मुझे एक एफआईआर करनी हैं , मेरी हत्या की एफआईआर !
किन्तु कहाँ करूँ ? किस थाने में करूँ ? राँची के उलिहातू गाँव के थाना में , जहाँ 15 नवम्बर 1875 को मेरा जन्म हुआ या राँची के सर्कुलर रोड थाना में , जहाँ जेल में ही 9 जून 1900 को देह त्याग की थी ।
या झारखण्ड के हर थाना में , क्योंकि मेरी हत्या के आरोपी तो राज्य के हर थाना क्षेत्र में मिलेंगे ।
दर्ज की जाने वाली सनहा में किसके नाम लिखवाऊँ , अंग्रेजो के या अपनों के । क्योंकि अंग्रेजो की जेल में तो सिर्फ मेरे शरीर का अन्त हुआ था, किन्तु मैं जीवित रहा, हर उस क्रन्तिकारी के ह्रदय में एक ज्वाला बन कर जो आजादी के लिए लड़ रहे थे । देश भले ही 1947 में आजाद हो गया, पर हमारा ट्राइबल समुदाय अब भी उत्पीड़ित था । मैं जीवित रहा ‘ऊलगुलान’ बनकर, कभी सूद प्रथा के विरोध में, कभी महाजनों के शोषण के विरुद्ध, कभी खनन के बहाने हमारे जंगलो को छीन लेने के विरुद्ध, कभी रेल तो कभी नहर के बहाने हमारे विस्थापन के विरुद्ध, तो भी मैं एक उम्मीद के भरोसे जीवित रहा कि कभी तो साकार होगा सपना - 'अबुआ: दिशोम रे अबुआ: राज' अर्थात अपने देश में अपना शासन ।
'अबुआ: दिशोम रे अबुआ: राज'
15 नवम्बर 2000 , अंततः सपना साकार हुआ, अबुआ: राज्य बना 'झारखण्ड' , अबुआ: राज प्रारम्भ हुआ । मुख्यमन्त्री बने बाबूलाल मरांडी एवं नेता प्रतिपक्ष हुए स्टीफेन मरांडी । मैं निश्चित था क्योंकि मार्गदर्शक की भूमिका में जहाँ एक ओर शिबू सोरेन सक्रिय थे तो दूसरी ओर युवा तुर्क नेता के रूप में अर्जुन मुण्डा की पहचान राज्यव्यापी सर्वप्रिय हो रही थी । झारखण्ड के पास कड़िया मुण्डा जैसा गम्भीर चेहरा था वहीं चम्पाई सोरेन जैसे जुझारू आंदोलनकारी । डॉ रामदयाल मुण्डा, सालखन मुर्मू, सूर्य सिंह बेसरा, बागुन सूम्ब्रई, लक्ष्मण टुडू, शिवशंकर उरांव, मेनका सरदार,कोचे मुण्डा, ताला मरांडी,नलिन सोरेन, सुनील सोरेन,थामस सोरेन, थामस हांसदा, सुशीला हांसदा जैसे कई नेता दबे कुचले पिछड़े झारखण्ड व इसके निवासियों का स्वर्णिम भविष्य बनाने की मुहिम में जुट गए । समय के क्रम के साथ एक नया, युवा व सशक्त नेतृत्वकर्ता भी तैयार हुआ हेमन्त सोरेन ।
'मैं कब कब मारा गया ?'
वर्ष 2001- 02 में झारखण्ड का पहला बजट पारित हुआ रुपए 4800.12 करोड़ का , वहीँ 2020- 21 में रुपए 86,370 करोड़ का बजट प्रस्तुत किया गया है , यानि बजट में 18 गुणा की वृद्धि । यदि विधानसभा स्तर पर देखा जाए तो प्रति विधानसभा क्षेत्र लगभग 1000 करोड़ रुपए का प्रावधान, यदि जिलावार देखा जाए तो लगभग 3500 करोड़ प्रति जिला खर्च की तैयारी ।
इसके बावजूद मेरे लोगों के लिए स्कूल हो या अस्पताल , दोनोँ ही उनकी पहुँच से दूर हैं । तब मुझे लगता है कि अब मैं मारा गया ।
झारखण्ड का क्षेत्रफल 79714 वर्ग किलोमीटर है ,यानि प्रति वर्ग किलोमीटर के विकास के लिए 1 करोड़ रुपए से ज्यादा का बजट है । उसके बावजूद केवल शिकायत और समस्याएँ । ये आंकड़े देखकर मुझे लगता है कि अब मैं मारा गया ।
वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार झारखण्ड की कूल जनसंख्या 2,69,45,829 थी, उसमें ट्राइबल्स की संख्या थी 70,87,068 यानि 26.31% वहीँ वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार झारखण्ड की जनसंख्या 3,29,88,134 थी , जिसमें अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या 86,45,042 यानि 26.2% है ।
लेकिन वर्ष 2001 में 3317 गाँव ऐसे थे जहाँ 100% ट्राइबल्स थे, वर्ष 2011 में ऐसे गाँव घटकर मात्र 2451 रह गए ।* लोग कहते हैं कि गाँव के लोगों का पलायन शहर की ओर हो रहा है तो फिर ट्राईबल्स गाँव में बसने कौन लोग आ रहे हैं कि हमारे गाँवो में हमारी ही उपस्थिति घटती जा रही है । आंकड़े देखकर मुझे लगता है कि अब मैं मारा गया ।
23 अप्रेल 2010 को देश की संसद में अर्जुन मुण्डा की स्पीच चल रही थी, मैं सुन रहा था, उन्होने बताया कि झारखण्ड में बिछ रही रेलवे लाईन के लिए एक ट्राइबल महिला मंगरी देवी, जिला रामगढ़, अंचल पतरातू , मौजा चिट्टो, हलका संख्या 7, थाना संख्या 0067, खाता संख्या 45, रकबा एक एकड़ तेरह डिसिमल (1.13 एकड़) भूमि का अधिग्रहण किया जा रहा है और मुआवजे के तौर पर उस विधवा ट्राइबल महिला को मात्र रुपए 1848/- दिए जा रहे हैं यानि मात्र 16.35 प्रति डिसिमल यानि मात्र 4 पैसे प्रति वर्ग फुट ! एक ट्राइबल की पुश्तैनी जमीन का वर्ष 2010 में यह मुआवजा, सुनते ही मुझे लगा कि अब मैं मारा गया ।
कवि वामन शलाके ने ठीक ही लिखा है -
‘सच्चा आदिवासी कटी पतंग की तरह भटक रहा है।
कहते हैं हमारा देश इक्कीसवीं सदी की ओर बढ़ रहा है॥ '
'संघर्ष की कहानी'
हर ट्राइबल का एक मौलिक अधिकार था कि हमारी महिलाएँ वन से महुआ के फूल, तेंदू के पत्ते, घर के लिए लकड़ी या मधु लाती थीं, जो आज अपराध हो गया ।
अंग्रेजो ने वनों के वाणिज्यिक महत्व को पहचानते हुए उनका उपयोग राजस्व बढ़ाने के लिए करना शुरू किया। इस प्रक्रिया में उन्होंने ट्राईबल्स के वनाधिकारों को सीमित करने के बारे में नियम बनाने का प्रयास भी किया।
1855 में वनवासियों के अधिकारों को सीमित करने सम्बन्धी मार्ग-निर्देशों वाला एक ज्ञापन जारी किया गया। 1865 में पहली बार वनों के संरक्षण और प्रबन्धन के नियमों को लागू करने का आदेश जारी किया गया, इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य वनों पर सरकारी नियन्त्रण कायम करना था। पुनः व्यापक अधिनियम- भारतीय वन अधिनियम-1878 में जारी किया गया। इसमें वनों को तीन वर्गों में विभाजित किया गया था- (1) आरक्षित वन, (2) संरक्षित वन, और (3) ग्रामीण वन। आरक्षित वनों में अनधिकृत प्रवेश और पशुओं का चरना प्रतिबन्धित था । इस कानूनों के कारण भारत की कुल वनभूमि का 97 प्रतिशत क्षेत्र सरकार के अधिकार में आ गया जिसकी वजह से ट्राइबल्स का वनों में प्रवेश सीमित हो गया। जबकि हमारे लिए वन ही जीवनयापन का मुख्य साधन था । हमारा जंगल- हम जंगल के, हमारी भूमि- हम उस भूमि के पुत्र और हमलोगों पर ही प्रतिबंध ! एक ओर शासक के रूप में अंग्रेजो का कानून दूसरी ओर जमींदारों द्वारा बढ़ता शोषण ।
मराठी भाषा के प्रसिद्ध ट्राइबल कवि भुजंग मेश्राम अपनी कविता में मेरा आहवान करते हैं-
बिरसा तुम्हें कहीं से भी
कभी भी
आना होगा ।
घास काटती दरांती हो या
लकड़ी काटती कुल्हाड़ी
खेत- खलिहान की मजदूरी से
दिशा - दिशाओं से
गैलरी में लाए गए
गोटुली रंग से
कारीगर की भट्टी से
यहां से वहां से
पूरब से
पश्चिम से
उत्तर से
दक्षिण से
कहीं से भी आ मेरे बिरसा
खेतों का हरा भरा बयार बनकर
लोग तेरी ही बाट जोहते.......
अब मैं अपने प्रिय कवि भुजंग को क्या बतलाऊं कि मैं गया कब था, जो आऊँगा । ट्राइबल का हर उलगुलान मैं ही तो हूँ । वर्ष 1895 में छोटानागपुर के सभी ट्राइबल जंगल पर दावेदारी के लिए गोलबंद हुए तो अंग्रेजी सरकार के पांव उखड़ने लगे। महाजन, जमींदार और सामंत उलगुलान के भय से कांपने लगे।
अंग्रेज सरकार ने मेरे उलगुलान को दबाने की हर संभव प्रयास किया , लेकिन हम ट्राइबल्स के गुरिल्ला युद्ध के समक्ष अंग्रेज असफल रहे। मेरा एक ही लक्ष्य था - “महारानी राज तुंदु जाना ओरो अबुआ राज एते जाना” यानी कि ‘ ब्रिटिश महारानी का राज खत्म हो और हमारा राज स्थापित हो’।
अंग्रेजो के खिलाफ हमारा संघर्ष जारी रहा, 1897 में मैने तीर कमानों से लैस चार सौ ट्राइबल वीरों के साथ खूँटी थाने पर धावा बोल दिया। 1898 में तांगा नदी के किनारे हमारी भिड़ंत अंग्रेज सेना से हुई , हमारी जीत भी हुई लेकिन हमारे कई साथियों की गिरफ़्तारियां हो गई ।
मुझे सबसे ज्यादा अफसोस 25 जनवरी 1900 में उलिहातू के समीप डोमबाड़ी पहाड़ी पर घटी एक घटना का रहा, जब अंग्रेजो और सूदखोरों के विरुद्ध आयोजित एक जनसभा में मेरे ट्राइबल्स भाई बहन एकत्रित थे ,संयोगवश मेरा ही सम्बोधन चल रहा था कि अचानक अंग्रेज सैनिकों ने हमला कर दिया, दोनोँ पक्षों मे जमकर संघर्ष हुआ, मेरे साथियों के हाथों में तीर धनुष, भाला, कुल्हाड़ी, टंगीया इत्यादि थे, परन्तु दुश्मन की बंदूक-तोप का सामना हमारे पारंपरिक हथियार भला कब तक कर पाते, अंततः लगभग 400 लोग मारे गए, जिनमें औरतें और बच्चे भी थे । कई साथी गिरफ्तार कर लिए गए । मेरी गिरफ्तारी का वारंट जारी हो गया, मुझपर रुपए 500/- इनाम घोषित हुआ ।
'मृत्यु या हत्या '
अकोला के शिवकवि लिखते हैं -
अंग्रेजो के विरुद्ध "बिरसा"
तीर कमान को थाम कर।
देश के दुश्मन को ललकारा
ऊसने सीना तानकर।।
झुका नही वह बिका नही,
लडा वह दिल तुफानकर।
अन्याय से कभी डरा नही,
मृत्यु को समीप जानकर।।
मैं छिपते छिपाते अपने लोगों से मिलते मिलाते उलगुलान का प्रसार प्रचार करते हुए चक्रधरपुर पहुँचा, तारीख थी 3 मार्च 1900, अगली रणनीति पर चर्चा चल रही थी, रात हो चली थी, हमलोगों ने 'जम्कोपाई' जंगल में रात बिताने का निर्णय लिया, देर रात जब हमलोग सो रहे थे, किसी अपने ने ही धोखा किया, मुझे मेरे 460 साथियों के साथ गिरफ्तार कर लिया गया, य़ा यूँ कहूँ कि करवा दिया गया । कवि बालगंगाधर बागी ने ठीक ही लिखा-
सोना-चाँदी जवारात अंग्रेजों ने कैसे लूट लिये,
देश के जमींदारों ने पिछड़ों की ज़मीनें छीन लिये,
अपने ही देशवासी को, दलित अछूत कहते थे,
बेगारी में खटा-खटा के गुलाम बनाये रखते थे ।
लाचार बरसती आंखों से, शबनम व चिन्गारी थी
जिन्दा जलते लोगों में आवाज दबी एक भारी थी
'पर अपने भी गद्दार हुए, घर ऐसे ही बबार्द हुए',
उठते हुए मकान गिरे कुछ जिन्दा जल श्मशान हुए,
गांव-गांव और शहर-शहर, घर लोगों के बीरान हुये,
इसलिए तड़पते हालत पर लोगों ने हाथ कमान लिये।
बूढ़े बच्चे व नर-नारी, सबने ही तीर चलाई थी,
अंग्रेजी जमींदारी विरुद्ध लंबी लड़ी लड़ाई थी,
आज वो अफसाना इतिहास का फसाना है,
बिरसा मुण्डा का गुजरा वो ज़माना है ॥
मुझे खाट सहित बांध दिया गया था, भोर हो चली थी, हमें बंदगांव लाया गया, वहाँ अंग्रेज सैनिकों की टुकड़ी कई वाहनों के साथ तैयार थी, सड़क के दोनोँ ओर सैकड़ो ट्राइबल्स एकत्रित हो गए, परन्तु अंग्रेज हथियारबन्द थे, हमारे लोग निहत्थे व आवाक । हमें राँची जेल ले जाया जा रहा था, उस वक्त अपने उलगुलान को जिन्दा रखने के लिए मैने जो शब्द कहे, उन्हे कागज पर उकेरा "अश्विन कुमार पंकज" ने - “मैं तुम्हें अपने शब्द दिये जा रहा हूं, उसे फेंक मत देना, अपने घर या आंगन में उसे संजोकर रखना। मेरा कहा कभी नहीं मरेगा। उलगुलान ! उलगुलान! और ये शब्द मिटाए न जा सकेंगे। ये बढ़ते जाएंगे। बरसात में बढ़ने वाले घास की तरह बढ़ेंगे। तुम सब कभी हिम्मत मत हारना। उलगुलान जारी है।”
अदालत में बैरिस्टर जैकब की बहस काम ना आई, मुझे सजा हो गई, मैं जेल की दीवारों में कैद था, किन्तु उन दीवारों के पहरेदार भयभीत थे, मुझसे मेरी अंतिम इच्छा भी नहीं पूछी गई, 9 जून 1900 को मेरे शरीर का अन्त हुआ, सरकारी फाईलों में हैजे से, मेरे लोगों ने जाना जहर से, किन्तु मैं आज भी जीवित हूँ । इसीलिए साहित्यकार हरीराम मीणा ने लिखा-
" मैं केवल देह नहीं
मैं जंगल का पुश्तैनी दावेदार हूँ,
पुश्तें और उनके दावे मरते नहीं
मैं भी मर नहीं सकता,
मुझे कोई भी जंगलों से बेदखल नहीं कर सकता ।
उलगुलान !
उलगुलान !!
उलगुलान !!! ’’
संसद के केंद्रीय हॉल में 16 अक्टूबर 1989 को मेरे चित्र का अनावरण तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष बलराम जाखड़ ने किया। मेरे जन्मदिन 15 नवंबर 1989 को तोहफे के रूप में मुझ पर डाकटिकट जारी की गई । दिनांक 28 अगस्त 1998 को संसद परिसर में मूर्तिकार बी सी मोहंती द्वारा निर्मित 14 फीट की मेरी प्रतिमा का अनावरण राष्ट्रपति के आर नारायणन ने किया। 1 अप्रेल 2017 को गुजरात के नर्मदा जिले में बिरसा मुण्डा ट्राइबल यूनिवर्सिटी की स्थापना की गई है , वहीँ राँची में बिरसा कृषि विश्वविद्यालय की स्थापना 26 जून 1981 को की गयी थी ।
किन्तु अब मैं चाहता हूँ कि मेरी हत्या की फाईल फिर खुले, मेरे हत्यारों पर एफआईआर हो, मेरा केस फिर सुना जाए, मैं यानि ट्राइबल, मैं यानि झारखण्ड का मूलवासी, मैं यानि हर वो महिला या पुरुष जो अबुआ राज में शोषित है । जंगल से बेदखल हर बिरसा के हत्यारों को खोजो, खोजो उन सात मुंडाओं को जिन्होने 500 रुपए के लालच में मुझे पकड़वाया, वैसे सात लालची स्वार्थी आज भी हर गाँव में रहते हैं, हर थाना क्षेत्र में मेरी हत्या के वैसे सात अपराधियो पर केस दायर हों । और सजा में उन्हे जेल मत भेजो, उन्हें 'बिरसा मार्ग' दिखलाओ । कवि सूरज कुमार बौद्ध के शब्दों को उन्हें समझाओ-
हे धरती आबा/तुम याद आते हो/खनिज धातुओं के मोह में/राज्य पोषित ताकतें/हमारी बस्तियां जलाकर/अपना घर बसा रहे हैं/मगर हम लड़ रहे हैं/केकड़े की तरह इन बगुलों के/गर्दन को दबोचे हुए/लेकिन इन बगुलों पर/बाजों का क्षत्रप है/आज जंगल हुआ सुना/आकाश निःशब्द चुप है/माटी के लूट पर संथाल विद्रोह/खासी, खामती, कोल विद्रोह/नागा, मुंडा, भील विद्रोह/इतिहास के कोने में कहीं सिमटा पड़ा है/धन, धरती, धर्म पर लूट मचाती धाक/हमें मूक कर देना चाहती है/और हमारे नाचते गाते/हंसते खेलते खाते कमाते/जीवन को कल कारखानों/उद्योग बांध खदानों/में तब्दील कर दिया है/शोषक हमारे खून को ईंधन बनाकर/अपना इंजन चला रहे हैं/धरती आबा/आज के सामंती ताकतें/जल जंगल पर ही नहीं/जीवन पर भी झपटते हैं/इधर निहत्थों का जमावड़ा/उधर वो बंदूक ताने खड़ा/मगर हमारे नस में स्वाभिमान है/भीरू गरज नहीं उलगुलान है/लड़ाई धन- धरती तक/सिमटकर कैद नहीं है//हमारे सरजमीं की लड़ाई/शिक्षा, स्वास्थ्य, संस्कृति/मान, सम्मान, प्रकृति../संरक्षण के पक्ष में है//ताकि जनसामान्य की/जनसत्ता कायम हो/अबुआ दिशुम अबुआ राज की/अधिसत्ता कायम हो ॥
संदीप मुरारका
दिनांक 17 अप्रेल' 2020 शुक्रवार
वैशाख कृष्णा दशमी विक्रम संवत् २०७७
*SOURCE - Statistical Profile of scheduled Tribes in India 2013 , Ministry of Tribal Affairs, Statistics Division,GOI