुनिया इन दिनों, सितंबर 2021 अंक),
श्री रघुनाथ पांडेय, क्षेत्रीय संयोजक, पूर्वोत्तर हिंदी अकादमी, शिलांग, वर्तमान- गोंडा, उत्तर प्रदेश (14.08.2021 एवं 28.11.2021), जनाब शहंशाह आलम, विख्यात समीक्षक, पटना (24.06.2021), श्रीमती अंशु शारड़ा अन्वि, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभ लेखिका, असम (20.06.2021 दैनिक पूर्वोदय), श्री अनमोल दुबे, झांसी (5.06.2021, नई दिल्ली दैनिक समाचार पत्र एवं Book वाला), श्री कुंदन कुमार गोस्वामी, राँची (2.04.2021, इन दिनों मेरी किताब), श्री दुर्गा प्रसाद अग्रवाल, पूर्व संयुक्त निदेशक, राजस्थान कॉलेज शिक्षा विभाग,जयपुर (11.02.2021), श्री अभिलेख द्विवेदी, लेखक एवं पत्रकार, लखनऊ, यू पी (10.01.2021), श्री विनोद कुमार, लेखक एवं पत्रकार, राँची (3.10.2020), श्री देवेंद्र, पत्रकार, जमशेदपुर (27.08.2020, इस्पात मेल).


साहित्यिक सेमिनार, वर्कशॉप, संगोष्ठी :
5 जून, 2021- स्टोरी मंच द्वारा आयोजित कथा पर्व में बतौर अतिथि शामिल एवं जनजातीय व्यक्तित्वों की असाधारण उपलब्धियों पर व्याख्यान।

31 जुलाई, 2021 - अखिल भारतीय साहित्य परिषद के पुस्तक लोकार्पण समारोह में विशिष्ट अतिथि के रुप में शिरकत (पुस्तक - अप्रतिम, लेखक - मुकेश रंजन, विधा - संस्मरण)

9 अगस्त, 2021 - जमशेदपुर वर्कर्स कॉलेज के हिंदी विभाग द्वारा विश्व आदिवासी दिवस पर आयोजित एक दिवसीय वेबिनार में मुख्य वक्ता के रुप में सहभागिता।

27 नवंबर, 2021 - गोवा क्रांति दिवस की 75वीं एवं गोवा मुक्ति का 60वें साल के ऐतिहासिक अवसर एवं गोवा मुक्ति सेनानियों के स्मरण में डॉ. राममनोहर लोहिया रिसर्च फाउंडेशन, नई दिल्ली के द्वारा क्रांति भूमि मडगांव स्थित रवींद्र भवन, गोवा में दो दिवसीय राष्ट्रीय विचार मंथन में सहभागिता।

18 दिसंबर, 2021- श्रीनाथ यूनिवर्सिटी, जमशेदपुर द्वारा आयोजित 5वें अंतरराष्ट्रीय हिंदी महोत्सव, जमशेदपुर में सहभागिता एवं अंतर महाविद्यालय प्रतियोगिताओं में निर्णायक की भूमिका।

26 दिसंबर, 2021 - प्रगतिशील लेखक संघ के वनभोज में शिरकत। वरिष्ठ कथाकार जयनंदन, डॉ. राकेश कुमार सिंह, वरुण प्रभात, अर्पिता श्रीवास्तव, कृपाशंकर, शशी भाई, डॉ. शीला कुमारी, प्रशांत श्रीवास्तव, पंकज मित्र के साथ कविताओं का आनंद।

8 जनवरी, 2022 - अप्रतिम भाग- 2 (आत्मसंस्करण - मुकेश रंजन) के विमोचन के अवसर पर मुख्य अतिथि विख्यात कवयित्री मीनाक्षी मीनल के साथ बतौर विशिष्ट अतिथि मंचासीन।

5 एवं 6 अप्रैल 2022 – डी बी एम एस कॉलेज ऑफ एजुकेशन, जमशेदपुर एवं भारतीय महिला दार्शनिक परिषद द्वारा "जनजातीय संस्कृति एवं सामाजिक गतिशीलता" विषय पर आयोजित दो दिवसीय सेमिनार में सहभागिता। साथ ही पेपर प्रसेंटेशन इतिहास लेखन में जनजातियों के साथ पक्षपात

22 जनवरी, 2023 - देवघर पुस्तक मेला के झारखंड साहित्य संगम में सहभागिता एवं साहित्य परिचर्चा का संचालन

16 एवं 17 दिसंबर, 2023 - आड्रे हाऊस, रांची में डॉ राममनोहर लोहिया फाउंडेशन ट्रस्ट द्वारा आयोजित चतुर्थ राष्ट्रीय विचार मंथन 'खरसांवा स्मरण' में द्वितीय दिवस 'जनजातीय समुदाय और समाजवाद' विषय पर व्याख्यान

22 दिसंबर, 2023 - श्रीनाथ यूनिवर्सिटी आदित्यपुर में सातवें हिंदी महोत्सव के दौरान आयोजित वाद विवाद प्रतियोगिता 'दंगल' में निर्णायक भूमिका में शिरकत



साक्षात्कार : बुक वाला के श्री अनमोल दुबे, झांसी द्वारा 20.12.2021 को लिया गया साक्षात्कार, यूट्यूब पर 41 मिनट का प्रसारण।

द मीडियापुर वाला द्वारा दिनांक 12 फरवरी, 2022

दिनांक 2 मार्च, 2022 को आकाशवाणी जमशेदपुर में रेडियो साहित्यिक पत्रिका कार्यक्रम स्वर्णरेखा के भेंटवार्ता - द्वारा श्री पंकज मित्र, विख्यात लेखक

दिनांक 29 जनवरी, 2023, Credent TV जयपुर के कार्यक्रम "डियर साहित्यकार"  के 122वें एपिसोड में डॉ. राकेश कुमार के साथ बातचीत

दिनांक 11 फरवरी, 2023 ऋचा यादव, Book वाला द्वारा साक्षात्कार 

संक्षिप्त परिचय : संदीप मुरारका

संक्षिप्त परिचय

झारखंड राज्य के जमशेदपुर में रहने वाले संदीप मुरारका ने हिंदी लेखन के क्षेत्र में अद्भुत कार्य किया है़। डॉ. राम मनोहर लोहिया जिन वंचितों एवं पीड़ितों की आवाज थे, उसी वर्ग के लोगों को पुस्तक का अध्याय बनाने का साहस लेखक संदीप ने किया है़। उन्होंने देशभर के विभिन्न राज्यों में फैले जनजातीय समुदायों के वैसे लोगों की जीवनियों को लिखा है़, जिनको या तो राष्ट्र के सर्वोच्च पुरस्कार पद्म सम्मान प्राप्त हुए हों अथवा वे देश के बड़े पदों पर पदस्थापित हों। पुस्तकों की इस कड़ी में "शिखर को छूते ट्राइबल्स" शीर्षक से अब तक तीन भाग प्रकाशित हो चुके हैं एवं चौथे भाग का लेखन जारी है़। उपरोक्त पुस्तक शिखर को छूते ट्राइबल्स भाग 1 में सत्रह ऐसे जनजातीय व्यक्तित्वों की जीवनी है़, जिनको देश के सर्वोच्च पद्म सम्मान से अलंकृत किया जा चुका है़, साथ ही ऐसे आठ महानायकों का परिचय है़ जिनके बिना इतिहास अधूरा है़, यथा; धरती आबा बिरसा मुंडा, पंडित रघुनाथ मुर्मू, ओत् गुरु कोल लाको बोदरा, सिदो कान्हू, फूलो झानो, टाना भगत, नीलांबर पीतांबर एवं मरङ गोमके जयपाल सिंह मुंडा। पुस्तक में आदिवासी लोकसंस्कृति के संवाहक पद्मश्री मुकुंद नायक की जीवनी भी शामिल है़।

शिखर को छूते ट्राइबल्स भाग 2 में ऐसे उन्नीस आदिवासी व्यक्तित्वों की जीवनियाँ शामिल हैं जो राष्ट्रपति भवन में पद्म पुरस्कारों से नवाजे गए, साथ ही चार आदिवासी महानायकों के परिचय को सम्मिलित किया गया है- बाबा तिलका मांझी, तेलंगा खड़िया, तंट्या भील एवं कोमराम भीम।

शिखर को छूते ट्राइबल्स भाग 3 में ऐसे बीस महान आदिवासियों की जीवनी प्रकाशित है़ जिनको पद्म सम्मान से विभूषित किया जा चुका है़। साथ ही आठ ऐसी जनजातीय हस्तियों का परिचय है़, जिन्होंने देश के उच्चतम पदों को सुशोभित किया, जैसे कि श्रीमती द्रौपदी मुर्मू, श्री गिरीश चंद्र मुर्मू, सुश्री अनुसुईया उइके, लांस नायक अल्बर्ट एक्का, श्री राजीव टोपनो, श्री अमृत लुगून, प्रो. सोना झरिया मिंज एवं श्री हरिशंकर ब्रह्मा।

शिखर को छूते ट्राइबल्स भाग 4 का लेखन जारी है़, जिसमें देश के लगभग पच्चीस विशिष्ट जनजातीय नायकों की जीवनियाँ लिखी जा रही है़। उपरोक्त पुस्तकों की प्रस्तावना विख्यात पत्रकार विनय पूर्ति, लेखक रणेन्द्र एवं महादेव टोप्पो ने लिखी है़। पहली दो पुस्तकों का विमोचन झारखंड की राज्यपाल माननीय श्रीमती द्रौपदी मुर्मू ने किया है़, वहीं भाग 3 का विमोचन झारखंड के माननीय मुख्यमंत्री श्री हेमंत सोरेन एवं स्वास्थ्य मंत्री बन्ना गुप्ता ने किया है़।



पुस्तक समीक्षा : कृपा शंकर

*पुस्तक समीक्षा*

शिखर को छूते ट्राइबल्स : अनकही जनजातीय गाथाएँ

- कृपाशंकर


एक विषय । तीन खंड । विषय _ जनजाति , आदिवासी । लेखक रहता है झारखंड में। बहुत ही दुर्लभ पुस्तक, दुर्लभ व अनछुए विषय, अपनी व्यापकता के साथ हमारे सामने है । अभी हाल की किताबें हैं। मात्र डेढ़ साल में तीन खंड। चौथी पर काम जारी। मुश्किल है, बहुत मुश्किल । वह भी तब जब किताबों का मिजाज बायोपिक हो , संदर्भ न हों , संदर्भों का सिरा मुकम्मिल कहीं से मिलता _ जुलता न हों । तुर्रा यह भी कि हम उस दुनिया की बात करेंगे जो हाशिए पर हो, भूखे _ नंगे हो , शहर _ कस्बे की बजाए पेड़ _ पौधे , नदी _ तालाब, पहाड़ _ कंदराओं और जंगलों में रहती हो और दुनिया के तमाम आधुनिक सुख _ सुविधाओं से महरूम हो। भात _ भात चिल्लाते जिनकी अंतड़ी सुख _ सी गई हो, पत्तियां खाते _ खाते जो भात का स्वाद भी पहचान नहीं पाते हों। लेकिन सच तो यह है कि लेखक इस दृश्य को दिखाने से बचता है । इस अंतिम और भयावह मंजर से हमें बचाता भी है । वह इसे घिनौने सच को जानता है, पर नजरंदाज करता है और इस बीच वह चुपके से उस सच की डोर पकड़ लेता है जो गजब है, मार्के की है, जिसकी तारीफ जितनी की जाए, कम है।

लेखक संदीप मुरारका जमशेदपुर के हैं। युवा हैं। दुनिया को अपने नजरिए और नए तौर _ तरीकों से देख _ निहार रहे हैं।इसी गुंताडे में उन्होंने तीन बायोपिक किताबें लिख डाली हैं __ शिखर को छूते ट्राइबल्स । प्रथम और द्वितीय खंड मुंबई के स्टोरी मिरर से आई है, जिनका लोकार्पण झारखंड की तत्कालीन राज्यपाल द्रोपदी मुर्मू ने किया था। तृतीय खंड का प्रकाशन प्रलेक, मुंबई ने किया है, जिसका लोकार्पण झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन एवं स्वास्थ्य व आपदा प्रबंधन मंत्री बन्ना गुप्ता ने किया।

पुस्तक शिखर को छूते ट्राइबल्स के प्रथम खंड में लेखक ने कुल 26 उन जनजातीय नायक और नायिकाओं की मीमांसा की है, जिन्हें देखकर, सुनकर और पढ़कर चकित हुए बिना नहीं रहा जा सकता। इतनी सरल भाषा, प्रस्तुति और उन विभूतियों की जीवंत जीवन यात्रा __ शायद ही कहीं देखने को मिले । जितने सरल वे लोग, उनका रहन _ सहन और सोच _ विचार, उतना ही सरल सबका कथ्य , शोध _ विवेचन । इसमें वे लोग शामिल नाम हैं जिन्होंने अपने _ अपने क्षेत्र में अदभुत और संघर्षपूर्ण काम किए हैं ।
संघर्ष एक अनवरत यात्रा है और इसी राह से बनती है कई नई राह । इस राह के मुसाफिरों ने ही दरअसल अनगिनत आयाम गढ़े हैं और आगे की पीढ़ी के लिए आदर्श खड़े किए हैं।

आदिवासियों की जीवंत जीवन गाथा कहती इस किताब का दूसरा और तीसरा खंड प्रथम खंड को ही आगे बढ़ाते हैं । दूसरे में कुल 23 शख्सियतों एवं तीसरे में कुल 28 हस्तियों की संघर्ष कथाएँ और उनकी जीवंत दास्तान है। ये किताबें हमें भारत के पहले स्वतंत्रता सेनानी बाबा तिलका मांझी, बिहार (वर्ष 1785) का इतिहास सुनाती हैं, वहीं भारत के महालेखाकार श्री गिरीश चंद्र मुर्मू,ओड़िशा से परिचय करवाती है़। ये किताबें हमें झारखंड के पद्मभूषण कड़िया मुंडा जैसे महान व्यक्तित्व से रूबरु कराती हैं वहीं पाँच बार माउंट एवरेस्ट फतह करने वाली पहली महिला पद्मश्री अंशु जामसेनपा, अरूणाचल प्रदेश, पूर्वोत्तर जैसे कई महान व्यक्तित्वों की प्रेरक कहानियाँ बतलाती है़।

जाहिर है , चौथा खंड इनसे अलग और बेहतर होगा । दरअसल, प्रगति पर प्रगति ही प्रगतिशीलता है । लेखक वहीं नहीं ठहरता । वह आगे बढ़ता जा रहा है़ और प्रचार प्रसार से दूर रहने वाले आदिवासियों की एक नई तस्वीर उकेर रहा है़। वह एक लंबी लकीर की परछाईं पकड़ता दिख रहा है जो अन्यत्र दुर्लभ है, कहीं भी पढ़ने _ समझने को नहीं मिलता। पुस्तक शिखर को छूते ट्राइबल्स भाग 1-3 की यह सब खासियतें हैं। और खासियतें तो सबको पसंद है ।

राष्ट्र रूपी वृक्ष की जड़ हैं आदिवासी

सम्मुन्नत भारत के निर्माण में साहित्य (आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों की जीवनियों) की भूमिका

राष्ट्र रूपी वृक्ष की जड़ हैं आदिवासी
- संदीप मुरारका

साहित्य के बिना क्या राष्ट्र निर्माण की परिकल्पना की जा सकती है़, शायद नहीं! विधा चाहे जो हो काव्य, कहानी, नाटक, निबंध, लघुकथा, आत्मकथा या जीवनियाँ, साहित्य के बिना किसी भी राष्ट्र की संस्कृति अथवा इतिहास का संरक्षण संभव नहीं है़। कहा जा सकता है़ कि साहित्य एवं समाज एक दूसरे के पूरक हैं। भारतीय साहित्य अपने आपमें इतना विशाल है कि इसके आरंभ और वर्तमान को पूर्ण रुप से जान लेना बहुत कठिन है। हमारे देश में वाचिक साहित्य, शिलालेख, ताम्रलेख, काष्ठलेख, पांडुलिपियाँ यत्र तत्र बिखरे पड़े हैं। पुराणों से लेकर वर्तमान समकालीन साहित्य का एक बहुत बड़ा हिस्सा इतिहास को समर्पित है़। आज जब भारतीय इतिहास का पुनर्मूल्यांकन किया जा रहा है़, तो इस विषय पर गौर करना आवश्यक है़ कि क्या भारत के स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में जनजातियों के योगदान की अनदेखी नहीं की गई? यह ऐतिहासिक भूल एक सोची समझी रणनीति के तहत हुई या अनजाने में, किंतु यह कटु सत्य है़ कि भारतीय इतिहास ने आदिवासियों की संघर्ष गाथा लिखने में न्याय नहीं किया। इतिहास के पन्ने हों या देशभर के स्कूली पाठ्यक्रम, आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों को उचित स्थान नहीं दिया गया।

चँवर छत्र सिंहासन की रोशनी में जो लड़े, वो इतिहास हो गए,
जल जंगल जमीं के लिए अंधकार में जो लड़े, वो खाक हो गए।

पुस्तक "आदिवासी और वनाधिकार" के लेखक ग्लैडसन डुंगडुंग लिखते हैं कि दुनिया को एक दिन आदिवासी दर्शन के पास ही लौटना है। उनका मानना है़ कि आदिवासियों के साथ लेखकों एवं साहित्यकारों ने बहुत बेईमानी की है़।

रानी लक्ष्मीबाई -

वर्ष 1842 में लक्ष्मीबाई का विवाह झाँसी के मराठा शासित राजा गंगाधर राव नेवालकर के साथ हुआ और वे झाँसी की रानी बनीं। सितंबर 1851 में रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया। परन्तु चार महीने की उम्र में ही उसकी मृत्यु हो गयी। सन् 1853 में राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य बहुत अधिक बिगड़ जाने पर उन्होंने एक पुत्र को गोद लिया,दत्तक पुत्र का नाम दामोदर राव रखा गया। पुत्र गोद लेने के दूसरे दिन ही 21 नवंबर,1853 को राजा गंगाधर राव की मृत्यु हो गयी।

महाराजा ने यह आदेश दिया था कि उनकी मृत्यु के पश्चात इस चार वर्षीय बच्‍चे को वारिस माना जाएगा और झांसी के प्रशासन की बागडोर रानी लक्ष्मीबाई के हाथों में होगी। लेकिन महाराजा के निधन के बाद गवर्नर-जनरल लॉर्ड डलहौजी ने दामोदर राव के दावे को विलय की फर्जी नीति गोद निषेध अधिनियम (Doctrine of Lapse) के तहत खारिज कर दिया।

अंग्रेजों ने अपनी विलय नीति के तहत बालक दामोदर राव के खिलाफ ब्रिटिश अदालत में मुकदमा दायर कर दिया। हालांकि मुकदमे में बहुत बहस हुई, रानी लक्ष्मीबाई की ओर से आस्ट्रेलिया के विद्वान अधिवक्ता जॉन लैंग ने 22 अप्रैल 1854 को लंदन की अदालत में पक्ष रखा लेकिन असफल रहे।

परंतु अंग्रेजों के पक्ष में एकतरफा फैसला सुनाते हुए मुकदमा खारिज कर दिया गया। अंग्रेजों द्वारा राज्य का खजाना जब्त कर लिया गया। रानी लक्ष्मीबाई को झाँसी का किला छोड़कर झाँसी के रानीमहल में जाना पड़ा। पर उन वीरांगना ने हिम्मत नहीं हारी और हर हाल में झाँसी राज्य की रक्षा करने का निश्चय किया। उन्होंने एक स्वयंसेवक सेना का गठन किया, जिसमें महिलाओं की भी भर्ती की गयी और उन्हें युद्ध का प्रशिक्षण दिया गया। वीर रानी लक्ष्मीबाई ने मात्र 29 वर्ष की उम्र में अंग्रेज साम्राज्य की सेना से युद्ध किया और 18 जून,1858 को रणभूमि में वीरगति को प्राप्त हुईं।

रानी के बेटे दामोदर को लड़ाई के मैदान से सुरक्षित ले जाया गया। किंतु दामोदर ने रानी की शहादत के दो साल बाद ही ग्यारह वर्ष की उम्र में अंग्रेजों के सामने आत्म समर्पण कर दिया। राजनीतिक एजेंट सर रिचर्ड शेक्‍सपियर ने उनकी मदद की और उनको रु. 10 हजार वार्षिक पेंशन मुहैया कराई गई। एक कश्‍मीरी टीचर को उनका संरक्ष‍क बनाया गया और सात अनुयायियों को साथ रखने की अनुमति दी गई। दामोदर राव इंदौर में ही बस गए, वर्ष 1906 में उनकी मृत्यु हुई। उनकी मृत्यु के बाद कुछ मासिक पेंशन उनके पुत्र लक्ष्मण राव को भी मिलती रही। उनका परिवार आज भी इंदौर में रहता है़ और झाँसी वाले के नाम से विख्यात है़।

यहाँ यह भी गौरतलब है़ कि रानी लक्ष्मीबाई की मृत्यु के दो दिनों बाद ही ग्वालियर महाराजा जयाजीराव सिंधिया ने अंग्रेजों की जीत की खुशी में जय विलास महल में जनरल रोज और सर रॉबर्ट हैमिल्टन के सम्मान में भोज व रंगारंग नृत्य का आयोजन किया था। राज्यसभा सांसद ज्योतिरादित्य माधवराव सिंधिया उन्हीं जयाजीराव सिंधिया की पाँचवी पीढ़ी में जन्में हैं। हिंदी की जानी मानी कवियत्री सुभद्रा कुमारी चौहान लिखती हैं, ''बुंदेलों हर बोलो के मुंह हमने सुनी कहानी थी, अंग्रेजों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी राजधानी थी। ''

शहीद वीरांगना रानी अवंती बाई लोधी -

इतिहास के स्वर्णिम पन्नों में और कई वीरांगनाओं के नाम दर्ज हैं, जिनमें एक हैं मध्यप्रदेश के रामगढ़ रियासत की रानी अवंती बाई लोधी, जिनका विवाह वर्ष 1848 में रामगढ़ रियासत के राजकुमार विक्रम जीत सिंह के साथ हुआ। वर्ष 1851 में उनके ससुर रामगढ़ राजा लक्ष्मण सिंह की मृत्यु हो गई। जिसके बाद अवंतीबाई के पति विक्रम जीत सिंह का रामगढ़ रियासत के राजा के रूप में राजतिलक किया गया। कुछ समय बाद अवंती बाई ने दो बेटों को जन्म दिया, जिनका नाम अमान सिंह और शेर सिंह रखा गया।

वर्ष 1855 में एक दुर्घटना में राजा विक्रम जीत सिंह की मृत्यु हो गई। राजकुमार अमान सिंह और शेर सिंह के नाबालिग होने से राजकाज रानी अवंती बाई ने अपने हाथों में ले लिया, जो अंग्रेजी हुकूमत को रास नहीं आया। इस दौरान अंग्रेजों ने रामगढ़ पर 'कोर्ट ऑफ वार्ड' (court of ward) लागू कर दिया। जो अंग्रेजी हुकूमत के विस्तार हेतु लार्ड डलहौजी की राज्य हड़प नीति के तहत बनाया गया एक क्रूर कानून था। जिसके तहत जिस राज्य का राजा शासन करने में अक्षम हो, राजा की मृत्यु हो गयी हो, या फिर कोई वारिस नहीं न हो, नाबालिग हो, या फिर राज्य को संभालने वाला कोई उत्तराधिकारी न हो, राजा विक्षिप्त हो ऐसे राज्य पर कोर्ट ऑफ वार्ड लागू कर दिया जाता था।

परंतु रानी भी झुकने के लिए तैयार नहीं थी, उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह का बिगुल फूंक दिया। इधर मंडला के डिप्टी कमिश्नर वाडिंगटन ने भी इस विद्रोह को कुचलने की पूरी तैयारियाँ कर ली। अंग्रेजों की सशस्त्र सेना ने चारों तरफ से रानी की सेना पर धावा बोल दिया। कई दिनों तक रानी की सेना और अंग्रेजी सेना में युद्ध चलता रहा, रानी के पास सेना बल व संसाधन सीमित थे, अंततः अंग्रेज अवंती बाई की सेना पर भारी पड़ते गए।

20 मार्च 1858, देवहारगढ़ की पहाड़ी पर चल रहे इस युद्ध में रानी की सेना के कई सैनिक घायल हो गए, रानी को खुद बाएं हाथ में गोली लगी। जिससे उनकी बंदूक छूटकर गिर गई। अपने आप को चारों ओर से घिरता देख वीरांगना अवंतीबाई लोधी ने अपने अंगरक्षक से कटार छीनी और खुद को भोंक कर अपने प्राणों की आहुति दे दी।

पुनः यहाँ भी गौरतलब है़ कि रानी अवंती बाई लोधी के साथ हुए युद्ध में अंग्रेजों का साथ रीवा नरेश रघुराज सिंह जू देव बहादुर ने दिया था। इस सेवा के बदले अंग्रेजों ने जू देव को ना केवल रीवा का राजा बने रहने दिया बल्कि सोहागपुर (शहडोल) और अमरकंटक परगना को उनके शासन में बहाल कर दिया गया और महाराजा की उपाधि प्रदान की गई। उन्हीं की वंश परंपरा से आए महाराजा मार्तंड सिंह आजाद भारत में सांसद चुने गए। उनके पुत्र पुष्पराज सिंह विधायक और मध्य प्रदेश सरकार में मंत्री रह चुके हैं। पुष्पराज सिंह के पुत्र दिव्यराज सिंह सिरमौर से विधायक चुने जा चुके हैं।

किद्वंतियो के अनुसार रीवा राजघराने ने ही अकबर को 10 साल की उम्र में तब शरण दी थी, जब उनके पिता हुमायूँ  बेलग्राम युद्ध में शेरशाह सूरी से हार के बाद भारत से भाग गए थे। राजकुमार रामचंद्र सिंह और अकबर साथ खेलकर बड़े हुए, आगे भी दोनों दोस्त बने रहे। रीवा महाराज रामचंद्र सिंह ने अकबर को दिल्ली के तख्त पर सत्तासीन होने के बाद उपहार स्वरुप दो नवरत्न भेजे, जिनको इतिहास तानसेन और बीरबल के नाम से जानता है़।

इतिहास ने अपने पन्नों में पूना के मराठा शासक पेशवा बाजीराव द्वितीय का नाम भी दर्ज किया साथ ही उनके दत्तक पुत्र नाना साहेब 'धोंडूपन्त' को भारतीय स्वतंत्रता के प्रथम संग्राम का एक शिल्पकार बतलाया है़।

मुगल साम्राज्य के अंतिम शहंशाह बहादुर शाह को भी इतिहास ने स्वतंत्रता सेनानी का तमगा देते हुए उनके और मेजर हडसन के वार्तालाप को खुब तव्वजो दी है़।
मेजर - "दमदमे में दम नहीं है ख़ैर मांगो जान की.. ऐ ज़फर ठंडी हुई अब तेग हिंदुस्तान की.."
जफर - "ग़ज़ियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की.. तख़्त ऐ लंदन तक चलेगी तेग हिंदुस्तान की.."

वर्ष 1988 में भारत सरकार द्वारा 60 पैसे की एक टिकट जारी की गई, जिसका शीर्षक था - प्रथम स्वाधीनता संग्राम, जिसमें 6 नाम अंकित थे रानी लक्ष्मी बाई, बेगम हज़रत महल,तात्या टोपे, बहादुर शाह जफर, मंगल पांडे और नाना साहेब। उपरोक्त डाकटिकट में बेगम हजरत महल का चित्र भी प्रकाशित था। बेगम महल का असली नाम मुहम्मदी ख़ानुम था, भले ही वे पेशे से तवायफ थीं, किंतु अवध नवाब
वाजिद अली शाह के निर्वासन के बाद उन्होंने जिस राजनीतिक सूझबूझ का प्रदर्शन करते हुए अवध की गद्दी पर अपने पुत्र बिरजिस क़द्र को आसीन कर दिया और अंग्रेजों से भी टकरा गई। उनकी वीरता ने इतिहास में उनको भरपूर स्थान दिलवाया। आज लखनऊ से लेकर काठमांडू तक उनके स्मारक बने हुए हैं।

इस बात पर हम आज भी इठलाते हैं कि हमारे रणबांकुरो ने, हमारी वीरांगनाओं ने खुब लड़ा। ये हमारे लिए गौरव का विषय था और सदैव रहेगा। किंतु एक अप्रकाशित रह गया सत्य यह भी है कि ये लड़ाईयाँ, विद्रोह, युद्ध सब अपने अपने राज्य को बचाने के लिए था, अपने किले, अपने महल, अपने खजाने, अपने उत्तराधिकार, अपने सिंहासन, अपने रुतबे को बचाने के लिए था। अंग्रजों ने फूट डालो राज्य करो की नीति के तहत किसी रियासत के राजा की चमक बने रहने दी, किसी की बढ़ा दी और किसी की छीन ली। अंग्रेजों की फूट डालो राज करो नीति इतनी कारगर साबित हुई कि आज भी उसका अनुपालन शिद्दत से किया जाता है़। अधिकांशतः स्थानीय स्तर की छोटी से छोटी संस्था से लेकर राष्ट्र स्तर के बड़े से बड़े संस्थान में इसी नीति के अनुसार शासन प्रशासन संचालित किया जा रहा है़। महाराणा प्रताप व कुंवर सिंह जैसे कुछेक नाम छोड़ दिए जाएँ तो लगभग हर राजा व नवाब ने अंग्रेजों के सामने घुटने टेकते हुए अपनी- अपनी शर्तें रखी। परंतु अंग्रेज उनकी कमजोरियाँ भांप चुके थे, जो राजा ऐशोआराम पसंद व अय्याश था, उसे सिपहसलार बना कर उसी के संसाधनों का इस्तेमाल कर पड़ोसी राजा को कुचल दिया गया। अंग्रेजी साम्राज्य फैलता गया, जबकि अंग्रेज लंदन से ना तो लाखों सैनिक लेकर आए थे और ना ही अकूत धन।

जनजातियों का योगदान -

देशभर के कलमकारों ने भी 1857 के स्वाधीनता संग्राम को ही भारत का पहला आंदोलन मानते हुए खुब कविताएँ कहानियाँ व उपन्यास लिख डाले। जबकि उसके पूर्व अंग्रेजों के विरुद्ध कई विद्रोह हो चुके थे और वो लड़ाईयाँ ना सत्ता के लिए थी, ना सिंहासन के लिए। वे लड़ाईयाँ जल जंगल जमीन के लिए लड़ी गई, अपने हक के लिए लड़ी गई, अग्रेजों व सामंतवादी व्यवस्था के विरुद्ध लड़ी गईं। निःस्वार्थ लड़ी गई, देश के लिए लड़ी गई।

वर्ष 1771 से 1784 तक ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध लंबी लड़ाई लड़ने वाले बिहार के बाबा तिलका मांझी ने अंग्रेज प्रशासक ऑगस्टस क्लीवलैंड की हत्या कर दी, तब ब्रिटिश बौखला उठे। कैप्टन आयरकूट के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना के साथ जबरा पहाड़िया उर्फ तिलका मांझी एवं संताल वीरों की मुठभेड़ हुई। सुल्तानगंज में हुई इस लड़ाई में तिलका के कई लड़ाके मारे गए एवं उनको गिरफ्तार कर लिया गया। निर्मम अंग्रेज तिलका को चार घोड़ों से बांधकर घसीटते हुए भागलपुर ले गए, जहाँ 13 जनवरी, 1785 को एक विशाल वटवृक्ष पर उन्हें सरेआम फांसी दे दी गई। इस आंदोलन में
फूलमनी मझिआइन का योगदान भी अविस्मरणीय था।

वर्ष 1831 में महानायक बुधु भगत, सुर्गा मुंडा, सिंदराय मानकी, बिंदराय मानकी, जोआ भगत द्वारा अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ा गया कोल विद्रोह संभवतः देश का पहला संगठित आंदोलन था।

अपने जीवन के 37 साल असीरगढ़ किले की जेल में बिताने वाले संबलपुर, ओड़िशा के सुरेंद्र साए अंग्रेजी सेना द्वारा 1840 में पहली बार गिरफ्तार किए गए थे।

9 जुलाई, 1855 को झारखंड के पाकुड़ जिला के संग्रामपुर में ब्रिटिश सेना के कैप्टन मर्टिलो के साथ हुई जंग में संताल वीर चांद भैरव शहीद हो गए।

संताल विद्रोह के महानायक भाई सिदो कान्हू को 26 जुलाई, 1855 को झारखंड के साहेबगंज जिला के बरहेट प्रखंड में अवस्थित गाँव पंचकठिया में बरगद के पेड़ पर फांसी से लटका दिया गया। ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ प्रारंभ उस हूल आंदोलन में अंग्रेजों की फायरिंग से हजारों आदिवासी मारे गए थे, जिस कहानी का चश्मदीद गवाह है़ झारखंड के पाकुड़ में अवस्थित मर्टिलो टॉवर, जो आज भी सिदो कान्हू चांद भैरव फूलो झानो व आदिवासी शहीदों की शौर्य गाथा गाता है़।

इस हूल आंदोलन के दौरान हूल नायिका फूलो झानो ने अंग्रेजों की सेना के 21 जवानों को मौत के घाट उतार दिया था। ऐसा नहीं है़ कि आदिवासी नायिकाओं ने केवल अंग्रजों के विरुद्ध लड़ाईयाँ लड़ी, बल्कि संघर्ष का यह गौरवशाली इतिहास काफी पुराना रहा है़। पन्द्रवीं सदी में पठान शेरशाह सूरी जब फतह पर निकला तो रोहतासगढ़ में उरांव जनजाति की वीरांगना सिनगी देई, कईली देई और चम्पू देई के नेतृत्व में जोरदार प्रतिरोध किया गया। उन महान नायिकाओं की स्मृति में आज भी उरांव स्त्रियाँ अपने माथे पर तीन बिंदिया या खड़ी लकीरें गोदवाती हैं।

दिनांक 21 अक्टूबर, 1857 को चैनपुर, शाहपुर और लेस्लीगंज स्थित अंग्रेजों के कैंप पर आक्रमण करने वाले पलामू आंदोलन के सूत्रधार नीलांबर पीतांबर हों या वर्ष 1880 में झारखंड के गुमनाम शहीद तेलंगा खड़िया अथवा
इंडियन रॉबिनहुड के नाम से विख्यात मध्य प्रदेश के तंट्या भील, जिनको 4 दिसंबर, 1889 को फांसी दे दी गई।

इनमें ना तो कोई राजा था, ना कोई बादशाह, ना कोई रानी, ना कोई बेगम, ना ही ये लड़ाईयाँ राज्य की सत्ता बचाने के लिए लड़ी गई, ना सिंहासन बचाने के लिए, ना खजाने के लिए और ना ही महल के लिए। ये लड़ाईयाँ जल जंगल जमीन के लिए लड़ी गई, अपने हक के लिए लड़ी गई, अग्रेजों व सामंतवादी व्यवस्था के विरुद्ध लड़ी गईं। निःस्वार्थ लड़ी गई, देश के लिए लड़ी गई। आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों की वीरता की गाथाओं को ना तो इतिहास के पन्नों में दर्ज किया जा सका और ना स्कूली पाठ्यक्रम में पढ़ाया जा सका।

यदि भारत का पहला स्वाधीनता संग्राम 1857 था, तो 1771- 84 में तिलका का विद्रोह क्या था? वर्ष 1831 का कोल विद्रोह और 1840 में सुरेंद्र साए का उलगुलान क्या था? वर्ष 1855 के हूल आंदोलन (संताल विद्रोह) को अनदेखा कर इतिहास कैसे लिखा जा सका?

मराठाओं के पास, राजाओं के पास, बादशाहों के पास प्रचार तंत्र थे, धन संपदा के मंत्र थे, भाट चारण जैसे दरबारी थे। इसीलिए बाजीराव पेशवा हों या शिवाजी महाराज, उनकी स्टोरीज को खुब लिखा गया और खुब प्रसारित किया गया। अब तो स्थिति यह है़ कि ऐतिहासिक किरदारों की झूठी सच्ची प्रेम कहानियों पर फिल्में बनाकर सैकड़ों करोड़ के कारोबार किए जा रहे हैं,यथा; बाजीराव मस्तानी, पद्मावत, रजिया सुल्तान, जोधा अकबर।

किंतु प्रचार प्रसार से दूर रहने वाले आदिवासियों के पास ना तो अपना इतिहास गढ़वाने के लिए इतिहासकार थे, ना दरबार के पैसों पर पलने वाले चाटुकार, ना वंश का वर्णन करने वाले मागध, ना समयानुसार स्तुति करने वाले वंदीजन, ना वैसे महल जिनमें तस्वीरें या मूर्तियाँ लगाई जा सकती। एक ओर पाँच सितारा हैरिटेज होटलों में तब्दील कर दिए गए राजाओं के महल विलासिता की दास्तां बयां करते हैं और दूसरी ओर इतिहास उनके संघर्ष की गाथा कहते नहीं अघाता।

जबकि आदिवासी राष्ट्र रूपी वृक्ष की जड़ हैं, इनकी जीवनियाँ इतिहास के कई बंद दरवाजों को खोल सकती है़।हालांकि आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों की जीवनियों पर शोध प्रारंभ हुए हैं, पर अभी भी जो कार्य हुआ है वह नाकाफी है़। जीवनियाँ साहित्य की एक प्रमुख विधा है, इस विधा में काफी काम हुआ है़। केवल कोई उपेक्षित रह गया तो वो हैं आदिवासी। सम्मुन्नत भारत के निर्माण में आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों की जीवनियों की महत्ती भूमिका को सुनिश्चित किया जाना आवश्यक है़।

संदर्भ :
1. आदिवासी दर्शन और साहित्य (2015) - वंदना टेटे

2. Recollections of the Campaign in Malwa and Central India Under Major General Sir Hugh Rose (Reprint 2016)- John Henry Sylvester

3.  सिर पर तलवार के वार से मारी गई थीं रानी लक्ष्मीबाई - रेहान फ़ज़ल, बीबीसी संवाददाता, 20 जून 2017, अपडेटेड 25 जनवरी 2019

4. रामगढ़ की मर्दानी - चंद्रभान सिंह लोधी

5. वर्ष 1988 में जारी 60 पैसे का डाकटिकट - प्रथम स्वतंत्रता संग्राम

6. स्वतंत्रता सेनानी वीर आदिवासी - शिवतोष दास

- संदीप मुरारका
पुस्तक शिखर को छूते ट्राइबल्स भाग 1 -3 के लेखक
जमशेदपुर, झारखंड
9431117507
keshav831006@gmail.com




Note :
Title - 7 words
Abstract - 250 words
Article - 2403 words
Reference - 85 words
Photo (one) - 250 words
Total - 2995 words



ग्रेट इंडिया

*ग्रेट इंडिया* 

स्वामी विवेकानंद के बचपन में घर का नाम वीरेश्वर रखा गया था, उनका औपचारिक नाम नरेंद्रनाथ दत्त था। आगे चलकर वे स्वामी विवेकानंद के नाम से प्रसिद्ध हुए। हालांकि उनके महान व्यक्तित्व के पीछे नेम गेम का कोई योगदान नहीं था, उनका नाम वीरेश्वर होता या नरेंद्र या विवेकानंद, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता, उनको महान बनाया उनकी विचारशीलता ने, उनको विश्वव्यापी पहचान मिली उनके ओजस्वी और सारगर्भित व्याख्यानों से। वे एक ऐसे धर्म गुरु हुए, जिनमें यह कहने की हिम्मत थी कि "इस देश के तैंतीस करोड़ भूखे, दरिद्र और कुपोषण के शिकार लोगों को देवी देवताओं की तरह मंदिरों में स्थापित कर दिया जाये और मंदिरों से देवी देवताओं की मूर्तियों को हटा दिया जाये।" 

खैर अभी विषय उनके विचारों पर चिंतन का नहीं है़। अभी विषय है़ नाम बदलने का!  हमने विकलांग को दिव्यांग कहना आरंभ कर दिया। आह! क्या सुकून!! बॉम्बे मुंबई बन गया, मद्रास चेन्नई, कलकत्ता कोलकात्ता, उड़ीसा ओड़िशा, इलाहाबाद प्रयागराज, बैंगलोर बेंगलुरु, गुड़गांव गुरुग्राम और ना जाने कितने शहरों के नाम बदल गए। सच में नाम बदलते ही ये सारे शहर व राज्य अविकसित से सीधे विकसित की श्रेणी में आ गए। भले सरकारी दस्तावेजों में नए नामकरण के लिए करोड़ों रुपए खर्च (स्वाहा) हो गए, पर विकास भी उतनी ही तेजी से दौड़ पड़ा। इन नए नाम वाले क्षेत्रों में एक तो भ्रष्ट्राचार बिल्कुल समाप्त हो गया, दूसरा इन स्थानों को पुराना नाम मिलते ही यहाँ अपराधिक घटनाएँ बिल्कुल समाप्त हो गई। यहाँ की जनता जो बंबई, मद्रास, कलकत्ता, उड़ीसा, इलाहाबाद, बैंगलोर, गुड़गांव जैसे शब्दों के बोझ तले दबकर नारकीय जीवन जीने को मजबूर थी, अब देवताओं के स्वर्ग तुल्य रमणीय स्थानों के समकक्ष स्थान पर रहने की फील कर रही है़। 

अभी एक और राज्य के नाम बदलने की कवायद चल रही है़। पश्चिम बंगाल विधानसभा ने पश्चिम बंगाल का नाम बदलकर बांग्ला करने का प्रस्ताव पास किया है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का कहना है़ कि राज्य के नौकरशाहों को केंद्र सरकार द्वारा आयोजित बैठकों में वेस्ट बंगाल नाम होने के कारण वर्ण क्रम के अनुसार सबसे अंत में बोलने का मौका मिलता है। यानी कि केंद्र सरकार में अंग्रेजी वर्णमाला के अनुसार वक्ताओं को आमंत्रित किया जाता है़। वेस्ट बंगाल का नाम बदलते ही संभवतः उत्तराखंड एवं उत्तरप्रदेश सरकार सक्रिय हो जाएगी, क्योंकि उनके नाम अंतिम पायदान पर चले जाएंगे। 

खैर, छोड़िए राज्य व राष्ट्रीय स्तर को, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बात करते हैं। आपको कितना फर्क पड़ता है़ कि ग्रेट ब्रिटेन को कोई ब्रिटेन कहे या यू के या यूनाइटेड किंगडम। आपको कितना फर्क पड़ता है़ कि कोई अमेरिका को यू एस कहे या यूएसए या अमेरिका या यूनाइटेड स्टेट ऑफ अमेरिका। बर्मा का नाम म्यांमार हो जाने से वहाँ से एक्सपोर्ट इंपोर्ट करने वालों के व्यापार में इजाफा हुआ क्या? अब हॉलैंड को नीदरलैंड कहा जाए या नीदरलैंड को हॉलैंड, किसी इंडियन को ही नहीं, विश्व के किसी देश के नागरिक को इससे ना फर्क पड़ता है़, ना कोई इस बात की नोटिस लेता है़। 

नाम बदलने की मानसिकता या एक नाम रखने की संकीर्णता, ऐसे अभियानों से मुझे राजनीति की बू आती है़। जिनका मकसद होता है़ विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार जैसे गंभीर मुद्दों को छोड़कर नाम जैसे मुद्दों में उलझाए रखना और युवाओं को नाम अभियान की एक नई अफीम चटा कर उनके अर्द्धविकसित मस्तिष्कों में कूड़ा भरना। 

अजी, हमें गर्व होना चाहिए इंडिया गेट पर, मेक इन इंडिया अभियान पर, एयर इंडिया पर, टीम इंडिया पर, रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया पर, टाइम्स ऑफ इंडिया पर, हर उस नाम पर जहाँ इंडिया जुड़ा हो, जहाँ भारत जुड़ा हो। वैसे भी अपने देश में कल्चर है़ घर में अलग नाम से पुकारा जाता है़, बाहर अलग नाम होता है़। मत चलाइए ऐसा कोई अभियान जिसमें इंडिया शब्द की पहचान खत्म होती हो। क्योंकि ऐसा होता है़ तो इससे उत्साहित एक वर्ग विशेष कल राष्ट्रगान जन गण मन को बदलने की बात करेगा, हो सकता है़ उसके बाद तिरंगे से हरा या केसरिया रंग हटाने की मांग हो, देवनागरी की जगह संस्कृत, पालि, मगधी या ब्रज लिपि लागू करने का मुद्दा उठ जाए। वैश्विक स्तर पर इंडिया की पहचान भारत के रुप में मत बनाइए, उसे ग्रेट इंडिया के रुप में बनाइए। यदि महा अभियान ही शुरु करना हो तो यह करें कि "हर धार्मिक संस्थान के अंतर्गत एक यूनिवर्सिटी प्रारंभ हो।"