Wednesday, 29 April 2020

अनुदान नहीँ लाभांश

ये पहाड़ हम भी तोड़ सकते हैँ
फिजूल क्यूँ मशीन लगाते हो ।

ये पत्थर हम भी बेच सकते हैँ
क्यूँ किसी को लीज दिलवाते हो ।

हमारे जंगल हमारी जमीन हमारे पत्थर
वो राज करें और हम भटक रहे दर दर ।

क्यूँ नहीँ पोटका को पत्थर क्लस्टर बना देते हो,
क्यूँ नहीँ यहॉ सेल्फ हेल्प ग्रुप शुरू करा देते हो ।

पत्थर के पट्टों को एसएचजी में बांट दो,
हर एसएचजी को एक हेक्टेयर पट्टा दो ।

दस दस एसएचजी के बना दो कई संघ,
लगाना हो क्रशर जिसे, लगाए उनके संग ।

ना ग्रामसभा में दिक्कत आएगी,
ना रोजगार की चिंता सतायेगी ।

विक्रय मूल्य तय करें सरकार, उसके हिस्से हों चार,
रायल्टी, जीएसटी, एसएचजी और क्रशर साझेदार ।

विकास का मॉडल ऐसा बनाओ,
अनुदान नहीँ लाभांश दिलवाओ ।

संदीप मुरारका
29 अप्रेल' 2020

गाव में रहने वाले वैसे ट्राइबल्स को समर्पित, जिनके गांव में पत्थर के पट्टे दिए जा रहे हैँ और उन्हें कोई मजदूरी भी नहीँ मिल रही ।



पद्मश्री लेडी टार्जन जमुना टुडू


जन्म : 19 दिसम्बर 1980
जन्म स्थान : रांगामटिया, ब्लॉक - जामदा, जिला- मयूरभंज, ओडिशा
वर्तमान निवास : बेड़ाडीह, मुटुरखाम गांव , प्रखण्ड चाकुलिया, जिला पूर्वी सिंहभूम, झारखण्ड
पिता - बाघराय मुर्मू
माता- बबिता मुर्मू

जीवन परिचय - झारखण्ड के पूर्वी सिंहभूम जिले के चाकुलिया प्रखंड की रहनेवाली 'लेडी टार्जन जमुना टुडू' का जन्म ओडिशा के एक गांव में ट्राइबल परिवार में हुआ, छः बहनों में सबसे छोटी जमुना ने दसवीं कक्षा तक पढ़ाई की । जमुना के पिता के पास सात-आठ बीघा पथरीली जमीन थी , किन्तु उसपर खेती तो हो नहीँ सकती थी, अतएव उनके माता पिता ने स्वयं अपने मेहनत कर उस पथरीली जमीन को समतल करके वहाँ पेड़ लगाना आरम्भ कर दिया, जमुना भी अपनी बहनों के साथ पौधे लगाया करती, धीरे धीरे एक बड़ा जंगल तैयार हो गया । इसप्रकार जमुना को पेड़ लगाने व इनका संरक्षण करने की प्रेरणा बचपन में ही अपने पिता से प्राप्त हो चुकी थी । इनका विवाह 1998 में झारखण्ड के गांव मुटुरखाम, बेडाडीह टोला में मानसिंह टुडू से हुआ, इनके कोई सन्तान नहीँ हुई।

योगदान - विवाह के बाद जमुना टुडू चाकुलिया के गांव मुटुरखाम में रहने लगीं । पेशे से कृषक परिवार की ट्राइबल जमुना प्रतिदिन आसपास के जंगल में फल फूल चुनने व जलावन की लकड़ी लाने चली जाया करती । कई बार वें देखती कि कुछ पेड़ काट कर गायब कर दिए गए हैँ तो कभी कुछ पेड़ काटकर वहीँ गिराए हुए हैँ । उनके विचार में यह आया कि ये पेड़ काटता कौन है ? वे सतर्क होकर इस विषय पर दृष्टि रखने लगी, धीरे धीरे उनको समझ में आ गया कि कुछ लकड़ी माफिया ना केवल पेड़ो को काटकर ले जाते है वरन काफी वन सम्पदा भी चोरी की जा रही है । उन्होने यह बात अपने घर के अन्य सदस्यों से साझा की, किन्तु किसी ने इन बातो को गम्भीरता से नहीँ लिया । जमुना बैचेन रहने लगी, रातो को सोते हुए भी उन्हें कटे हुए पेड़ और पेडों को काटती कुल्हाड़ी व हाथ दिखने लगे । उन्हें ऐसा प्रतीत होता मानो स्वयं वन देवी लहूलुहान होकर पुकार रही है ।

वर्ष 2000 आते आते उनका नित्यकर्म बदलने लगा, वे जल्दी जल्दी अपने घर का काम निपटा कर जंगलो में चली जातीं और जंगलो में घूम घूम कर पेड़ काटने वाले माफियाओं को ढूंढती और उन्हें वन से खदेड़ती । वर्ष 2002 में अन्य 3- 4 महिलाओं ने जंगलों की पेट्रोलिंग में जमुना का साथ दिया, धीरे-धीरे ये संख्या बढ़कर 60 तक जा पहुंची। सभी ने पाया कि पेडों की कटाई कम हो रही है साथ ही फल फूल भी पहले की अपेक्षा सुरक्षित हैँ ।
इसी बीच रक्षा बंधन का त्यौहार आया, उन्होने ग्रामीण महीलाओ से अपील की कि प्रत्येक महिला एक पेड़ को अपना भाई मानकर राखी बांधे, वैसे भी ट्राइबल प्रकृति का प्रेमी होता है और पेड़ पौधों को वो परिवार के सदस्य सा स्नेह देता है । जमुना के गांव में हर रक्षा बंधन पर वनों के संरक्षण के लिए पेडों को राखी बाँधने की परम्परा आज भी जारी है ।

जमुना जंगल माफियाओं से भिड़ जाती थी, उन लोगों ने पहले तो जमुना को रुपयों का लालच दिया, जब वह नहीँ मानी तो धमकाया गया । किन्तु जमुना पर तो पेडों को बचाने का जुनून सवार था, वो भीड़ गई, हाथापाई हुई, जमुना स्वयं भी टांगी रखती थी और निडरता से वन माफिया के गुर्गों से लड़ी और उनलोगों को खाली हाथ लौटने पर मजबूर कर दिया । एक नहीँ कई बार जमुना लहूलुहान होकर घर लौटीं, पर जंगल की बेटी जंगल में जंगल चोरों से जंग जीत कर लौटी । इसीलिए जमुना
लेडी टार्जन के नाम से विख्यात हुई ।

एक बार वर्ष 2007 में सात लोग हथियार लेकर रात डेढ़ बजे जमुना के घर में आ गए और जंगल बचाने की इस मुहीम को बंद करके को कहा, जमुना ने उस वक़्त तो उनकी हाँ में हाँ मिला दी, किन्तु समझदार जमुना ने कानून का सहारा लिया और उन्हें जेल भिजवाने की ठान ली। एक सप्ताह के भीतर ही वो सातों अपराधी ना केवल जेल भेज दिए गए बल्कि उन्हें कारावास की सजा भी हुई। निडर व बहादुर जमुना पर वन माफियाओं की धमकियों और हमलों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा , वरन उनका आत्मविश्वास बढ़ता चला गया ।

गांव में जमुना के घर के बाहर एक ईमली का पेड़ है, वही जमुना का कार्यालय है और वही उनकी सहयोगी महिलाओ के साथ वार्ता करने का मीटिंग प्लेस है। अब जमुना महिलाओं के साथ हर सुबह छह बजे जंगल चली जातीं और दोपहर ग्यारह बजे तक लौट आती, फिर उसी ईमली के पेड़ के नीचे बैठकर बातचीत करती, सबको अगली रणनीति समझाती और अपराह्न दो तीन बजे तक फिर जंगल चली जाया करती थी।

जमुना ने अपनी सहयोगी महिलाओं को लेकर ग्राम वन प्रबन्धन एवं संरक्षण समिति का गठन किया, जिसकी पंजीकरण संख्या 144/2003 है । 15 महिला और 15 पुरुषों से बनी इस पहली समिति का अध्यक्ष जमुना को ही चुना गया। समिति बनने के बाद जमुना अपने गांव से बाहर दूसरे गावों में भी जाने लगी। धीरे-धीरे इन्होने पूर्वी सिंहभूम जिले के चाकुलिया प्रखण्ड में 300 से ज्यादा वन सुरक्षा समितियों का गठन किया। आज भी प्रत्येक समिति से हर दिन चार पांच महिलाएं अपने-अपने क्षेत्रों में वनों की रखवाली लाठी-डंडे , टांगी, कुल्हाड़ी और तीर-धनुष के साथ करती हैं ।

एक बार जमुना वन समिति का गठन करने दूसरे गाँव में गई हुई थी, पीछे से वन माफियाओं ने उनके गांव में 70 हरे भरे पेड़ काट लिए। उनकी वन समिति की महिलाओं को जैसे ही खबर लगी वो वहां पहुंच गयी और जंगल से लकड़ी नहीं उठने दी। दूसरे गांव से लौटकर जमुना ने थाना में सनहा दर्ज करवाई और चार लोगों को तीन महीने के लिए जेल भिजवा दिया।

जमुना ने पेड़ के पत्तो से दोने व पत्तल बनाने की आजीविका से अपनी वन समितियों को जोड़ा है । जमुना अधिक से अधिक पौधारोपण को प्रोत्साहित करती हैँ, स्वयं इन्होंने अपनी सहयोगियो के साथ मिलकर तीन लाख से ज्यादा पौधे लगाए हैँ । जमुना के गांव में बेटी पैदा होने पर 18 ‘साल’ वृक्षों का रोपण किया जाता है। बेटी के ब्याह के वक्त 10 'साल' वृक्ष उपहार में दिए जाते हैं। जमुना ने स्कूल व नलकूप के लिए अपनी जमीन भी दान में दे दी। जमुना टुडू पर्यावरणप्रेमी, बहादुर, समाजिक महिला होने के साथ साथ कुशल संगठनकर्ता भी हैँ ।

सम्मान एवं पुरस्कार - लेडी टार्जन 'जमुना टुडू ' को पर्यावरण के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए वर्ष 2019 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया । वर्ष 2017 में दिल्ली में नीति आयोग ने वुमन ट्रांसफॉर्मिंग इंडिया अवार्ड द्वारा जमुना को सम्मानित किया । उन्हें गॉडफ्रे फिलिप्स इंडिया लिमिटेड द्वारा 2014 में गॉडफ्रे फिलिप्स नेशनल ब्रेवरी अवार्ड से पुरस्कृत किया गया । उसी वर्ष उन्हें कलर्स टीवी चैनल द्वारा आयोजित भव्य समारोह में फिल्म निर्देशक सुभाष घई ने स्त्री शक्ति अवार्ड प्रदान किया था । वर्ष 2016 में जमुना को राष्ट्रपति द्वारा भारत की प्रथम 100 महिलाओं में चुना गया और राष्ट्रपति भवन में सम्मानित किया गया।प्रधानमंत्री ने अपने पहले कार्यकाल के अन्तिम व 53 वें एपिसोड में 24 फरवरी 2019 को 'मन की बात' में जमुना टुडू की कहानी को राष्ट्र के समक्ष रखा ।


Tuesday, 28 April 2020

पद्मश्री डॉ दमयन्ती बेसरा

जन्म : 16 फरवरी 1962
जन्म स्थान : बॉबेजोड़ा, जिला मयूरभंज, ओड़िशा
वर्तमान निवास : वार्ड न 9, मधुबन, पोस्ट बारीपदा, जिला मयूरभंज, ओड़िशा
पिता : राजमल माझी
माता : पुनगी माझी

जीवन परिचय - धिगिज उर्फ दमयन्ती का जन्म बारीपदा से 90 किलोमीटर दूर गांव बॉबेजोड़ा में एक ट्राइबल परिवार में हुआ था । गांव में कोई स्कूल नहीँ था पर गांव में एक शिक्षित व्यक्ति थे जो एक छोटे से शेड में बच्चों को अक्षर ज्ञान करवाया करते थे । भाई बहनों में बड़ी दमयन्ती भी वहाँ चली जाया करती और चॉक से जमीन पर आड़ी तिरछी लकीरें खींचा करती थी । एक बार उनके ताऊ बुधन माझी और ताई मनी माझी उनके घर आए, तब उनको दमयन्ती के शिक्षा के प्रति झुकाव के विषय में ज्ञात हुआ । ताऊ निःसंतान थे, वे दमयन्ती को अपने साथ देवली गांव ले आए और वहाँ के सरकारी स्कूल में दाखिला करवा दिया । उस स्कूल में अभिभावक के रूप में ताऊजी का नाम ही दर्ज है, दमयन्ती ने वहाँ तीसरी कक्षा तक की पढ़ाई की । आगे की पढ़ाई के लिए गांव से दो किलोमीटर दूर चांदीदा विद्यालय जाने लगीं, जहाँ उन्होने कक्षा चौथी और पांचवी की पढ़ाई की । आगे की शिक्षा के लिए दमयन्ती रायरंगपुर कन्या आश्रम में रहकर पढ़ने लगी । कक्षा पांचवी से हाई स्कूल तक की पढ़ाई उन्होने टीआरडब्ल्यू गर्ल्स हाई स्कूल , रायरंगपुर से करते हुए 1977 में मैट्रिक की परीक्षा पास की । उसके बाद उनके ताऊजी ने कॉलेज की पढ़ाई के लिए दमयन्ती का नामांकन भुवनेश्वर के रमादेवी वीमेंस कॉलेज में करा दिया, जहाँ वे पोस्ट मैट्रिक गर्ल्स हॉस्टल में रहती थी । गरीबी के कारण ताऊजी प्रतिमाह मात्र 40- 50 रुपए ही भेज पाते थे, जबकि मासिक खर्च 60 रुपए था । विलक्षण प्रतिभा की धनी दमयन्ती समय की पाबन्द तथा अनुशासन में रहने वाली छात्रा थी, जो हर परीक्षा में अच्छे मार्क्स लाती । दमयन्ती के पास केवल दो जोड़ी कपड़े हुआ करते थे, किन्तु वो सदैव साफ स्वच्छ रहा करती । नतीजा धीरे धीरे वो सभी शिक्षिकाओं की प्रिय बन गई, विशेषकर वार्डन व्रजेश्वरी मिश्रा उन्हें छोटी बहन सा स्नेह दिया करती थी, इसीलिए पूरी फीस ना चुका पाने पर भी कभी दमयन्ती की पढ़ाई बाधित नहीँ हुई । उन्होने 1979 में इंटरमीडिएट एवं 1981 में ओडिया ऑनर्स में स्नातक कर लिया । 1983 में उन्होने उत्कल यूनिवर्सिटी, भुवनेश्वर से एम ए की परीक्षा पास की । 1985 में संबलपुर में जूनियर रोजगार पदाधिकारी के रूप में उनका कैरियर प्रारम्भ हुआ । नौकरी के दौरान ही उन्होने कर्मचारी चयन आयोग की परीक्षा दी और क्लर्क सह टंकक पद पर उनकी नियुक्ति एजी ओड़िशा के कार्यालय भुवनेश्वर में हो गई । मेहनती व प्रतिभावान दमयन्ती ने ओडिशा लोक सेवा आयोग की परीक्षा भी पास कर ली । यहाँ से प्रारम्भ हुआ उनकी शिक्षा एवं साहित्य में सेवा का पहला चरण, 1987 में उनकी नियुक्ति बारीपदा के महाराजा पूर्णचंद्र कॉलेज में लेक्चरर के रूप में हो गई । 1988 में उनका विवाह साहित्यप्रेमी, नाटक लेखक एवं बैंककर्मी गंगाधर हांसदा से हुई । अपने पति के प्रोत्साहन से दमयन्ती ने 1994 में ओड़िया में एम फील की डिग्री प्राप्त की । वर्ष 1995 में उनका तबादला फूलबनी कॉलेज में हो गया, जहाँ से पुनः 2001 में बारीपदा लौटीं । फिर प्रारम्भ हुआ दमयन्ती से डॉ दमयन्ती बनने का सफर । उन्होने पीएचडी के लिए मयूरभंज की नार्थ ओड़िशा यूनिवर्सिटी में निबंधन करवाया , उनका विषय था - ' मयूरभंजा संथाल एको सामाजिक सांस्कृतिक अध्ययन ' । डॉ दमयन्ती को 2005 में पीएचडी की डिग्री प्राप्त हुई ।

साहित्यिक परिचय - स्कूल में पढ़ने के दौरान ही दमयन्ती ओड़िया व संथाली में कविताएँ लिखा करती थी । 1987 से उनकी रुचि निबंध लेखन में भी हो गई । 1990 में उनकी पहली कविता ' ओनोलिया' एवं पण्डित रघुनाथ मुर्मू पर लिखा एक निबंध पत्रिका ' फागुन कोयल ' में प्रकशित हुआ । 1994 में उनका पहला काव्य संकलन 'जीवी झरना' प्रकशित हुआ, किसी संथाल महिला साहित्यकार का पहला काव्य संकलन का श्रेय दमयन्ती को जाता है । प्रकृति और मानव जाति की विविधताओं को अपनी कविताओं में समेटने वाली दमयन्ती ने पण्डित रघुनाथ मुर्मू की जीवनी पर ओडिया में पुस्तक लिखी । कविता, निबंध, व्याकरण, जीवनी, आलोचना, संथाल इतिहास, स्तम्भ लेखन के अलावा उन्होने देवनागरी से ओड़िया व संथाली में कई अनुवाद किए । वे एक कुशल वक्ता एवं शिक्षिका के रूप में भी पहचानी जाती हैँ । ट्राइबल समुदाय में इनकी पहचान शांत विनम्र किन्तु मजबूत इरादों वाली महिला की है । संथाल शोधार्थी डॉ दमयन्ती ने 2011 में संथाली भाषा में पहली पत्रिका 'काराम डार ' का प्रकाशन प्रारम्भ किया । डॉ दमयन्ती ने ग्यारहवीं शताब्दी के विख्यात फारसी साहित्यकार उमर खय्याम की रूबाईयों का अनुवाद संथाली में किया । ओड़िया की विख्यात कविता संग्रह का संताली अनुवाद 'आड़ा रेयाग सेरमा' का प्रकाशन 2012 में हुआ । डॉ दमयन्ती ने कई प्रांतीय, राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय साहित्यिक आयोजनों, कार्यशालाओं व सेमिनारों में भाग लिया ।

वर्ष 2004 से 2007 तक डॉ दमयन्ती साहित्य अकादमी, नई दिल्ली के संथाली भाषा बोर्ड की पहली संयोजक रही । वे यूपीएससी, नई दिल्ली के संथाली भाषा सिलेबस कमिटी, संबलपुर यूनिवर्सिटी के परीक्षा आयोजक बोर्ड एवं बारीपदा की नार्थ ओडिशा यूनिवर्सिटी के सिलेबस कमिटी की सदस्य रही हैँ। डॉ दमयन्ती संथाल लेखक संघ ओडिशा एवं अखिल भारतीय संथाल संघ झारग्राम की सलाहकार हैँ ।


कृतियाँ -
ओड़िया में - पण्डित रघुनाथ मुर्मू की जीवनी, चाइ चम्पारू भंज दिशोम, दामोद धारे धारे सन्थालो संस्कृतिरो सूचीपत्र, समाज ओ संस्कृति पृष्ठपट्टरे मयूरभंजा सन्थाल , झूमोरोरो कीछी गुमरो ओ ओन्य प्रबन्ध
काव्य संकलन (संथाल) - जीवी झरना, ओ ओत ओंग ओल आर जूरीजीता , साए साहेंद
बाल काव्य (संथाल) - कुइण्डी मीरु
आलोचना (संथाल) - गुरु गोमकेयाग ज्ञेनेल आर ज्ञानालाग
इतिहास - संताली सावंहेद रेयाग नगम
व्याकरण - रोनोड़ टुपलाग
निबंध (संथाल) - सागेन सावंहेद , पारसी साउँता सावंहेद, रोर सानेस
बाल कहानी - गीदड़ाभूलाव कहनी

सम्मान एवं पुरस्कार- संथाली भाषा की साहित्यकार एवं कवि 'डॉ. दमयंती बेसरा' को साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में 2020 में पद्मश्री से पुरस्कृत किया गया । 1994 में अखिल भारतीय संथाल लेखक संघ द्वारा इन्हें ' पॉएट ऑफ द ईयर' सम्मान से नवाजा गया था । वर्ष 2004 में भुवनेश्वर में दमयन्ती को असम के विधानसभा अध्यक्ष ने पण्डित रघुनाथ मुर्मू फेलोशिप प्रदान किया था एवं उसी वर्ष उन्हें साधु रामचन्द्र मुर्मू पुरस्कार से सम्मानित किया गया । 2009 में उन्हें प्रो. खगेश्वर महापात्रा फाऊंडेशन सम्मान पत्र प्राप्त हुआ, 2010 में इन्हें साहित्य अकादमी अवार्ड से भी पुरस्कृत किया जा चुका है । वर्ष 2012 में डॉ दमयन्ती को उड़ीसा के राज्यपाल ने भुवनेश्वर में साहित्य सम्मान प्रदान किया था । इनके अलावा डॉ दमयन्ती को समय समय पर विभिन्न संस्थानो ने भंजपुत्र अवार्ड, माँ टांगरासुणी सम्मान, महेश्वर नायक सम्मान, डॉ रामकृष्ण साह मेमोरियल अवार्ड , जनजाति प्रतिभा सम्मान इत्यादि से सम्मानित किया ।

एक रचना - ......


संथाल कविता की इन प्रेरक पंक्तियों का हिन्दी अनुवाद-
....


Monday, 27 April 2020

पद्मश्री ट्रिनिटी साइओ

जन्म : 1968
जन्म स्थान : जिला पश्चिमी जैंतीय़ा हिल्स, मेघालय
वर्तमान निवास : गांव मुलीहा, जिला पश्चिमी जैंतीय़ा हिल्स, मेघालय

जीवन परिचय - मेघालय के पश्चिमी जैंतीय़ा हिल्स के एक ट्राईबल परिवार में जन्मी ट्रिनिटी साइओ पेशे से स्कूल टीचर हैँ । अपने गांव की हल्दी को राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय बनाने वाली ट्रिनिटी के छः बच्चे हैँ, तीन पुत्रियाँ और तीन पुत्र । ट्रिनिटी एक शिक्षिका, कृषक, व्यवसायी, संगठनकर्ता व मजबूत नेतृत्वकर्ता है ।

योगदान - हल्दी की लगभग 133 ज्ञात किस्में हैं लेकिन सबसे अच्छी प्रजाति 'लकाडोंग हल्दी' है । पूर्वोत्तर भारत के मेघालय के जैंतिया हिल्स जिले के प्रखण्ड लास्केन सीडी के एक छोटे से लकडोंग गाँव और इसके आसपास के क्षेत्रों को छोड़कर यह हल्दी दुनिया में कहीं नहीं उगती है, इस क्षेत्र में औसत वार्षिक वर्षा 4000 मिमी होती है , वहां की मिट्टी अम्लीय, रंग में बहुत गहरी और बनावट में मध्यम से हल्की होती है।

वहाँ हल्दी की पारम्परिक खेती बहुतायत में की जाती थी, 'ट्रिनिटी साइओ' शिक्षण के अलावा इस जीविका से भी जुड़ी थी । वर्ष 2003 में उन्होने लकाड़ोंग प्रजाति की हल्दी का उत्पादन किया, मार्केट में उनकी हल्दी अद्वितीय स्वाद और सुगंध के कारण तुरन्त बिक गई , साथ ही बड़ी कम्पनियो के एजेंट्स ने उनके उत्पाद की गुणवत्ता के कारण उनको मुंहमांगी दर भी दी । ट्रिनिटी ने पाया कि उनकी आय दुगनी हो गई है, उन्होने अपनी साथी कृषकों को यह बात साझा की । अगले वर्ष कुछ और महिलाएँ उनके साथ लकाडोंग हल्दी के उत्पादन में जुट गई । धीरे धीरे उनकी हल्दी की डिमांड बढ़ने लगी और उन्हें समुचित मूल्य मिलने लगा । ट्रिनिटी ने खेती के आइडिया के साथ साथ हल्दी की पिसाई, पैकिंग व मार्केटिंग सभी जगह सहयोगी महिलाओ का साथ दिया, नतीजा उनसे जुड़ी लगभग 800 महिला किसानों की आय तीन गुणा हो चुकी है । ट्रिनिटी ने इन निरक्षर महिला कृषकों को ऑर्गेनिक सर्टिफिकेशन करवाने एवं सरकार से इन्हें सब्सिडी दिलवाने हेतू आवश्यक डॉक्युमेंट्स तैयार करवाने में हर कदम पर इनकी मदद की ।

उस के पूर्व स्थानीय महिलाएँ लचेन एवं दूसरी प्रजाति की हल्दी की खेती में संलग्न थीं । लकाडोंग हल्दी की विशेषता को देखते हुए बड़ी कम्पनियो ने दूसरे स्थानो पर इसकी खेती करवानी चाही किन्तु समान गुणवत्ता वाली पैदावार नहीँ हो सकी । अपने गांव की मिट्टी और जलवायु की इस विशेषता को ट्रिनिटी ने पहचाना और इसका वाणिज्यिक लाभ स्थानीय महिलाओ को दिलवाने में अपनी मह्त्ती भूमिका निभाई । पारम्परिक हल्दी की खेती मे जो बीज प्रयोग में लाए जाते थे, उसके मुकाबले लकाडोंग प्रजाति के बीज महंगे थे, स्थानीय महिला कृषकों के लिए इन्हें खरीदना सम्भव नहीँ था । तब ट्रिनिटी ने शिलांग में स्पाइस बोर्ड से सम्पर्क कर महिलाओ को वित्तीय एवं तकनीकी सहायता उपलब्ध करवाई ।

हल्दी में एक विशेष तत्व पाया जाता है 'करक्यूमिन' , जो अन्य किस्म की हल्दी में मात्र 3% होता है जबकि लकाडोंग हल्दी में 7.5% पाया जाता है । ट्रिनिटी के गांव का स्वच्छ वातावरण एवं उनके खेती के तरीकों से इस हल्दी का स्वाद और भी बढ़ा क्योंकि ट्रिनिटी रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के उपयोग की घोर विरोधी है । प्रयोगशाला की जाँच में पाया गया कि खाना पकाने में लकाडोंग हल्दी इस्तेमाल करने पर इसकी कम मात्रा की खपत होती है ।

गांव मदनकिनशॉ, म्यनकटूंग, रीतियांग, पिनतेई और लास्केन में लगभग 100 सेल्फ हेल्प ग्रुप के द्वारा हल्दी की व्यापक खेती व मार्केटिंग करने वाली कृषक ट्रिनिटी ने व्यापार में ईमानदारी के सिद्धांत को अपनाया । उन्होंने हल्दी की खेती करने वाली महिलाओं से लेकर खरीददार तक, सभी को हल्दी की पहचान, गुणवत्ता इत्यादि की जानकारी दी । ट्रिनिटी ने हल्दी की किस्मों के फर्क जानने की साधारण पहचान बताई जैसे कि लकाडोंग की जड़ें लंबाई में पतली, लंबी और समानांतर होती हैं जबकि अन्य किस्म की हल्दी की जड़ें मोटी होती हैं।

ट्रिनिटी ने 30.10.2016 को लेंगस्खेम स्पाइस प्रोड्यूसर इंडस्ट्रियल को-ऑपरेटिव सोसाइटी का गठन किया, जिसकी पंजीकरण संख्या जेडब्ल्यूआई/43/2015-16 है । हल्दी मिशन को आगे बढ़ाते हुए उसे लाइफ स्पाइस फेडरेशन ऑफ सेल्फ हेल्प ग्रुप, लास्केन सी ड़ी ब्लॉक से जोड़ा । फेडरेशन ने लाइफ स्पाइस नामक अपनी खुद की प्रोसेसिंग फैक्ट्री शुरू की है ।

सम्मान एवं पुरस्कार- महिला किसान 'ट्रिनिटी साइओ' को उनके द्बारा की जा रही हर्बल खेती व प्रशिक्षण के लिए वर्ष 2020 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया । भारत सरकार के कृषि मंत्रालय द्वारा राष्ट्रीय महिला किसान दिवस के अवसर पर15 अक्टूबर 2018 को ट्रिनिटी को 'एक्सीलेंस इन होर्टिकल्चरल' अवार्ड दिया गया था ।

Sunday, 26 April 2020

पद्मश्री तुलसी गौड़ा


जन्म : 1944
जन्म स्थान : जिला उत्तर कन्नड़, कर्नाटक
वर्तमान निवास : गांव होन्नाली, तालुक अंकोला, जिला उत्तर कन्नड़, कर्नाटक

जीवन परिचय - तुलसी अम्मा के नाम से विख्यात तुलसी गौड़ा ट्राईबल्स परिवार में जन्मी एक अनपढ़ महिला हैं , कभी स्कूल नहीँ गई, किन्तु पौधों और वनस्पतियों का इनका ज्ञान अदभुत है । कोई शैक्षणिक डिग्री नहीं होने के बावजूद भी तुलसी गौड़ा को प्रकृति से उनके  लगाव को देखते हुए उन्हें  कर्नाटक सरकार के वन विभाग में नौकरी मिली । आज रिटायरमेंट के बाद भी वे अनवरत निःशुल्क सेवा दे रही हैँ । तुलसी निःसंतान है, प्रकृति ही उनका परिवार है और पेड़ पौधे उनके बच्चे हैँ ।

योगदान - कर्नाटक की 72 वर्षीय पर्यावरणविद् तुलसी गौड़ा ‘जंगलों की एनसाइक्लोपीडिया’ के रूप में प्रख्यात हैँ । ये पिछले 60 वर्षो में एक लाख से भी अधिक पौधे लगा चुकी हैं। कहते हैँ इनके द्वारा लगाया गया एक भी पौधा आज तक नहीँ सूखा। तुलसी पौधों की देखभाल अपने बच्चों की तरह करती हैं । छोटी झाड़ियों से लेकर ऊंचे पेडों तक, कब किसे कैसी देखभाल की जरूरत है, तुलसी अच्छी तरह जानती हैं , वे पौधों की बुनियादी जरूरतों से भलीभांति परिचित हैं। तुलसी अम्मा की खासियत है कि वह केवल पौधे लगाकर ही अपनी जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो जाती हैं, अपितु पौधरोपण के बाद एक पौधे की तब तक देखभाल करती हैं, जब तक वह अपने बल पर खड़ा न हो जाए। उन्हें पौधों की विभिन्न प्रजातियों और उसके आयुर्वेदिक लाभ के बारे में भी गहरी जानकारी है। पेड़ पौधों की जानकारी के लिए ना केवल स्थानीय लोग तुलसी के पास आते हैं बल्कि वन विभाग के पदाधिकारी भी प्रकृति सरंक्षण हेतू कई विषयों में इनकी राय को महत्व देते हैं । पेड़ पौधों की विभिन्न प्रजातियों पर तुलसी अम्मा के व्यापक ज्ञान को सरकार द्वारा मान्यता दी गई है क्योंकि ऐसा ज्ञान किसी वनस्पति वैज्ञानिक के पास होना भी दुर्लभ हैं ।

ट्राइबल समुदाय से संबंध रखने के कारण पर्यावरण संरक्षण का भाव उन्हें विरासत में मिला । दरअसल धरती पर मौजूद जैव-विविधता को संजोने में ट्राइबल्स की प्रमुख भूमिका रही है। ये सदियों से प्रकृति की रक्षा करते हुए उसके साथ साहचर्य स्थापित कर जीवन जीते आए हैं। जन्म से ही प्रकृति प्रेमी ट्राइबल लालच से इतर प्राकृतिक उपदानों का उपभोग करने के साथ उसकी रक्षा भी करते हैं। ट्राइबल्स की संस्कृति और पर्व-त्योहारों का पर्यावरण से घनिष्ट संबंध रहा है। यही वजह है कि जंगलों पर आश्रित होने के बावजूद पर्यावरण संरक्षण के लिए ट्राइबल सदैव तत्पर रहते हैं। ट्राइबल समाज में ‘जल, जंगल और जीवन’ को बचाने की संस्कृति आज भी विद्यमान है और तुलसी उसका जीता जागता उदाहरण है ।

सम्मान एवं पुरस्कार - तुलसी गौड़ा को वर्ष 2020 में पद्मश्री सम्मान प्रदान किया गया । वनीकरण और बंजर भूमि विकास के क्षेत्र में अग्रणी और अनुकरणीय कार्य हेतू तुलसी को पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा इंदिरा प्रियदर्शनी वृक्ष मित्र पुरस्कार प्रदान किया जा चुका है । तुलसी को कर्नाटक राज्योत्सव सम्मान, कविता मेमोरियल अवार्ड,
इंद्रावलू होनैय्या समाज सेवा पुरस्कार सहित कई अन्य सम्मनों से नवाजा जा चुका है । अम्मा को अदभुत सम्मान देते हुए बेंगलुरु के बन्नेरुघट्टा जैविक उद्यान
ने कुछ दिन पहले जन्मी हथिनी का नाम तुलसी रखा है ।

पद्मश्री प्रो. दिगम्बर हांसदा

जन्म : 16 अक्टूबर 1939
जन्म स्थान : दोवापानी, पोस्ट बेको, घाटशिला क्षेत्र, जिला पूर्वी सिंहभूम, झारखण्ड
वर्तमान निवास : सारजोम टोला, करनडीह, जमशेदपुर
पिता : सोमाय हांसदा
माता : सुरबलि हांसदा


जीवन परिचय - प्रो. दिगम्बर हांसदा का जन्म जमशेदपुर के समीप गांव दोवापानी में एक ट्राइबल कृषक परिवार में हुआ था । कुशाग्र बुध्दि हांसदा की प्राथमिक शिक्षा राजदोहा मिडिल स्कूल से हुई, उन्होने बोर्ड की परीक्षा मानपुर हाई स्कूल से दी । उन्होने 1963 में राँची यूनिवर्सिटी से राजनीति विज्ञान में स्नातक और 1965 में एमए किया । उसके बाद टिस्को आदिवासी वेलफेयर सोसायटी से जुड़ गए । कॉलेज के दिनोँ से ही प्रो. हांसदा समाजसेवा व ट्राइबल्स हितों की रक्षा के कार्यों में रुचि लेने लगे थे । इनकी पत्नी पार्वती हांसदा का स्वर्गवास हो चुका है , इनके दो पुत्र पूरन एवं कुंवर और दो पुत्रियाँ सरोजनी व मयोना हैँ. एक पुत्री तुलसी का निधन हो चुका है।

योगदान - ट्राईबल्स और उनकी भाषा के उत्थान के क्षेत्र में प्रोफेसर हांसदा का महत्वपूर्ण योगदान है। वे केन्द्र सरकार के ट्राईबल अनुसंधान संस्थान एवं साहित्य अकादमी के भी सदस्य रहे और उन्होंने सिलेबस की कई पुस्तकों का देवनागरी से संथाली में अनुवाद किया। उन्होंने इंटरमीडिएट, स्नातक और स्नातकोत्तर के लिए संथाली भाषा का कोर्स संग्रहित किया। उन्होंने भारतीय संविधान का संथाली भाषा की ओलचिकि लिपि में अनुवाद करने के साथ ही कई पुस्तकें भी लिखीं । स्कूल कॉलेज की पुस्तको में संथाली भाषा को जुड़वाने का श्रेय प्रो दिगम्बर को ही जाता हैं । प्रो. हांसदा लालबहादुर शास्त्री मेमोरियल कॉलेज के प्राचार्य एवं कोल्हान विश्वविद्यालय के सिंडिकेट सदस्य भी रहे । रिटायरमेंट के बाद भी काफी समय तक कॉलेज में संथाली की कक्षाएँ लेते रहे । वर्ष 2017 में दिगंबर हांसदा आईआईएम बोधगया के गवर्निंग बॉडी के सदस्य बनाए गए । प्रो हांसदा ने ग्रामीण क्षेत्रो में टाटा स्टील एवं सरकार के सहयोग से कई विद्यालय प्रारम्भ करवाए । प्रो. हांसदा ज्ञानपीठ पुरस्कार चयन समिति (संथाली भाषा) के सदस्य रहे हैँ, सेंट्रल इंस्टीच्यूट ऑफ इंडियन लैंग्वैज मैसूर , ईस्टर्न लैंग्वैज सेंटर भुवनेश्वर में संथाली साहित्य के अनुवादक, आदिवासी वेलफेयर सोसाइटी जमशेदपुर, दिशोम जोहारथन कमिटी जमशेदपुर एवं आदिवासी वेलफेयर ट्रस्ट जमशेदपुर के अध्यक्ष रहे, जिला साक्षरता समिति पूर्वी सिंहभूम एवं संथाली साहित्य सिलेबस कमेटी, यूपीएससी नयी दिल्ली और जेपीएससी झारखंड के सदस्य रह चुके हैँ । दिगंबर हांसदा ने आदिवासियों के सामाजिक व आर्थिक उत्थान के लिए पश्चिम बंगाल व ओडिशा में भी काम किया। ज्वलंत समस्या पत्थलगढी को गलत परम्परा मानने वाले विद्वान प्रो. हांसदा सादगी पूर्ण जीवन जीने वाले वृहत व्यक्तिव के स्वामी हैं ।
ट्राइबल्स में शिक्षा के प्रसारक, शिक्षाविद, साहित्यकार, ट्राइबल एक्टीविस्ट, समाजसेवी व उससे बढ़कर नेक इंसान के रूप में प्रो. हांसदा से झारखण्ड की अलग पहचान है ।


कृतियाँ - सरना गद्य-पद्य संग्रह, संथाली लोककथा संग्रह, भारोतेर लौकिक देव देवी, गंगमाला , संथालों का गोत्र

सम्मान एवं पुरस्कार - वर्ष 2018 में संथाली भाषा के विद्वान ' प्रो. दिगम्बर हांसदा' को साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया गया । ऑल इण्डिया संथाली फिल्म एसोसिएशन द्वारा प्रो. हांसदा को लाईव टाइम ऐचिवमेंट अवार्ड प्रदान किया गया है । वर्ष 2009 में निखिल भारत बंग साहित्य सम्मेलन ने उन्हे स्मारक सम्मान से सम्मानित किया वहीँ भारतीय दलित साहित्य अकादमी नई दिल्ली द्वारा उन्हें डॉ. अंबेदकर फेलोशिप प्रदान किया जा चुका हैँ । इंटरनेशनल फ्रेंडशीप सोसायटी नई दिल्ली ने इनको भारत गौरव सम्मान से सम्मानित किया हैं , इसके अलावा 37 बटालियन एनसीसी व अन्य कई संघठनो द्वारा प्रो. हांसदा को सम्मानित किया जा चुका हैं ।

Friday, 24 April 2020

टाना भगत


जन्म : सितम्बर 1888
जन्म स्थान: चिंगरी नवाटोली गांव, विशुनपुर, गुमला, झारखण्ड
निधन: 1915
मृत्यु स्थल : विशुनपुर, गुमला
पिता : कोदल उरांव
माता : लिबरी

जीवन परिचय - टाना भगत के नाम से लोकप्रिय जतरा भगत उर्फ जतरा उरांव का जन्म झारखंड के गुमला जिला के बिशनुपुर थाना के चिंगरी नवाटोली गांव में हुआ था। हेराग गाँव के तुरिया उराँव को गुरु बनाया और उनसे झाड़ फूँक की सच्चाई सीखी । अंधविश्वास में उलझे ट्राइबल्स को ओझा भूत भूतनी का भय दिखलाते थे । टाना भगत जानते थे कि यदि सीधे सीधे ट्राइबल समुदाय को अंग्रेजों का विरोध करने के लिए कहेंगे तो , य़ा तो ट्राइबल्स डरेंगे य़ा अंग्रेजों के कारिन्दे जमींदार इन्हें प्रताड़ित करेंगे । सो इन्होंने प्रचारित किया कि वे ईश्वरीय सत्ता धर्मेश से सीधे सम्पर्क में हैं और धर्मेश ने कहा है कि भूत भूतनी हमारे अंदर नहीं हैं बल्कि अंग्रेजों और जमींदारों के रूप में हमारी धरती पर आ बसे हैं । इन्हें टान कर यानी खींच कर बाहर करना है , इनका राज खत्म करना है ।

"टन-टन टाना, टाना बाबा टाना, भूत-भूतनी के टाना
टाना बाबा टाना, कोना-कुची भूत-भूतनी के टाना
टाना बाबा टाना, लुकल-छिपल भूत-भूतनी के टाना"

अर्थात, ओ पिता ! ओ माता ! देश की जान लेने वाले, ट्राइबल्स को लूटने-मारने वाले सभी तरह के भूत-भूतनियों को खींच कर देश से बाहर करने में हमारी मदद करो ।

टाना जतरा भगत का विवाह भी हुआ था, उपलब्ध दस्तावेजो के अनुसार इनके एक पुत्र का नाम देशा था ।

स्वतंत्रता संग्राम में योगदान - टाना भगत ने 1912 में ब्रिटिश राज और जमींदारों के खिलाफ अहिंसक असहयोग का आंदोलन प्रारम्भ किया । जतरा टाना भगत के नेतृत्व में उराँव जनजाति के लोगों ने संकल्प लिया कि वो ज़मींदारों के खेतो में मज़दूरी नहीं करेंगे और अंग़्रेज़ी हुकूमत को लगान नहीं देंगे । इसके लिए उन्होने प्रचारित किया कि 'सारी जमीन ईश्वर की है, इसलिए उस पर लगान कैसा ?' टाना भगत ट्राइबल समुदाय में विद्रोह की आग भड़काने में कामयाब हुए, गांव गांव सभाएँ होने लगी , ट्राइबल महिलाएँ एवं पुरुष लगान के विरोध में उठ खड़े हुए, खेतो में जोताई बन्द होने लगी, इस विद्रोह की गूँज दूर तक गई । अंग्रेजो ने जाल बिछाकर 21 अप्रेल 1914 को टाना भगत को गिरफ्तार कर लिया, ब्रिटिश सरकार का विरोध करने का आरोप लगाकर उन्हें सजा सुना दी गई । टाना 2 जून 1915 को रिहा हुए । उन्होने अंग्रेजों के विरुद्ध जो विद्रोह का बिगुल फूंका उसे 'टाना आन्दोलन' के नाम से जाना जाता है । टाना आन्दोलन झारखण्ड के गुमला पलामू से होते हुए छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले तक फैल गया था । नतीजन अंग्रेजों ने टाना समुदाय की भूमि छीनकर नीलाम करना प्रारम्भ कर दिया ।

टाना आन्दोलन की लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि देश आजाद होते ही 30 दिसम्बर 1947 को भारत के गवर्नर जनरल ने टाना भगतों की अंग्रेजों द्वारा 1913 से 1942 के बीच छीनी गई उनकी जमीन पर कब्जा बहाल करने हेतू एक्ट पर हस्ताक्षर किए जिसे 'राँची जिला ताना भगत रैयत कृषि भूमि पुनर्स्थापना अधिनियम, 1947' के नाम से जाना जाता है । यह एक्ट बिहार के असाधाराण गजट मे 23 जनवरी 1948 को प्रकाशित हुआ । अब टाना भगत समुदाय को यह उम्मीद जगी कि उन्हें उनकी क़ुर्बानी का फल ज़रूर मिलेगा और उनकी ज़मीनें वापस हो जाएंगी ,
मगर सूत्र बताते हैं कि विभिन्न जिलॉ मे टाना भगतों की लगभग 2486 एकड़ ज़मीन आज भी उन्हें वापस नहीं मिल पाई हैं और इस संबंध में 703 मामले झारखंड की विभिन्न अदालतों में चल रहे हैं ।

टाना भगत शराबबन्दी और शाकाहार के पक्षधर थे ।
'टाना आन्दोलन' ने आगे चलकर पंथ का रूप ले लिया , रीति-रिवाजों में भिन्नता के कारण टाना भगतों की कई शाखाएं पनप गयीं। उनकी प्रमुख शाखा को सादा भगत कहा जाता है। इसके अलावे बाछीदान भगत, करमा भगत, लोदरी भगत, नवा भगत, नारायण भगत, गौरक्षणी भगत आदि कई शाखाएं हैं। 

जेल से रिहा होने के बाद टाना भगत की मुलाकात
महात्मा गांधी से हुई, टाना गांधीजी से इतने प्रभावित हुए कि सादी ज़िंदगी जीने का संकल्प लिया , जिस पर आज भी क़ायम हैं । गांधीजी से मिलने के बाद टाना भगत खादी का ही कपड़ा पहनना, स्वयं चरखा चला कर सूत काटने, सर पर गाँधी टोपी लगाने , कंधे पर छोटे डंडे में तिरंगा झंडा रखना शुरू कर दिये। टाना आन्दोलन पूर्णत: गांधीमय हो गया। आज भी टाना समुदाय के हर घर मे तुलसी का चौरा और लहराता हुआ तिरंगा झण्डा अवश्य मिलेगा । टाना समुदाय तिरंगे को ही देवता मानते हैं और प्रतिदिन इसकी पूजा करते हैँ ।

टाना जतरा भगत के निधन के बाद भी टाना आन्दोलन समाप्त नहीं हुआ बल्कि आगे बढ़ा और इसे आगे बढ़ाया उनके अनुयायियों ने , ट्राइबल महिला लिथो उराँव , माया उराँव, शिबू उराँव व टाना भगतों ने । बेड़ो प्रखण्ड में उनके मूर्ति स्थल पर हरिवंश टाना भगत समेत 74 स्वतंत्रता सेनानी टाना भगतों के नाम के पत्थर पर अंकित हैँ । कांग्रेस के इतिहास में भी दर्ज है कि 1922 में कांग्रेस के गया सम्मेलन और 1923 के नागपुर सत्याग्रह में बड़ी संख्या में टाना भगत शामिल हुए थे। 1940 में रामगढ़ कांग्रेस में टाना भगतों ने महात्मा गांधी को 400 रुपए की रकम भेट की थी।

टाना आन्दोलन का मूल मंत्र -
धरती हमारी। ये जंगल-पहाड़ हमारे। अपना होगा राज। किसी का हुकुम नहीं। और ना ही कोई टैक्स-लगान या मालिकान। 

सम्मान - टाना जतरा भगत के पैतृक गाँव विशुनपुर गुमला मे उनका स्मारक बना हुआ हैं और एक विशाल प्रतिमा स्थापित हैं । बेड़ो प्रखण्ड के खकसी टोली गांव में भी टाना जतरा की मूर्ति स्थापित हैं । वर्ष 1966 में बिहार में टाना भगत वेलफ़ेयर बोर्ड की स्थापना हुई थी, हालाँकि उसका पुर्नगठन नहीं हो पाया । गुमला के पुग्गु में जतरा टाना भगत हाई स्कूल संचालित हो रही हैं । राँची के चान्हो प्रखण्ड में सोनचीपी में संचालित आवासीय विधालय का नामकरण टाना भगत के नाम पर हैं । टाना भगतों का संगठन 'अखिल भारतीय टाना भगत विकास परिषद' काफी सक्रिय हैं ।

Thursday, 23 April 2020

फूलो - झानो



जन्म : 1832 के आस पास
जन्म स्थान: संथाल परगना बरहेट प्रखण्ड के भगनाडीह गांव, झारखण्ड
निधन:  1855
मृत्यु स्थल : पाकुड़
पिता : चुन्नी मांझी 

जीवन परिचय - फूलो मुर्मू एवं झानो मुर्मू सिदो कान्हु की बहने थीं । इनका जन्म भोगनाडीह नामक गाँव में एक ट्राइबल संथाल परिवार में हुआ था। संथाल विद्रोह में सक्रिय भूमिका निभाने वाले ये 6 भाई बहन सिदो मुर्मू, कान्हु मुर्मू ,चाँद मुर्मू ,भैरव मुर्मू , फुलो मुर्मू एवं झानो मुर्मू थे।

स्वतंत्रता संग्राम में योगदान - सिदो-कान्हू ने 1855 मे ब्रिटिश सत्ता, साहुकारो व जमींदारो के खिलाफ जिस विद्रोह की शुरूआत की थी, जिसे 'संथाल विद्रोह या हूल आन्दोलन' के नाम से जाना जाता है। उस लड़ाई में ट्राइबल महिलाओं की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। ट्राइबल्स का इतिहास अखाड़े में महिलाओं की क्रांतिकारी भूमिका के बिना पूरी नहीं हो सकता।

झारखंड के छोटानागपुर की शोधकर्ता वासवी कीरो ने अपनी बुकलेट उलगुलान की ओरथेन (क्रांति की महिला) में उन नायिकाओं का नाम दर्ज किया है, जो स्वतंत्रता आन्दोलन में शहीद हो गई थीं। 1855-56 के संथाल विद्रोह में फूलो और झानो मुर्मू, बिरसा मुंडा उलगुलान 1890-1900 में बंकी मुंडा, मंझिया मुंडा और दुन्दंगा मुंडा की पत्नियां माकी, थीगी, नेगी, लिंबू, साली और चंपी और पत्नियां, ताना आन्दोलन 1914 में देवमणि उर्फ ​​बंदानी और रोहतासगढ़ प्रतिरोध में सिंगी दाई और कैली दाई के नाम चर्चित हैं।

सिदो - कान्हू ने हूल आन्दोलन को सफल बनाने के लिए घर घर में 'सखुआ  डाली' भेज कर ट्राइबल्स का आहवान किया था, घोड़ों पर बैठकर गाँव गाँव ये निमन्त्रण देने उनकी बहनें फूलो- झानो जाया करती थी ।उस दरम्यान यदि कोई अंग्रेज सैनिक या उनका कारिन्दा रास्ते में मिल गया, तो वे बहनें उसको पकड़ लेती और घोड़े से बाँध कर गाँव ले आती । इस जज्बे को देख कर कई ट्राइबल युवतियों को विद्रोह की प्रेरणा मिली ।

1855 में पाकुड़ जिले के संग्रामपुर नामक स्थान पर सिदो कान्हु की ट्राइबल सेना के साथ अंग्रेजों का भीषण युद्ध हुआ । एक ओर ट्राइबल्स के जोश, उत्साह, पारम्परिक हथियार थे तो दूसरी ओर आधुनिक हथियार और तकनीक से लैस कुशल नेतृत्व वाली अंग्रेज़ सेना थी । आखिर ट्राइबल्स कितने दिन टिक पाते, अंततः भारी संख्या में ट्राइबल लड़ाके मारे गए , 9 जुलाई 1855 को सिदो कान्हू के छोटे भाई चाँद और भैरव भी मारे गए । लड़ाई पहाड़ी क्षेत्र में लड़ी जा रही थी, चूँकि ट्राइबल एक तो पहाड़ो और जंगलो से परिचित थे, दूसरी ओर गुरिल्ला युध्द में निपुण । अंग्रेजों ने रणनीति के तहत ट्राइबल्स को नीचे मैदानी इलाके में उतरने पर मजबूर कर दिया । ट्राइबल उनकी रणनीति समझ नहीं पाए, जैसे ही वे लोग नीचे उतरे, अंग्रेजों ने घेराबंदी बनाकर गोलोबारी प्रारम्भ कर दी । युध्द स्थल के पीछे अंग्रेजों के शिविर बने हुए थे,
फूलो - झानो गोलीबारी की परवाह ना कर हाथों में कुल्हाड़ी लिए दौड़ते हुए अंग्रेजों के शिविर में प्रवेश कर गई और अंधेरा होने का इंतजार करने लगी । सूरज ढलने के बाद अंधेरे की आड़ में फूलो- झानो ने कुल्हाड़ी से अंग्रेजों की सेना के 21 जवानों को मौत के घाट उतार दिया।

हूल नायिका फूलो और झानो की वीरता की गाथा आज भी झारखण्ड के जंगलो व गाँवो में गाई जाती है ।
संथाली भाषा में हूल गीत की कुछ पंक्तियाँ -

"फूलो झानो आम दो तीर रे तलरार रेम साअकिदा
आम दो लट्टु बोध्या खोअलहारे बहादुरी उदुकेदा
भोगनाडीह रे आबेन बना होड़ किरियाबेन
आम दो महाजन अत्याचार बाम सहा दाड़ी दा
आम दो बनासी ते तलवार रेम साउकेदा
अंगरेज आर दारोगा परति रे अड़ी अयम्मा रोड़केदा
केनाराम बेचाराम आबेन बड़ा होड़ ते बेन सिखोव केअकोवा
आम दो श अंगरेज सिपाही गोअ केअकोवा
आबेन बना होड़ाअ जुतुम अमर हुई ना ।"

इन पंक्तियों का हिन्दी अनुवाद-
फूलो झानो तुमने हाथों में तलवार पकड़ी,
तुमने भाईयों से बढ़कर वीरता दिखलाई,
भोगनाडीह में तुम दोनोँ ने शपथ ली,
कि महाजनों सूदखोरों का अत्याचार नहीं सहेंगे ,
तुमने दोनोँ हाथों से तलवारें उठाई,
अंग्रेजों और दरोगा के जुल्म के खिलाफ आवाज उठाई,
तुम दोनोँ ने केनाराम बेचाराम को सबक सिखाया,
इक्कीस अंग्रेज सिपाहियों को मार गिराया,
तुम दोनोँ का नाम सदैव अमर रहेगा ।


सम्मान- बीएयू के तहत हंसडीहा दुमका में फूलो झानो डेयरी टेक्नोलाॅजी काॅलेज की स्थापना 19 अगस्त 2019 को हुई है । दुमका के श्री अमड़ा में फूलो - झानो की विशाल प्रतिमा स्थापित की गई है । वहीँ विशुनपुर के ज्ञान निकेतन परिसर में भी 30 अगस्त 2019 को संथाल वीरांगना फूलो झानो की प्रतिमा का अनावरण किया गया है ।

जयपाल सिंह मुंडा


जन्म : 03 जनवरी 1903 
जन्म स्थान: टकरा पहानटोली, खूँटी, झारखण्ड
निधन:  20 मार्च 1970 
मृत्यु स्थल : नई दिल्ली
पिता : आमरु पाहन मुंडा
माता : राधामुनि

जीवन परिचय -  झारखण्ड के जाने माने राजनीतिज्ञ, सांसद, पत्रकार, लेखक, संपादक, शिक्षाविद्, मजदूर नेता और हॉकी के अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी प्रमोद पाहन उर्फ जयपाल सिंह मुंडा का जन्म खूंटी जिले के टकरा गांव में ट्राइबल परिवार में हुआ था । जयपाल सिंह अत्यंत प्रतिभाशाली थे । पढ़ाई के साथ-साथ उन्होंने अपनी कौशल का परिचय खेल में भी दिखाया । जयपाल सिंह ने अर्थशास्त्र (प्रतिष्ठा) की परीक्षा अच्छे अंकों से पास की। इसके बाद वे इंडियन सिविल सर्विस (आईसीएस वर्तमान में आईएस) की परीक्षा में बैठे। उनसे पहले इस परीक्षा को पास करने वाले भारतीय धनी व आभिजात्य वर्ग से आते थे, जयपाल इनमें अपवाद थे। साक्षात्कार में सर्वाधिक अंक लेकर उन्होंने आईसीएस की परीक्षा पास की। इंग्लैंड में आईसीएस प्रोबेशनर के रूप में प्रशिक्षण लेने के दौरान उन्हें एम्स्टर्डम में होने वाले ग्रीष्मकालीन ओलंपिक में भारत का प्रतिनिधित्व करने का न्योता मिला। उनसे कहा गया कि भारतीय दल का हिस्सा बनने के लिए वे तत्काल एम्स्टर्डम रवाना हो जाएं। लंदन स्थित इंडिया ऑफिस से संपर्क कर जयपाल ने एम्स्टर्डम जाने के लिए छुट्टी मांगी। पर उनका आवेदन अस्वीकार कर दिया गया।  उनकी दुविधा थी – देश के लिए खेलें या फिर आईसीएस में बने रहें। पर उन्होंने देश के लिए खेलना पसंद किया।

भारत लौट कर जयपाल ने बर्मा शेल कंपनी में वरिष्ठ कार्यपालक पद पर नौकरी की। नौकरी के दौरान कलकत्ता में रहते हुए 15 जनवरी 1932 को उनका विवाह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रथम अध्यक्ष व्योमेश चन्द्र बनर्जी की पोती तारा विन्फ्रेड मजूमदार से हुई । हालांकि, दोनों की शादी ज्यादा दिन तक नहीं टिकी। 7 मई 1952 को जहाँआरा जयरत्नम के साथ दूसरा विवाह किया , जो बाद में 1958 को राज्यसभा सांसद और केन्द्र में कई बार मन्त्री भी बनी । इनके दो पुत्र बिरसा एवं जयंत और एक पुत्री जानकी हुई ।

उन्होने नौकरी छोड़ दी और अध्यापन कार्य में रम गए, असीमित प्रतिभा के धनी जयपाल 1934 में अध्यापन कार्य के लिए अचीमोता कॉलेज, गोल्ड कोस्ट, अफ्रीका चले गए । वर्ष 1937 में वे रायपुर में राजकुमार कॉलेज के प्राचार्य नियुक्त हुए। अपनी उत्कृष्ट शैक्षणिक योग्यता , खेल में उपलब्धियों, असीम सामर्थ्य और नेतृत्व की क्षमता के बावजूद जयपाल जातिगत भेदभाव और रंगभेद के शिकार हो गए । राजकुमार कॉलेज विशेषकर भारतीय रियासतों और सामंती परिवारों के युवाओं के लिए था। ये लोग यूरोपीय छात्रों की सोहबत में यहाँ रहते थे। इन युवाओं के माँ-बाप को एक ट्राइबल के अधीन अपने बच्चों को शिक्षा दिए जाने की बात पची नहीं। अंग्रेजों को भी यह नागवार गुजरा। इसलिए जयपाल वहाँ से हटा दिए गए । उनके जीवनकाल में कई दिलचस्प मोड़ आए । जब वे अफ्रीका से भारत लौटे तो उनको 1936 में बीकानेर राजघराने ने उपनिवेशन मंत्री और राजस्व आयुक्त नियुक्त किया। इस पद पर कार्य करने के दौरान उनकी काफी प्रशंसा हुई। उनको पदोन्नति देकर बीकानेर स्टेट का विदेश सचिव बना दिया गया।


खेल में योगदान- बचपन से ही जयपाल सिंह मुंडा को हॉकी खेलना पसंद था , उनकी प्रतिभा को एक अंग्रेज शिक्षक ने पहचाना और उन्हें 20 दिसम्बर 1918 को ऑक्सफोर्ड (इंग्लैंड) के सेंट जॉन्स कॉलेज में पढ़ने के लिए ले गये । इंग्लैंड में रहकर जयपाल सिंह ने उच्च शिक्षा प्राप्त की । ऑक्सफ़ोर्ड में रहते हुए खेल, विशेषकर हॉकी के स्तंभकार के रूप में उनकी प्रतिभा उभरकर सामने आई। 1924 में वे द टाईम्स इत्यादि प्रमुख ब्रिटिश पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से लिखने लगे। अपने आलेखों से वे पाठकों के पसंदीदा बन गए और उनको काफी सराहना मिली। 1925 में ‘ऑक्सफोर्ड ब्लू’ का खिताब पाने वाले हॉकी के एकमात्र अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी जयपाल थे। 1928 में एम्सटर्डम (नीदरलैंड) में होनेवाले ओलिंपिक के लिए उन्हें भारतीय हॉकी टीम का कप्तान नियुक्त किया गया । एम्स्टर्डम ओलम्पिक जाने वाली भारतीय हॉकी टीम में शामिल खिलाड़ी थे : जयपाल सिंह मुंडा (कप्तान), रिचर्ड एलेन, ध्यान चन्द, मौरिस गेटली, विलियम गुड-कुलेन, लेस्ली हैमोंड, फिरोज खान, जॉर्ज मर्थिंस, रेक्स नॉरिस, ब्रूम पिनिगेर (उप कप्तान), माइकल रोक, फ्रेडेरिक सीमैन, अली शौकत और सैयद यूसुफ़। उन्होंने इस सुनहरे मौके का लाभ उठाया और अपनी अगुआई में देश को पहली बार हॉकी में स्वर्ण पदक दिलवाया । फाइनल में भारत ने मेजबान नीदरलैंड को 3-0 से पराजित किया । हॉकी के मैदान में एक रक्षक के रूप में उनके खेल की खूबी थी अपने प्रतिद्वंद्वियों को गेंद पर काबू नहीं करने देना।


1929 में जयपाल ने मोहन बगान हॉकी टीम का गठन किया और बंगाल हॉकी एसोसिएशन के सचिव चुने गए । जयपाल इंडियन स्पोर्ट्स काउन्सिल के सदस्य भी रहे ।
1950 में जयपाल दिल्ली फ्लाइंग क्लब के अध्यक्ष बने, 1951 में ध्यानचंद हॉकी टूर्नामेंट के अध्यक्ष रहे । 1953 में पार्लियामेंट स्पोर्ट्स क्लब के मानद महासचिव बने । जयपाल छोटानागपुर हॉकी एसोसिएशन, दिल्ली हॉकी एसोसिएशन, दिल्ली क्रिकेट एसोसिएशन, दिल्ली फुटबॉल एसोसिएशन, दिल्ली फिशिंग क्लब, दिल्ली जिमखाना क्लब, दिल्ली गोल्फ क्लब, दार्जलिंग जिमखाना क्लब, ऑल इण्डिया काउन्सिल ऑफ स्पोर्ट्स, इण्डियन ओलम्पिक एसोसिएशन, नेशनल स्पोर्ट्स क्लब ऑफ इण्डिया, क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ऑफ इण्डिया, इण्डियन ओलम्पिक कमिटी इत्यादि खेल संगठनो में विभिन्न पदों पर शोभायमान रहे । 1957 से 1961 तक इंटरनेशल ओलम्पिक कमिटी द्वारा देश में खेलों की स्थिति पर गठित तीन सदस्यीय जाँच समिति के सदस्य रहे ।

समाज विकास में योगदान - समय समय पर उन्हें अपने गाँव व वहाँ के ट्राइबल्स की बदहाली एवं शोषण की खबरें पहुँचा करती थी, वे चिन्तन करने लगे कि ट्राइबल समुदाय के उत्थान के लिए क्या किया जा सकता है । वे 1940 में सदाकत आश्रम, पटना जाकर डॉ. राजेंद्र प्रसाद से भी मिले, किन्तु उनको कोई राह नहीं सूझी ।

उसी दरम्यान बिहार और उड़ीसा के गवर्नर सर मौरिस हॉलेट ने जयपाल को बिहार और उड़ीसा विधायी परिषद (लेजिस्लेटिव काउंसिल) का सदस्य बनने का आग्रह किया , पर उन्होंने इस प्रस्ताव को बहुत ही शालीनता से ठुकरा दिया। इसके बाद गवर्नर और मुख्य सचिव रोबर्ट रसेल दोनों ने जयपाल सिंह से ट्राइबल्स के हित मे कार्य करने व सुझाव देने को कहा ।

जयपाल सिंह मुंडा रांची पहुँचे, अपने ट्राइबल्स लोगों के साथ रहने लगे । वर्ष 1946 में वे बिहार के एक आम निर्वाचन क्षेत्र से संविधान सभा के लिए चुने गए। 296 सदस्यों वाली संविधान सभा को संविधान निर्माण का कार्य सौंपा गया था। जयपाल ने पहली बार 19 दिसंबर 1946 को संविधान सभा में अपना ऐतिहासिक भाषण दिया। उन्होनें स्वयं को जंगली और आदिवासी कहते हुए अपना महान वक्तव्य प्रारम्भ किया -
- ‘’ As a jungli, as an Adibasi,” “I am not expected to understand the legal intricacies of the Resolution. But my common sense tells me that every one of us should march in that road to freedom and fight together. Sir, if there is any group of Indian people that has been shabbily treated it is my people. They have been disgracefully treated, neglected for the last 6,000 years. The history of the Indus Valley civilization, a child of which I am, shows quite clearly that it is the new comers — most of you here are intruders as far as I am concerned — it is the new comers who have driven away my people from the Indus Valley to the jungle fastness…The whole history of my people is one of continuous exploitation and dispossession by the non-aboriginals of India punctuated by rebellions and disorder.’’

अगस्त 1947 में जब अल्पसंख्यकों और वंचितों के अधिकारों पर पहली रिपोर्ट प्रकाशित हुई तो उसमें केवल दलितों के लिए ही विशेष प्रावधान किए गए थे। दलित अधिकारों के लिए डॉ अंबेडकर बहुत ताकतवर नेता बन चुके थे, जिसका लाभ दलितों को तो मिलता दिख रहा था, लेकिन ट्राइबल्स को अनदेखा किया जा रहा था। ऐसे में जयपाल सिंह मुंडा ने कड़े तेवर दिखाए और संविधान सभा में ज़ोरदार तरीके से अपना पक्ष रखा -

“आज़ादी की इस लड़ाई में हम सबको एक साथ चलना चाहिए। पिछले छह हजार साल से अगर इस देश में किसी का शोषण हुआ है तो वे ट्राइबल्स ही हैं। उन्हें मैदानों से खदेड़कर जंगलों में धकेल दिया गया और हर तरह से प्रताड़ित किया गया, लेकिन अब जब भारत अपने इतिहास में एक नया अध्याय शुरू कर रहा है तो हमें अवसरों की समानता मिलनी चाहिए।”

स्वतंत्र भारत को स्वरूप देने और उसके निर्माण में महिलाओं की भागीदारी पर जोर देने वाले जयपाल सिंह संभवतः पहले व्यक्ति थे , उनहोने कहा - “महाशय, मेरा अभिप्राय सिर्फ ट्राइबल पुरुषों से ही नहीं बल्कि महिलाओं से भी है। संविधान सभा में जरूरत से ज्यादा पुरुष हैं। हम चाहते हैं ज्यादा महिलाएं यहाँ हों…”

“मैं एक और दृष्टांत दूंगा। छोटानागपुर में यह रिवाज है कि हर सात साल पर वहाँ ‘एरा सेन्द्रा’ (जनशिकार) का आयोजन होता है। हर सात साल पर महिलाएं पुरुष का वेष धारण करती हैं और जंगलों में शिकार करती हैं। गौर कीजिये, पुरुष वेष में ये महिलाएं होती हैं। ये वो अवसर होता है जब महिलाएं, जैसा कि स्वाभाविक है, पुरुष की तरह अपनी वीरता का प्रदर्शन करती हैं। वे पुरुषों की तरह तीर-कमान, लाठियों, भालों और इस तरह के अन्य हथियारों से लैश होती हैं। "

“मैं आदिवासियों के इलाकों में आदिवासियों के बीच काफी घूमा हूँ और पिछले 9 वर्षों में मैंने 1,14,000 मील की यात्रा की है। इससे मुझे यह पता लगा है कि आदिवासियों को किस बात की जरूरत है और इस सदन से उनके लिए क्या उम्मीद की जा सकती है। उन्होंने आग्रह किया कि आदिवासियों के हितों और उनकी खासियत को संरक्षित किए जाने और उनके देखभाल की जरूरत है।” 

उन्होंने उरांव जनजाति का उदाहरण दिया - “इस असेंबली में सिर्फ एक ही उरांव सदस्य हैं। जबकि उरांव जनजाति भारत में चौथी सबसे ज्यादा जनसंख्या वाली जनजाति है।”

जयपाल सिंह के सशक्त हस्तक्षेप के बाद संविधान सभा को ट्राइबल्स के बारे में सोचने पर मजबूर होना पड़ा। इसका नतीजा यह निकला कि 400 ट्राइबल समूहों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया गया। उस समय इनकी आबादी करीब 7 फीसदी आँकी गई थी। इस लिहाज से उनके लिए नौकरियों और लोकसभा-विधानसभाओं में उनके लिए 7.5% आरक्षण सुनिश्चित किया जा सका।

ट्राइबल्स हितों की रक्षा के लिए वर्ष 20 जनवरी1939 को जयपाल सिंह मुंडा ने आदिवासी महासभा की अध्यक्षता की । 25 अप्रेल 1939 को झारखण्ड के ओड़िशा बार्डर पर सिमको नामक जगह पर अंग्रेजों ने सैकड़ों ट्राइबल्स को मार गिराया, जिसका पुरजोर विरोध प्रदर्शन जयपाल सिंह के नेतृत्व में आदिवासी महासभा ने किया । उन्होंने 1939 में 'आदिवासी सकम' नामक साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ की । ट्राइबल मजदूरो को उनका हक दिलवाने के लिए 16 मार्च 1947 को झींकपानी में आदिवासी लेबर फेडरेशन के अध्यक्ष बने । 1 जनवरी 1948 को सराईकेला खरसावां जिले में हुए नरसंहार के विरोध में 11 जनवरी 1948 को चाईबासा में भारी जनप्रदर्शन किया ।


आदिवासी महासभा के राजनीतिक विंग के रूप में 1 जनवरी 1950 को झारखण्ड पार्टी का गठन किया । 1952 के चुनाव में झारखंड पार्टी को काफी सफलता मिली , उनके मुर्गा छाप पर 4 सांसद और 32 विधायक जीते थे। स्वयं जयपाल सिंह लगातार चार बार 1952,1957,1962 एवं 1967 खूँटी से लोकसभा चुनाव जीतकर संसद में पहुँचे । जयपाल 3 सितम्बर 1963 को अल्पकाल के लिए उपमुख्यमन्त्री भी बने । बाद में झारखंड के नाम पर बनी तमाम पार्टियाँ इन्ही के विचारों से प्रेरित रही ।

वर्ष 1959 में जयपाल ने वर्ल्ड अफेयर्स काउन्सिल एवं यू एन ओ की बैठक को सम्बोधित किया, उसी वर्ष वे अमेरिका में ओकाहोंमा आदिवासी नेशन द्वारा सम्मानित भी किए गए ।

जयपाल सिंह मुंडा को ट्राइबल परम्पराओं और रहन सहन का अदभुत ज्ञान था, साथ ही वे वाकपटु और धाराप्रवाह वक्ता थे, अंग्रेजी, हिन्दी, बंग्ला, मुंडारी व संथाल कई भाषाओ पर उनकी पकड़ थी । भारत के संविधान में ट्राइबल्स को उनके अधिकार दिलवाने वाले जयपाल सिंह मुंडा को "मरङ गोमके" यानी महान नेता कहा जाता है। इनके विषय में लिखने के लिए जितना अध्ययन करता हूँ इनके विशाल व्यक्तित्व का एक नया अध्याय सामने आ जाता है । इन्हें खिलाड़ी कहूँ, या नेता, या पत्रकार, या स्वतंत्रता सेनानी, या झारखण्ड आंदोलनकारी, या अध्यापक, या मजदूर नेता, या कुशल वक्ता, या विद्वान लेखक - मरङ गोमके जयपाल सिंह मुंडा के चरित्र को शब्दों में समेटना असम्भव है ।

सम्मान - 1978 में कचहरी रोड़, राँची में जयपाल सिंह मुंडा स्टेडियम का निर्माण करवाया गया था , वर्ष 2004 में वहाँ उनकी प्रतिमा की स्थापना भी की गई है । उनके पैतृक गाँव टकरा , खूँटी में समाधिस्थल बना हुआ है ।

Wednesday, 22 April 2020

कोरोना ( Covid 19)

तुम्हारी मशीने
तुम्हारी गाड़ियाँ
तुम्हारी फैक्ट्रियां
कुछ भी तो काम ना आए ।

तुम्हारे ओवरब्रिज
तुम्हारे फ्लाईओवर
तुम्हारे मॉडल टाउन्स
सभी तुम्हें मुँह चिढ़ा रहे हैं ।

तुम्हारे कम्प्यूटर
तुम्हारे टैब लेपटॉप
तुम्हारे वाईफाई इंटरनेट
कोई तुम्हें कुछ ना बता पाए ।

तुम्हारा गूगल
तुम्हारी टेक्नोलॉजी
तुम्हारा इन्फॉर्मेशन सिस्टम
किसके भरोसे कूद रहे थे तुम ।

काल नहीं
मैं कालचक्र हूँ
भूल तुम्हें याद दिलाने आया हूँ
कोरोना बन प्रकृति समझाने आया हूँ।

संदीप मुरारका
22/4/2020 Lockdown Period







बिरसा मुण्डा

जन्म : 15 नवम्बर 1875
जन्म स्थान: उलीहातू गाँव, राँची, झारखण्ड
निधन:  9 जून 1900
मृत्यु स्थल : राँची कारागार
पिता : सुगना मुंडा
माता : करमी हटू

जीवन परिचय - बिरसा मुंडा का जन्म छोटानागपुर पठार के जजातीय मुंडा परिवार में हुआ था । बिरसा का बचपन एक सामान्य वनवासी बालक की तरह घोर दरिद्रता में, जंगलों में घूमते और बकरियां चराते हुए ही बीता। मिशनरीज की सेवा, चिकित्सा और शिक्षा से प्रभावित होकर धर्मपरिवर्तन का दौर चल रहा था, गरीबी और भुखमरी से तंग आकर सुगना मुण्डा ने भी अपने पुत्र बिरसा सहित ईसाई धर्म अपना लिया। साल्गा गाँव में प्रारम्भिक पढाई के बाद बिरसा को चाईबासा के लूथर मिशन स्कूल में नामांकन करवा दिया गया, किन्तु वहाँ का रंगभेद व जातीय भेदभाव उनके मन को कचोटता रहता और उनके हृदय में अंदर ही अंदर एक आक्रोश पलने लगा । विद्यालय में रहकर बिरसा ने अंग्रेजों के कुचक्रों को समझा और विद्यालय छोड़ कर घर लौट आए ।

उन्होने ईसाई धर्म त्याग दिया , 1891 में एक वैष्णव आनन्द पाण्डे के सम्पर्क में आकर आयुर्वेद, पुराण, रामायण, महाभारत सहित वैदिक साहित्य का अध्ययन किया किन्तु बिरसा संतुष्ट नहीं हुए, वे भीषण भुखमरी और विपन्नता से घिरे ट्राइबल्स समुदाय पर होते अत्याचारों को देखकर चिंतित रहते । एक बार इसी चिन्ता में बारह-तेरह दिन वे भूखे-प्यासे जंगल में भटकते रहे। कहा जाता है कि इसी एकान्तवास में उन्हें परमसत्ता सिंङबोंगा से साक्षात्कार हुआ या यूँ कहें कि आत्मसाक्षात्कार हुआ । बिरसा मुण्डा अब धरती आबा बन चुके थे , धरती के भगवान । 1894 में पड़े भयंकर अकाल और महामारी में धरती आबा बिरसा ने गाँव में पूरे मनोयोग से ट्राइबल्स की सेवा की थी ।

स्वतंत्रता संग्राम में योगदान- बिरसा मुण्डा ने वर्ष 1895 में चालकाड़ में यह उद्घोष किया ' "अब वह दिन दूर नहीं जब अंग्रेज हमारे चरणों पर गिरकर अपने प्राणों की भीख मांगेंगे। आओ, हम एकजुट हों, अब हमारा राज्य आने वाला है।" अबुआ: दिशोम रे अबुआ: राज अर्थात अपने देश में अपना शासन ।

इसी के साथ बिरसा ने अंग्रेजों के खिलाफ उलगुलान की घोषणा करते हुए फसल बोने से ट्राइबल्स को रोक दिया ।इस विरोध की खबर मिलने पर अंग्रेज पुलिस 8 अगस्त, 1895 को बिरसा को पकड़ने चालकाड़ आई पर ट्राइबल्स के भीषण सशस्त्र प्रतिरोध के आगे वह बिरसा को छू तक न सकी। 23 अगस्त, 1895 को अंग्रेज पुलिस आयुक्त ने बिरसा और उसके आन्दोलन को कुचलने का आदेश दिया। इस बार रात के समय चुपके से पूरे गांव को घेर लिया गया और बिरसा को सोते हुए पकड़ कर रांची जेल में बन्द कर दिया गया। 19 नवम्बर, 1895 को बिरसा को दो वर्ष के कठोर कारावास और पचास रुपये जुर्माने की सजा सुना दी गई। 30 नवम्बर, 1897 को बिरसा को जेल से रिहा हुए ।

रिहाई के बाद बिरसा ने अंग्रेजों के साथ मुकाबला करने के लिए ट्राइबल सेना संगठित की, जिसका मुख्य केन्द्र खूंटी बनाया गया। 25 दिसम्बर, 1899 को बिरसा सेना ने सखादाग मिशन हाथे पर चढ़ाई कर दी। मिशन का परिसर जला दिया गया। दूसरी बार बिरसा ने अपनी सेना को कई टुकड़ियों में बांटकर पुलिस थानों पर हमला करने के आदेश दिए। बिरसा ने तीर कमानों से लैस चार सौ ट्राइबल वीरों के साथ खूँटी थाने पर धावा बोल दिया। तांगा नदी के किनारे उनकी भिड़ंत अंग्रेज सेना से हुई , उनकी जीत भी हुई लेकिन कई ट्राइबल्स की गिरफ़्तारियां हो गई । बिरसा और उनके आन्दोलन को कुचलने के लिए अंग्रेज फौज खूंटी और डुम्बारी की पहाड़ियों की ओर कूच कर गई, पर उन्हें पकड़ने में अंग्रेज असफल रहे ।

इसके बाद बिरसा दुगने उत्साह से ट्राइबल्स को संगठित कर जंगल पर दावेदारी के लिए गोलबंद करने लगे । इस उलगुलान से महाजन, जमींदार और सामंत ही नहीं अंग्रेज अफसर भी भय से कांपने लगे। अंग्रेज सरकार ने उलगुलान को दबाने का हर संभव प्रयास किया , लेकिन ट्राइबल्स के गुरिल्ला युद्ध के समक्ष अंग्रेज असफल रहे। धरती आबा बिरसा का एक ही लक्ष्य था - “महारानी राज तुंदु जाना ओरो अबुआ राज एते जाना” यानी कि ‘ ब्रिटिश महारानी का राज खत्म हो और हमारा राज स्थापित हो’।

25 जनवरी 1900 में उलिहातू के समीप डोमबाड़ी पहाड़ी पर अंग्रेजो और सूदखोरों के विरुद्ध आयोजित एक जनसभा में बिरसा ट्राइबल्स को सम्बोधित कर रहे थे कि अचानक अंग्रेज सैनिकों ने हमला कर दिया, दोनोँ पक्षों मे जमकर संघर्ष हुआ, ट्राइबल्स के हाथों में तीर धनुष, भाला, कुल्हाड़ी, टंगीया इत्यादि थे, परन्तु दुश्मन की बंदूक-तोप का सामना पारंपरिक हथियार भला कब तक कर पाते, अंततः लगभग 400 लोग मारे गए, जिनमें औरतें और बच्चे भी थे । कई लोग गिरफ्तार कर लिए गए । बिरसा की गिरफ्तारी का वारंट जारी हो गया, उनपर रुपए 500/- का इनाम घोषित हुआ ।

बिरसा छिपते हुए अपने लोगों से मिलते मिलाते उलगुलान का प्रसार प्रचार करते हुए चक्रधरपुर पहुँचे, तारीख थी 3 मार्च 1900, अगली रणनीति पर चर्चा चल रही थी, रात हो चली थी, धरती आबा ने 'जम्कोपाई' जंगल में रात बिताने का निर्णय लिया, देर रात जब सबलोग सो रहे थे, किसी अपने ने ही धोखा किया और बिरसा को उनके 460 साथियों के साथ गिरफ्तार कर लिया गया ।

बिरसा को खाट सहित बांध दिया गया था, भोर हो चली थी, बंदगांव के रास्ते उन्हें राँची जेल ले जाया जाय़ा गया, उस वक्त अपने उलगुलान को जिन्दा रखने के लिए धरती आबा ने जो शब्द कहे, उन्हे कागज पर उकेरा "अश्विन कुमार पंकज" ने -  “मैं तुम्हें अपने शब्द दिये जा रहा हूं, उसे फेंक मत देना, अपने घर या आंगन में उसे संजोकर रखना। मेरा कहा कभी नहीं मरेगा। उलगुलान ! उलगुलान! और ये शब्द मिटाए न जा सकेंगे। ये बढ़ते जाएंगे। बरसात में बढ़ने वाले घास की तरह बढ़ेंगे। तुम सब कभी हिम्मत मत हारना। उलगुलान जारी है।”

अदालत में बैरिस्टर जैकब ने बिरसा की ओर से बहस की किन्तु पूर्वाग्रह से ग्रसित अंग्रेज जज ने सजा सुना दी । बिरसा राँची जेल में कैद थे किन्तु उनके द्वारा छेड़े गए उलगुलान से अंग्रेज अब भी भयभीत थे । कुनीति में माहिर अंग्रेजों ने यह अफवाह फैला दी कि धरती आबा को हैजा हो गया है जबकि उन्हें खाने में प्रतिदिन धीमा जहर दिया जाने लगा । 9 जून 1900 को धरती आबा बिरसा मुण्डा के शरीर का अन्त हुआ । किन्तु भगवान मरा नहीं करते, इस दृष्टिकोण से वे आज भी जीवित हैं और इस धरती के अन्त होने तक जीवित रहेगे, इसीलिए साहित्यकार हरीराम मीणा लिखते हैं-

" मैं केवल देह नहीं 
मैं जंगल का पुश्तैनी दावेदार हूँ,
पुश्तें और उनके दावे मरते नहीं
मैं भी मर नहीं सकता,
मुझे कोई भी जंगलों से बेदखल नहीं कर सकता ।
उलगुलान !
उलगुलान !!
उलगुलान !!! ’’

सम्मान - 16 अक्टूबर 1989 को संसद के केंद्रीय हॉल में बिरसा के चित्र का अनावरण तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष बलराम जाखड़ ने किया। 1988 में भारत सरकार द्वारा बिरसा मुंडा पर 60 पैसे की डाक टिकट जारी की गई । दिनांक 28 अगस्त 1998 को संसद परिसर में मूर्तिकार बी सी मोहंती द्वारा निर्मित 14 फीट की प्रतिमा का अनावरण राष्ट्रपति के आर नारायणन ने किया गया । झारखण्ड की राजधानी राँची के एयरपोर्ट का नाम बिरसा मुंडा विमानक्षेत्र है । 1 अप्रेल 2017 को गुजरात के नर्मदा जिले में बिरसा मुण्डा ट्राइबल यूनिवर्सिटी की स्थापना की गई है , वहीँ राँची में बिरसा कृषि विश्वविद्यालय की स्थापना 26 जून 1981 को की गयी थी । झारखण्ड के बुंडू, सिंदरी, सरगरिया, बलियापुर, बोकारो, हरचंदा , चंदरा, सराईकेला, राँची, बेको, बालसोकडा, जमशेदपुर, धनबाद, गोड्डा, बिजुपाड़ा, धौनसर, बासदेवपुर, ओड़िशा के राउलकेला, पश्चिम बंगाल के गमारकुमरी, कानपुर इत्यादि स्थानो पर बिरसा के नाम पर विभिन्न विद्यालय संचालित हैं । रांची खेल परिसर में बिरसा मुण्डा एथेलेटिक्स स्टेडियम बना हुआ है , वहीँ चाईबासा, सराईकेला एवं चांडिल के छोटालाखा में बिरसा मुण्डा के नाम पर स्टेडियम बने हुए हैं । विभिन्न स्थानो पर कई अस्पताल एवं पार्क का नामकरण बिरसा मुण्डा के नाम पर हुआ है । उनकी जन्मस्थली अड़की प्रखंड के उलिहातू गांव में बिरसा स्मारक स्थल (बिरसा ओड़ा) है । बिहार, बंगाल, ओड़िशा और झारखण्ड में हजार से ज्यादा बिरसा की प्रतिमाएँ स्थापित है, सबसे बड़ी बात कि धरती आबा यहाँ के लोगों के दिल में अंकित हैं ।


Tuesday, 21 April 2020

ओत् गुरु कोल लाको बोदरा

ओत् गुरु कोल लाको बोदरा 

जन्म : 19 सितम्बर 1919
जन्म स्थान : पासेया गाँव ,खूंटपानी प्रखण्ड, जिला पश्चिमी सिंहभूम, झारखण्ड
निधन:  29 जून 1986
मृत्यु स्थल : जमशेदपुर
पिता : लेबेया बोदरा
माता : जानो कुई


जीवन परिचय - लाको बोदरा हो भाषा के साहित्यकार थे। हो भाषा-साहित्य में ओत् गुरू कोल "लाको बोदरा" का वही स्थान है जो संताली भाषा में रघुनाथ मुर्मू का है। झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम ज़िले के खुंटपानी ब्लॉक में स्थित पासेया गाँव में जन्में लाको बोदरा होमियोपैथी चिकित्सक भी थे । उनकी आरम्भिक शिक्षा बड्चोम हातु प्राथमिक विद्यालय एवं पुरुईयां प्राथमिक विद्यालय में हुई। कक्षा 9 की पढ़ाई उन्होने चक्रधरपुर स्थित एंग्लो इंडियन ग्रामर हाई स्कूल में की और चाईबासा के ज़िला उच्च विद्यालय से मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। उन्होने फादर डिजाडिन से अंग्रेजी शिक्षा का ज्ञान प्राप्त किया, इसके बाद उन्होंने जयपाल सिंह मुंडा के सहयोग से पंजाब के जालंधर सिटी कॉलेज से होम्योपैथी की डिग्री प्राप्त की। उन्होने नोवामुंडी के पास डोंगापोसी में रेलवे में लिपिक के रूप में अपना योगदान दिया । लोको बोदरा ने सिंहभूम लोकसभा क्षेत्र से दो बार चुनाव भी लड़ा । काफी समय तक आकाशवाणी राँची से जुड़े रहे साथ ही राँची विश्वविद्यालय के जनजाति एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग के परामर्शदातृ समिति के सदस्य भी रहे । लाको बोदरा एक मधुर बाँसुरी वादक भी थे ।

साहित्यिक परिचय - ओत् गुरू (विश्व गुरु) कोल "लाको बोदरा" ने 1940 के दशक में हो भाषा के लिए ह्वारङ क्षिति ( वारंगचिति) नामक लिपि की खोज की व उसे प्रचलित किया। उसके प्रचार-प्रसार के लिए ‘आदि संस्कृति एवं विज्ञान संस्थान’ (एटे:ए तुर्तुङ सुल्ल पीटिका अक्हड़ा) की स्थापना भी की। यह संस्थान आज भी हो भाषा-साहित्य,संस्कृति के विकास में संलग्न है। "ह्वारङ क्षिति" में उन्होंने ‘हो’ भाषा का एक वृहद् शब्दकोश भी तैयार किया जो अप्रकाशित है। वारंगचिति में मूल अक्षर सहित 32 वर्ण हैं। जो छोटे और बड़े अक्षर के रुप में प्रयोग होते हैं। वारगंचिति को बाएं से दाएं, दाएं से बाएं, ऊपर से नीचे, नीचे से ऊपर और सांकेतिक रुप में भी लिखा-पढ़ा जाता है। गैर सरकारी तौर पर हो भाषा के प्रचार-प्रसार हेतु बढ़ावा देने में टाटा स्टील के कॉरपोरट सोशल रिस्पोंसिबिलिटी विभाग द्वारा संचालित केन्द्रों में भी पढ़ाया जाता है।

लाको बोदरा विद्यार्थियों को "वारंगचिति" लिपि की शिक्षा देने के साथ-साथ धर्म विज्ञान का उपदेश भी देते थे । जोड़ापोखर, झींकपानी में एक आवासीय सह-शिक्षा विद्यालय की स्थापना की गई , इसके अलावा आदि समाज (दुपुब होदा) द्वारा लोटा खूंटपानी प्रखंड , गुडासाई मनोहरपुर, टुंटाकटा मझगाँव, दाईगोड़ा घाटशिला, बड़ानन्दा एवं डोंगुआपोसी जगन्नाथपुर, जमशेदपुर, क्योंझर, सुकिन्दा ओड़िशा, इत्यादि कई स्थानों पर "वारंगचिति" लिपि प्रशिक्षण का केंद्र खोला गया । इन केन्द्रों में व्यवहारिक शिक्षा यथा जड़ीबूटी, सिलाई कढा़ई, बुनाई, बागवानी, बढ़ई, लोहार इत्यादि ।

नई लिपि में लिखी गई पुस्तकों का मुद्रण झींकपानी की अड़ो: इप्पिल माला मुद्रा प्रेस में हुआ । गुरु लोको बोदरा ने समाज में फैली बुराईयों, कुरीतियों, बलीप्रथा, अंधविश्वास एवं रूढ़िवादीता पर भी कड़ी चोट की । उन्होने आदि समाज मे राजी खुशी (प्रेम विवाह) के स्थान पर आन्दी विवाह (माता पिता की स्वीकृति से विवाह) को प्रोत्साहित किया । उनके देउरी (पुजारी) कर्मकांड तथा हवन हिन्दू विवाह के सदृश्य सम्पन्न कराते हैं। पुरूष जनेऊ तथा विवाहित महिलाऐं हिन्दू महिलाओं जैसा मांग में सिन्दूर लगाती हैं तथा लौह की चूड़ी धारण करती है। लाको बोदरा ने हिन्दू धर्म ग्रन्थ वेद, रामायण तथा महाभारत के साथ साथ कुरान व बाइबल का भी अध्ययन किया । उन्होने ट्राइबल समुदाय के विवाह संस्कार एवं मृत्यु संस्कार में भी संशोधन किए, इसलिए उन्हें 'बोदरा बोरोम' भी कहा जाता है ।


कृतियाँ - सहार होड़ा (स्वर्ग के रास्ते) , बोंगा होड़ा (बोंगा की राह), एला ओल इतू उटा, षड़ा पुड़ा सांगेन, ब्ह बूरू-बोडंगा बूरु, षार होरा, पोम्पो (अक्षर विज्ञान) , रघुवंश, शिशु हलं, होरा बारा, कोल रूल, एनी , हो बाकणा (हो व्याकरण), हसे हयम पहम पुति , बड़ा बुड़ा सगेन, हलं हलपुड, पार होरा, आईदा होडोअ सेबा षड़ा गोवरि,

सम्मान एवं पुरस्कार - गुरु लोको की कई पुस्तकें झारखण्ड के विद्यालय, महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालयों के पाठ्क्रमों में शामिल की गई हैं । टाटा स्टील द्वारा
पश्चिमी सिंहभूम जिला के खूंटपानी प्रखंड में कोल गुरु लाको बोदरा का पैतृक गांव पासेया में स्मारक बनवाया गया है । जमशेदपुर के मानगो शंकोसाई रोड नंबर 5 , सीतारामडेरा, ट्राइबल कल्चरल सेंटर सोनारी , डुमरिया के स्वर्गछिड़ा में ओत् गुरु की प्रतिमाएँ स्थापित हैं । वर्ष 1976 में उन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने स्वर्ण पदक देकर सम्मानित किया था ।

एक रचना-

नोकोया नपिरयन सिर्फ चाङइते
नोकोया सेनो:यन सिर्फ दिङगते
नोकोया नोयारेमन दोरेया तलाते
नोकोया नोवारेयन द:डनो तलाते
दिषुम रेको ! निमिन जके ते
गिति: कन गे हपह कते
मेडेम मेडेपे में मेटो: पे सनमते
विरिड बेरेड पे बिरइतो आते ॥

इन प्रेरक पंक्तियों का हिन्दी अनुवाद- आज के युग में कोई सुदूर आकाश में चाँद पर जा रहा है, तो कोई सूरज की ओर गतिमान है । कोई तैरकर विशाल सागर को पार कर रहा है तो कोई समुद्र की अतल गहराई में जाकर अनुसंधान कर रहा है । हे देशवासियों, तुम अभी भी अज्ञानता की चिरनिद्रा में सोये हुए हो और मूकदर्शक बन कर मौन हो । अब जाग जाओ और आँखे खोलकर संसार को, संसार की प्रगति को देखो । तुम खुद जगो और अन्य को भी जगाओ ।

संदीप मुरारका
21 अप्रेल 2020


Monday, 20 April 2020

सिदो कान्हु - हूल विद्रोह के नायक


जन्म : सिदो 1825 कान्हु 1830
जन्म स्थान: संथाल परगना बरहेट प्रखण्ड के भगनाडीह गांव, झारखण्ड
निधन:  26 जुलाई 1855 को फाँसी दी गई
मृत्यु स्थल : पंचकठीया, बरहेट प्रखंड, साहेबगंज
पिता : चुन्नी मांझी 

जीवन परिचय - सिदो-कान्हू मुर्मू का जन्म भोगनाडीह नामक गाँव में एक ट्राइबल संथाल परिवार में हुआ था। संथाल विद्रोह में सक्रिय भूमिका निभाने वाले ये 6 भाई बहन थे , जिनके नाम चाँद मुर्मू ,भैरव मुर्मू , फुलो मुर्मू एवं झानो मुर्मू थे।

स्वतंत्रता संग्राम में योगदान -सिदो-कान्हू ने 1855 मे ब्रिटिश सत्ता, साहुकारो व जमींदारो के खिलाफ एक विद्रोह की शुरूआत की थी, जिसे 'संथाल विद्रोह या हूल आन्दोलन' के नाम से जाना जाता है। संथाल हूल विद्रोह का नारा था 'अंग्रेजो हमारी माटी छोड़ो' । कार्ल मार्क्स ने इस विद्रोह को ‘भारत की प्रथम जनक्रांति’ कहा था।वर्ष1820 में बिहार के भागलपुर जिले के कलेक्टर ‘ऑगस्टस क्विसलेण्ड’ के आदेश पर ईस्ट इण्डिया कंपनी का एक अधिकारी ‘फ्रांसिस बुकानन’ राजमहल की पहाड़ियों को पार करके ट्राइबल गाँवो में नियुक्त हुआ ।उस समय वहां के ट्राइबल्स जंगल से लकड़ियाँ लाकर बाजार में बेचने एवं खेती द्वारा अपनी जीविका चलाते थे । किन्तु व्यवस्थित खेती के नाम पर ‘फ्रांसिस बुकानन' ने क्षेत्र में स्थायी बंदोबस्ती को लागू कर दिया, जिसका वहां के मूलवासियों पर प्रतिकूल असर पड़ा । इसके अनुसार ट्राइबल्स पर जंगल से कोई भी संसाधन निकालने और शिकार पर रोक लगा दी गयी । सिदो कान्हू अंग्रेजों की नीतियों से आक्रोशित थे ।

फसल अच्छी नहीं हो पाने पर भी किसानों को लगान देना पड़ता था , ऐसी स्थिति में कई बार कर्ज़ लेकर लगान चुकाना पड़ता था, कर्ज लौटाने की शर्ते ऊंची हुआ करती थी, साहूकार सादे कागज़ पर ट्राइबल्स के अंगूठे के निशान लगवा लिया करते थे । वसूली के लिए महाजनों के गुर्गे ट्राइबल्स व उनके घर की महिलाओ के साथ दुर्व्यवहार किया करते थे और अंग्रेज प्रशासन भी उनकी ही ओर खड़ा दिखता ।

महाजन साहूकारों की बर्बरता का एक खास साथी पंचकठीया तहसील का थानेदार महेश लाल दत्त था, जो औरतों के साथ उत्पीड़न के मामले में वह सबसे आगे रहता था. यही नहीं आदिवासी जब भी ‘पंचकठीया’ बाजार में अपने रोजमर्रा की चीजें खरीदने-बेचने जाते, तो उन्हें महेश लाल दत्त के आतंक का सामना करना पड़ता।


सिदो - कान्हू ने हूल आन्दोलन को सफल बनाने के लिए धर्म का सहारा लिया। देवता मरांग बूरू और देवी जाहेर एस के दर्शन और अबुआ राज स्थापित करने की बात को प्रचारित कर लोगों की भावना को उभारा। ट्राइबल्स के हर घर में 'सखुआ  डाली' भेज कर लोगों को आमंत्रित किया कि मुख्य देवी देवता का आशीर्वाद लेने के लिए 30 जून को भगनाडीह में जमा होना है। फलस्वरूप आहूत सभा में लगभग साठ हजार ट्राइबल्स तीर कमान, दरांती, भाले और फरसा जैसे परंपरागत हथियारों के साथ एकत्रित हो गये। उस सभा में सिदो को राजा, कान्हू को मंत्री, चाँद को प्रशासक और भैरव को सेनापति मनोनीत कर नये संथाल राज्य के गठन की घोषणा कर दी गई । सभा ने संकल्प लिया गया कि गाँवो से महाजन, पुलिस, जमींदार, सरकारी कर्मचारी एवं नीलहे गोरों को मार भगाना है और ना लगान ही देना है ना कोई सरकारी आदेश मानना है । इस विद्रोह की खबर आग की तरह सारे क्षेत्र में फैल गई.

इसी कड़ी में दारोगा महेश लाल दत्त को खबर लगी, तो वह कलेक्टर क्विसलेण्ड के आदेश पर सिदो कान्हु को गिरफ्तार करने उपरोक्त सभास्थल पर पहुंचा , जहाँ एकत्रित ट्राल्बल्स उग्र हो गए । उन्होंने दरोगा महेश लाल की हत्या कर दी और इसी के साथ प्रारंभ हुआ ‘सन्थाल हूल आन्दोलन’ । इतने पर भी उग्र भीड़ रुकी नहीं, उन्होने महाजनों के घरों पर हमला कर कर्ज के दस्तावेजों को जला दिया ।

इधर महेश लाल की सूचना मिलने पर के बाद अंग्रेज कलेक्टर क्विसलेण्ड कप्तान मर्टीलो के साथ भागलपुर से सेना सहित संथाल विद्रोह को दबाने आया। पाकुड़ जिले के संग्रामपुर नामक स्थान पर सिदो कान्हु की सेना के साथ क्विसलेण्ड की सेना का भीषण युद्ध हुआ । एक ओर ट्राइबल्स के जोश, उत्साह, पारम्परिक हथियार थे तो दूसरी ओर आधुनिक हथियार और तकनीक से लैस कुशल नेतृत्व वाली अंग्रेज़  सेना ।

शुरुआती लड़ाई में ट्राइबल्स ही भारी पड़े, क्योंकि नेतृत्व कर्ता सिदो कान्हू जंगल और पहाड़ियों में लड़े जाने वाले ‘गुरिल्ला युद्ध’ में पारंगत थे ,उन्होने अंग्रेज़ी सेना का जमकर नुकसान पहुंचाया । कैप्टेन मर्टीलो ने उनकी ताक़त व कमजोरी को आँक लिया और नई रणनीति के तहत संथाल विद्रोहियों को मैदानी इलाके में उतरने पर मजबूर किया । जैसे ही ये विद्रोही पहाड़ों से उतरे,अंग्रेज़ी सेना इन पर हावी हो गई । भारी संख्या में ट्राइबल लड़ाके मारे गए , 9 जुलाई 1855 को सिदो कान्हू के छोटे भाई चाँद और भैरव भी मारे गए ।

सिदो कान्हु के द्वारा आगाज हूल आन्दोलन व्यापक पैमाने पर फैलने लगा और झारखंड के पाकुड़ प्रमंडल के अलावा बंगाल का मुर्शिदाबाद और पुरुलिया इलाका भी इसके प्रभाव में आ गया । किन्तु सिदो कान्हु की सेना के पास खाने का समान तक नहीं था, आगे की रणनीति व रसद की व्यवस्था करने दोनोँ भाई 26 जुलाई 1855 की रात को अपने साथियों के साथ गांव पहुँचे। तभी किसी मुख़बिर की सूचना पर अचानक धावा बोलकर अंग्रेज़ सिपाहियों ने दोनों भाइयों को गिरफ़्तार कर लिया , उन्हें घोड़े से बांधकर घसीटते हुए पंचकठीया ले जाया गया और वहीं बरगद के एक पेड़ से लटकाकर उन वीरों को फाँसी दे दी गई ।

संथाल विद्रोह के वक्त अग्रेजों द्वारा रातों-रात मार्टिलो टावर का निर्माण करवाया गया था, इस टावर में 52 छेद हैं, जिनसे अंग्रेजों ने फायरिंग की और हजारों क्रांतिकारी शहीद हुए ,पाकुड़ में अवस्थित यह मर्टीलो टॉवर आज भी सिदो कान्हु की शौर्यगाथा गाता है ।

सम्मान - सिदो कान्हु के नाम पर वर्ष 1992 में दुमका में सिदो कान्हु मुर्मू विश्वविद्यालय की स्थापना की गई । 6 अप्रेल 2002 को भारत सरकार द्वारा सिदो कान्हु पर 4 रुपए की डाकटिकट जारी की गई । मई 2016 में प्रधनमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सिदो कान्हू मुर्मू सेतु का उदघाटन किया । एक ही नदी पर बना यह पुल दुनिया का सबसे लम्बा सड़क पुल है, इसकी लम्बाई 6,000 मीटर है , यह साहेबगंज से मनिहारी को जोड़ने वाले गंगा नदी पर उत्तर-दक्षिण की दिशा में बना है । लखीकुंडी, दुमका एवं फागूटोला, पाकुड़ में सिदो-कान्हू के नाम पर पार्क बने हुए हैं । 18 अप्रेल 2018 को हजारीबाग के बड़कागांव के उरीमारी में सिदो कान्हु की भव्य प्रतिमा स्थापित की गई हैं, भोगनाडीह साहेबगंज, दुमका सिदो कान्हु यूनिवर्सिटी, जमशेदपुर के भुइयांडीह, चंद्रपुरा इत्यादि झारखण्ड के कई स्थानों पर सिदो कान्हु की प्रतिमा स्थापित है । प्रत्येक वर्ष 30 जून को हूल दिवस के रूप में मनाया जाता है , झारखण्ड सरकार द्वारा इस दिन अवकाश घोषित किया गया है ।

Sunday, 19 April 2020

निलाम्बर पीताम्बर

निलाम्बर पीताम्बर

जन्म : 10 जनवरी 1823
जन्म स्थान: भंडरिया प्रखंड के चेमू-सनेया ग्राम , गढ़वा जिला, झारखण्ड
निधन: 28 मार्च 1859 में फाँसी दी गई
मृत्यु स्थल : लेस्लीगंज , पलामू
पिता : चेमू सिंह 

जीवन परिचय - पीताम्बर साही और नीलाम्बर साही का जन्म झारखंड राज्य के गढवा जिला के चेमो-सनेया गांव में खरवार की उपजाति भोक्ता जाति में हुआ था। इनके पिता चेमू सिंह पराक्रमी जागीरदार थे। उनको व खरवार जाति को शांत रखा जा सके इसलिए अंग्रेजो ने उन्हें दो जागीर दी हुई थी , किन्तु चेमू सिंह का सम्बन्ध अंग्रेज सरकार से सदैव कड़वाहट भरा रहा । यहीं घर से ही दोनोँ भाइयों के मन में अंग्रेजो के विरुद्ध बीज पनपने लगा । नीलाम्बर के किशोरावस्था में पहुँचते-पहुँचते पिता चेमू सिंह की मृत्यु हो गयी थी और नीलाम्बर ने ही पीताम्बर को पाला । कुशाग्रबुद्धि के साथ साथ दोनोँ भाई पराक्रमी वीर एवं गुरिल्ला युद्ध’ में निपुण थे ।

स्वतंत्रता संग्राम में योगदान- 1857 के विद्रोह के समय पीताम्बर रांची में थे, उन्होंने आन्दोलन को नजदीक से देखा और पलामू लौटकर अपने भाई निलाम्बर से देश की स्थिति पर गहन विमर्श किया । निलाम्बर पीताम्बर भाईयों ने पलामू में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह की योजना तैयार की और उसी क्रम में स्थानीय खरवार, चेरो तथा भोगता समुदाय की जनजातियों को बड़े पैमाने पर संगठित किया । दोनोँ भाइयों के नेतृत्व में 21 अक्टूबर 1857 को चैनपुर, शाहपुर तथा लेस्लीगंज स्थित अंग्रेजों के कैंप पर आक्रमण कर दिया गया। इन्होंने नवम्बर, 1857 को ‘राजहरा कोयला कम्पनी’ पर हमला कर दिया, जिसके कारण अंग्रेज़ों को बहुत क्षति पहुँची। इनका संपर्क रांची के प्रमुख क्रांतिकारी ठाकुर विश्वनाथ शाही एवं पांडेय गणपत राय तथा बिहार के बाबू कुंवर सिंह से भी था । जिससे घबराकर कमिश्नर डाल्टन मद्रास इंफेंट्री के 140 सैनिक, रामगढ़ घुड़सवार की छाेटी टुकड़ी तथा कुछ बंदुकचीयो के साथ 16 जनवरी 1858 काे पलामू आ गए एवं इनके आन्दोलन को कुचलने के लिए एडी-चोटी का जोर लगा दिया । परन्तु निलाम्बर पीताम्बर के नेतृत्व में ट्राइबल्स आंदोलनकारियों ने कर्नल डाल्टन जैसे दमनकारी अंग्रेज को छक्के छुड़ा दिए । डाल्टन ने 12 फरवरी काे चेमू-सेनया स्थित नीलांबर-पीतांबर के गढ़ सहित पूरे गांव में लूट-पाट कर सभी घराें काे जला दिया, इनके संपत्ति, मवेशियाें तथा जागीराें काे जब्त कर लिया और लाेहरदगा के तरफ बढ़ गया । जनवरी 1859 में कप्तान नेशन और लेफ्टीनेंट ग्राहम पलामू विद्रोह को दबाने में सक्रिय हो गए , साथ साथ ब्रिगेडियर डाेग्लाज एवं शाहाबाद की सीमा पर कर्नल टर्नर सक्रिय थे । अंग्रेज खरवार एवं चेरवा समुदाय के बीच फूट डालने में सफल रहे, लगातार चौतरफा हमलों से निलाम्बर पीताम्बर की शक्ति घटती चली गयी । जासूसाें की सूचना पर अंगरेजी सेना ने पलामू में आंदाेलन के सूत्रधार नीलांबर-पीतांबर काे एक संबंधी के यहां से गिरफ्तार कर लिया , फिर बिना मुकदमा चलाये ही 28 मार्च 1859 काे लेस्लीगंज में इन्हें सरेआम पहाड़ी गुफा के सामने आम के पेड़ पर फाँसी दे दी गयी ।

सम्मान - वर्ष 2009 में इनके नाम पर झारखण्ड सरकार ने मेदिनीनगर डालटेनगंज में नीलाम्बर-पीताम्बर विश्वविद्यालय की स्थापना की है । झारखंड के रामगढ़ जिले के दुलमी प्रखंड इलाके में आसना टांड माथागोड़ा में , रांची के मोरहाबादी मैदान में , खलारी प्रखण्ड के बड़काटांड ,लातेहार जिला में सदर थाना के कोने गांव एवं अन्य कई स्थानों पर अमर शहीद वीर नीलाम्बर-पीताम्बर की प्रतिमा स्थापित की गई है ।

पंडित रघुनाथ मुर्मू

पंडित रघुनाथ मुर्मू

जन्म: 5 मई 1905
जन्म स्थान: मयूरभंज ज़िले के डांडबूश गाँव, ओड़िशा
निधन: 1 फरवरी 1982
पिता : नंदलाल मुर्मू

जीवन परिचय - पारसी सिञ्ज चांदो (संथाली भाषा के सूरज) ' पंडित रघुनाथ मुर्मू ' संथाली भाषा की लिपि ओल चिकी के जन्मदाता थे ।  प्रो. मार्टिन उराँव ने अपनी पुस्तक ‘दी संताल - ए ट्राईब इन सर्च ऑफ दी ग्रेट ट्रेडिशन’ में ऑलचिकी की प्रशंसा करते हुए उन्हें संतालियों का महान गुरु कह कर संबोधित किया। गुरु गोमके ने भाषा के माध्यम से सांस्कृतिक एकता के लिए लिपि के द्वारा जो आंदोलन चलाया वह ऐतिहासिक है। उन्होंने कहा - "अगर आप अपनी भाषा - संस्कृती , लिपि और धर्म भूल जायेंगे तो आपका अस्तित्व भी ख़त्म हो जाएगा ! " उन्होंने बोडोतोलिया हाई स्कूल में अध्यापन का कार्य किया और 1977 में झाड़ग्राम के बेताकुन्दरीडाही ग्राम में एक संताली विश्वविद्यालय का शिलान्यास किया था । इनकी धर्मपत्नी का नाम नेहा बास्के था । इन्होने 1964 में ' आदिवासी सोशीयो एजुकेशनल एंड कल्चरल एसोशिएसन' आस्का की स्थापना की । इनके बचपन का नाम चुन्नू था, इनकी प्राथमिक शिक्षा अपने गाँव से तीन किलोमीटर की दूरी पर स्थित गम्हरिया यू.पी. स्कूल में और मिडिल स्कूल की पढ़ाई गाँव से 12 किलोमीटर दूर स्थित बहड़दा एम्.ई.स्कूल में हुई । इन्होंने हाई स्कूल की पढ़ाई माराज कृष्णा चंद्र हाई स्कूल , बारीपदा से करते हुए 1928 में द्वितीय श्रेणी से मैट्रिक की परीक्षा पास की। उन्होंने 1929-30 के दौरान कुछ समय के लिए अप्रेंटिस किया और फिर बारीपदा के ही कपड़ा बुनाई के कारखाने में भर्ती हो गए। बाद में औद्योगिक प्रशिक्षण प्राप्त किया और पूर्णचंद्र औद्योगिक प्रशिक्षण केंद्र बारीपदा में बतौर प्रशिक्षक सेवाएं भी दी । 1933 में इन्हे बादाम ताड़िया मॉडल स्कूल में औद्योगिक शिक्षक के रूप में नियुक्त  किया गया, जहाँ अध्यापन कार्य के दौरान स्कूल में ही लकड़ी की छपाई मशीन प्रारम्भ की , जिसे देखकर सभी आश्चर्यचकित हो जाया करते थे , 1939 में बारीपदा की प्रदर्शनी उस लकड़ी की छापा मशीन को प्रदर्शित किया गया तो जितनी प्रशंसा उस मशीन की हुई, उससे ज्यादा प्रशंसा उससे छपे गुरु गोमके के इन शब्दों की हुई -
"जानाम आयोय रेन्गेज रेंहो
ऊनिगेय हाग-राहा
जानाम रोड़ दो निधान रेंहो
ओना तेगे माग-रांग-आ"

हिन्दी में भावार्थ है, “जन्म देने वाली माँ गरीब होने पर भी वही परवरिश करती है। मातृभाषा का निधन होने पर भी उसी से महान बना जा सकता है।"

गुरु गोमके ने रायरंगपुर गवर्नमेंट हाईस्कूल में प्रधान शिक्षक के रूप में भी अपनी सेवाएं दी ।

साहित्यिक परिचय - गुरु गोमके के नाम से प्रसिद्ध पंडित रघुनाथ ने महसूस किया कि उनके समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और परंपरा के साथ ही उनकी भाषा को बनाए रखने और बढ़ावा देने के लिए एक अलग लिपि की जरूरत है । इसलिए उन्होंने संथाली  लिखने के लिए ओल चिकी लिपि की खोज के काम को प्रारम्भ किया जो 1925 में पूर्ण हुआ। ओलचिकी लिपि गढ़ते समय प. रघुनाथ असमंजस में थे कि वर्णों कोे कैसे और किस आधार पर बनाया जाए। उनसे पहले किसी ने संथाली लिखने के लिए कोई आधार तैयार नहीं किया था। ऐसे में उन्होने सबकुछ प्रकृति का सहारा लिया, ट्राइबल्स सदैव से ही प्रकृति के उपासक रहे हैं , वे पेड़-पौधे, नदी-तालाब, धरती-आसमान, आग-पानी का स्मरण करने लगे। पक्षियों की आवाज समझने लगे। घंटों नदी-आग के पास बैठकर चिंतन करने लगे। फिर पहला अक्षर धरती के स्वरूप जैसा ओत-(0) और दूसरा आग पर बनाया, लिपि में 6 स्वर और 24 व्यंजन हैं ।   उपरोक्त लिपि का उपयोग करते हुए उन्होंने 150 से अधिक पुस्तकें लिखीं, जैसे कि व्याकरण, उपन्यास, नाटक, कविता और सांताली में विषयों की एक विस्तृत श्रेणी को कवर किया, जिसमें सांलक समुदाय को सांस्कृतिक रूप से उन्नयन के लिए अपने व्यापक कार्यक्रम के एक हिस्से के रूप में ओल चिकी का उपयोग किया गया। 22 दिसम्बर 2003 को भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूचि में संथाली भाषा को शामिल किए जाने में गुरु गोमके का योगदान अविस्मरणीय रहेगा ।

कृतियाँ - गुरु गोमके की पहली पुस्तक ‘नेल जोंग लागिद ऑल’  का प्रकाशन जमशेदपुर में मुनिराम बास्के की प्रिंटिंग प्रेस में हुआ था ।

उपन्यास - बिदु चंदन
संथाली नाटक - दाड़े गे धोन , खेरवाड़ बीर , सिदो कान्हू संथाल हूल
व्याकरण - रोणोड़
बाल साहित्य - ऑल चेमेद , ऐलखा ,ऑल उपुरुम, पारसी पोहा , पारसी ईतुन, पारसी आपद
धार्मिक पुस्तक - हीताल और बांखेड़
गीत - लाक्चर सेरे्ज और  होड़ सेरेंग
अन्य - खरगोश बीर , दरेज धन, सिद्धु-कान्हू

सम्मान एवं पुरस्कार - बिहार , पश्चिम बंगाल और उड़ीसा सरकार के अलावा, उड़ीसा साहित्य अकादमी सहित कई अन्य संगठनों ने उन्हें सम्मानित किया, रांची विश्वविद्यालय द्वारा माननीय डी लिट की उपाधी से उन्हें सम्मानित किया गया। वर्ष 2017 मेँ ओडिशा सरकार ने इनके नाम पर बारीपदा में पंडित रघुनाथ मुर्मू मेडिकल काँलेज एवं हास्पिटल की स्थापना की है । झारखण्ड के चांडिल स्थित एन०एच०-33 स्थित कान्दरबेड़ा दोमुहानी चौक में, ओड़िशा के मयूरभंज जिले के डांडपोस में प्रस्तावित आदिवासी संस्कृति केन्द्र स्थल पर एवं ओडिशा ट्राइबल डेवेलपमेंट सोसाईटी, भुबनेश्वर में गुरु गोमके की प्रतिमा स्थापित की गई है । रायरंगपुर के डांडबुश-डाहारडीह गांव में पंडित रघुनाथ मुर्मू का समाधि स्थल है । पश्चिम बंगाल राज्य में संथाली भाषा को बढ़ावा देने के लिए राज्य सरकार द्वारा एक त्रिभाषी (संथाली-अंग्रेजी-बंगाली) शब्दकोश प्रकाशित किया गया है।

एक रचना-

सिबिलामाँञ्ज गातेञ्ज सिबिलामा
ओत मुचाद गातेञ्ज सेरमा मुचाद
बिन ईल ते गातेञ्ज ओबोर बुरुय उडाग लेका
बिन जाड़ी ते गाते रोहोड़ गाडा लालेग लेका
सिबिलामाँञ्ज गातेञ्ज सिबिलामा
ओत मुचाद गातेञ्ज सेरमा मुचाद

गहरे और पवित्र प्यार को व्यक्त करने वाली पंक्तियों का हिन्दी अनुवाद-

प्यार करूंगा प्यारी प्यार करूंगा ,
धरती के अंत तक प्यारी आसमान के अंत तक,
बिन पंख के भारी पहाड़ उड़ने के जैसा,
बिन वर्षा के प्यारी सूखी नदी में बाढ़ होने के जैसा।
प्यार करूंगा प्यारी प्यार करूंगा,
धरती के अंत तक प्यारी आसमान के अंत तक।

- संदीप मुरारका

Thursday, 16 April 2020

बिरसा



मुझे एक एफआईआर करनी हैं , मेरी हत्या की एफआईआर !

किन्तु कहाँ करूँ ? किस थाने में करूँ ? राँची के उलिहातू गाँव के थाना में , जहाँ 15 नवम्बर 1875 को मेरा जन्म हुआ या राँची के सर्कुलर रोड थाना में , जहाँ जेल में ही 9 जून 1900 को देह त्याग की थी । 
या झारखण्ड के हर थाना में , क्योंकि मेरी हत्या के आरोपी तो राज्य के हर थाना क्षेत्र में मिलेंगे । 

दर्ज की जाने वाली सनहा में किसके नाम लिखवाऊँ , अंग्रेजो के या अपनों के । क्योंकि अंग्रेजो की जेल में तो सिर्फ मेरे शरीर का अन्त हुआ था, किन्तु मैं जीवित रहा, हर उस क्रन्तिकारी के ह्रदय में एक ज्वाला बन कर जो आजादी के लिए लड़ रहे थे । देश भले ही 1947 में आजाद हो गया, पर हमारा ट्राइबल समुदाय अब भी उत्पीड़ित था । मैं जीवित रहा ‘ऊलगुलान’ बनकर, कभी सूद प्रथा के विरोध में, कभी महाजनों के शोषण के विरुद्ध, कभी खनन के बहाने हमारे जंगलो को छीन लेने के विरुद्ध, कभी रेल तो कभी नहर के बहाने हमारे विस्थापन के विरुद्ध, तो भी मैं एक उम्मीद के भरोसे जीवित रहा कि कभी तो साकार होगा सपना - 'अबुआ: दिशोम रे अबुआ: राज' अर्थात अपने देश में अपना शासन ।

'अबुआ: दिशोम रे अबुआ: राज' 

15 नवम्बर 2000 , अंततः सपना साकार हुआ, अबुआ: राज्य बना 'झारखण्ड' , अबुआ: राज प्रारम्भ हुआ । मुख्यमन्त्री बने बाबूलाल मरांडी एवं नेता प्रतिपक्ष हुए स्टीफेन मरांडी । मैं निश्चित था क्योंकि मार्गदर्शक की भूमिका में जहाँ एक ओर शिबू सोरेन सक्रिय थे तो दूसरी ओर युवा तुर्क नेता के रूप में अर्जुन मुण्डा की पहचान राज्यव्यापी सर्वप्रिय हो रही थी । झारखण्ड के पास कड़िया मुण्डा जैसा गम्भीर चेहरा था वहीं चम्पाई सोरेन जैसे जुझारू आंदोलनकारी । डॉ रामदयाल मुण्डा, सालखन मुर्मू, सूर्य सिंह बेसरा, बागुन सूम्ब्रई, लक्ष्मण टुडू, शिवशंकर उरांव, मेनका सरदार,कोचे मुण्डा, ताला मरांडी,नलिन सोरेन, सुनील सोरेन,थामस सोरेन, थामस हांसदा, सुशीला हांसदा जैसे कई नेता दबे कुचले पिछड़े झारखण्ड व इसके निवासियों का स्वर्णिम भविष्य बनाने की मुहिम में जुट गए । समय के क्रम के साथ एक नया, युवा व सशक्त नेतृत्वकर्ता भी तैयार हुआ हेमन्त सोरेन ।

'मैं कब कब मारा गया ?'

वर्ष 2001- 02 में झारखण्ड का पहला बजट पारित हुआ रुपए 4800.12 करोड़ का , वहीँ 2020- 21 में रुपए 86,370 करोड़ का बजट प्रस्तुत किया गया है , यानि बजट में 18 गुणा की वृद्धि । यदि विधानसभा स्तर पर देखा जाए तो प्रति विधानसभा क्षेत्र लगभग 1000 करोड़ रुपए का प्रावधान, यदि जिलावार देखा जाए तो लगभग 3500 करोड़ प्रति जिला खर्च की तैयारी ।
इसके बावजूद मेरे लोगों के लिए स्कूल हो या अस्पताल , दोनोँ ही उनकी पहुँच से दूर हैं । तब मुझे लगता है कि अब मैं मारा गया ।

झारखण्ड का क्षेत्रफल 79714 वर्ग किलोमीटर है ,यानि प्रति वर्ग किलोमीटर के विकास के लिए 1 करोड़ रुपए से ज्यादा का बजट है । उसके बावजूद केवल शिकायत और समस्याएँ । ये आंकड़े देखकर मुझे लगता है कि अब मैं मारा गया ।

वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार झारखण्ड की कूल जनसंख्या 2,69,45,829 थी, उसमें ट्राइबल्स की संख्या थी 70,87,068 यानि 26.31% वहीँ वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार झारखण्ड की जनसंख्या 3,29,88,134 थी , जिसमें अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या 86,45,042 यानि 26.2% है ।

लेकिन वर्ष 2001 में 3317 गाँव ऐसे थे जहाँ 100% ट्राइबल्स थे, वर्ष 2011 में ऐसे गाँव घटकर मात्र 2451 रह गए ।* लोग कहते हैं कि गाँव के लोगों का पलायन शहर की ओर हो रहा है तो फिर ट्राईबल्स गाँव में बसने कौन लोग आ रहे हैं कि हमारे गाँवो में हमारी ही उपस्थिति घटती जा रही है । आंकड़े देखकर मुझे लगता है कि अब मैं मारा गया ।

23 अप्रेल 2010 को देश की संसद में अर्जुन मुण्डा की स्पीच चल रही थी, मैं सुन रहा था, उन्होने बताया कि झारखण्ड में बिछ रही रेलवे लाईन के लिए एक ट्राइबल महिला मंगरी देवी, जिला रामगढ़, अंचल पतरातू , मौजा चिट्टो, हलका संख्या 7, थाना संख्या 0067, खाता संख्या 45, रकबा एक एकड़ तेरह डिसिमल (1.13 एकड़) भूमि का अधिग्रहण किया जा रहा है और मुआवजे के तौर पर उस विधवा ट्राइबल महिला को मात्र रुपए 1848/- दिए जा रहे हैं यानि मात्र 16.35 प्रति डिसिमल यानि मात्र 4 पैसे प्रति वर्ग फुट ! एक ट्राइबल की पुश्तैनी जमीन का वर्ष 2010 में यह मुआवजा, सुनते ही मुझे लगा कि अब मैं मारा गया ।

कवि वामन शलाके ने ठीक ही लिखा है - 
‘सच्चा आदिवासी कटी पतंग की तरह भटक रहा है।
कहते हैं हमारा देश इक्कीसवीं सदी की ओर बढ़ रहा है॥ '

'संघर्ष की कहानी'

हर ट्राइबल का एक मौलिक अधिकार था कि हमारी महिलाएँ वन से महुआ के फूल, तेंदू के पत्ते, घर के लिए लकड़ी या मधु लाती थीं, जो आज अपराध हो गया ।

अंग्रेजो ने वनों के वाणिज्यिक महत्व को पहचानते हुए उनका उपयोग राजस्व बढ़ाने के लिए करना शुरू किया। इस प्रक्रिया में उन्होंने ट्राईबल्स के वनाधिकारों को सीमित करने के बारे में नियम बनाने का प्रयास भी किया।
1855 में वनवासियों के अधिकारों को सीमित करने सम्बन्धी मार्ग-निर्देशों वाला एक ज्ञापन जारी किया गया। 1865 में पहली बार वनों के संरक्षण और प्रबन्धन के नियमों को लागू करने का आदेश जारी किया गया, इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य वनों पर सरकारी नियन्त्रण कायम करना था। पुनः व्यापक अधिनियम- भारतीय वन अधिनियम-1878 में जारी किया गया। इसमें वनों को तीन वर्गों में विभाजित किया गया था- (1) आरक्षित वन, (2) संरक्षित वन, और (3) ग्रामीण वन। आरक्षित वनों में अनधिकृत प्रवेश और पशुओं का चरना प्रतिबन्धित था । इस कानूनों के कारण भारत की कुल वनभूमि का 97 प्रतिशत क्षेत्र सरकार के अधिकार में आ गया जिसकी वजह से ट्राइबल्स का वनों में प्रवेश सीमित हो गया। जबकि हमारे लिए वन ही जीवनयापन का मुख्य साधन था । हमारा जंगल- हम जंगल के, हमारी भूमि- हम उस भूमि के पुत्र और हमलोगों पर ही प्रतिबंध ! एक ओर शासक के रूप में अंग्रेजो का कानून दूसरी ओर जमींदारों द्वारा बढ़ता शोषण ।

मराठी भाषा के प्रसिद्ध ट्राइबल कवि भुजंग मेश्राम अपनी कविता में मेरा आहवान करते हैं- 

बिरसा तुम्हें कहीं से भी
कभी भी
आना होगा ।
घास काटती दरांती हो या
लकड़ी काटती कुल्हाड़ी
खेत- खलिहान की मजदूरी से
दिशा - दिशाओं से
गैलरी में लाए गए
गोटुली रंग से
कारीगर की भट्टी से
यहां से वहां से
पूरब से
पश्चिम से
उत्तर से
दक्षिण से
कहीं से भी आ मेरे बिरसा
खेतों का हरा भरा बयार बनकर
लोग तेरी ही बाट जोहते.......

अब मैं अपने प्रिय कवि भुजंग को क्या बतलाऊं कि मैं गया कब था, जो आऊँगा । ट्राइबल का हर उलगुलान मैं ही तो हूँ । वर्ष 1895 में छोटानागपुर के सभी ट्राइबल जंगल पर दावेदारी के लिए गोलबंद हुए तो अंग्रेजी सरकार के पांव उखड़ने लगे। महाजन, जमींदार और सामंत उलगुलान के भय से कांपने लगे।

अंग्रेज सरकार ने मेरे उलगुलान को दबाने की हर संभव प्रयास किया , लेकिन हम ट्राइबल्स के गुरिल्ला युद्ध के समक्ष अंग्रेज असफल रहे। मेरा एक ही लक्ष्य था - “महारानी राज तुंदु जाना ओरो अबुआ राज एते जाना” यानी कि ‘ ब्रिटिश महारानी का राज खत्म हो और हमारा राज स्थापित हो’। 

अंग्रेजो के खिलाफ हमारा संघर्ष जारी रहा, 1897 में मैने तीर कमानों से लैस चार सौ ट्राइबल वीरों के साथ खूँटी थाने पर धावा बोल दिया। 1898 में तांगा नदी के किनारे हमारी भिड़ंत अंग्रेज सेना से हुई , हमारी जीत भी हुई लेकिन हमारे कई साथियों की गिरफ़्तारियां हो गई । 

मुझे सबसे ज्यादा अफसोस 25 जनवरी 1900 में उलिहातू के समीप डोमबाड़ी पहाड़ी पर घटी एक घटना का रहा, जब अंग्रेजो और सूदखोरों के विरुद्ध आयोजित एक जनसभा में मेरे ट्राइबल्स भाई बहन एकत्रित थे ,संयोगवश मेरा ही सम्बोधन चल रहा था कि अचानक अंग्रेज सैनिकों ने हमला कर दिया, दोनोँ पक्षों मे जमकर संघर्ष हुआ, मेरे साथियों के हाथों में तीर धनुष, भाला, कुल्हाड़ी, टंगीया इत्यादि थे, परन्तु दुश्मन की बंदूक-तोप का सामना हमारे पारंपरिक हथियार भला कब तक कर पाते, अंततः लगभग 400 लोग मारे गए, जिनमें औरतें और बच्चे भी थे । कई साथी गिरफ्तार कर लिए गए । मेरी गिरफ्तारी का वारंट जारी हो गया, मुझपर रुपए 500/- इनाम घोषित हुआ ।

'मृत्यु या हत्या '

अकोला के शिवकवि लिखते हैं - 

अंग्रेजो के विरुद्ध "बिरसा" 
तीर कमान को थाम कर।
देश के दुश्मन को ललकारा 
ऊसने सीना तानकर।। 
झुका नही वह बिका नही, 
लडा वह दिल तुफानकर।
अन्याय से कभी डरा नही,
मृत्यु को समीप जानकर।। 

मैं छिपते छिपाते अपने लोगों से मिलते मिलाते उलगुलान का प्रसार प्रचार करते हुए चक्रधरपुर पहुँचा, तारीख थी 3 मार्च 1900, अगली रणनीति पर चर्चा चल रही थी, रात हो चली थी, हमलोगों ने 'जम्कोपाई' जंगल में रात बिताने का निर्णय लिया, देर रात जब हमलोग सो रहे थे, किसी अपने ने ही धोखा किया, मुझे मेरे 460 साथियों के साथ गिरफ्तार कर लिया गया, य़ा यूँ कहूँ कि करवा दिया गया । कवि बालगंगाधर बागी ने ठीक ही लिखा- 

सोना-चाँदी जवारात अंग्रेजों ने कैसे लूट लिये,
देश के जमींदारों ने पिछड़ों की ज़मीनें छीन लिये,
अपने ही देशवासी को, दलित अछूत कहते थे,
बेगारी में खटा-खटा के गुलाम बनाये रखते थे ।

लाचार बरसती आंखों से, शबनम व चिन्गारी थी
जिन्दा जलते लोगों में आवाज दबी एक भारी थी

'पर अपने भी गद्दार हुए, घर ऐसे ही बबार्द हुए',
उठते हुए मकान गिरे कुछ जिन्दा जल श्मशान हुए,
गांव-गांव और शहर-शहर, घर लोगों के बीरान हुये,
इसलिए तड़पते हालत पर लोगों ने हाथ कमान लिये।

बूढ़े बच्चे व नर-नारी, सबने ही तीर चलाई थी,
अंग्रेजी जमींदारी विरुद्ध लंबी लड़ी लड़ाई थी,
आज वो अफसाना इतिहास का फसाना है,
बिरसा मुण्डा का गुजरा वो ज़माना है ॥

मुझे खाट सहित बांध दिया गया था, भोर हो चली थी, हमें बंदगांव लाया गया, वहाँ अंग्रेज सैनिकों की टुकड़ी कई वाहनों के साथ तैयार थी, सड़क के दोनोँ ओर सैकड़ो ट्राइबल्स एकत्रित हो गए, परन्तु अंग्रेज हथियारबन्द थे, हमारे लोग निहत्थे व आवाक । हमें राँची जेल ले जाया जा रहा था, उस वक्त अपने उलगुलान को जिन्दा रखने के लिए मैने जो शब्द कहे, उन्हे कागज पर उकेरा "अश्विन कुमार पंकज" ने -  “मैं तुम्हें अपने शब्द दिये जा रहा हूं, उसे फेंक मत देना, अपने घर या आंगन में उसे संजोकर रखना। मेरा कहा कभी नहीं मरेगा। उलगुलान ! उलगुलान! और ये शब्द मिटाए न जा सकेंगे। ये बढ़ते जाएंगे। बरसात में बढ़ने वाले घास की तरह बढ़ेंगे। तुम सब कभी हिम्मत मत हारना। उलगुलान जारी है।”

अदालत में बैरिस्टर जैकब की बहस काम ना आई, मुझे सजा हो गई, मैं जेल की दीवारों में कैद था, किन्तु उन दीवारों के पहरेदार भयभीत थे, मुझसे मेरी अंतिम इच्छा भी नहीं पूछी गई, 9 जून 1900 को मेरे शरीर का अन्त हुआ, सरकारी फाईलों में हैजे से, मेरे लोगों ने जाना जहर से, किन्तु मैं आज भी जीवित हूँ । इसीलिए साहित्यकार हरीराम मीणा ने लिखा- 
" मैं केवल देह नहीं 
मैं जंगल का पुश्तैनी दावेदार हूँ,
पुश्तें और उनके दावे मरते नहीं
मैं भी मर नहीं सकता,
मुझे कोई भी जंगलों से बेदखल नहीं कर सकता ।
उलगुलान !
उलगुलान !!
उलगुलान !!! ’’

संसद के केंद्रीय हॉल में 16 अक्टूबर 1989 को मेरे चित्र का अनावरण तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष बलराम जाखड़ ने किया। मेरे जन्मदिन 15 नवंबर 1989 को तोहफे के रूप में मुझ पर डाकटिकट जारी की गई । दिनांक 28 अगस्त 1998 को संसद परिसर में मूर्तिकार बी सी मोहंती द्वारा निर्मित 14 फीट की मेरी प्रतिमा का अनावरण राष्ट्रपति के आर नारायणन ने किया। 1 अप्रेल 2017 को गुजरात के नर्मदा जिले में बिरसा मुण्डा ट्राइबल यूनिवर्सिटी की स्थापना की गई है , वहीँ राँची में बिरसा कृषि विश्वविद्यालय की स्थापना 26 जून 1981 को की गयी थी ।

किन्तु अब मैं चाहता हूँ कि मेरी हत्या की फाईल फिर खुले, मेरे हत्यारों पर एफआईआर हो, मेरा केस फिर सुना जाए, मैं यानि ट्राइबल, मैं यानि झारखण्ड का मूलवासी, मैं यानि हर वो महिला या पुरुष जो अबुआ राज में शोषित है । जंगल से बेदखल हर बिरसा के हत्यारों को खोजो, खोजो उन सात मुंडाओं को जिन्होने 500 रुपए के लालच में मुझे पकड़वाया, वैसे सात लालची स्वार्थी आज भी हर गाँव में रहते हैं, हर थाना क्षेत्र में मेरी हत्या के वैसे सात अपराधियो पर केस दायर हों । और सजा में उन्हे जेल मत भेजो, उन्हें 'बिरसा मार्ग' दिखलाओ । कवि सूरज कुमार बौद्ध के शब्दों को उन्हें समझाओ- 

हे धरती आबा/तुम याद आते हो/खनिज धातुओं के मोह में/राज्य पोषित ताकतें/हमारी बस्तियां जलाकर/अपना घर बसा रहे हैं/मगर हम लड़ रहे हैं/केकड़े की तरह इन बगुलों के/गर्दन को दबोचे हुए/लेकिन इन बगुलों पर/बाजों का क्षत्रप है/आज जंगल हुआ सुना/आकाश निःशब्द चुप है/माटी के लूट पर संथाल विद्रोह/खासी, खामती, कोल विद्रोह/नागा, मुंडा, भील विद्रोह/इतिहास के कोने में कहीं सिमटा पड़ा है/धन, धरती, धर्म पर लूट मचाती धाक/हमें मूक कर देना चाहती है/और हमारे नाचते गाते/हंसते खेलते खाते कमाते/जीवन को कल कारखानों/उद्योग बांध खदानों/में तब्दील कर दिया है/शोषक हमारे खून को ईंधन बनाकर/अपना इंजन चला रहे हैं/धरती आबा/आज के सामंती ताकतें/जल जंगल पर ही नहीं/जीवन पर भी झपटते हैं/इधर निहत्थों का जमावड़ा/उधर वो बंदूक ताने खड़ा/मगर हमारे नस में स्वाभिमान है/भीरू गरज नहीं उलगुलान है/लड़ाई धन- धरती तक/सिमटकर कैद नहीं है//हमारे सरजमीं की लड़ाई/शिक्षा, स्वास्थ्य, संस्कृति/मान, सम्मान, प्रकृति../संरक्षण के पक्ष में है//ताकि जनसामान्य की/जनसत्ता कायम हो/अबुआ दिशुम अबुआ राज की/अधिसत्ता कायम हो ॥

संदीप मुरारका
दिनांक 17 अप्रेल' 2020 शुक्रवार
वैशाख कृष्णा दशमी विक्रम संवत् २०७७

*SOURCE - Statistical Profile of scheduled Tribes in India 2013 , Ministry of Tribal Affairs, Statistics Division,GOI


Sunday, 12 April 2020

शिखर को छूते ट्राइबल्स



मुण्डा , संथाल , बीरहोर, उराँव, हो - ये झारखण्ड की जनजातियाँ नहीं बल्कि यहाँ की संस्कृति हैं । उसी प्रकार अण्डमान एवं निकोबार द्वीपसमूह में "जारवा" जनजाति , आंध्र प्रदेश में "चेंचू" जनजाति , मध्य प्रदेश के "कामर" , "भील" एवं "बाईगा" , गुजरात के "कोकना" "टोडिया" , छत्तीसगढ़ में "कोरकू" , "पहाड़ी कोरवा" , "माड़िया", "बीसोन होर्न माड़िया " एवं "अबूझ माड़िया" ,महाराष्ट्र के "गोंड" , "ठाकर " एवं "वारली" , कर्नाटक में "कोलीधर" , ओड़िसा में "बोण्डा" , राजस्थान में "मीणा" "गरासिया" "सहरिया" , केरल में "पनियान" , अरुणाचल प्रदेश में "जिन्गपो लोग", असम में "देओरी लोग" इत्यादि इत्यादि नाम से भारत के हर कोने में ट्राइबल बसे हुए हैं । राँची का एयरपोर्ट बिरसा मुण्डा के नाम पर है तो स्टेडियम जयपाल सिँह मुण्डा के नाम पर । दुमका में सिद्धू कान्हू के नाम पर यूनिवर्सिटी है तो डाल्टनगंज में नीलांबर-पीताम्बर के नाम पर वहीँ बिरसा कृषि विश्वविद्यालय (बीएयू) के तहत दुमका में फूला-झानो डेयरी टेक्नोलाॅजी काॅलेज संचालित है ।

सीमित संसाधनों का उपभोग करने वाले ट्राइबल असीमित क्षमता के धनी हैं । स्वतंत्रता की लड़ाई से लेकर आज तक विभिन्न क्षेत्रो में ट्राइबल्स का अविस्मरणीय योगदान रहा है । आजादी के बाद जब भारत के सबसे विवादास्पद *कश्मीर मुद्दे* में जब एक नया मोड़ आया तो उस वक्त एक ट्राइबल को ही महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपी गई । दिनांक 31 अक्टूबर 2019 को केंद्र शासित प्रदेश जम्मू कश्मीर के पहले लेफ्टिनेंट गवर्नर के रूप में गिरीश चंद्र मुर्मू को नियुक्त किया गया । मयूरभंज ओड़िसा में जन्में गिरीश चंद्र मुर्मू 1985 बैच के भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी हैं । नरेन्द्र मोदी जब गुजरात के सीएम हुआ करते थे तो मुर्मू उनके प्रमुख सचिव थे। बाद में वो वित्त मंत्रालय दिल्ली में व्यय विभाग के सचिव पद पर भी आसीन रहे । 

वहीं श्रीमती द्रौपदी मुर्मू  झारखण्ड की प्रथम महिला राज्यपाल हैं, इनकी नियुक्ति 18 मई 2015 को हुई थी , इसके पूर्व वो ओडिशा विधानसभा में रायरंगपुर से विधायक तथा राज्य सरकार में मंत्री भी रह चुकी हैं । 

'पद्मश्री'

वर्ष 2020 की सूची में एक नाम है कर्नाटक की 72 वर्षीय पर्यावरणविद् और ‘जंगलों की एनसाइक्लोपीडिया’ के रूप में प्रख्यात तुलसी गौड़ा का, 
जो एक आम ट्राइबल महिला हैं, ये कर्नाटक के होनाल्ली गांव में रहती हैं औऱ पिछले 60 वर्षो में एक लाख से भी अधिक पौधे लगा चुकी हैं।

ट्राइबल समुदाय से संबंध रखने के कारण पर्यावरण संरक्षण का भाव उन्हें विरासत में मिला । दरअसल धरती पर मौजूद जैव-विविधता को संजोने में ट्राइबल्स की प्रमुख भूमिका रही है। ये सदियों से प्रकृति की रक्षा करते हुए उसके साथ साहचर्य स्थापित कर जीवन जीते आए हैं। जन्म से ही प्रकृति प्रेमी ट्राइबल लालच से इतर प्राकृतिक उपदानों का उपभोग करने के साथ उसकी रक्षा भी करते हैं। ट्राइबल्स की संस्कृति और पर्व-त्योहारों का पर्यावरण से घनिष्ट संबंध रहा है। यही वजह है कि जंगलों पर आश्रित होने के बावजूद पर्यावरण संरक्षण के लिए ट्राइबल सदैव तत्पर रहते हैं। ट्राइबल समाज में ‘जल, जंगल और जीवन’ को बचाने की संस्कृति आज भी विद्यमान है । 

हल्दी की खेती संबंधी मुहिम चलाने वाले मेघालय की ट्राइबल महिला किसान 'ट्रिनिटि साइऊ' को उनके द्बारा की जा रही हर्बल खेती व प्रशिक्षण के लिए पद्मश्री से सम्मानित किया गया , इनके साथ मुलीहा गाँव की लगभग 800 महिलाएँ औऱ उनके 98 सेल्फ हेल्प ग्रुप जुड़े हुए हैं । 

संथाली भाषा की साहित्यकार एवं कवि 'डॉ. दमयंती बेसरा' को साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में पद्मश्री से पुरस्कृत किया गया , इन्होंने संथाली भाषा में पहली पत्रिका 'करम धर' का प्रकाशन किया । इन्हें साहित्य अकादमी से भी पुरस्कृत किया जा चुका है । 

वर्ष 2019 झारखण्ड के पूर्वी सिंहभूम जिले के चाकुलिया प्रखंड की रहनेवाली 'जमुना टुडू ' को पर्यावरण के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए सम्मानित किया गया , लेडी टार्जन के नाम से लोकप्रिय जमुना ने पेड़ों को माफियाओं से बचाना शुरू किया. साथ ही नये पौधे भी लगाने शुरु किये । जमुना की इस लगन को देखकर आसपास के गांवों की महिलाएं जंगल बचाने की उनकी मुहिम में उनके साथ जुड़ती चली गईं । जमुना ने इन महिलाओं को लेकर वन सुरक्षा समिति का गठन किया। आज चाकुलिया प्रखंड में ऐसे तीन सौ से ज्यादा समितियां हैं । हर समिति में शामिल 30 महिलाएं अपने-अपने क्षेत्रों में वनों की रखवाली लाठी-डंडे और तीर-धनुष के साथ करती हैं । 

ओडिशा के क्योंझर जिले के खनिज संपन्न तालबैतरणी गांव के रहने वाले ट्राइबल किसान 'दैतारी नायक' ने सिंचाई के लिए 2010 से 2013 के बीच अकेले ही गोनासिका का पहाड़ खोदकर तीन किलोमीटर लंबी नहर बना दी थी । इस नहर से अब 100 एकड़ जमीन की सिंचाई होती है । केनाल मैन के नाम से लोकप्रिय नायक को उनके द्बारा एक कुदाल और बरमा के सहारे पहाड़ में तीन किलोमीटर लंबी नहर खोद डाली , समाज के सामने प्रस्तुत इस अप्रतिम उदहारण के लिए नायक को पद्मश्री सम्मान दिया गया । 

ओडिशा के कोरापुट जिले में जन्मीं 'कमला पुजारी' को पारंपरिक धान के बीज के लिए पद्मश्री से सम्मानित किया गया। कमला विलुप्त प्रजाति के धान की किस्म की सुरक्षा के क्षेत्र में कई वर्षों से काम करती आई हैं। अनपढ़ होने के बावजूद कमला पुजारी ने धान के विभिन्न किस्म के संरक्षण को लेकर अपनी अलग पहचान बनाई है। पुजारी ने लुप्तप्राय और दुर्लभ प्रकार के 100 से ज्यादा बीज जैसे धान, हल्दी, तिल्ली, काला जीरा, महाकांता, फूला , घेंटिया आदि एकत्र किए हैं।

वर्ष 2018 में झारखण्ड जमशेदपुर के संथाली भाषा के विद्वान ' प्रो. दिगम्बर हांसदा' को साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया गया । उन्होंने भारतीय संविधान का संथाली भाषा में अनुवाद करने के साथ ही कई पुस्तकें भी लिखीं । ट्राईबल्स और उनकी भाषा के उत्थान के क्षेत्र में प्रोफेसर हांसदा का महत्वपूर्ण योगदान है। वे केन्द्र सरकार के ट्राईबल अनुसंधान संस्थान के सदस्य रहे और उन्होंने सिलेबस की कई पुस्तकों का देवनागरी से संथाली में अनुवाद किया। उन्होंने इंटरमीडिएट, स्नातक और स्नातकोत्तर के लिए संथाली भाषा का कोर्स संग्रहित किया। इनकी प्रमुख पुस्तकें हैं सरना गद्य-पद्य संग्रह, संथाली लोककथा संग्रह, भारोतेर लौकिक देव देवी, गंगमाला आदि। प्रो. हांसदा लालबहादुर शास्त्री मेमोरियल कॉलेज के प्राचार्य एवं कोल्हान विश्वविद्यालय के सिंडिकेट सदस्य भी रहे ।  

केरल के तिरुवनंतपुरम में कलार जंगलों में रहने वाली ट्राइबल महिला 'लक्ष्मीकुट्टी' को पारम्परिक दवाइयों के क्षेत्र में सराहनीय कार्य के लिए पद्मश्री से सम्मानित किया गया। जंगल की दादी के नाम से लोकप्रिय लक्ष्मीकुट्टी को सांप काटने के बाद उपयोग की जाने वाली दवाई बनाने में महारत हासिल है । 

अपनी कृतियों के लिए दुनियाभर में ख्याति अर्जित कर चुके ' भज्जू श्याम' मध्यप्रदेश के जबलपुर के पास पाटनगढ़ गांव के निवासी हैं। गोंड कलाकार भज्जू श्याम की पेंटिंग की दुनिया में अलग ही पहचान बनी है। गरीब ट्राइबल परिवार में जन्म भज्जू श्याम ने अपने संघर्ष के दिनों में सिक्योरिटी गार्ड व इलेक्ट्रिशियन की नौकरी भी की है। अपनी गोंड पेंटिंग के जरिए भज्जू यूरोप में भी प्रसिद्धी हासिल कर चुके हैं। उनके कई चित्र किताब का रुप ले चुके हैं। 'द लंदन जंगल बुक' की 30000 कॉपी बिकी और यह 5 विदेशी भाषाओं में छप चुकी है। इन किताबों को भारत और कई देशों (नीदरलैंड, जर्मनी, इंग्लैंड, इटली, कर्जिस्तान और फ्रांस) में प्रदर्शित व पसंद किया गया है। 

वर्ष 2017 में झारखण्ड के सिमडेगा जिले के बोब्बा गाँव में जन्में 'मुकुंद नायक' को कला एवं संगीत के क्षेत्र में पद्मश्री से सम्मानित किया गया । वे एक लोक गायक, गीतकार और नर्तक हैं । मुकुंद नागपुरी लोक नृत्य झुमइर का प्रतिपादक हैं। इन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है । 

वर्ष 2016 में झारखण्ड के जल पुरुष के नाम से लोकप्रिय 'राजा सोमेन उराँव मिंज' उर्फ सोमेन बाबा को जल संरक्षण, वन रक्षा और पर्यावरण संरक्षण के लिए किए गए उनके अतुलनीय योगदान के लिए सम्मान दिया गया । राँची के बेड़ो प्रखण्ड में जन्में सिमोन ने साठ के दशक में बांध बनाने का अभियान जोरदार ढंग से चलाया। उन्होंने सबसे पहले नरपतरा में बांध बनाया, दूसरा बांध अंतबलु में और तीसरा बांध खरवागढ़ा में बनाया। आज इन्हीं बांधों से करीब 5000 फीट लंबी नहर निकालकर खेतों तक पानी पहुंचाया जा रहा है ।   सिमोन बाबा कहते हैं अगर विकास करना है तो आदमी से नहीं, जमीन से लड़ो, उसपर अन्न का कारखाना तैयार करो । अगर विनाश करना है तो आदमी से लड़ो। 

वर्ष 2010 में पद्मश्री सम्मान से पुरस्कृत 'डॉ रामदयाल मुंडा'  न सिर्फ एक अंतरराष्ट्रीय स्तर के भाषाविद्, समाजशास्त्री और आदिवासी बुद्धिजीवी और साहित्यकार थे, बल्कि वे एक अप्रतिम आदिवासी कलाकार भी थे। उन्होंने मुंडारी, नागपुरी, पंचपरगनिया, हिंदी, अंग्रेजी में गीत-कविताओं के अलावा गद्य साहित्य रचा है। उनकी संगीत रचनाएं बहुत लोकप्रिय हुई हैं और झारखंड की ट्राईबल्स लोक कला, विशेषकर ‘पाइका नाच’ को वैश्विक पहचान दिलाई है। वे भारत के दलित-ट्राइबल और दबे-कुचले समाज के स्वाभिमान थे और प्रत्येक वर्ष 9 अगस्त को "वर्ल्ड ट्राइबल डे" मनाने की परंपरा शुरू करने में उनका अहम योगदान रहा है। रामदयाल मुंडा भारत के एक प्रमुख बौद्धिक और सांस्कृतिक शख्सियत थे। ट्राइबल्स के अधिकारों की आवाज उन्होंने रांची, पटना और दिल्ली के साथ यूएनओ में उठाई। उन्होंने पूरी दुनिया के ट्राइबल समुदायों को संगठित किया और झारखंड के जमीनी सांस्कृतिक आंदोलनों को नेतृत्व दिया। 2007 में उन्हें संगीत नाटक अकादमी का सम्मान मिला तो वर्ष 2010 में वह राज्यसभा के सदस्य भी बने , डॉ मुण्डा रांची विश्वविद्यालय के कुलपति भी रहे। 30 सितंबर 2011 को कैंसर से उनका निधन हो गया। 

वर्ष 2001 में उड़ीसा की प्रख्यात सामाजिक कार्यकर्ता 'तुलसी मुण्डा' को पद्मश्री से सम्मानित किया गया था।तुलसी मुण्डा ने ट्राईबल्स के बीच साक्षरता के प्रसार के लिए उल्लेखनीय कार्य किए । मुंडा ने उड़ीसा के खनन क्षेत्र में एक विद्यालय स्थापित कर सैकड़ों ट्राईबल्स बच्चों को शोषित दैनिक श्रमिक बनने से बचाया है। जबकि स्वयं उन्होंने इन खानों में मजदूर के रूप में काम किया । ' तुलसीपा' वंचितों के बीच साक्षरता फैलाने के लिए अपने मिशन के लिए जानी जाती हैं। विनोबा भावे से प्रभावित अविवाहित तुलसीपा का कर्मक्षेत्र लौह अयस्क खानों के लिए प्रसिद्ध जोड़ा से लगभग 7 किमी दूर सारंडा जंगल के आस पास है । 

भागलपुर के बांका जिला के बांसी गाँव में जन्में 'चीत्तु टुडू' को कला के क्षेत्र में वर्ष 1992 में पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया । टुडू बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे , साहित्यकार , नर्तक , गायक , वादक , समाज सुधारक औऱ इन सबसे बढ़कर एक महान इंसान । संथाली लोक गीतों का संग्रह 'जवांय धुती' उनकी महत्वपूर्ण कृति है । उन्होंने कई जीवनियों एवं नाटकों का अनुवाद संथाली में किया । टुडू नई दिल्ली स्थित नृत्य कला अकादमी के सदस्य भी रहे , इन्होंने अपने पैतृक गाँव में विद्यालय निर्माण हेतू दो एकड़ भूमि दान की । 

पद्मश्री की सूची वैसे नामों के बिना अधूरी है जिन्होंने गैर ट्राइबल होते हुए ट्राइबल हित में उल्लेखनीय कार्य किए यथा झारखण्ड के अशोक भगत , छत्तीसगढ़ के दामोदर गणेश बापट , मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले के गांधी कहे जाने वाले महेश शर्मा, छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले के धर्मपाल सैनी उर्फ ताऊजी, महाराष्ट्र के मराठी चित्रकार एवं कलाकार जिव्या सोमा मशे , वर्ष 2005 झारखंड के मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा की पत्नी मीरा मुंडा द्बारा खरसावां में स्थापित अर्जुन आर्चरी अकादमी ज्वाइन कर अपना कैरियर प्रारम्भ करने वाली अन्तराष्ट्रीय तीरंदाज दीपिका कुमारी , ओडिशा से राज्यसभा सांसद व हॉकी खिलाड़ी दिलीप तिर्की एवं इग्नेस तिर्की , सुषमा स्वराज की किडनी ट्रांसप्लांट करने वाले सर्जन व ट्राईबल बहुल क्षेत्र सुंदरगढ़ ओड़िसा में जन्में डॉ मुकुट मिंज , 1963 में समाजसेवा के लिए सम्मानित देव जॉयल लकड़ा इत्यादि । 

पद्म भूषण सम्मान 

देश में बहुमूल्य योगदान के लिये भारत सरकार द्वारा दिया जाने वाला तीसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म भूषण है । पंद्रहवी लोकसभा के उपसभापति व आठो बार खूँटी से सांसद रहे 'कड़िया मुण्डा' को वर्ष 2019 में सार्वजनिक मामलों में उल्लेखनीय कार्य के लिए पद्मभूषण सम्मान प्रदान किया गया । लोकप्रिय सांसद मुण्डा जी तीन बार केन्द्र सरकार में मन्त्री भी रहे , 1977 में मोरारजी देसाई की सरकार में भी इस्पात मंत्रालय में राज्य मन्त्री थे । झारखण्ड ही नहीं पूरे भारत की राजनीति में कड़िया मुण्डा जैसे सादगी पसन्द व ईमानदार नेता बिरले ही हैं । कड़िया मुण्डा झारखंड के पहले राजनेता हैं जिन्हें पद्म सम्मान प्राप्त हुआ है । इन्हीं की लोकसभा सीट से वर्तमान में अर्जुन मुण्डा सांसद चुने गए हैं । 

'खेल'

आईए कुछ खेल की बात करें , वर्ष 1903 में झारखण्ड के छोटानागपुर में जन्में जयपाल सिंह मुंडा हॉकी के अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी थे , जिनकी कप्तानी में 1928 के ओलिंपिक में भारत ने पहला स्वर्ण पदक प्राप्त किया।मुण्डा ट्राइबल्स और झारखंड आंदोलन के एक सर्वोच्च नेता थे। वे एक जाने माने राजनीतिज्ञ, पत्रकार, लेखक, संपादक, शिक्षाविद् और ‘ऑक्सफोर्ड ब्लू’ का खिताब पाने वाले पहले ट्राइबल थे । इनके जीवन पर अश्विनी कुमार पंकज ने 'मरङ गोमके जयपाल सिंह मुंडा' नामक पुस्तक लिखी । खेल के अलावा जयपाल सिंह मुंडा ने जिस ट्राइबल दर्शन और राजनीति को, झारखंड आंदोलन को अपने वक्तव्यों, सांगठनिक कौशल और रणनीतियों से राजनीति और समाज में स्थापित किया, वह भारतीय इतिहास और राजनीति में अप्रतिम है । 

झारखंड के सिमडेगा जिले के कसिरा बलियाजोर गांव की बेटी और भारतीय महिला हॉकी टीम की पूर्व कप्तान 'सुमराई टेटे' ध्यानचंद लाइफ टाइम अवार्ड पानेवाली देश की पहली महिला हॉकी खिलाड़ी हैं । सुमराई टेटे ने लगभग एक दशक तक भारतीय महिला हॉकी टीम का प्रतिनिधित्व किया । वर्ष 2002 में टेटे की कप्तानी में भारतीय महिला हॉकी टीम ने मैनचेस्टर कॉमनवेल्थ गेम्स में स्वर्ण जीती थी । उनके नेतृत्व में भारतीय टीम ने कई अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट जीते । सुमराई ने भारतीय हॉकी टीम में सहायक प्रशक्षिक की भूमिका भी निभायी । 

झारखण्ड के सरायकेला खरसांवां जिले के राजनगर प्रखंड के पहाड़पुर गांव की मूल निवासी विनीता सोरेन दुनिया के सबसे ऊँचे पर्वत शिखर एवरेस्ट फतह करने वाली पहली ट्राइबल युवती है । इको एवरेस्ट स्प्रिंग 2012 अभियान के तहत विनीता अपने दो साथियों क्रमश: मेघलाल और राजेंद्र :के साथ 20 मार्च 2012 को जमशेदपुर से अभियान की शुरुआत की। 26 मई 2012 को सुबह 6 बजकर 50 मिनट पर विनीता ने एवरेस्ट के शिखर पर तिरंगा फहराया । 

मणिपुर के चुराचांदपुर जिले में एक ट्राइबल किसान के परिवार में जन्मी 'एम सी मैरीकॉम' छह बार विश्व चैंपियनशिप जीतने वाली पहली भारतीय महिला हैं । मैरी कॉम ने सन् २००१ में प्रथम बार नेशनल वुमन्स बॉक्सिंग चैंपियनशिप जीती। उन्होंने 2019 के प्रेसिडेंसीयल कप इोंडोनेशिया में स्वर्ण पदक जीता। 
बॉक्सिंग में देश का नाम रोशन करने के लिए भारत सरकार ने वर्ष 2003 में उन्हे अर्जुन पुरस्कार से सम्मानित किया एवं वर्ष 2006 में उन्हे पद्मश्री से सम्मानित किया गया। वर्ष 2009 में मैरी कॉम को भारत के सर्वोच्च खेल सम्मान राजीव गाँधी खेल रत्न पुरस्कार प्रदान किया गया । मैरीकॉम भारतीय ट्राईबल्स द्वारा निर्मित उत्पादों की बिक्री करने वाले 'ट्राइब्स इंडिया' की ब्रांड एंबेस्डर एवं राज्यसभा सांसद भी हैं।
 
भारतीय तीरंदाज कोमालिका बारी ने विश्व युवा तीरंदाजी चैंपियनशिप के रिकर्व कैडेट वर्ग के एक तरफा फाइनल में जापान की खिलाड़ी को हराकर स्वर्ण पदक हासिल किया। जमशेदपुर की टाटा तीरंदाजी अकादमी की कोमालिका अंडर-18 वर्ग में विश्व चैम्पियन बनने वाली भारत की दूसरी तीरंदाज बनीं। 

ओड़िसा के सुंदरगढ़ जिले के उरांव परिवार में जन्में 'वीरेंद्र लकड़ा' ने 2012 में सम्पन्न लंदन ओलम्पिक में भारतीय हॉकी टीम में खेलकर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया । इसके पहले वे चैंपियन ट्राफी , वर्ल्ड लीग , एशियन गेम्स में भी कई बार खेल चुके हैं । 

वहीं ओड़िसा की 'सुनीता लकड़ा'  भारतीय महिला हॉकी टीम की डिफेंडर के रूप में लोकप्रिय खिलाड़ी रही हैं ।सुनीता ने 2008 से टीम से जुड़ने के बाद 2018 की एशियाई चैम्पियंस ट्रोफी के दौरान भारत की कप्तानी की जिसमें टीम दूसरे स्थान पर रही थी। उन्होंने भारत के लिए 139 मैच खेले और वह 2014 के एशियाई खेलों की ब्रॉन्ज मेडल विजेता टीम का भी हिस्सा रहीं। 

सरायकेला-खरसावा जिला अंतर्गत चाडिल के गांव पथराखून के बादलाडीह टोला में जहां मात्र 13 ट्राइबल परिवार रहते हैं। यहां की रहने वाली स्नातक प्रथम वर्ष की छात्रा ' सावित्री मुर्मू ' ने मात्र नौ महीने में देश के 29 राज्यों के अलावे भूटान और नेपाल का साइकिल से भ्रमण किया । यात्रा के दौरान सावित्री ने लोगों को आदर्श नागरिक समाज का निर्माण करने और बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ का संदेश दिया। सावित्री की यात्रा पटना एनआईटी घाट से 13 अक्टूबर 2017 को शुरु हुई और 14 जुलाई 2018 को समाप्त हई । यात्रा के दौरान 261 दिनों में उन्होंने कुल 14600 किलोमीटर की यात्रा साइकिल से पूर्ण की ।

'साहित्य'

पारसी सिञ्ज चांदो (संथाली भाषा के सूरज) ' पंडित रघुनाथ मुर्मू ' संथाली भाषा की लिपि ओल चिकी के जन्मदाता थे । 
गुरु गोमके के नाम से प्रसिद्ध पंडित रघुनाथ का जन्म 5 मई 1905 को ओडिशा के मयूरभंज ज़िले के डांडबूश गाँव में हुआ था। उन्होंने महसूस किया कि उनके समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और परंपरा के साथ ही उनकी भाषा को बनाए रखने और बढ़ावा देने के लिए एक अलग लिपि की जरूरत है । इसलिए उन्होंने संथाली  लिखने के लिए ओल चिकी लिपि की खोज के काम को प्रारम्भ किया जो 1925 में पूर्ण हुआ। उपरोक्त लिपि का उपयोग करते हुए उन्होंने 150 से अधिक पुस्तकें लिखीं, जैसे कि व्याकरण, उपन्यास, नाटक, कविता और सांताली में विषयों की एक विस्तृत श्रेणी को कवर किया, जिसमें सांलक समुदाय को सांस्कृतिक रूप से उन्नयन के लिए अपने व्यापक कार्यक्रम के एक हिस्से के रूप में ओल चिकी का उपयोग किया गया। "दरेज धन", "सिद्धु-कान्हू", "बिदु चंदन" और "खरगोश बीर" उनके कामों में से सबसे प्रशंसित हैं। बिहार , पश्चिम बंगाल और उड़ीसा सरकार के अलावा, उड़ीसा साहित्य अकादमी सहित कई अन्य संगठनों ने उन्हें सम्मानित किया, रांची विश्वविद्यालय द्वारा माननीय डी लिट की उपाधी से उन्हें सम्मानित किया गया। महान विचारक, दार्शनिक, लेखक और नाटककार ने 1 फरवरी 1982 को अपनी अंतिम सांस ली।

ओत् गुरु कोल लाको बोदरा हो भाषा के साहित्यकार थे। हो भाषा-साहित्य में ओत् गुरू कोल "लाको बोदरा" का वही स्थान है जो संताली भाषा में रघुनाथ मुर्मू का है। उन्होंने १९४० के दशक में हो भाषा के लिए ह्वारङ क्षिति नामक लिपि की खोज की व उसे प्रचलित किया।
उसके प्रचार-प्रसार के लिए ‘आदि संस्कृति एवं विज्ञान संस्थान’ (एटे:ए तुर्तुङ सुल्ल पीटिका अक्हड़ा) की स्थापना भी की। यह संस्थान आज भी हो भाषा-साहित्य,संस्कृति के विकास में संलग्न है। "ह्वारङ क्षिति" में उन्होंने ‘हो’ भाषा का एक वृहद् शब्दकोश भी तैयार किया जो अप्रकाशित है। झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम ज़िले के खुंटपानी ब्लॉक में स्थित पासेया गाँव में जन्में लाको बोदरा होमियोपैथी चिकित्सक भी थे । इन्होंने 29 जून 1986 को देह त्याग किया।

'वासवी किड़ो' की लेखनी ट्राईबल्स के प्रति आपका नजरिया बदलने के लिए पर्याप्त है । रमणिका गुप्ता द्वारा सम्पादित एवं किडो द्बारा लिखित पुस्तिका 'भारत की क्रांतिकारी आदिवासी औरतें' में इतिहास द्वारा तिरस्कृत व उपेक्षित वीरांगनाओं की ऐतिहासिक भूमिका को समझने की कोशिश की गयी है। ट्राईबल महिलाओं के शौर्य को तलाशती यह पुस्तिका जीवन मूल्यों को व्यापकता प्रदान करती हुई उल्लेखनीय भूमिका अदा कर रही है । 

रांची के लाल सिरम टोली में जन्मी 'एलिस एक्का' हिंदी की पहली ट्राइबल लेखिका हैं। उन्होंने पचास के दशक में हिंदी साहित्य में पर्दापण किया। सन् 1947 में शुरू हुई साप्ताहिक ‘आदिवासी में वह लिखती थी। ‘आदिवासी' के सभी अंक प्राप्य नहीं हैं , इसलिए उनकी सभी रचनाओं और उनके साहित्यिक अवदान से पाठक वर्ग अभी तक अपरिचित है। अब तक उनकी ये कहानियां प्राप्त हुई हैं-‘वनकन्या', ‘दुर्गी के बच्चे और एल्मा की कल्पनाएं', ‘सलगी, जुगनी और अंबा गाछ’ ‘कोयल की लाड़ली सुमरी', ‘पन्द्रह अगस्त, बिलचो और रामू’ और ‘धरती लहलहाएगी झालो नाचेगी गाएगी।' वनकन्या उनकी पहली प्राप्त रचना है जो ‘आदिवासी’ के अंक 17 अगस्त 1961, वर्ष-15, अंक 28-29 में छपी है। एलिस एक्का एक रचनाकार होने के साथ-साथ एक अनुवादिका भी थी। उन्होंने खलील जिब्रान के साहित्य का अनुवाद किया है जो ‘आदिवासी’ अंकों में प्रकाशित हुए हैं।

लेखिका ' ममांग दाई' अरुणाचल प्रदेश की पहली महिला थी, जिन्होंने आई.ए.एस. क्वालीफाई किया। इसके बावजूद ममांग दाई ने जर्नलिज़्म और लेखन चुना। उन्होंने हिंदुस्तान टाइम्स, द टेलीग्राफ और सेंटिनल समाचार पत्रों के साथ काम किया है और अरुणाचल प्रदेश यूनियन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स की प्रेसिडेंट भी रही हैं। इनके अन्य काम हैं 2003 की रिवर पोएम्स। इनकी किताब अरुणाचल प्रदेश: द हिडेन लैंड के लिए इन्हें वेरियर एलविं अवॉर्ड से भी नवाजा गया है। इनकी अन्य पुस्तकें हैं द स्काई क्वीन, स्टुपिड क्युपिड और माउंटेन हार्वेस्ट : द फूड ऑफ अरुणाचल प्रदेश।

नागालैंड की आओ ट्राइबल साहित्यकार ' तेमसुला आओ' वर्ष 2013 की साहित्य अकादमी अवार्ड विनर लेखिका है , उन्होंने अपने आओ नागा ट्राईबल्स के जीवन को कहानियों में ढाला है। एक कहानी में एक लड़की को लबुर्णम के फूल अपने बालों में पहनने की बहुत ख्वाहिश होती है। लेकिन जीते जी उसे वह फूल नसीब नहीं होता, इसलिए उसकी अंतिम इच्छा होती है कि मरने पर उसके कब्र पर ये फूल चढ़ाएं जाएँ । 

2008 में मध्य प्रदेश सरकार द्वारा प्रथम रानी दुर्गावती राष्ट्रीय सम्मान और समय-समय पर अनेक क्षेत्रीय व राज्य स्तरीय पुरस्कारों-सम्मानों से सम्मानित 
रोज केरकेट्टा खड़िया और हिन्दी की एक प्रमुख लेखिका, शिक्षाविद्, आंदोलनकारी और मानवाधिकारकर्मी हैं। सिमडेगा के कइसरा सुंदरा टोली गांव में जन्मी रोज केरकेट्टा झारखंड की आदि जिजीविषा और समाज के महत्वपूर्ण सवालों को सृजनशील अभिव्यक्ति देने के साथ ही जनांदोलनों को बौद्धिक नेतृत्व प्रदान करने तथा संघर्ष की हर राह में आप अग्रिम पंक्ति में रही हैं। ट्राइबल भाषा-साहित्य, संस्कृति और स्त्री सवालों पर डा. केरकेट्टा ने कई देशों की यात्राएं की है। इन्होंने प्रेमचंद की कहानियों का अनुवाद खड़िया मे किया है - ' प्रेमचंदाअ लुङकोय' , इसके अलावा इनकी प्रमुख कृतियाँ हैं - खड़िया लोक कथाओं का साहित्यिक और सांस्कृतिक अध्ययन (शोध ग्रंथ), सिंकोय सुलोओ (खड़िया कहानी संग्रह), हेपड़ अवकडिञ बेर (खड़िया कविता एवं लोक कथा संग्रह), पगहा जोरी-जोरी रे घाटो (हिंदी कहानी संग्रह), सेंभो रो डकई (खड़िया लोकगाथा) खड़िया विश्वास के मंत्र (संपादित), अबसिब मुरडअ (खड़िया कविता संग्रह) और स्त्री महागाथा की महज एक पंक्ति (वैचारिक निबंधों का संग्रह)

झारखंड के साहित्यिक-सांस्कृतिक मोर्चे पर सक्रिय ' वंदना टेटे' लगातार लहूलुहान की जा रही ट्राइबल अस्मिता के पक्ष में एक मज़बूत आवाज़ बनकर उभरी हैं। उनकी मुख्य कृतियाँ हैं पुरखा लड़ाके , किसका राज है , झारखंड एक अंतहीन समरगाथा , असुर सिरिंग, पुरखा झारखंडी साहित्यकार और नये साक्षात्कार , आदिम राग , आदिवासी साहित्यः परंपरा और प्रयोजन , आदिवासी दर्शन कथाएँ । इनके उल्लेखनीय आदिवासी पत्रकारिता के लिए झारखंड सरकार का राज्य सम्मान 2012 एवं संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा 2013 में सीनियर फेलोशिप प्रदान किया गया । वहीं 2019 में वंदना को राँची में  शैलप्रिया स्मृति सम्मान प्रदान किया गया । 

झारखण्ड के दुमका के दुधानी कुरुवा गांव में जन्मी ' निर्मला पुतुल' हिंदी कविता में एक परिचित ट्राइबल नाम है। इनकी प्रमुख कृतियों में ‘नगाड़े की तरह बजते शब्द’ और ‘अपने घर की तलाश में’ हैं। इनकी कविताओं का अनुवाद अंग्रेजी, मराठी, उर्दू, उड़िया, कन्नड़, नागपुरी, पंजाबी, नेपाली में हो चुका है। अनेक राज्य स्तरीय और राष्ट्रीय सम्मान हासिल कर चुकी निर्मला अपनी गाँव की निर्वाचित मुखिया भी है। 

नीलगिरि के पहाड़ों पर रहने वाली इरुला आदिवासी समुदाय की ' सीता रत्नमाला' की अंग्रेजी में लिखी हुई भारत की पहली ट्राइबल आत्मकथा ‘बियोंड द जंगल’ की हिंदी प्रस्तुति है जँगल से आगे । इसका मूल अंग्रेजी संस्करण भारत में प्राप्य नहीं है और अब यह दुर्लभ है। ट्राइबल दृष्टि और अनुभवों से लिखा गया यह आत्मसंस्मरण कई मायने में पाठकों का ध्यान खींचता है। अद्भुत कथा, मार्मिक और दिल को छू लेने वाली घटनाएं, कहने की बहुत ही सरल लेकिन जानदार शैली वाली इस पुस्तक का हिन्दी अनुवाद सुपरिचित अश्विनी कुमार पंकज ने किया है, जो आदिवासी अध्ययन के लिए जाने जाते हैं।

साहित्य सृजन में कई ट्राइबल नाम राष्ट्रीय क्षितिज पर अंकित हैं यथा- वाहरू सोनवणे, मोतीरावण कंगाली, वाल्‍टर भेंगरा 'तरुण', शांति खलखो, अनुज लुगुन आदि। वहीं कई ऐसे नाम हैं जिनका जीवन चरित्र अलिखित या अधूरा लिखा ही रह गया यथा मुंडारी के प्रथम लेखक-उपन्यासकार ' मेनस ओड़ेया हों' , संथाली  कवि पाउल जुझार सोरेन, धर्मग्रंथ धरमपुथी के रचयिता रामदास टुडू,  नागपुरी के ' धनीराम बक्शी ' , पाकुड़ के संथाली गोरा चाँद टुडू ,हिंदी के विमर्शकार हेरॉल्ड एस. तोपनो, ट्राइबल इन्साइक्लोपीडिया महली लिविन्स तिरकी, आदिवासी महासभा के मुखपत्र आदिवासी के संपादक जूलियस तीगा ।

 ट्राइबल साहित्यकारों की सूची में अन्य लोकप्रिय नाम हैं कवयित्री और संपादक ' सुशीला सामद हों, प्यारा केरकेट्टा, कानूराम देवगम, आयता उरांव, ममांग दई, बलदेव मुंडा, दुलाय चंद्र मुंडा, पीटर पॉल एक्का, हरिराम मीणा, महादेव टोप्पो, ग्रेस कुजूर, उज्ज्वला ज्योति तिग्गा, काजल डेमटा, सुनील कुमार 'सुमन', केदार प्रसाद मीणा, जोराम यालाम नाबाम, सुनील मिंज, ग्लैडसन डुंगडुंग, रूपलाल बेदिया, गंगा सहाय मीणा, ज्योति लकड़ा, नीतिशा खालखो, अनु सुमन बड़ा, हीरा मीणा, अरुण कुमार उरांव, जसिंता केरकेट्टा, ज्योति लकड़ा , श्रृष्टि किंडों , बन्नाराम माणतवाल, राजस्थान के पूर्व डीआइजी हरि राम मीणा , रानी मुर्मू । 

हाल ही मे झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखाड़ा ने ट्राइबल साहित्य की विभिन्न शाखाओं में लेखन कार्यो में सक्रिय प्रतिभाओं को पुरस्कृत किया । असुर साहित्य के लिए मेलन असुर व संपति असुर , हो साहित्य के लिए कमल लोचन कोड़ाह व दमयंती सिंकु, खड़िया साहित्य के लिए विश्राम टेटे व प्रतिमा कुल्लू, खोरठा साहित्य के लिए डॉ. नागेश्वर महतो व पंचम महतो , कुड़मालि साहित्य के लिए भगवान दास महतो व सुनील महतो, कुड़ुख साहित्य के लिए अघनु उराव व फ्रासिस्का कुजूर
, मुंडारी साहित्य के लिए मंगल सिंह मुंडा व तनुजा मुंडा
, नागपुरी साहित्य के लिए डॉ. वीपी केशरी व डॉ. कुमारी बासंती, पंचपरगनिया साहित्य के लिए प्रो. परमानंद महतो व विपिन बिहारी मुखी, संताली साहित्य के लिए चुंडा सोरेन 'सिपाही' व सुंदर मनोज हेम्ब्रम।

'शिक्षा'

शैक्षणिक संस्थानो में कई महत्वपूर्ण पदों पर ट्राइबल समुदाय सुशोभित हो रहा है । श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्व विद्यालय रांची के उप कुलपति रांची यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर डॉ. सत्यनारायण मुंडा हैं । वहीं मध्यप्रदेश के अमरकंटक में अवस्थित इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय के उप कुलपति प्रो टी व्ही कट्टीमणी रह चुके हैं । रांची विश्वविद्यालय में डॉ. करमा उरांव जनजातीय क्षेत्रीय भाषा विभाग के एचओडी तथा सोशल साइंस के डीन रह चुके हैं तो जमशेदपुर के कॉपरेटिव कॉलेज के प्राध्यापक जीतराई हांसदा हैं। वर्ष 2016 में आदिवासी संघर्ष मोर्चा ने राँची में कई शिक्षाविदों को सम्मानित भी किया था - बेड़ो कॉलेज के प्राचार्य गुनी उरांव, लापुंग कॉलेज के प्राचार्य बिरसो उरांव, संत पॉल उवि की प्रिंसिपल उषा लकड़ा, पूर्व प्राचार्य ज्योत्सना कुजूर, आशिड़ किड़ो, प्रो. अजय बाखला, अशिसन तिड़ु, अनिता हेम्ब्रम । 

जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के शिक्षक संघ की अध्यक्ष प्रोफेसर सोना झरिया हैं , वहीं सी के तिर्की, योजना आयोग के पूर्व सदस्य हैं । भारत सरकार के भू वैज्ञानिक डॉक्टर अशोक बक्सला, वकील निकोलस बारला, समाज वैज्ञानिक डॉक्टर ए बेंजामिन, शोधार्थी डॉक्टर विसेंट एक्का जैसे लोग ट्राइबल समुदाय में शिक्षा की अलख जलाए हुए हैं । 

शिक्षा के क्षेत्रो में योगदान की कहानी एक नन ट्राइबल के बिना पूरी नहीं की जा सकती , वो थे दिल्ली विश्वविद्यालय के रिटायर्ड प्रोफेसर डॉ. प्रभुदत्त खेड़ा । छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले के घने जंगलों के बीच मौजूद लमनी गांव में डॉ खेड़ा तीस साल तक कुटिया बनाकर रहे और ट्राईबल्स के बीच रहकर शिक्षा का उजियारा फैलाते रहे । 

राजस्थान के बांसवाड़ा में गोविंद गुरु जनजातीय यूनिवर्सिटी का संचालन हो रहा है, जहाँ हर साल कई ट्राइबल उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं । 

यह जानकर सुखद आश्चर्य होगा कि अमेरिका में 32 ट्राइबल कॉलेज एवं यूनिवर्सिटी हैं , जिनमें 358 तरह के एप्रेण्टिस , डिप्लोमा , सर्टिफिकेट व डिग्री प्रोग्राम चल रहे हैं और लगभग तीस हजार छात्र पढ़ रहे हैं । ये संस्थान कोलर्डो स्थितअमेरिकन इण्डियन कॉलेज फण्ड के अन्तर्गत संचालित होते हैं । 

'पत्रकारिता'

झारखंड की दयामणि बारला एक लोकप्रिय पत्रकार एवं कार्यकर्ता हैं। ट्राईबल्स के अधिकारों के लिए लड़ने वाली सामाजिक कार्यकर्ता दयामणि बारला को एलेन एल लुज अवार्ड से सम्मानित किया गया। न्यूयार्क की मैसाच्युसेट्स के एक एनजीओ ने इस अवार्ड के तहत तहत दयामणि को 10,000 डॉलर दिए। उनको वर्ष 2000 में ग्रामीण पत्रकारिता के क्षेत्र में काउंटर मीडिया अवार्ड भी प्राप्त हुआ था।

हालाँकि इस तथ्य को झुठलाया नहीं जा सकता कि देश के मीडिया में ट्राइबल पत्रकारों की स्थिति और उपस्थिति न के बराबर है और यही कारण है कि ट्राइबल्स की मूल संस्कृति, संस्कार, समस्याएं देश और विश्व के पटल पर नहीं आ पातीं । 

' पुलिस , पारा मिलट्री एवं सेना' 

पुलिस , पारा मिलट्री एवं सेना में लाखों की संख्या में ट्राइबल जवान मिलेंगे । झारखंड के गुमला जिला के डुमरी ब्लाक के जरी गांव में जन्में लांस नायक अलबर्ट एक्का पहले ट्राइबल सैनिक थे जो भारत-पाकिस्तान युद्ध में 3 दिसम्बर1971 को हिली की लड़ाई में वीरगति को प्राप्त हो गए एवं इन्हें मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया था।

' स्वतंत्रता संग्राम' 

भारत का स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास कई अनकही अनपढ़ी या आधी अधूरी कहानियों से भरा पड़ा है , जिसमें कई नायकों के नाम छुपे पड़े हैं । ऐसे ही कुछ नायक ट्राइबल समुदाय से हुए जिनके किस्सों को इस आलेख में समेटना मुश्किल है , उसके लिए केवल उनके जीवन चरित्र पर एक पुस्तक लिखी जा सकती है । जैसे झारखण्ड में धरती आबा बिरसा मुण्डा , सिद्धू और कान्हू मुर्मू , चांद, भैरव, उनकी बहन फूलो और झानो मुर्मू , टाना भगत , तिलका माझी , सिंदराय और बिंदराय मानकी, गंगानारायण सिंह ,लुबिया मांझी, बैस मांझी और अर्जुन मांझी , पीताम्बर साही और नीलाम्बर साही , जतरा भागत, बुधू भगत , तेलंगा खड़िया, छतीसगढ़ के गुंडाधुर , हीरासिंह देव उर्फ कंगला माझी, वीर नारायण सिंह, महाराष्ट्र के भीमा नायक , नागालैंड की रानी  गाइदिन्ल्यू, चेन्नै के अल्लुरी सीतारमण राजू, ओड़िसा के राजा सुरेन्द्र साए, हैदराबाद निजाम 
विरुद्ध संघर्ष करने वाले गोंड ट्राइबल कुमराम भीम ।

आजाद भारत में भी विभिन्न मुद्दों पर समय समय पर ट्राइबल आन्दोलनकारी मुखर होते रहे हैं जैसे छत्तीसगढ़ के फेटल सिँह खरवार और कूच नाम विवादों के साये में रहे जैसे झारखण्ड में के सी हेम्ब्रम । 

' राजनीति' 

राजनीति और ट्राइबल्स यह टॉपिक इतना वृहत हैं कि इस पर काफी लम्बी चर्चा हो सकती है , मेरी समझ से इस शीर्षक पर एक अलग आर्टिकल लिखने की आवश्यकता है । परन्तु कुछ नामों की चर्चा किए बिना आजके आर्टिकल क़ा समापन करने का जी नहीं कर रहा । जिनमें झारखण्ड आन्दोलन के महानायक दिशोम गुरु शिबू सोरेन , भारत सरकार के जनजातीय कार्य मंत्रालय में केंद्रीय मन्त्री अर्जुन मुण्डा , झारखण्ड के वर्तमान मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन , केन्द्रीय इस्पात राज्यमंत्री फग्गन सिंह कुलस्ते , पूर्व लोकसभा अध्यक्ष पी ए संगमा , निर्दलीय मुख्यमंत्री रहे मधु कोड़ा, लोहरदगा से तीन बार सांसद सुमति उरांव। लोकसभा में अनुसूचित जनजाति के लिए कुल 545 सीटों में से 47 सीट आरक्षित हैं वहीं झारखण्ड में 81 सीटों में 28 अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं । 

ट्राइबल्स के महान गुणों को एक पंक्ति में समेटते हुए आस्ट्रेलिया की दार्शनिक कैथ वाकर लिखती हैं कि 'आपकी धरती, जहां आप रहते हैं और आपका समुदाय, जिसके साथ आप रहते हैं, आपसे पहले है - यही आदिवासियत है ।'


संदीप मुरारका 
दिनांक 13 अप्रैल ' 2020 सोमवार 
शुभ वैशाख कृष्णा षष्ठी, विक्रम संवत् २०७७