Tuesday, 25 January 2022

राष्ट्र रूपी वृक्ष की जड़ हैं आदिवासी

सम्मुन्नत भारत के निर्माण में साहित्य (आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों की जीवनियों) की भूमिका

राष्ट्र रूपी वृक्ष की जड़ हैं आदिवासी
- संदीप मुरारका

साहित्य के बिना क्या राष्ट्र निर्माण की परिकल्पना की जा सकती है़, शायद नहीं! विधा चाहे जो हो काव्य, कहानी, नाटक, निबंध, लघुकथा, आत्मकथा या जीवनियाँ, साहित्य के बिना किसी भी राष्ट्र की संस्कृति अथवा इतिहास का संरक्षण संभव नहीं है़। कहा जा सकता है़ कि साहित्य एवं समाज एक दूसरे के पूरक हैं। भारतीय साहित्य अपने आपमें इतना विशाल है कि इसके आरंभ और वर्तमान को पूर्ण रुप से जान लेना बहुत कठिन है। हमारे देश में वाचिक साहित्य, शिलालेख, ताम्रलेख, काष्ठलेख, पांडुलिपियाँ यत्र तत्र बिखरे पड़े हैं। पुराणों से लेकर वर्तमान समकालीन साहित्य का एक बहुत बड़ा हिस्सा इतिहास को समर्पित है़। आज जब भारतीय इतिहास का पुनर्मूल्यांकन किया जा रहा है़, तो इस विषय पर गौर करना आवश्यक है़ कि क्या भारत के स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में जनजातियों के योगदान की अनदेखी नहीं की गई? यह ऐतिहासिक भूल एक सोची समझी रणनीति के तहत हुई या अनजाने में, किंतु यह कटु सत्य है़ कि भारतीय इतिहास ने आदिवासियों की संघर्ष गाथा लिखने में न्याय नहीं किया। इतिहास के पन्ने हों या देशभर के स्कूली पाठ्यक्रम, आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों को उचित स्थान नहीं दिया गया।

चँवर छत्र सिंहासन की रोशनी में जो लड़े, वो इतिहास हो गए,
जल जंगल जमीं के लिए अंधकार में जो लड़े, वो खाक हो गए।

पुस्तक "आदिवासी और वनाधिकार" के लेखक ग्लैडसन डुंगडुंग लिखते हैं कि दुनिया को एक दिन आदिवासी दर्शन के पास ही लौटना है। उनका मानना है़ कि आदिवासियों के साथ लेखकों एवं साहित्यकारों ने बहुत बेईमानी की है़।

रानी लक्ष्मीबाई -

वर्ष 1842 में लक्ष्मीबाई का विवाह झाँसी के मराठा शासित राजा गंगाधर राव नेवालकर के साथ हुआ और वे झाँसी की रानी बनीं। सितंबर 1851 में रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया। परन्तु चार महीने की उम्र में ही उसकी मृत्यु हो गयी। सन् 1853 में राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य बहुत अधिक बिगड़ जाने पर उन्होंने एक पुत्र को गोद लिया,दत्तक पुत्र का नाम दामोदर राव रखा गया। पुत्र गोद लेने के दूसरे दिन ही 21 नवंबर,1853 को राजा गंगाधर राव की मृत्यु हो गयी।

महाराजा ने यह आदेश दिया था कि उनकी मृत्यु के पश्चात इस चार वर्षीय बच्‍चे को वारिस माना जाएगा और झांसी के प्रशासन की बागडोर रानी लक्ष्मीबाई के हाथों में होगी। लेकिन महाराजा के निधन के बाद गवर्नर-जनरल लॉर्ड डलहौजी ने दामोदर राव के दावे को विलय की फर्जी नीति गोद निषेध अधिनियम (Doctrine of Lapse) के तहत खारिज कर दिया।

अंग्रेजों ने अपनी विलय नीति के तहत बालक दामोदर राव के खिलाफ ब्रिटिश अदालत में मुकदमा दायर कर दिया। हालांकि मुकदमे में बहुत बहस हुई, रानी लक्ष्मीबाई की ओर से आस्ट्रेलिया के विद्वान अधिवक्ता जॉन लैंग ने 22 अप्रैल 1854 को लंदन की अदालत में पक्ष रखा लेकिन असफल रहे।

परंतु अंग्रेजों के पक्ष में एकतरफा फैसला सुनाते हुए मुकदमा खारिज कर दिया गया। अंग्रेजों द्वारा राज्य का खजाना जब्त कर लिया गया। रानी लक्ष्मीबाई को झाँसी का किला छोड़कर झाँसी के रानीमहल में जाना पड़ा। पर उन वीरांगना ने हिम्मत नहीं हारी और हर हाल में झाँसी राज्य की रक्षा करने का निश्चय किया। उन्होंने एक स्वयंसेवक सेना का गठन किया, जिसमें महिलाओं की भी भर्ती की गयी और उन्हें युद्ध का प्रशिक्षण दिया गया। वीर रानी लक्ष्मीबाई ने मात्र 29 वर्ष की उम्र में अंग्रेज साम्राज्य की सेना से युद्ध किया और 18 जून,1858 को रणभूमि में वीरगति को प्राप्त हुईं।

रानी के बेटे दामोदर को लड़ाई के मैदान से सुरक्षित ले जाया गया। किंतु दामोदर ने रानी की शहादत के दो साल बाद ही ग्यारह वर्ष की उम्र में अंग्रेजों के सामने आत्म समर्पण कर दिया। राजनीतिक एजेंट सर रिचर्ड शेक्‍सपियर ने उनकी मदद की और उनको रु. 10 हजार वार्षिक पेंशन मुहैया कराई गई। एक कश्‍मीरी टीचर को उनका संरक्ष‍क बनाया गया और सात अनुयायियों को साथ रखने की अनुमति दी गई। दामोदर राव इंदौर में ही बस गए, वर्ष 1906 में उनकी मृत्यु हुई। उनकी मृत्यु के बाद कुछ मासिक पेंशन उनके पुत्र लक्ष्मण राव को भी मिलती रही। उनका परिवार आज भी इंदौर में रहता है़ और झाँसी वाले के नाम से विख्यात है़।

यहाँ यह भी गौरतलब है़ कि रानी लक्ष्मीबाई की मृत्यु के दो दिनों बाद ही ग्वालियर महाराजा जयाजीराव सिंधिया ने अंग्रेजों की जीत की खुशी में जय विलास महल में जनरल रोज और सर रॉबर्ट हैमिल्टन के सम्मान में भोज व रंगारंग नृत्य का आयोजन किया था। राज्यसभा सांसद ज्योतिरादित्य माधवराव सिंधिया उन्हीं जयाजीराव सिंधिया की पाँचवी पीढ़ी में जन्में हैं। हिंदी की जानी मानी कवियत्री सुभद्रा कुमारी चौहान लिखती हैं, ''बुंदेलों हर बोलो के मुंह हमने सुनी कहानी थी, अंग्रेजों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी राजधानी थी। ''

शहीद वीरांगना रानी अवंती बाई लोधी -

इतिहास के स्वर्णिम पन्नों में और कई वीरांगनाओं के नाम दर्ज हैं, जिनमें एक हैं मध्यप्रदेश के रामगढ़ रियासत की रानी अवंती बाई लोधी, जिनका विवाह वर्ष 1848 में रामगढ़ रियासत के राजकुमार विक्रम जीत सिंह के साथ हुआ। वर्ष 1851 में उनके ससुर रामगढ़ राजा लक्ष्मण सिंह की मृत्यु हो गई। जिसके बाद अवंतीबाई के पति विक्रम जीत सिंह का रामगढ़ रियासत के राजा के रूप में राजतिलक किया गया। कुछ समय बाद अवंती बाई ने दो बेटों को जन्म दिया, जिनका नाम अमान सिंह और शेर सिंह रखा गया।

वर्ष 1855 में एक दुर्घटना में राजा विक्रम जीत सिंह की मृत्यु हो गई। राजकुमार अमान सिंह और शेर सिंह के नाबालिग होने से राजकाज रानी अवंती बाई ने अपने हाथों में ले लिया, जो अंग्रेजी हुकूमत को रास नहीं आया। इस दौरान अंग्रेजों ने रामगढ़ पर 'कोर्ट ऑफ वार्ड' (court of ward) लागू कर दिया। जो अंग्रेजी हुकूमत के विस्तार हेतु लार्ड डलहौजी की राज्य हड़प नीति के तहत बनाया गया एक क्रूर कानून था। जिसके तहत जिस राज्य का राजा शासन करने में अक्षम हो, राजा की मृत्यु हो गयी हो, या फिर कोई वारिस नहीं न हो, नाबालिग हो, या फिर राज्य को संभालने वाला कोई उत्तराधिकारी न हो, राजा विक्षिप्त हो ऐसे राज्य पर कोर्ट ऑफ वार्ड लागू कर दिया जाता था।

परंतु रानी भी झुकने के लिए तैयार नहीं थी, उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह का बिगुल फूंक दिया। इधर मंडला के डिप्टी कमिश्नर वाडिंगटन ने भी इस विद्रोह को कुचलने की पूरी तैयारियाँ कर ली। अंग्रेजों की सशस्त्र सेना ने चारों तरफ से रानी की सेना पर धावा बोल दिया। कई दिनों तक रानी की सेना और अंग्रेजी सेना में युद्ध चलता रहा, रानी के पास सेना बल व संसाधन सीमित थे, अंततः अंग्रेज अवंती बाई की सेना पर भारी पड़ते गए।

20 मार्च 1858, देवहारगढ़ की पहाड़ी पर चल रहे इस युद्ध में रानी की सेना के कई सैनिक घायल हो गए, रानी को खुद बाएं हाथ में गोली लगी। जिससे उनकी बंदूक छूटकर गिर गई। अपने आप को चारों ओर से घिरता देख वीरांगना अवंतीबाई लोधी ने अपने अंगरक्षक से कटार छीनी और खुद को भोंक कर अपने प्राणों की आहुति दे दी।

पुनः यहाँ भी गौरतलब है़ कि रानी अवंती बाई लोधी के साथ हुए युद्ध में अंग्रेजों का साथ रीवा नरेश रघुराज सिंह जू देव बहादुर ने दिया था। इस सेवा के बदले अंग्रेजों ने जू देव को ना केवल रीवा का राजा बने रहने दिया बल्कि सोहागपुर (शहडोल) और अमरकंटक परगना को उनके शासन में बहाल कर दिया गया और महाराजा की उपाधि प्रदान की गई। उन्हीं की वंश परंपरा से आए महाराजा मार्तंड सिंह आजाद भारत में सांसद चुने गए। उनके पुत्र पुष्पराज सिंह विधायक और मध्य प्रदेश सरकार में मंत्री रह चुके हैं। पुष्पराज सिंह के पुत्र दिव्यराज सिंह सिरमौर से विधायक चुने जा चुके हैं।

किद्वंतियो के अनुसार रीवा राजघराने ने ही अकबर को 10 साल की उम्र में तब शरण दी थी, जब उनके पिता हुमायूँ  बेलग्राम युद्ध में शेरशाह सूरी से हार के बाद भारत से भाग गए थे। राजकुमार रामचंद्र सिंह और अकबर साथ खेलकर बड़े हुए, आगे भी दोनों दोस्त बने रहे। रीवा महाराज रामचंद्र सिंह ने अकबर को दिल्ली के तख्त पर सत्तासीन होने के बाद उपहार स्वरुप दो नवरत्न भेजे, जिनको इतिहास तानसेन और बीरबल के नाम से जानता है़।

इतिहास ने अपने पन्नों में पूना के मराठा शासक पेशवा बाजीराव द्वितीय का नाम भी दर्ज किया साथ ही उनके दत्तक पुत्र नाना साहेब 'धोंडूपन्त' को भारतीय स्वतंत्रता के प्रथम संग्राम का एक शिल्पकार बतलाया है़।

मुगल साम्राज्य के अंतिम शहंशाह बहादुर शाह को भी इतिहास ने स्वतंत्रता सेनानी का तमगा देते हुए उनके और मेजर हडसन के वार्तालाप को खुब तव्वजो दी है़।
मेजर - "दमदमे में दम नहीं है ख़ैर मांगो जान की.. ऐ ज़फर ठंडी हुई अब तेग हिंदुस्तान की.."
जफर - "ग़ज़ियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की.. तख़्त ऐ लंदन तक चलेगी तेग हिंदुस्तान की.."

वर्ष 1988 में भारत सरकार द्वारा 60 पैसे की एक टिकट जारी की गई, जिसका शीर्षक था - प्रथम स्वाधीनता संग्राम, जिसमें 6 नाम अंकित थे रानी लक्ष्मी बाई, बेगम हज़रत महल,तात्या टोपे, बहादुर शाह जफर, मंगल पांडे और नाना साहेब। उपरोक्त डाकटिकट में बेगम हजरत महल का चित्र भी प्रकाशित था। बेगम महल का असली नाम मुहम्मदी ख़ानुम था, भले ही वे पेशे से तवायफ थीं, किंतु अवध नवाब
वाजिद अली शाह के निर्वासन के बाद उन्होंने जिस राजनीतिक सूझबूझ का प्रदर्शन करते हुए अवध की गद्दी पर अपने पुत्र बिरजिस क़द्र को आसीन कर दिया और अंग्रेजों से भी टकरा गई। उनकी वीरता ने इतिहास में उनको भरपूर स्थान दिलवाया। आज लखनऊ से लेकर काठमांडू तक उनके स्मारक बने हुए हैं।

इस बात पर हम आज भी इठलाते हैं कि हमारे रणबांकुरो ने, हमारी वीरांगनाओं ने खुब लड़ा। ये हमारे लिए गौरव का विषय था और सदैव रहेगा। किंतु एक अप्रकाशित रह गया सत्य यह भी है कि ये लड़ाईयाँ, विद्रोह, युद्ध सब अपने अपने राज्य को बचाने के लिए था, अपने किले, अपने महल, अपने खजाने, अपने उत्तराधिकार, अपने सिंहासन, अपने रुतबे को बचाने के लिए था। अंग्रजों ने फूट डालो राज्य करो की नीति के तहत किसी रियासत के राजा की चमक बने रहने दी, किसी की बढ़ा दी और किसी की छीन ली। अंग्रेजों की फूट डालो राज करो नीति इतनी कारगर साबित हुई कि आज भी उसका अनुपालन शिद्दत से किया जाता है़। अधिकांशतः स्थानीय स्तर की छोटी से छोटी संस्था से लेकर राष्ट्र स्तर के बड़े से बड़े संस्थान में इसी नीति के अनुसार शासन प्रशासन संचालित किया जा रहा है़। महाराणा प्रताप व कुंवर सिंह जैसे कुछेक नाम छोड़ दिए जाएँ तो लगभग हर राजा व नवाब ने अंग्रेजों के सामने घुटने टेकते हुए अपनी- अपनी शर्तें रखी। परंतु अंग्रेज उनकी कमजोरियाँ भांप चुके थे, जो राजा ऐशोआराम पसंद व अय्याश था, उसे सिपहसलार बना कर उसी के संसाधनों का इस्तेमाल कर पड़ोसी राजा को कुचल दिया गया। अंग्रेजी साम्राज्य फैलता गया, जबकि अंग्रेज लंदन से ना तो लाखों सैनिक लेकर आए थे और ना ही अकूत धन।

जनजातियों का योगदान -

देशभर के कलमकारों ने भी 1857 के स्वाधीनता संग्राम को ही भारत का पहला आंदोलन मानते हुए खुब कविताएँ कहानियाँ व उपन्यास लिख डाले। जबकि उसके पूर्व अंग्रेजों के विरुद्ध कई विद्रोह हो चुके थे और वो लड़ाईयाँ ना सत्ता के लिए थी, ना सिंहासन के लिए। वे लड़ाईयाँ जल जंगल जमीन के लिए लड़ी गई, अपने हक के लिए लड़ी गई, अग्रेजों व सामंतवादी व्यवस्था के विरुद्ध लड़ी गईं। निःस्वार्थ लड़ी गई, देश के लिए लड़ी गई।

वर्ष 1771 से 1784 तक ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध लंबी लड़ाई लड़ने वाले बिहार के बाबा तिलका मांझी ने अंग्रेज प्रशासक ऑगस्टस क्लीवलैंड की हत्या कर दी, तब ब्रिटिश बौखला उठे। कैप्टन आयरकूट के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना के साथ जबरा पहाड़िया उर्फ तिलका मांझी एवं संताल वीरों की मुठभेड़ हुई। सुल्तानगंज में हुई इस लड़ाई में तिलका के कई लड़ाके मारे गए एवं उनको गिरफ्तार कर लिया गया। निर्मम अंग्रेज तिलका को चार घोड़ों से बांधकर घसीटते हुए भागलपुर ले गए, जहाँ 13 जनवरी, 1785 को एक विशाल वटवृक्ष पर उन्हें सरेआम फांसी दे दी गई। इस आंदोलन में
फूलमनी मझिआइन का योगदान भी अविस्मरणीय था।

वर्ष 1831 में महानायक बुधु भगत, सुर्गा मुंडा, सिंदराय मानकी, बिंदराय मानकी, जोआ भगत द्वारा अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ा गया कोल विद्रोह संभवतः देश का पहला संगठित आंदोलन था।

अपने जीवन के 37 साल असीरगढ़ किले की जेल में बिताने वाले संबलपुर, ओड़िशा के सुरेंद्र साए अंग्रेजी सेना द्वारा 1840 में पहली बार गिरफ्तार किए गए थे।

9 जुलाई, 1855 को झारखंड के पाकुड़ जिला के संग्रामपुर में ब्रिटिश सेना के कैप्टन मर्टिलो के साथ हुई जंग में संताल वीर चांद भैरव शहीद हो गए।

संताल विद्रोह के महानायक भाई सिदो कान्हू को 26 जुलाई, 1855 को झारखंड के साहेबगंज जिला के बरहेट प्रखंड में अवस्थित गाँव पंचकठिया में बरगद के पेड़ पर फांसी से लटका दिया गया। ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ प्रारंभ उस हूल आंदोलन में अंग्रेजों की फायरिंग से हजारों आदिवासी मारे गए थे, जिस कहानी का चश्मदीद गवाह है़ झारखंड के पाकुड़ में अवस्थित मर्टिलो टॉवर, जो आज भी सिदो कान्हू चांद भैरव फूलो झानो व आदिवासी शहीदों की शौर्य गाथा गाता है़।

इस हूल आंदोलन के दौरान हूल नायिका फूलो झानो ने अंग्रेजों की सेना के 21 जवानों को मौत के घाट उतार दिया था। ऐसा नहीं है़ कि आदिवासी नायिकाओं ने केवल अंग्रजों के विरुद्ध लड़ाईयाँ लड़ी, बल्कि संघर्ष का यह गौरवशाली इतिहास काफी पुराना रहा है़। पन्द्रवीं सदी में पठान शेरशाह सूरी जब फतह पर निकला तो रोहतासगढ़ में उरांव जनजाति की वीरांगना सिनगी देई, कईली देई और चम्पू देई के नेतृत्व में जोरदार प्रतिरोध किया गया। उन महान नायिकाओं की स्मृति में आज भी उरांव स्त्रियाँ अपने माथे पर तीन बिंदिया या खड़ी लकीरें गोदवाती हैं।

दिनांक 21 अक्टूबर, 1857 को चैनपुर, शाहपुर और लेस्लीगंज स्थित अंग्रेजों के कैंप पर आक्रमण करने वाले पलामू आंदोलन के सूत्रधार नीलांबर पीतांबर हों या वर्ष 1880 में झारखंड के गुमनाम शहीद तेलंगा खड़िया अथवा
इंडियन रॉबिनहुड के नाम से विख्यात मध्य प्रदेश के तंट्या भील, जिनको 4 दिसंबर, 1889 को फांसी दे दी गई।

इनमें ना तो कोई राजा था, ना कोई बादशाह, ना कोई रानी, ना कोई बेगम, ना ही ये लड़ाईयाँ राज्य की सत्ता बचाने के लिए लड़ी गई, ना सिंहासन बचाने के लिए, ना खजाने के लिए और ना ही महल के लिए। ये लड़ाईयाँ जल जंगल जमीन के लिए लड़ी गई, अपने हक के लिए लड़ी गई, अग्रेजों व सामंतवादी व्यवस्था के विरुद्ध लड़ी गईं। निःस्वार्थ लड़ी गई, देश के लिए लड़ी गई। आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों की वीरता की गाथाओं को ना तो इतिहास के पन्नों में दर्ज किया जा सका और ना स्कूली पाठ्यक्रम में पढ़ाया जा सका।

यदि भारत का पहला स्वाधीनता संग्राम 1857 था, तो 1771- 84 में तिलका का विद्रोह क्या था? वर्ष 1831 का कोल विद्रोह और 1840 में सुरेंद्र साए का उलगुलान क्या था? वर्ष 1855 के हूल आंदोलन (संताल विद्रोह) को अनदेखा कर इतिहास कैसे लिखा जा सका?

मराठाओं के पास, राजाओं के पास, बादशाहों के पास प्रचार तंत्र थे, धन संपदा के मंत्र थे, भाट चारण जैसे दरबारी थे। इसीलिए बाजीराव पेशवा हों या शिवाजी महाराज, उनकी स्टोरीज को खुब लिखा गया और खुब प्रसारित किया गया। अब तो स्थिति यह है़ कि ऐतिहासिक किरदारों की झूठी सच्ची प्रेम कहानियों पर फिल्में बनाकर सैकड़ों करोड़ के कारोबार किए जा रहे हैं,यथा; बाजीराव मस्तानी, पद्मावत, रजिया सुल्तान, जोधा अकबर।

किंतु प्रचार प्रसार से दूर रहने वाले आदिवासियों के पास ना तो अपना इतिहास गढ़वाने के लिए इतिहासकार थे, ना दरबार के पैसों पर पलने वाले चाटुकार, ना वंश का वर्णन करने वाले मागध, ना समयानुसार स्तुति करने वाले वंदीजन, ना वैसे महल जिनमें तस्वीरें या मूर्तियाँ लगाई जा सकती। एक ओर पाँच सितारा हैरिटेज होटलों में तब्दील कर दिए गए राजाओं के महल विलासिता की दास्तां बयां करते हैं और दूसरी ओर इतिहास उनके संघर्ष की गाथा कहते नहीं अघाता।

जबकि आदिवासी राष्ट्र रूपी वृक्ष की जड़ हैं, इनकी जीवनियाँ इतिहास के कई बंद दरवाजों को खोल सकती है़।हालांकि आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों की जीवनियों पर शोध प्रारंभ हुए हैं, पर अभी भी जो कार्य हुआ है वह नाकाफी है़। जीवनियाँ साहित्य की एक प्रमुख विधा है, इस विधा में काफी काम हुआ है़। केवल कोई उपेक्षित रह गया तो वो हैं आदिवासी। सम्मुन्नत भारत के निर्माण में आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों की जीवनियों की महत्ती भूमिका को सुनिश्चित किया जाना आवश्यक है़।

संदर्भ :
1. आदिवासी दर्शन और साहित्य (2015) - वंदना टेटे

2. Recollections of the Campaign in Malwa and Central India Under Major General Sir Hugh Rose (Reprint 2016)- John Henry Sylvester

3.  सिर पर तलवार के वार से मारी गई थीं रानी लक्ष्मीबाई - रेहान फ़ज़ल, बीबीसी संवाददाता, 20 जून 2017, अपडेटेड 25 जनवरी 2019

4. रामगढ़ की मर्दानी - चंद्रभान सिंह लोधी

5. वर्ष 1988 में जारी 60 पैसे का डाकटिकट - प्रथम स्वतंत्रता संग्राम

6. स्वतंत्रता सेनानी वीर आदिवासी - शिवतोष दास

- संदीप मुरारका
पुस्तक शिखर को छूते ट्राइबल्स भाग 1 -3 के लेखक
जमशेदपुर, झारखंड
9431117507
keshav831006@gmail.com




Note :
Title - 7 words
Abstract - 250 words
Article - 2403 words
Reference - 85 words
Photo (one) - 250 words
Total - 2995 words



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