Sunday, 31 May 2020

अंतिम सांस तक संघर्ष हेतु संकल्पित - शिबू सोरेन

नाम : श्री शिबू सोरेन
जन्म : 11 जनवरी,1944
जन्म स्थान : टोला नामरा, गांव बरलंगा, प्रखंड गोला, जिला रामगढ़, झारखंड
वर्तमान निवास : मोराबादी, राँची, झारखंड - 834008
स्थायी पता : 14, सेक्टर 1C , पोस्ट राम मन्दिर , बोकारो स्टील सिटी, झारखंड - 827001
पिता : स्व. सोबरन मांझी
माता : स्व. सोना मनी
पत्नी : श्रीमती रूपी सोरेन

जीवन परिचय - वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार झारखंड राज्य की 32 जनजातियों की कुल जनसंख्या है़ 86,45,042, जो राज्य की कुल जनसंख्या 3,29,88,134 का 26.2 प्रतिशत है़। उसमें भी संताल जनजाति की आबादी है़ 27,52,727 यानी कुल जनसंख्या का 8.34 प्रतिशत एवं आदिवासी जनसंख्या का 31.84 प्रतिशत। संताल जनजाति की आबादी झारखंड में ही नहीं बल्कि पश्चिम बंगाल में 25,12,331, ओड़िशा में 8,94,764, बिहार में 4,06,076, असम में 2,13,139, बांग्लादेश में 3,00,061, नेपाल में 51,735 एवं देश के विभिन्न हिस्सों में फैली हुई है़। देश की सबसे बड़ी जनजाति संताल में जन्में दिशोम गुरु के नाम से विख्यात शिबू सोरेन उर्फ शिवचरण लाल मांझी।

उनदिनों शिबू सोरेन के गांव में महाजनी सूद प्रथा जोरों पर थी। गरीब किसानों को ऊँची ब्याज दर पर कर्ज देकर उनकी भूमि के कागजातों पर अँगूठा लगवा लिया जाता था, फिर ब्याज ना चुका पाने की स्थिति में महाजनों के गुर्गे गरीब किसानों के खेत हड़प लिया करते और उनपर जुल्म भी किया करते। बालक शिबू के पिता गांव में शिक्षा के प्रचार प्रसार में सक्रिय थे। दूरदर्शी विचारधारा के सोबरन मांझी की सोच थी कि आदिवासियों में इतना अक्षर ज्ञान तो अवश्य होना चाहिए कि कितनी राशि पर अँगूठा लगवाया जा रहा है, वह तो किसान स्वयं पढ़ सके। किंतु सामंती ताकतों ने अंधेरे में जल रहे उस दीपक को बुझा दिया, दिनांक 27 नवंबर,1957 को शिबू सोरेन के पिता की हत्या कर दी गई।

जब उनके पिता की निर्मम हत्या हुईं, तब बालक शिबू मात्र 13 वर्ष के थे। उनका मन उद्वेलित रहने लगा, उनकी शिक्षा जारी थी। वे बचपन से ही अपने पिता की दिखाई राह पर चल पड़े। महाजनों, सूदखोरों, सामंतवादी व्यवस्था के विरुद्ध उनका आक्रोश बढ़ता चला गया। उन्होनें सामंतवाद के खिलाफ शंख फूँक दिया, धीरे धीरे उनकी यह लड़ाई हर शोषित, पीड़ित व वंचितों की लड़ाई बन गई।

शिबू सोरेन कहते थे कि 'जमीन आदिवासियों की और कब्जा महाजनो का' - यह नहीं चलेगा। ट्राइबल्स के खेतों को ट्राइबल्स जोतते, जब फसल तैयार हो जाती, तो उसे काटने महाजनों के लोग पहुँच जाया करते। गुरुजी ने नारा दिया - 'धान काटो बाल काटो'। जब फसल तैयार हो जाती तो गुरुजी अपने साथियों के साथ पारंपरिक हथियार (तीर धनुष) लेकर पहुंच जाते और अपनी निगरानी में धान कटवाया करते। उनके सरंक्षण में किसान अपनी फसल अपने घर ले जाने लगे, इसप्रकार ग्रामीणों को उनका हक मिलने लगा।

समाज सुधारक - ट्राइबल्स में व्याप्त सामाजिक कुरुतियों से शिबू सोरेन भली भांति अवगत थे। विशेषकर देशी शराब (हड़िया, महुआ, ताड़ी) के विरुद्ध शिबू प्रतिदिन ग्रमीणों को समझाया करते। उनकी बातों से प्रभावित होकर ग्रामीण महिलाओं में जागरूकता आने लगी, उन्होनें गांवो में शराब की कई अवैध भट्टियों को ध्वस्त कर दिया।

नशाखोरी एवं अशिक्षा के विरुद्ध धरती पुत्र शिबू सोरेन ने वर्ष 1962 में मारफारी, बोकारो में 'संताल नवोदय संघ' का गठन किया। मजदूरी करने वाली आदिवासी महिलाओं का शारीरिक व आर्थिक शोषण किया जाता था, गुरुजी ने उनके हित में 'आदिवासी सुधार समिति' का गठन किया। वर्ष 1968 में समिति का पहला सम्मेलन रामगढ़ के औरंडीह गोला में संपन्न हुआ। धनबाद के टुंडी प्रखंड के पोखरिय़ा गांव में गुरुजी ने संतालों के लिए आश्रम की स्थापना की।

शिक्षा का प्रसार - वर्ष 1970 में जनजाति बाहुल्य गांवो में गुरुजी ने कई प्राथमिक विद्यालय खुलवाए। मजदूरों के लिए रात्रि विद्यालयों की शुरुआत की। उनदिनों गांवो में बिजली की व्यवस्था नहीं थी, गुरुजी ने रात्रि विद्यालयों में रोशनी के लिए हजारों लालटेन का वितरण किया।

महाजनी सूद प्रथा, अशिक्षा, शराब व आदिवासी शोषण के विरुद्ध इनके प्रयासों को कभी भुलाया ना जा सकेगा। वर्ष 1957 से लगातार 6 दशकों तक शिबू सोरेन सामाजिक जीवन में सक्रिय रहे हैं। झारखंड राज्य के गठन से लेकर विकास की गाथा कहती हर पुस्तक का एक महत्वपूर्ण व स्वर्णिम अध्याय है़ - "दिशोम गुरु शिबू सोरेन"।

झारखंड आंदोलनकारी - आजादी के पूर्व से ही ट्राइबल्स हितों की अनदेखी होती रही। दिनांक 25 अप्रैल, 1939 को झारखंड के ओड़िशा बार्डर पर सिमको नामक स्थान पर अंग्रेजों ने सैकड़ों आदिवासियों को मार गिराया, जिसका पुरजोर विरोध प्रदर्शन आदिवासी महासभा ने किया। दिनांक 1 जनवरी,1948 को सरायकेला खरसावां जिले में नरसंहार हुआ। उसके बाद ही दिनांक 1 जनवरी 1950 को आदिवासी महासभा के राजनीतिक विंग के रूप में झारखंड पार्टी का गठन हुआ और तभी से अलग झारखंड राज्य के गठन की माँग उठने लगी थी।

किंतु झारखंड गठन की माँग के आंदोलन को परवान चढ़ाया दिशोम गुरु शिबू सोरेन ने। दिनांक 4 फरवरी 1973 को धनबाद गोल्फ ग्राउंड में आयोजित विशाल सम्मेलन में गुरुजी ने अलग राज्य के आंदोलन को नई दिशा एवं गति प्रदान की। वे अपने साथियों के साथ सेम के पत्ते का रस निचोड़कर खजूर के डंठल से टॉर्च की रोशनी में दीवारों पर नारे लिख कर चेतना जगाने का कार्य किया करते थे। एक समय ऐसा आया जब आदिवासियों के परंपरागत हथियार तीर-धनुष पर बैन लगा दिया गया। इसका व्यापक विरोध होने लगा। गुरुजी दिल्ली जाकर तत्कालीन प्रधानमंत्री से मिले और तीर-धनुष पर लगा प्रतिबंध तत्काल हटाने का आदेश जारी करवाया। यह उनके करिश्माई नेतृत्व एवं चरणबद्ध आंदोलन का ही फल था कि केंद्रीय सरकार को झारखंड के गठन की स्वीकृति प्रदान करनी पड़ी और 15 नवंबर 2000 को झारखंड राज्य अस्तित्व में आया।

राजनीतिक जीवन - दिनांक 9 अगस्त 1995 में केंद्रीय सरकार ने झारखंड क्षेत्र स्वशासी परिषद् (जैक) का गठन किया, जिसके प्रथम अध्यक्ष बने आंदोलनकारी शिबू सोरेन।

मात्र 36 वर्ष की उम्र में शिबू सोरेन शोषितों की आवाज बनकर संसद पहुंचे। दिशोम गुरु की लोकप्रियता का आलम यह है कि दुमका लोकसभा क्षेत्र की जनता ने इनको 8 बार अपना सांसद चुना। निर्दलीय शिबू सोरेन पहली बार 112,160 वोट लाकर सातवीं लोकसभा में संसद पहुंचे। दूसरी बार नौवीं लोकसभा में उन्होंने झारखंड मुक्ति मोर्चा से चुनाव लड़ा और 247,502 वोट लाकर विजयी हुए। धीरे धीरे जनप्रिय शिबू सोरेन के वोट बढ़ते चले गए, चौदहवीं लोकसभा में उन्हें 339,516 वोट प्राप्त हुए।

संसदीय सफर -
सातवीं लोकसभा - 18.1.1980 से 31.12.1984
नौवीं लोकसभा - 2.12.1989 से 13.3.1991
दसवीं लोकसभा - 20.6.1991 से 10.5.1996
ग्यारहवीं लोकसभा - 16.5.1996 से 19.3.1998
तेरहवीं लोकसभा उपचुनाव - 3.6.2002 से 6.2.2004
चौदहवीं लोकसभा - 17.5.2004 से 18.5.2005
पंद्रहवी लोकसभा- 22.5.2009 से 18.5.2014
सोलहवीं लोकसभा - 16.5.2014 से 11.4.2019

राज्यसभा - गुरुजी के नाम से लोकप्रिय शिबू सोरेन 10 अप्रैल 2002 से 2 जून 2002 तक राज्यसभा सांसद रहे। वर्ष 2004 में सोरेन ने कोयला मंत्री दायित्व का भी निर्वहन किया।

मुख्यमंत्री - आदिवासी बहुल राज्य झारखंड में आदिवासियों के सर्वमान्य नेता शिबू सोरेन तीन बार मुख्यमंत्री बने. -
2.3.2005 से 12.3.2005
27.8.2008 से 19.1.2009
30.12.2009 से 1.6.2010

सर्वमान्य ट्राइबल नेता - झारखंड में 26.2 प्रतिशत ट्राइबल जनसंख्या है और इस सत्य को कोई नहीं झुठला सकता कि शिबू सोरेन ट्राइबल समुदायों के सर्वमान्य नेता हैं. आदिवासियों, वंचितों के साथ ही सभी जातियों और समुदायों के लोग शिबू सोरेन का सम्मान करते हैं। ईव्हीएम (EVM) की दलगत राजनीति अपनी जगह है, किंतु किसी भी पार्टी के वरिष्ठ नेता दिशोम गुरु शिबू सोरेन से मिलने जाते हैं तो पूरे सम्मान व आदर के साथ उनके पांव छूते हैं। झारखंड में गुरुजी शिबू सोरेन का स्थान सर्वोच्च है। जनजातीय समुदाय के नेताओं के मध्य नेतृत्व क्षमता के विकास का श्रेय दिशोम गुरु शिबू सोरेन को जाता है़।

सर्वसुलभ शिबू सोरेन सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों में सक्रिय रहे। वे ट्राइबल्स के शोषण के विरुद्ध कार्य करते रहे। गुरुजी ट्राइबल्स में व्याप्त सामाजिक बुराइयों पर दुःखी रहा करते। वे सदैव ट्राइबल्स युवाओं के मध्य शिक्षा, लोक गीत और नृत्य के प्रसार में सक्रिय रहे। गुरुजी जब अपने लोकसभा क्षेत्र दुमका में रहते, तो उनसे मिलना बहुत आसान होता था। वैसे गुरुजी को केवल दुमका तक सीमित करना गलत होगा, झारखंड ही नहीं असम, बिहार, पश्चिम बंगाल आदि राज्यों के हर उस गांव में गुरुजी की लोकप्रियता है, जहाँ एक आदिवासी भी निवास करता है़। समाज में इनके अविस्मरणीय योगदान को शब्दों में समेटना असंभव है। झारखंड की माटी का कण कण गुरुजी का आभारी है।

संतान - तीन पुत्र
स्व. दुर्गा सोरेन, पूर्व विधायक, जामा विधानसभा क्षेत्र
श्री हेमंत सोरेन, मुख्यमंत्री, झारखंड सरकार
श्री बसंत सोरेन, विधायक, दुमका विधानसभा क्षेत्र

पुत्रवधू -
श्रीमती सीता सोरेन, विधायक, जामा विधानसभा क्षेत्र

पुत्री -
श्रीमती अंजली सोरेन

Friday, 29 May 2020

पद्म भूषण कड़िया मुंडा, झारखण्ड


पद्म भूषण - 2019 सार्वजनिक मामलों के क्षेत्र में

जन्म : 20 अप्रैल' 1936
जन्म स्थान : टोला चांडिलडीह, गांव अनिगाड़ा, जिला खूँटी, झारखण्ड
वर्तमान निवास : गांव अनिगाड़ा, ब्लॉक खूँटी, जिला खूँटी, झारखण्ड
पिता : हाडवा मुण्डा
माता : चाम्बरी देवी
पत्नी : सुनन्दा देवी


जीवन परिचय - झारखंड के खूँटी जिला के अनिगाड़ा गांव में गुलामी के दौरान एक ट्राइबल परिवार में कड़िया मुंडा का जन्म हुआ. उन्होंने मैट्रिक तक की पढ़ाई गांव से ही की. फिर गांव से 40 किलोमीटर दूर रांची आ गए. कुशाग्र मुंडा ने रांची विश्वविद्यालय से स्नातक और फिर मानवशास्त्र में एम ए किया. मुंडा के दो पुत्र जगरनाथ एवं अमरनाथ और तीन पुत्रियाँ हैँ. इनकी पुत्री चंद्रावती शारु जो पेशे से शिक्षिका हैँ, 2015 में अपने खेत के कच्चे आमों को स्वयं सब्जी बाजार में बैठकर बेचा और सादगी की एक मिसाल कायम की.

राजनीतिक परिचय - मुंडा अपने कॉलेज के दिनोँ में ही सामाजिक कार्यों में रुचि लेने लगे. उन्होंने समाज के अतीत और वर्तमान के विभिन्न पहलुओं का गहन अध्ययन किया. पंडित दीनदयाल उपाध्याय की विचारधारा एवं अटल बिहारी बाजपेयी के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर मुंडा भारतीय जनसंघ से जुड़ गए. गांव के किसानों की बीज , खाद या सिंचाई की समस्याओं को लेकर अक्सर प्रखण्ड कार्यालय जाया करते एवं उनके निदान का भरसक प्रयास करते. अनुशासित व समय के पाबंद मुंडा संगठन में भी जगह बनाने लगे. ट्राइबल क्षेत्र की मूलभूत आवश्कताओं की समझ रखने वाले मुंडा की पैठ गहरी होती गई. मण्डल व जिला स्तर पर अपने दायित्वों का बखूबी निर्वहन करने वाले मुंडा को 1975 में बिहार प्रांतीय कमिटी के सह सचिव का दायित्व दे दिया गया.

1977 में लोकसभा चुनाव आ गए. उनदिनों 'भारतीय लोक दल' के 'हलधर किसान' चिन्ह पर चुनाव लड़ा गया. पार्टी ने कूल 405 सीटों पर प्रत्याशी उतारे, जिनमें 295 सीटों पर जीत हासिल हुईं. पार्टी ने खूँटी लोकसभा के लिए कड़िया मुंडा पर विश्वास जताया और वे उस खरे उतरे. मुंडा 91859 वोट लाकर विजयी हुए. पहली बार केंद्र में गैर-कांग्रेसी सरकार बनी. मुंडा पहली बार सांसद बने. पहली बार में ही उन्हें स्टील एवं माईन्स मंत्रालय के राज्यमंत्री के रूप में बड़ी जिम्मेदारी मिली.

1996 में अटल बिहारी वाजपेयी के तेरह दिन के कार्यकाल में कड़िया मुंडा कल्याण मंत्री रहे. वर्ष 2000 में कृषि एवं ग्रामीण उद्योग मंत्री बने. 2003 में कोयला मंत्री एवं 2004 में गैर-पारंपरिक ऊर्जा स्रोत मंत्री पद का निर्वहन किया. मुंडा ने 8 जून 2009 से 12 अगस्त 2014 तक लोकसभा उपाध्यक्ष पद को सुशोभित किया.

यूँ तो कड़िया मुंडा आठ बार सांसद रहे. किन्तु भारतीय राजनीति की विडम्बना देखिए, इनके मात्र तीन कार्यकाल ही पूरे हुए. शेष पाँचो लोकसभा किसी ना किसी कारण से अल्पावधि में ही भंग हो गई. यदि आठों कार्यकाल पूर्ण होते तो वे लगभग 14575 दिनोँ तक सांसद रहते, किन्तु इनका संसदीय कार्यकाल मात्र 8852 दिन का रहा. भारत की छठी लोकसभा तो मात्र 298 दिनोँ तक ही चल सकी थी. जबकि नौवीं 467 दिन, ग्यारहवीं 673 दिन एवं बारहवीं लोकसभा मात्र 404 दिन की रही.

सांसद :
छठी लोकसभा - 23.3.1977 से 14.1.1980
नौवीं लोकसभा - 2.12.1989 से 13.3.1991
दसवीं लोकसभा - 20.6.1991 से 10.5.1996
ग्यारहवीं लोकसभा - 16.5.1996 से 19.3.1998
बारहवीं लोकसभा- 19.3.1998 से 26.4.1999
तेरहवीं लोकसभा- 10.10.1999 से 6.2.2004
पंद्रहवीं लोकसभा - 22.5.2009 से 18.5.2014
सोलहवीं लोकसभा- 26.5.2014 से 23.5.2019

खूँटी लोकसभा देश में अपने आप में एक विचित्र लोकसभा है. इसका एक किनारा ओडिशा को छूता है तो दूसरा किनारा छत्तीसगढ़ को. यदि लोकसभा क्षेत्र में एक कोने से दूसरे कोने तक सफर तय करना हो तो दूरी लगभग 250 किलोमीटर है. इसके अंतर्गत अलग अलग 4 जिलों में छह विधानसभा क्षेत्र हैँ. सरायकेला-खरसांवा जिला के 'खरसांवा', रांची जिला के 'तमाड़', खूंटी जिला में 'खूंटी' व 'तोरपा' तथा सिमडेगा जिला में 'सिमडेगा' व 'कोलेबिरा' विधानसभा क्षेत्र आते हैं. किन्तु यह मुंडा का करिश्माई व्यक्तित्व ही था जो हर बार चुनाव में वोट बढ़ते चले गए. 2014 के चुनाव में मुंडा को 269185 वोट मिले.

अपने क्षेत्र में प्रायः पैदल घूमने वाले कड़िया मुंडा विधायक भी रहे. वर्ष 1982 में बिहार के खिजरी विधानसभा क्षेत्र में जब उपचुनाव हुआ तो मुंडा पहली बार विधायक बने. झारखंड गठन के बाद 2005 में एक बार पुनः मुंडा ने खिजरी का प्रतिनिधित्व किया.

संगठन में मुंडा ने विभिन्न दायित्वों का निर्वहन किया. 1980 में भाजपा के राष्ट्रीय कार्यसमिति सदस्य, 1982 में भाजपा अनुसूचित जनजाति मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष, 1998 भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष इत्यादि.

सरकार की विभिन्न समितियों एवं महत्वपूर्ण पदों की जिम्मेदारी समय समय पर कड़िया मुंडा को सौपी गई. 1977 में इस्पात मंत्रालय की हिन्दी समिति के अध्यक्ष.1990 में सदस्य - विज्ञान प्रौद्योगिकी समिति , वन एवं पर्यावरण समिति, उद्योग मंत्रालय की परामर्शदात्री समिति. 1991 में अनुसूचित जाति एवं जनजाति के कल्याण के लिए समिति, 1994 शहरी एवं ग्रामीण विकास समिति, अनुसूचित जाति जनजातियों के आरक्षण सम्बन्धी समिति, खाद्य आपूर्ति एवं सार्वजनिक वितरण समिति, नागरिक उड्डयन के लिए परामर्शदात्री समिति , चीनी एवं खाद्य तेल मामलों की समिति.

संसद में कई समितियों उसमितियों के अध्यक्ष के तौर पर मुंडा की उल्लेखनीय भूमिका रही - संसद भवन की सुरक्षा सयुंक्त समिति, बजट समिति, निजी सदस्य विधेयक एवं प्रस्ताव समिति, पुस्तकालय समिति, सांसदो के लिए कार्यालय एवं कंप्यूटर उपलब्ध कराने सम्बन्धित समिति.

जमीनी राजनेता मुंडा भारतीय संसदीय समूह समिति, चिल्ड्रेन फोरम, जल संरक्षण और प्रबंधन फोरम, यूथ फोरम, जनसंख्या और सार्वजनिक स्वास्थ्य फोरम, ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन फोरम के उपाध्यक्ष भी रहे.

सर्वसुलभ मुंडा सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों में सक्रिय रहे. वे ट्राइबल्स के शोषण के विरुद्ध कार्य करते रहे. मुंडा ट्राइबल्स में व्याप्त सामाजिक बुराइयों पर दुःखी रहा करते. वे सदैव ट्राइबल्स युवाओं के मध्य शिक्षा, लोक गीत और नृत्य के प्रसार में सक्रिय रहे. मुंडा यदि अपने लोकसभा क्षेत्र में रहते, तो उनसे मिलना बहुत आसान था. वे गांवों के लोगों से घूम- घूम कर जानते कि इस बार की खेती कैसी रही और पेड़ों पर फल की पैदावार कैसी हुईं. ऐसे सरल मुंडा चीन, फ्रांस, लंदन, नेपाल, नॉर्थ कोरिया, सिंगापुर, थाईलैंड व युएई इत्यादि देशों का भ्रमण कर चुके हैँ.

केंद्र में मंत्री रहते हुए खेतों में हल चलाने वाले सरल स्वभाव के मुंडा अपनी राजनीतिक व्यस्तताओं के बावजूद खेल आयोजनों के लिए समय अवश्य निकाल लिया करते थे. हॉकी एवं फुटबॉल उनके पसंदीदा खेल रहे. मुंडा के लम्बे राजनैतिक जीवन में किसी अपराध, भ्रष्टाचार या विवाद में उनका नाम कभी नहीं आया. वे चुनावों में होने वाले बेहिसाब खर्चों के विरुद्ध प्रयासरत रहे.

सम्मान - अपनी सादगी और कार्य के प्रति समर्पण के लिए पहचाने जाने वाले ट्राइबल राजनेता सह पूर्व लोकसभा उपाध्यक्ष कड़िया मुंडा को वर्ष 2019 में सार्वजनिक मामलों के क्षेत्र में उनके अविस्मरणीय योगदान के लिए देश का तीसरा सर्वोच्च सम्मान पद्म भूषण प्रदान किया गया. झारखण्ड में यह सम्मान उनके अलावा मात्र टाटा स्टील के पूर्व चैयरमैन रूसी मोदी एवं क्रिकेटर महेन्द्र सिंह धौनी को प्राप्त हुआ है.






पद्मश्री डॉ आर डी मुंडा


जन्म : 23 अगस्त' 1939
जन्म स्थान : देवड़ी, तमाड़, राँची, झारखण्ड
निधन:  30 सितम्बर' 2011 कैंसर से
मृत्यु स्थल : अपोलो हास्पिटल,राँची, झारखण्ड
पिता : गंधर्व सिंह मुंडा
माता : लोकमा मुंडा
पत्नी : अमिता मुंडा

जीवन परिचय - झारखण्ड के राँची जिले के प्रसिद्ध देवड़ी माता मन्दिर वाले गांव के ट्राइबल परिवार में रामदयाल मुंडा का जन्म हुआ. उनकी प्राथमिक शिक्षा अमलेसा लूथरन मिशन स्कूल तमाड़ में एवं माध्यमिक शिक्षा खूंटी हाई स्कूल में हुई. उन्होने 1963 में रांची विश्वविद्यालय से मानव विज्ञान में स्नातक किया. कुशाग्र बुध्दि मुंडा उच्चतर शिक्षा अध्ययन एवं शोध के लिए शिकागो विश्वविद्यालय, अमेरिका चले गए जहां से उन्होंने भाषा विज्ञान में 1968 में पीएचडी की. फिर वहाँ उन्होंने तीन वर्षोँ तक दक्षिण एशियाई भाषा एवं संस्कृति विभाग में शोध और अध्ययन किया. डॉ मुंडा 1972 - 81 से अमेरिका के मिनिसोटा विश्वविद्यालय के साउथ एशियाई अध्ययन विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर के रूप में अध्यापन कार्य करने लगे. वहाँ शिक्षण कार्य के अलावा साऊथ एशिया फोक की नृत्य संगीत टीम के सदस्य रहे और सांस्कृतिक आयोजनों में भाग लेते रहे.

मिनिसोटा विश्वविद्यालय में रहते हुए डॉ मुंडा को अमेरिकन युवती हेजेल एन्न लुत्ज से प्रेम हो गया फिर दोनों ने 14 दिसंबर 1972 को विवाह भी किया, किन्तु कुछ वर्षोँ बाद वह संबंध टूट गया. हेजेल से तलाक के बाद 28 जून 1988 को उन्होंने अमिता मुंडा से दूसरा विवाह किया. उनके इकलौते पुत्र हैँ प्रो. गुंजल इकिर मुण्डा.

योगदान - डॉ रामदयाल मुंडा भारत के ट्राइबल समुदायों के परंपरागत और संवैधानिक अधिकारों को लेकर बहुत सजग थे. लेकिन उनका मानना था कि प्रत्येक ट्राइबल का शिक्षित होना अति आवश्यक है, तभी ट्राइबल आन्दोलन सफल होगा, ट्राइबल्स को उनके अधिकार प्राप्त हो सकेंगे और ट्राइबल्स का विकास होगा.

रांची विश्वविद्यालय में तत्कालिन कुलपति डॉ कुमार सुरेश सिंह के आग्रह पर डॉ मुंडा 1982 में भारत लौट आए और जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग के गठन एवं विकास में अपना योगदान देने लगे. डॉ मुंडा 1983 में ऑस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी, कैनबेरा में विजिटिंग प्रोफेसर रहे. न्यूयॉर्क की साईरॉक्स यूनिवर्सिटी में 1996 में एवं जापान की टोक्यो यूनिवर्सिटी ऑफ फॉरेन स्टडीज में 2011 में भी उन्होंने विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में अपनी सेवाएँ दी.

डॉ मुंडा 1985 - 86 में रांची विश्वविद्यालय के उप-कुलपति रहे और फिर 1986 - 88 तक कुलपति रहे.
राँची यूनिवर्सिटी में उनकी सादगी के कई किस्से लोकप्रिय हैँ, अपने कक्ष की अपनी टेबल और चेयर वे स्वयं साफ किया करते. राँची यूनिवर्सिटी में सरहुल महोत्सव की परम्परा की शुरुआत उनके द्वारा ही की गई थी. डॉ मुंडा 1990- 95 जेएनयू , नई दिल्ली एवं 1993 - 96 नॉर्थ इस्टर्न हिल यूनिवर्सिटी, मेघालय के कार्यसमिति सदस्य रहे.

डॉ मुंडा ने 1977- 78 में अमेरिकन इन्स्टिट्यूट ऑफ इण्डियन स्टडीज से , 1996 में यूनाइटेड स्टेट्स - इण्डिया एजुकेशन फ़ाऊंडेशन से एवं 2001 में जापान फाऊंडेशन से फेलोशिप प्राप्त की.

उन्होंने झारखंड की आदिवासी लोक कला, विशेषकर ‘पाइका नृत्य’ को वैश्विक पहचान दिलाई. जुलाई 1987 में मास्को, सोवियत संघ में भारत महोत्सव हुआ था, जिसमें डॉ मुंडा ने सांस्कृतिक दल का नेतृत्व किया एवं उनकी टीम ने 'पाइका नृत्य' की अविस्मरणीय प्रस्तुति की.

वर्ष 1988 में बाली, इंडोनेशिया में हुए अंतरराष्ट्रीय संगीत कार्यशाला में भी डॉ मुंडा और उनके दल ने भाग लिया. मनीला, फिलीपींस में आयोजित अन्तराष्ट्रीय नृत्य एलायंस, ताइपे, ताईवान के अन्तराष्ट्रीय लोक नृत्य महोत्सव, यूरोप के ट्राइबल एवं दलित अभियान में डॉ मुंडा ने पाइका नृत्य की प्रस्तुतियाँ दी.

डॉ मुंडा 1988 में संयुक्त राष्ट्र संघ से जुड़ गए. वे जेनेवा में यू एन कार्यसमूह में नीति निर्माता रहे. न्यूयॉर्क के द इण्डियन कॉनफेडेरेशन ऑफ इण्डिजिनियस एण्ड ट्राइबल पीपुल्स आईसीआईटीपी में वरिष्ठ पदाधिकारी रहते हुए डॉ मुंडा ने बेबाक तरीके से ट्राइबल हितों को रखा. उनका मानना था पूरा देश मरुभूमि बनने के कगार पर है. केवल जहाँ जहॉ ट्राइबल्स रहते हैं, वहीं थोड़ा जंगल बचा है. अतः यदि जंगल को बचाना है तो ट्राइबल्स को बचाना होगा.

भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय के अन्तर्गत भारतीय मानवविज्ञान सर्वेक्षण विभाग में डॉ मुंडा ने वर्ष 1988 से 91 तक अपनी सेवाएँ दी. झारखण्ड आंदोलन के दौरान गृह मंत्रालय भारत सरकार द्वारा एक झारखंड विषयक समिति का गठन किया गया था, डॉ मुंडा 1989-1995 तक इसमेँ सदस्य रहे. कमिटी के कार्यकलापों एवं उनके अनुभवों पर आधारित कई आर्टिकल्स इण्डिया इंटरनेशनल सेंटर के त्रैमासिक पत्रिका में प्रकाशित हुए.

राष्ट्रीय शिक्षा नीति की समीक्षा के लिए 1990 में आचार्य राममूर्ति की अध्यक्षता में एक समीक्षा समिति का गठन हुआ था, जिसमें बतौर सदस्य डॉ मुंडा ने झारखण्ड (तत्कालिन बिहार) का प्रतिनिधित्व किया. डॉ मुंडा 1997 में अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के सलाहकार समिति सदस्य तथा 1998 में केंद्रीय वित्त मंत्रालय की फाइनांस कमेटी के सदस्य रहे. नवम् योजना आयोग, राष्ट्रीय महिला आयोग, मानवाधिकार शिक्षा की स्थायी समिति, विश्विद्यालय अनुदान आयोग, सामाजिक और आर्थिक कल्याण के संवर्धन के लिए राष्ट्रीय समिति , साहित्य अकादमी, राष्ट्रीय शिक्षक शिक्षा परिषद, वन अधिकार अधिनियम के अंर्तगत गठित अनुसूचित जनजाति एवं वनवासियों के लिए नीति निर्धारण समिति, सामाजिक न्याय और अधिकारिता समिति, जनजातीय मामलों के मंत्रालय की सलाहकार समिति इत्यादि कई केंद्रीय स्तरीय समितियों में डॉ मुंडा को सदस्य मनोनीत किया गया.

सामाजिक कार्यों व ट्राइबल्स उत्थान में सक्रिय डॉ मुंडा विभिन्न संस्थानों व संगठनो से जुड़े रहे तथा समय समय पर विभिन्न दायित्वों का निर्वहन किया. यथा भारतीय आदिवासी संगम, आदिम जाति सेवा मंडल, राँची यूनिवर्सिटी पीजी टीचर्स एसोसिएशन, बिंदराय इंस्टीट्यूट फॉर रिसर्च स्टडी एण्ड एक्शन चाईबासा, अखिल भारतीय साहित्यिक मंच नई दिल्ली, भारतीय साहित्य विकास न्यास.

देशज पुत्र डॉ मुंडा ने पूरी दुनिया के ट्राइबल समुदायों को संगठित किया. प्रत्येक वर्ष 9 अगस्त को "वर्ल्ड ट्राइबल डे" मनाया जाता है, इस परंपरा को शुरू करवाने में उनका अहम योगदान रहा है. खूँटी जिला में डोमबारी पहाड़ी पर बिरसा मुण्डा की 18 फिट ऊँची प्रतिमा की स्थापना में उनकी मुख्य भूमिका रही.

झारखण्ड आंदोलन के दौरान मोटर साइकिल में घूमने वाले प्रोफेसर मुंडा ने सांस्कृतिक साहित्यिक अलख जगाई -

अखंड झारखंड में
अब भेला बिहान हो
अखंड झारखंड में..
और समय अइसन आवी न कखन,
लक्ष भेदन लगिया,
उठो-उठो वीर,
धरु धनु तीर
उठो निजो माटी लगिया ...

राजनीतिक पारी खेलते हुए डॉ मुंडा 1991 से 1998 तक झारखंड पीपुल्स पार्टी के प्रमुख अध्यक्ष रहे. राज्यसभा में 245 सदस्य होते हैं. जिनमे 12 सदस्य भारत के राष्ट्रपति के द्वारा नामांकित होते हैं. इन्हें 'नामित सदस्य' कहा जाता है. डॉ मुंडा की अतुलनीय योग्यता व विद्वता को देखते हुए दिनांक 22 मार्च 2010 को राज्यसभा के लिए नामित किया गया.

डॉ मुंडा ने अमेरिका, रूस, आस्ट्रेलिया, फिलीपिंस, चीन, जापान, इंडोनेशिया, ताईवान सहित कई देशों का दौरा किया. 1987 में स्विट्जरलैंड के जेनेवा में आयोजित इण्डिजिनियस पापुलेशन, 1997 में डेनमार्क के कोपेनहेगन में आयोजित इण्डिजिनियस एकॉनामी , 1998 में नागपुर में इंटरनेशल एलायंस फॉर इण्डिजिनियस पीपुल्स ऑफ द ट्रॉपिकल फॉरेस्ट, 1999 में इंदौर में सयुंक्त राष्ट्र संघ के स्थायी फोरम, 2000 में जर्मनी के बर्लिन में खेल एवं शिकार , 2002 में स्वीडेन के उपसाला, न्यूयॉर्क एवं बैंकाक में देशज लोगों के विभिन्न मुद्दों पर आधारित अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों में डॉ मुंडा ने भाग लिया.

साहित्यकार डॉ रामदयाल ने मुंडारी, नागपुरी, पंचपरगनिया, हिंदी, अंग्रेजी में गीत-कविताओं के अलावा गद्य साहित्य रचा है. उनकी संगीत रचनाएं बहुत लोकप्रिय हुई हैं. इन्होंने कई महत्वपूर्ण अनुवाद किए.

कृतियाँ -
मुंडारी गीत - हिसिर
कुछ नए नागपुरी गीत
मुंडारी गीतकार श्री बुधु बाबू और उनकी रचनाएँ
मुंडारी व्याकरण
मुंडारी, हिन्दी व नागपुरी कविताएँ - सेलेद
प्रोटो खेरवारियन साउंड सिस्टम - शिकागो यूनिवर्सिटी
एई नवा कानिको - मुंडारी में सात कहानियाँ
नदी और उसके सम्बन्ध तथा अन्य नगीत
वापसी, पुनर्मिलन और अन्य नगीत
कविता की भाषा
देशज व ट्राइबल का परिचय
आदिवासी अस्तित्व और झारखंडी अस्मिता के सवाल
आदि धर्म, भारतीय आदिवसियों की धार्मिक आस्थाएं
अदान्दि बोंगा - वैवाहिक मंत्र
बा (एच) बोंगा - सरहुल मंत्र
गोनोई पारोमेन बोंगा - श्रद्धा मंत्र
सोसो बोंगा - भेलवा पूजन
जी टोनोल - मन बंधन
जी रानारा - मन बिछुड़न
एनीयोन - जागरण
महाश्वेता देवी की ' बिरसा ' का बंग्ला से हिन्दी अनुवाद

अंग्रेजी में अनुवाद -
जगदीश्वर भट्टाचार्य का संस्कृत नाटक हास्यार्णव प्रहसनम्
जितेंद्र कुमार का हिन्दी उपन्यास 'कल्याणी'
नागार्जुन का आंचलिक उपन्यास 'जमनिया का बाबा'
जयशंकर प्रसाद का प्रसिद्ध हिन्दी नाटक 'ध्रुवस्वामिनी'
जयशंकर प्रसाद का हिन्दी उपन्यास 'तितली'
रामधारी सिंह दिनकर का काव्य 'रश्मिरथी'

वर्ष 2010 में अखरा द्वारा निर्मित फिल्म गाड़ी लोहरदगा मेल में प्रेरणास्त्रोत डॉ मुंडा कहते हैँ नाच गाना ट्राइबल का कल्चर है, जब काम पर जाओ तो नगाड़ा लेकर जाओ और जब थकान हो जाए, काम से जी ऊबने लगे तो थोड़ी देर नगाड़ा बजाओ.

डॉ मुंडा कहते थे 'नाची से बांची' - इसी को शीर्षक बनाकर राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता एवं पहले ट्राइबल फिल्म निर्माता बीजू टोप्पो ने 2017 में डॉ रामदयाल के जीवनचरित पर आधारित 70 मिनट की फिल्म का निर्माण किया है. फिल्म में जनजातीय जीवन को काफी जीवंत तरीके से सामने रखा गया . इस फिल्म ने कई राष्ट्रीय पुरस्कार बटोरे हैँ.

शोधार्थी, शिक्षक, अंतरराष्ट्रीय स्तर के भाषाविद्, समाजशास्त्री, साहित्यकार, अप्रतिम ट्राइबल कलाकार , बाँसुरी वादक, संगीतज्ञ, राज्यसभा सांसद डॉ रामदयाल मुंडा के बहुमुखी व्यक्तित्व की गाथा को शब्दों में समेटना असम्भव है.

सम्मान एवं पुरस्कार - झारखण्ड की प्रमुख बौद्धिक और सांस्कृतिक शख्सियत रामदयाल मुंडा को 2010 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया. 2007 में उन्हें संगीत नाटक अकादमी का सम्मान प्रदान किया गया. झारखण्ड सरकार द्वारा मोहराबादी, राँची में डॉ रामदयाल मुंडा जनजातीय कल्याण शोध संस्थान एवं संग्रहालय का संचालन हो रहा है. वर्ष 2013 में राँची होटवार स्थित कला भवन में डॉ मुंडा की प्रतिमा की स्थापना की गई.
23 अगस्त 2018 को शोध संस्थान में उनकी मूर्ति का अनावरण किया गया. राँची राजकीय अतिथशिाला के सामने रामदयाल मुंडा पार्क बना हुआ है.

उनकी रचना सरहुल मंत्र की दो पंक्तियाँ -

हे स्वर्ग के परमेश्वर, पृथ्वी के धरती माय... जोहार !
हम तोहरे के बुलात ही, हम तोहरे से बिनती करत ही, हामरे संग तनी बैठ लेवा, हामरे संग तनी बतियाय लेवा, एक दोना हड़िया के रस, एक पतरी लेटवा भात, हामर संग पी लेवा, हामर साथे खाय लेवा..

इन पंक्तियों में डॉ मुंडा स्वर्ग के परमेश्वर को, पृथ्वी की धरती माता को, शेक्सपीयर, रवींद्रनाथ टैगोर, मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन, सिदो-कान्हु, चांद-भैरव, बिरसा मुंडा, गांधी, नेहरू, जयपाल सिंह मुंडा जैसे धरती पुत्रों को, जो ईश्वर के पास चले गए हैँ, उनको आमंत्रण भेजते हैँ

Tuesday, 26 May 2020

पद्मश्री गुलाबो सपेरा, राजस्थान 2016 कला



पद्मश्री - कला (लोक नृत्य)
जन्म : 3 नवम्बर' 1972
जन्म स्थान : गांव कोटड़ा, जिला अजमेर, राजस्थान
वर्तमान निवास : मुखर्जी कॉलोनी, गेट संख्या 4, शास्त्रीनगर, जयपुर, राजस्थान
पति : सोहन नाथ, लोक कलाकार (ढोलक)

जीवन परिचय - राजस्थान की एक घुमक्कड़ जाति है कालबेलिया, जो शहर या गांव के बाहर तंबू लगाकर रहती है. एक स्थान पर ये लोग ज्यादा नहीँ टिकते थे. राजस्थान की इसी ट्राइबल जाति में पैदा हुई थी गुलाबो सपेरा.

गुलाबो के जन्म की कहानी भी बड़ी विचित्र है. गुलाबो के पिता साँपो का खेल दिखाने शहर की ओर गए हुए थे. गुलाबो की माँ को प्रसव पीड़ा हुई. कालबेलिया औरतों ने प्रसव करवाया, शाम को 5 बजे के आसपास लड़की पैदा हुई. पहले ही तीन भाई तीन बहन मौजूद थे, अब एक और लड़की. उस जमाने में लड़की पैदा करना भी गुनाह था. गुलाबो की माँ बेसुध थी. उनकी नवजात लड़की छीन ली गई और रेत में दफना दी गई. गुलाबो की मौसी अंधेरा होने का इंतजार करने लगी और रात 11 बजे जाकर नवजात शिशु को निकाल लाई. ताकि गुलाबो की माँ एक बार अपनी बच्ची को गले लगाकर रो सके. पाँच घंटे रेत में दबा नवजात बच्चा भी कहीं जीवित रह सकता है भला. मौसी ने शिशु को लाकर माँ की गोद में डाल दिया. माँ फफककर रो पड़ी और गोद में पड़ी बच्ची भी. दैवीय कृपा से बच्ची जीवित थी. दूसरे दिन पिता वापस लौट आए. चूँकि बच्ची धनतेरस के दिन पैदा हुई थी सो उसका नाम रखा गया 'धनवंती' .

पिता अपनी बेटी से बहुत प्यार करते और डरते कि कबीले की औरतें इसे पुनः मारने का प्रयास ना करें. वे साँपो का खेल दिखाने जहाँ भी जाया करते , धनवंतरी को साथ ले जाया करते. साँपो का खेल देखने के बाद श्रध्दालु उन्हें दूध पिलाया करते. जो दूध बच जाता, उसे धनवंती को पिला दिया जाता. इसप्रकार साँपो का बचा हुआ दूध बड़ी होने लगी धनवंतरी.

सड़कों पर साँप का खेल चलता रहता वहीँ चादर पर शिशु धनवंती सोयी रहती, कभी कभार संपेरे पिता उसके ऊपर साँप डाल दिया करते. दर्शकों को बड़ा आनन्द आता. पैसे अच्छे मिलने लगे. साँपो के साथ खेलते खेलते बड़ी होने लगी धनवंती.

साल भर की हुई थी धनवंती कि उसकी तबीयत बहुत बिगड़ गई, इतनी कि वैद्य ने जवाब दे दिया. उस समय उनलोगों का तंबू जहाँ बना हुआ था, वहीँ समीप ही एक मजार थी. पिता धनवंती को बहुत प्यार करते थे, उसे गोद में लेकर दौड़े, मजार के समक्ष भूमि पर लिटा दिया और रोते रोते प्रार्थना करने लगे. थोड़ी ही देर में मजार पर चढ़ा हुआ एक गुलाब फूल बच्ची धनवंती के ऊपर गिरा और वह आँखे खोल अपने पिता को पुकारने लगी. आश्चर्यचकित पिता धनवंती व उस गुलाब फूल को लेकर अपने तंबू में लौट आए और अपनी बेटी को नया नाम दिया 'गुलाबो' .

गुलाबो पढ़ नहीँ पाई. 1986 में चौदह वर्ष की उम्र में ही इनका विवाह हो गया. इनकी पाँच संतान हैँ दो पुत्र दिनेश और भवानी एवं तीन पुत्रियाँ हैँ राखी, हेमा एवं रूपा.

योगदान - गुलाबो तीन वर्ष की उम्र से ही गले में साँप लपेटे सड़कों पर नाचने लगी थी. बीन, पूंगी और डफली की धुन पर उसका लचीला शरीर थिरकने लगता था. राजस्थान में प्रत्येक वर्ष कार्तिक पूर्णिमा के समय पुष्कर मेला का आयोजन होता है, जिसमें बड़ी संख्या में देशी विदेशी पर्यटक आते हैँ. मेले में गुलाबो के समुदाय के लोग भी इस आस से पहुंचते कि कुछ अतिरिक्त आमदनी हो जाएगी. गुलाबो 8 वर्ष की उम्र से पुष्कर मेला में जाने लगी और बीन की धुन पर अपनी नृत्य करती. सिक्कों के साथ साथ नोट भी उछलते.

वर्ष 1985 में पुष्कर मेले में घूमते हुए राजस्थान पर्यटन विभाग के अधिकारी हिम्मत सिंह एवं सांस्कृतिक कार्यकर्ता सह विख्यात लेखिका तृप्ति पाण्डे एक गोलाकार भीड़ के पास पहुंचे. झांककर देखा कि वहाँ कुछ संपेरे साँपो को नचा रहे थे, उन्ही साँपो के बीच नाच रही थी तेरह वर्षीय लड़की. दोनोँ की दृष्टि कालबेलिया नृत्य कर रही गुलाबो पर पड़ी और वे देखते ही रह गए. नृत्य समाप्त होने पर तृप्ति ने गुलाबो के पिता से कहा कि आपकी लड़की के शरीर में मानो हड्डी ही नहीँ है. इतना लचीलापन और इतनी शानदार प्रस्तुति. इस कलाकार का स्थान सड़कों पर नहीँ मंच पर है.

कुछ ही दिनोँ बाद दिल्ली में एक कार्यक्रम आयोजित था. राजस्थान पर्यटन विभाग की ओर से गुलाबो को दिल्ली लाया गया. जहाँ गुलाबो ने पहली बार मंच पर अपनी कला का प्रदर्शन किया. एक ऐसा प्रदर्शन जिसमें दर्शकों से उसे सिक्के नहीँ मिले, उसे मिली तालियों की गड़गड़ाहट.

उसी दर्शक दीर्घा में उपस्थित थे विख्यात क्यूरेटर पद्म भूषण राजीव सेठी , जो बड़े शांत भाव से उस ट्राइबल कलाकार की कला को देख रहे थे. उनके दिमाग में यूएसए में चल रहे फेस्टिवल ऑफ इण्डिया को और यादगार बनाने की योजना चल रही थी. जून 1985 में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी भी उस आयोजन में शरीक होने वाले थे. राजीव सेठी कालबेलिया नृत्य से प्रभावित हुए ना रह सके और इसी के साथ तय हो गया गुलाबो की यूएसए यात्रा का कार्यक्रम. परन्तु सफलता इतनी आसानी से नहीँ आती, गुलाबो दिल्ली में ही थी, उसके घर से खबर आई कि उसके पिता का निधन हो गया है. गुलाबो जयपुर के लिए रवाना हुई. शाम को अपने घर पहुँची. अपने पिता के शव के अन्तिम दर्शन किए. दूसरे दिन पिता की अंत्येष्टि थी और दूसरे ही दिन गुलाबो की यूएसए फ्लाईट. निर्णय कठिन था. किन्तु आँखो में आँसू लिए पिता की यादों और उनके चरणों के स्पर्श को अपने हृदय में अंकित कर गुलाबो रात दो बजे जयपुर से दिल्ली की ओर निकल पड़ी. इधर जयपुर में पिता के शव की आग ठण्डी नहीँ हुई थी, उधर वाशिंगटन में घूँघट से अपने आंसुओ को छिपाए गुलाबो थिरक रही थी. ऐसे शुरू हुआ मेलों में नाचने वाली गुलाबो का अंतरराष्ट्रीय स्तर की नृत्यांगना बनने का सफर.

अपने ही लिखे गानों को खुद ही गाने वाली और अपने ही गीतों पर नृत्य करने वाली गुलाबो ने ऐसी ख्याति पाई कि आज तक डेनमार्क ,ब्राजील, यू एस ए, जापान इत्यादि 165 देशों में उनके कार्यक्रम आयोजित हो चुके हैँ.

नृत्य संगीत में वैश्विक पहचान बनाने वाली गुलाबो ने प्रसिद्ध फ्रांसीसी संगीतकार थियरी ’टिटी’ रॉबिन के साथ एसोसिएट होकर कई कार्यक्रम किए. वर्ष 2002 उनदोनों का एक सयुंक्त 14-ट्रैक एल्बम 'राखी' काफी लोकप्रिय हुआ. थियरी रॉबिन और वेरोनिक गुइलियन द्वारा फ्रेंच में गुलाबो पर एक पुस्तक 'डांसेस गिताने डू राजस्थान' भी लिखी गई है.

विख्यात तो गुलाबो 1985 में हुई, जब पहली बार उनका कार्यक्रम दिल्ली एवं यूएसए में हुआ. उसके पूर्व 1983 में एक हॉलीवुड मूवी की शूटिंग राजस्थान में हो रही थी, उसमें इनका नृत्य शामिल हुआ. उसके बाद कई हिन्दी फिल्मों में इन्होंने नृत्य किए. गुलामी, बंटवारा, क्षत्रिय इत्यादि, विशेषकर निर्देशक जे. पी. दत्ता की फिल्मों में गुलाबो अवश्य दिखा करती थी. वर्ष 2013 में राजस्थान की फिल्म भंवरी का जाल एवं 2014 में राजु राठौड़ की सफलता में भी गुलाबो का योगदान है.

संजय दत्त और सलमान खान की मेजबानी में कलर्स टीवी के रियलिटी शो बिग बॉस सीजन 5 में शक्ति कपूर, जूही परमार, महक चहल जैसे फिल्म कलाकारों के साथ गुलाबो सपेरा ने भाग लिया. वर्ष 2011 में आयोजित इस लोकप्रिय टीवी शो में वे 14 दिनोँ तक रहीं.

गुलाबो का मानना है कि स्टेज ही उसके लिए मन्दिर है और दर्शक ही भगवान. वह कहतीं हैँ कि पूरे समर्पित भाव से नृत्य करें, इतनी तन्मयता से नृत्य करें कि यदि नृत्य के बीच में चाहे साउंड सिस्टम बन्द हो जाए या गीत की आवाज आनी बन्द हो जाए, पूरा होने तक नृत्य नहीँ रुकना चाहिए. उनकी इन्हीं विशेषताओं के कारण जयपुर की महारानी गायत्री देवी उन्हें पुत्री तुल्य स्नेह दिया करती. एक बार जैसलमेर में महारानी गायत्री देवी द्वारा आयोजित एक समारोह में गुलाबो बतौर अतिथि आमंत्रित थी. लोगों ने उन्हें नृत्य के लिए आग्रह किया. रात 10 बजे जो नृत्य प्रारम्भ हुआ वो सुबह 5 बजे तक चला. दर्शक डिनर करना भूल गए, ऐसी अदाकारा है गुलाबो सपेरा.

विश्व फलक पर कालबेलिया नृत्य की पहचान स्थापित करने वाली गुलाबो सपेरा नई पीढ़ी की छात्राओं को प्रशिक्षण दे रहीं हैँ. देश विदेश में विशेष कर जयपुर और डेनमार्क में इनके द्वारा प्रशिक्षण शिविर आयोजित किए जाते हैँ. आजकल गुलाबो पुष्कर में डांस एकेडमी की स्थापना में भी सक्रिय हैँ. गुलाबो सपेरा ने जयपुर में एक एनजीओ ' गुलाबो सपेरा नृत्य एवं संगीत संस्थान ' की भी स्थापना की है, जो राजस्थान सोसायटी एक्ट में पंजीकृत है, पंजीकरण संख्या 28/जयपुर/2006-07 दिनांक 13.04.2006 है.

गुलाबी शहर जयपुर में रहने वाली गुलाबो नृत्य करते समय 16 किलो राजस्थान के पारम्परिक चाँदी के जेवर और काले कपड़े पहनती है. इस ड्रेस की भी अपनी एक कहानी है. गुलाबो ने अपने जीवन में पहली फिल्म सात वर्ष की आयु में देखी 'आशा' . फिल्म देखकर लौटने के बाद गुलाबो के मन मस्तिष्क में रीना रॉय का लोकप्रिय गीत 'शीशा हो ये दिल हो' और उनकी काली ड्रेस छा गई. जो आगे चलकर उनका पसंदीदा लिबास बन गया.

सम्मान एवं पुरस्कार - अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त ट्राइबल नृत्यांगना गुलाबो सपेरा को 2016 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया. फरवरी' 2019 में गुलाबो को जापान में यूनेस्को पुरस्कार प्रदान किया गया. उन्हें विभिन्न संस्थानो द्वारा समय समय पर कई पुरस्कारों से नवाजा गया - राष्ट्रपति पुरस्कार, संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, टाइम्स म्यूजिक अवार्ड, राणा अमेरिका अवार्ड, अम्बेडकर अवार्ड, राजस्थान गौरव अवार्ड, गुजरात गौरव अवार्ड, गुंजन पुरस्कार आदि. वे 2010 में भास्कर वीमेन फॉर द ईयर के लिए नामित हुईं.


Ref :
i) The Indian Express , Jaipur Edition 29 January' 2016 story Written By Sri Mahim Pratap Singh .

ii) Interview of Gulabo Sapera on YouTube , Total Junction dated 7 April 2019

Saturday, 23 May 2020

पद्मश्री थांगा डारलोंग, त्रिपुरा 2019

पद्मश्री - कला (बाँसुरी)
जन्म : 20 जुलाई ' 1920
जन्म स्थान : बॉबे कैलाशाहर, जिला उनाकोटि ,
अगरतल्ला से 150 किलोमीटर, त्रिपुरा
पिता : हाकवुंगा डारलोंग

जीवन परिचय - नार्थ ईस्ट की एक अनुसूचित जनजाति है डारलोंग, इस समुदाय के लोग भारत में केवल त्रिपुरा में मिलेंगे, वो भी संख्या में 25000 से कम. यानि 37 लाख की आबादी वाले त्रिपुरा में डारलोंग समुदाय 1% से भी कम है. इसी समुदाय में जन्में थांगा डारलोंग.

योगदान - आधुनिकता की दौड़ में परम्पराओं को ताक पर रख दिया जाता है. लेकिन परम्पराएँ ही इंसान को उसके अतीत से जोड़ती है. परम्पराएँ समुदायों का इतिहास बताती हैँ. ऐसी ही एक परम्परा के वाहक हैँ थांगा डारलोंग.

नृत्य, गीत और संगीत यह ट्राइबल समुदायों की विशेषता होती है. डारलोंग समुदाय में बांस से एक वाद्य यंत्र 'रोजेम' बनाया जाता था. थांगा के पिता रोजेम बनाने और बजाने में निपुण थे. उन्हें देखकर थांगा बचपन से ही रोजेम बजाने लगे. फिर उन्हें उस्ताद डारथुमा डारलोंग का सान्निध्य मिला और वे रोजेम वाद्ययंत्र में पारंगत होने लगे.

थांगा रोजेम की बारीकियों से अवगत होने लगे और धीरे धीरे गांव के हर त्यौहार में बजाने लगे. थांगा जब धुन छेड़ते तो लोगों के पांव थिरकने लगते. उनकी लोकप्रियता बढ़ने लगी. देश के विभिन्न स्थानों में थांगा को रोजेम बजाने का अवसर मिला. थांगा अपनी संगीत कला के प्रदर्शन के लिए जापान आदि कई देशों में गए.

मिट्टी की दीवारों और टीन की छत वाली झोपड़ी में रहने वाले थांगा पारम्परिक संगीत के वाहक हैँ. उन्होने ना केवल पारम्परिक वाद्य यंत्र को संरक्षित किया बल्कि अपने समुदाय के युवाओं को प्रशिक्षित भी कर रहे हैँ.

त्रिपुरा यूनिवर्सिटी में वर्ष 2016 में थांगा डारलोंग के जीवनचरित पर 74 मिनट की फिल्म 'ट्रि ऑफ टंग्स' बनी, जिसके निर्देशक थे जोशी जोसेफ.

सम्मान एवं पुरस्कार - त्रिपुरा में आज तक मात्र पाँच लोगों को पद्मश्री अवार्ड्स प्राप्त हुए हैँ, जिनमें चौथे हैँ थांगा डारलोंग. वैसे ये राज्य के पहले ट्राइबल हैँ जिनको पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया गया. वर्ष 2014 में नईदिल्ली में इनको संगीत नाटक अकादमी सम्मान प्रदान किया गया. 2015 में थांगा को शैक्षणिक फेलोशिप अवार्ड प्राप्त हुआ. 2016 में थांगा राज्य स्तरीय वयोश्रेष्ठ सम्मान से सम्मानित हुए. भारत सरकार के सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने 2017 में इन्हें राष्ट्रीय वयोश्रेष्ठ सम्मान प्रदान किया. 2019 में पद्मश्री सम्मान के पश्चात 28 फरवरी 2019 को त्रिपुरा के मुख्यमंत्री ने 99 वर्षीय थांगा को अटल बिहारी बाजपेयी लाइफटाइम ऐचिवमेंट अवार्ड से सम्मानित किया. 

Thursday, 21 May 2020

पद्मश्री भागवत मुर्मू ' ठाकुर'

पद्मश्री - सामाजिक कार्य
जन्म : 28 फरवरी ' 1928
जन्म स्थान : गांव बेला, पोस्ट माटिया, जिला जमुई, बिहार - 811312
निधन:  30 जून ' 1998
मृत्यु स्थल : गांव के अपने घर में

जीवन परिचय - बिहार के जमुई जिला के खैरा प्रखण्ड के बेला गांव के ट्राइबल परिवार में भागवत मुर्मू का जन्म हुआ. स्कूली शिक्षा पूर्ण होने पर भागवत मुर्मू राँची आ गए और वहीँ संत जेवियर कॉलेज में पढ़ने लगे.

योगदान - कॉलेज के दिनोँ में ही भागवत सामाजिक कार्यों में रुचि लेने लगे. स्नातक के बाद वे 1952 में संथाल पहाड़िया सेवा मंडल, देवघर से जुड़ गए. भागवत मुर्मू 'ठाकुर' ट्राइबल, दलित, पिछड़े व कमजोर वर्ग के उत्थान कार्यों में सक्रिय रहने लगे. 1957 में बिहार विधानसभा चुनावों की घोषणा हो गई. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भागवत को 'झाझा विधानसभा' से चुनावी मैदान में उतार दिया. उस जमाने में कांग्रेस का चुनाव चिन्ह 'दो बैलों की जोड़ी' थी. भागवत ने जीत दर्ज की और पाँच वर्षोँ तक लगातार ट्राइबल्स व पिछड़े वर्ग की आवाज बन कर बिहार विधानसभा में शोभायमान रहे. भागवत 1989 से 1991 विधान परिषद सदस्य रहे.

साहित्यकार भागवत मुर्मू 'ठाकुर' कविता, कहानी, गीत लिखते रहे. उनकी रचनाएँ हिन्दी, संथाली व बंग्ला में होती थी. उन्होंने देवनागरी लिपि में कई संथाली पुस्तकें लिखी. उनकी कई पुस्तकें एवं रचनाएँ विभिन्न यूनिवर्सिटी के सिलेबस में शामिल हैँ. विशेष कर उनके द्वारा लिखे गए दोङ गीत यू पी एस सी सिलेबस का हिस्सा है.उनकी पुस्तक दोङ सेरेञ (दोङ गीत) के संथाली ( ᱥᱟᱱᱛᱟᱲᱤ ) एवं हिन्दी दोनोँ संस्करण एमेजॉन पर उपलब्ध हैँ.

कृतियाँ -
सोहराय सेरेञ ( सोहराय गीत)
सिसिरजोन राङ ( काव्य संग्रह)
बारू बेड़ा (उपन्यास)
मायाजाल (कहानी)
संथाली शिक्षा
हिन्दी संथाली डिक्शनरी
कोहिमा (12 लोककथाएँ ) नागालैंड भाषा परिषद द्वारा प्रकाशित

श्रीमद्भागवत जिस तरह सरल व लोकप्रिय धार्मिक ग्रंथ है, अपने नाम की ही तरह भागवत मुर्मू का जीवनचरित भी सरल व लोकप्रिय रहा.

पुरस्कार एवं सम्मान - भागवत मुर्मू ' ठाकुर' देश के पहले ट्राइबल थे, जिनको पद्मश्री सम्मान से नवाजा गया. सामाजिक कार्यों एवं साहित्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान के लिए उन्हें 16 मार्च 1985 को पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया गया. इन्हें नालंदा विद्यापीठ द्वारा कवि रत्न सम्मान प्राप्त हुआ एवं भारतीय भाषा पीठ द्वारा डी लिट् की उपाधि दी गई.

पद्मश्री चित्तू टुडू, बिहार

जन्म : 31 दिसम्बर ' 1929
जन्म स्थान : साहूपोखर, पोस्ट श्याम बाजार, प्रखण्ड बौंसी, जिला बांका, बिहार - 813104
निधन:  13 जुलाई ' 2016
मृत्यु स्थल : गांव के अपने घर में
पत्नी : रानी सोरेन

जीवन परिचय - बिहार के भागलपुर प्रमण्डल के बौंसी गांव के एक ट्राइबल परिवार में चित्तू टुडू का जन्म हुआ. गांव में स्कूली शिक्षा हुई, चित्तू की पहचान एक योग्य व अनुशासित छात्र की रही. चित्तू ने ब्रिटिश शासन में मैट्रिक की परीक्षा पास की. देश में स्वतंत्रता आंदोलन जोरों पर था, हर युवा आजादी के यज्ञ में अपनी आहुति देना चाहता था. चित्तू के मन भी से देश के लिए कुछ करने का एक जज्बा हिलोरे ले रहा था. चित्तू ने अपनी भूमिका तय की और कूद पड़े. वे संथाल परगना कांग्रेस कमेटी से जुड़ गए. उसी क्रम में उनका सम्पर्क स्वतंत्रता सेनानी लाल बाबा से हुआ. चित्तू को स्वतंत्रता आंदोलन के बड़े नेताओं की जन सभा में दुभाषिये के रूप में कार्य करने का दायित्व दिया गया . चित्तू ट्राइब्ल्स बहुल क्षेत्रों में जाकर जनसम्पर्क करते एवं स्वतंत्रता सेनानियों के संदेश जनजातीय समुदाय तक पहुँचाते.

आजादी के बाद वर्ष 1950 में सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग में प्रचार संगठनकर्ता के रूप में सरकारी नौकरी में उनकी नियुक्ति हो गई. सूचना एवं जन-सम्पर्क विभाग में गीत नाट्य शाखा के संथाली भाषा के संगठनकर्ता, 1958 में अपर जिला जन-सम्पर्क पदाधिकारी, 1959 में जिला जनसम्पर्क पदाधिकारी, 1977 में उप जनसम्पर्क निदेशक और 1984 में संयुक्त निदेशक के पद पर प्रोन्नत हुए. अपने परिश्रम, व्यवहार व योग्यता के बल पर पदोन्नति प्राप्त करते हुए चित्तू अपनी सेवावधि में पाकुड़, चाईबासा, डाल्टनगंज, राँची और भागलपुर में कार्य किया तथा 1990 में संयुक्त निदेशक के पद से सेवानिवृत हुए। सफल वैवाहिक जीवन जीने वाले चित्तू को एकमात्र सन्तान हुई हीरामनी टूडू .


योगदान - सरकारी सेवा में रहते हुए ही चित्तू संथाली लोक गीत लिखने लगे. विभिन्न पत्र–पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ प्रकाशित और आकाशवाणी से प्रसारित होने लगी. इनके संथाली लोक गीतों का संग्रह 'जवांय धुती' काफी लोकप्रिय कृति है. इस पुस्तक के कई गीत सिदो कान्हु यूनिवर्सिटी के पाठ्यक्रम में शामिल हैँ. उन्होंने कई जीवनियों एवं नाटकों का संथाली में अनुवाद किया.

इनकी पुस्तक 'सोने की सिकड़ी - रुपा की नथिया ' आज भी साहित्यप्रेमियों की पसंद बनी हुई है और अमेजॉन पर उपलब्ध है. झारखण्ड में तेजी से बदलते सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिदृश्य में संथालों की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती जा रही है. आज की बदली हुई स्थिति में संथाल ट्राइबल्स के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन के विभिन्न पहलुओं पर गहन शोध एवं अध्ययन की आवश्यकता प्रबल होती जा रही है. संथाल समुदाय में प्रत्येक मौसम, त्योहार और अवसरों के लिए अलग-अलग गीतों के विधान हैं. दोङ अर्थात् विवाह गीतों के अतिरिक्त सोहराय, दुरूमजाक्, बाहा, लांगड़े रिजां मतवार, डान्टा और कराम प्रमुख संथाली लोकगीत हैं. बापला अर्थात् विवाह संथालों के लिए मात्र एक रस्म ही नहीं, वरन् एक वृहत् सामाजिक उत्सव की तरह है जिसका वे पूरा-पूरा आनन्द उठाते है. इसके हर विधि-विधान में मार्मिक गीतों का समावेश है. इन गीतों में जहाँ एक ओर ट्राइबल्स जीवन की सहजता, सरलता, उत्फुल्लता तथा नैसर्गिकता आदि की झलकें मिलेंगी, वहीं दूसरी ओर उनके जीवन-दर्शन, सामाजिक सोच, मान्यता, जिजीविषा तथा अदम्य आतंरिक शक्ति से भी अनायास साक्षात्कार हो जाएगा. विविधताओं से परिपूर्ण परम्परागत संथाली जीवन की झलक 'सोने की सिकड़ी - रुपा की नथिया ' में है. इसके अलावा इन्होंने संथाल में प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की जीवनी लिखी.
रास बिहारी लाल के हिन्दी नाटक ’’नए-नए रास्ते ’’ का संथाली भाषा में अनुवाद किया.

बिहार सरकार के सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग ने चित्तू टुडू द्वारा रचित संथाली लोक गीतों का उनके ही कंठ स्वर और संगीत निर्देशन में ग्रामोफोन रिकार्ड तैयार कराकर ट्राइबल क्षेत्रों में वितरण करवाया.  संथाली लोक गीतों की संरचना और नृत्य संगीत निर्देशन, कोरियोग्राफी में उनकी दक्षता, प्रवीणता और पांडित्य को देखते हुए बिहार सरकार ने उनके नेतृत्व और निर्देशन में 1976 से 1986 तक प्रतिवर्ष गणतंत्र दिवस के समारोह पर लाल किला दिल्ली में होनेवाले आयोजन में ट्राइबल नर्तक दल को भेजा.

चित्तू को राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के सानिध्य का अवसर भी प्राप्त हुआ. चित्तू साहित्यिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों में काफी सक्रिय रहते. वे विभिन्न संस्थानों से जीवनपर्यंत जुड़े रहे. चित्तू संथाली सांस्कृतिक सोसाइटी, रांची के संस्थापक उपाध्यक्ष तथा संथाली साहित्य परिषद, दुमका के अध्यक्ष रहे. टुडू नई दिल्ली स्थित नृत्य कला अकादमी के सदस्य भी रहे. 1970 के दशक में होड़ संवाद नामक साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन होता था.  चित्तू इसके सम्पादक मंडल में सदस्य रहे.

यत्र-तत्र बिखरे आदिवासी लोक नर्तकों की खोज कर उन्हें संगठित करने, संरक्षण देने और उनको मंच प्रदान करने की दिशा में चित्तू ने अहम् भूमिका निभायी. शिक्षा के पैरोकार चित्तू चाहते थे कि हर ट्राइबल बच्चा शिक्षित हो और इसके लिए हर गांव में एक स्कूल हो. अपने पैतृक गाँव बौंसी में छात्रावास एवं विद्यालय निर्माण हेतू चित्तू ने पाँच एकड़ भूमि दान की.

टुडू बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे. साहित्यकार , नर्तक , गायक , वादक , समाज सुधारक औऱ इन सबसे बढ़कर एक महान इंसान.

पुरस्कार एवं सम्मान - सामाजिक कार्यों एवं आदिवासी लोक संस्कृति के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान के लिए 6 अप्रैल 1993 को चित्तू टुडू को पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया गया. वे पूरे भारत में दूसरे ट्राइबल थे, जिन्हें पद्मश्री सम्मान से नवाजा गया. वर्ष 1986 में इनको बिहार राजभाषा विभाग द्वारा सम्मानित किया गया.

Wednesday, 13 May 2020

पद्मश्री जल पुरुष सिमोन उरांव

जन्म : 1932
जन्म स्थान : खक्सी टोली, गांव हरिहरपुर जामटोली, ब्लॉक बेड़ो, जिला राँची, झारखण्ड
वर्तमान निवास : साई ग्राम रोड़, बेड़ो बाजार, जिला मुख्यालय से लगभग 45 किमी, जिला राँची, झारखण्ड
पिता : बोरा उरांव
माता : बुधनी उरांव
पत्नी : बिरजिनिया उरांव 

जीवन परिचय - झारखण्ड की राजधानी राँची के सुदूर गांव खक्सी टोला में जनजातीय परिवार में सिमोन बाबा के नाम से लोकप्रिय सिमोन उरांव मिंज का जन्म हुआ था. पिता तीन भाई थे, एक चाचा फौज में भी गए और द्वितीय विश्वयुद्ध में लड़े, उस समय सैनिक की जान की कीमत पाँच रुपए मासिक हुआ करती थी. पिता कृषि की आजीविका से जुड़े थे, किन्तु सिंचाई की असुविधा के कारण गांव में कृषि नगण्य हो गई थी, वर्ष में चार माह जमकर बारिश हुआ करती थी, पर जल सरंक्षण की कोई सुविधा तो थी नहीँ, ना ही छोटे मोटे बाँध मूसलाधार बारिश में टीक पाते थे, सो गांव के लोगों की आजीविका अब कृषि नहीँ बल्कि पेड़ों की लकड़ियाँ बेचना हो चला था. पिता ने जैसे तैसे सोमेन को चौथी कक्षा तक पढ़ाया या यूँ कहें कि अक्षर ज्ञान करवाया. सूखे ने घर को सूखा दिया, गरीबी ऐसी बढ़ी कि जमीन की मालगुजारी के चालीस रुपए बकाया हो गए, पिताजी चुका ना सके, सो एक खेत नीलाम हो गया. सात साल की उम्र में सोमेन बकरी चराने लगे. परिवार की गरीबी का आलम यह था कि मडुआ का रोटी और सरई का फल खाकर गुजर बसर होती. इसी गरीबी में 1955 में विवाह भी हो गया, एक तो गरीबी, ऊपर से घर में नए सदस्य का प्रवेश . गांव में किसी से पता चला कि लगभग 50 किलोमीटर दूर चुटिया में सिविल कंस्ट्रक्शन का कार्य हो रहा है, पर जाते कैसे, कोई साधन तो था नहीँ, लेकिन भूख को चाहिए था भोजन और भोजन के लिए जरूरी था रोजगार. सोमेन प्रतिदिन भोर में पाँच बजे ही चुटिया के लिए निकल पड़ते और देर रात लौटते, प्रतिदिन 50 किलोमीटर पैदल जाना, वहाँ पसीना बहाना और फिर 50 किलोमीटर वापस आना. यह संघर्ष उन युवाओ के लिए प्रेरक है जो कम पॉकेट मनी मिलने पर यदि अपनी जरूरत पूरा करने के लिए ट्यूशन भी कर लेते हैँ, तो उसे संघर्ष का नाम देते हैँ.

सोमेन को तीन पुत्र हुए , जोसेफ, सुधीर और आनन्द. जिनमें आनन्द का निधन 2013 में हो गया. सोमेन का परिवार कैथोलिक धर्म का भी अनुयायी है. सोमेन बाबा जतरा टाना भगत को अपना आदर्श मानते हैँ.

योगदान - सोमेन ही नहीँ गांव के कई अन्य लोग भी रोजगार की आस में चुटिया जाने लगे. सोमेन तो प्रतिदिन रात को लौट आते थे, परन्तु उनके कई साथी वहीँ रहने लगे, यानी गांव से पलायन आरम्भ हो गया. एक ओर गांव की गरीबी, दूसरी ओर बेरोजगारी और अब पलायन की एक नई समस्या, सिमोन को यह सब कचोटने लगा.

सोमेन के गांव में छः झरने थे, सघन बारिश भी हुआ करती थी, किन्तु सिंचाई की व्यवस्था नहीँ थी, सोमेन ने ग्रामीणों को बांध बनाने का प्रस्ताव दिया किन्तु सहयोग नहीँ मिला. कुछ ग्रामीण तो इस प्रस्ताव पर हँस पड़े कि यह उनके बस का नहीँ. कुछ को अपनी जमीन जाने का भय सताने लगा. आत्मविश्वास से लबरेज सोमेन ने हार नहीँ मानी. 1961 में कुदाल लेकर अकेले निकल पड़े. धीरे-धीरे ग्रामीणों का साथ मिलने लगा. गांव के झरिया नाला के गायघाट के पास नरपतना में 45 फिट का बांध बनाया गया. किन्तु अगले ही मानसून के दौरान तेज बारिश में बांध बह गया.

उसी वर्ष उन्होनें गांव के पास पहाड़ियों की तलहटी में एक जलाशय बनाने के लिए ग्रमीणों को प्रेरित किया. इसका लाभ यह हुआ कि गांव में सब्जियों की भरपूर पैदावार हुई. अगले वर्ष नरपतना के बांध का मरम्मतीकरण एवं सुदृढ़ीकरण किया गया. सोमेन ने खक्सी टोला के निकट छोटा झरिया नाला में 1975 में दूसरे नए बाँध का निर्माण किया. 1980 के आसपास सिमोन के प्रयास से लघु सिंचाई योजना के अन्तर्गत हरिहरपुर जामटोली के निकट देशवाली बाँध का निर्माण हुआ. साथ ही अगले कुछ वर्षों में अलग अलग प्रयासों में अंतबलु, खरवागढ़ा व अन्य कई स्थानों में चेकडैम बने. सोमेन ने ग्रामीणों की मदद से साढ़े पाँच हजार फीट लम्बी कच्ची नहर निकाली. आज इन्हीं बांधों से सरकार द्वारा हजारों फिट पक्की नहर निकालकर खेतों तक पानी पहुंचाया जा रहा है. सिमोन बड़े बांधो के खिलाफ हैँ, इनका मानना है कि छोटे छोटे बांध बनने चाहिए, क्योंकि ये पर्यावरण को नुकसान नहीँ पहुँचाते.

बांध के अलावा सोमेन ने अधिक से अधिक तालाब खुदवाने पर जोर दिया. हरिहरपुर जामटोली, बिलति, भस्नांडा, बारीडीह, बोदा, महरू, हुटार, हरहंजी आदि गाँवों में कई तालाबों का निर्माण हुआ. हर टोले में पीने के पानी के लिए कुएँ खुदवाए.

सोमेन ने कहा कि बरसात का पानी नालों और नदियों से होता हुआ, समुद्र में चला जाता है, इसे रोको. यानी जल संग्रहण पर जोर दिया. उन्होंने कहा कि नलकूप जमीन के नीचे के पानी को को सोख लेते हैँ, इसलिए नलकूप की जगह कुएँ और तालाब खोदे जाएं, यानी जल संरक्षण पर जोर दिया.

सोमेन के प्रयासों से 2000 एकड़ से अधिक भूमि पर खेती होने लगी है. जहॉ साल में एक फसल नहीँ होती थी, वहीँ सिंचाई की व्यवस्था हो जाने पर कई योग्य कृषक एक से ज्यादा फसल कर रहे हैँ. विशेषकर उस क्षेत्र मे सब्जियों की पैदावार में काफी वृद्धि हुई है. बेड़ो ब्लॉक की सब्जियाँ राँची, जमशेदपुर, बोकारो व कोलकत्ता तक जातीं हैँ.

उरांव जनजाति में गांव समाज का संचालन स्वशासन प्रणाली के अन्तर्गत किया जाता है. गांव के धार्मिक क्रिया कलाप 'पाहन' द्वारा संचालित किए जाते हैँ. पाँच से ज्यादा गांवो के संगठन को 'पड़हा' कहते हैँ और इसका प्रमुख 'पड़हा राजा' कहलाता है. 1964 में सोमेन को बारह गांवो का पड़हा राजा चुन लिया गया. आज सोमेन वहाँ के 51 गांवो के पड़हा राजा हैँ.

1967 में भारी आकाल पड़ा, लोग दाने दाने को मोहताज हो रहे थे. ऐसे में सिमोन ने सामूहिक खेती पर बल दिया. गांव में जो भी खेती से सम्बन्धित हल, बैल,पम्प,मशीनरी, इक्यूपमेंट इत्यादि थे, वे सब एक जगह एकत्रित किए गए. प्रतिदिन किसी एक कृषक के खेत को तैयार किया जाता और सभी मिलकर उसपर काम करते. धीरे धीरे गांव के सभी खेतों में जोताई और बुआई हो गई. करीब करीब 250 एकड़ खेतों में मुख्यतः गेहूँ बोया गया. दैवीय कृपा से फसल भी अच्छी हुई. आज के गावों में पारिवारिक हिस्सों में बंटे छोटे छोटे खेतों के लिए इस प्रकार की सामूहिक खेती की अपार संभावनाएँ हैँ.

सोमेन की समाजसेवा की यात्रा यहीं नहीँ रुकी. उन्होंने 1976 में सामाजिक वानिकी कार्यक्रम शुरू किया. स्वयं प्रतिवर्ष 1000 वृक्षारोपण का लक्ष्य निर्धारित किया, साथ ही ग्रामीणों को वृक्ष लगाने के लिए प्रोत्साहित किया. अपने जल अभियान से जोड़ते हुए उन्होंने प्रचारित किया कि वृक्ष जल संसाधनों के क्षरण को रोकने
में सहायक हैँ. लोगों प्रोत्साहित हुए, उनके गांवो में आजतक जामुन, आम, साल, कटहल के लगभग 50 हजार से ज्यादा वृक्ष लगाए जा चुके हैँ. सिमोन पेडों की कटाई के कट्टर विरुद्ध हैँ, जंगल माफियाओं का विरोध करने पर इन्हें जेलयात्रा भी करनी पड़ी है.

सोमेन ने प्रत्येक गांव में 25 सदस्यीय ग्राम समिति का गठन किया. जो जल संरक्षण, जल संग्रहण, वृक्षारोपण, सामूहिक खेती, सब्जियों की मार्केटिंग को प्रोत्साहित करती है और पेड़ों की अवैध कटाई को रोकती है. प्रत्येक सप्ताह बृहस्पतिवार को इन ग्राम समितियों की बैठक होती है. किसी ना किसी एक समिति की बैठक में सोमेन बाबा स्वयं भी उपस्थित रहते हैँ. यदि गांव में कोई छोटा मोटा विवाद होता है तो ग्रामीण उसकी पंचायती करवाने सोमेन बाबा के पास आते हैँ. सोमेन उन्हें एक बात अवश्य समझाते हैँ कि 'आदमी से नहीं, जमीन से लड़ो, उसपर अन्न का कारखाना तैयार करो, विकास होगा, तुम्हारा भी, गांव का भी. अगर विनाश करना है तो आदमी से लड़ो.'

बहुमुखी प्रतिभा के धनी सोमेन का फूस और टीन से बना घर छोटे बड़े कई थैलों से भरा पड़ा है, जिनमें कई प्रकार की जड़ी बूटियाँ हैँ. क्योंकि सोमेन बाबा लोगों का देशी इलाज भी करते हैँ, जड़ी बूटी से दवा बनाते हैँ, अनपढ़ सोमेन आयुर्वेदिक चिकित्सक भी हैँ.

वर्ष 2009 में बारिश न होने के कारण सूखे की मार खेल रहे झारखंड को आधिकारिक रूप से सूखाग्रस्त घोषित कर दिया गया था. वैसी विपरीत परिस्थितियों में भी बेड़ो ब्लॉक के कई गांवो में अच्छी फसल हुई, जिसका सम्पूर्ण श्रेय सोमेन उरांव के जल संग्रहण अभियान को जाता है.

भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा प्रधानमंत्री ग्रामीण विकास फेलो के रूप वर्ष 2012-14 के लिए सोमेन बाबा का चयन किया गया. सोमेन उरांव जलछाजन विभाग, झारखण्ड सरकार के ब्रांड एम्बेसडर हैँ.

सोमेन बाबा की सादगी का आलम यह है कि सम्मान के क्रम में आजतक उन्हें जो फूलमाला पहनाई गई या गुलदस्ता दिया गया, बाबा ने उन्हें फेंका नहीँ, बल्कि अपने के घर में रखा हुआ है.

सम्मान - झारखण्ड के जल पुरुष के नाम से लोकप्रिय पर्यावरणविद पड़ाह राजा सोमेन उराँव मिंज उर्फ सोमेन बाबा को जल संरक्षण, जल संग्रहण, वन एवं पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में उनके अतुलनीय योगदान के लिए 2016 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया. वर्ष 2012 में विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर विकास भारती विशुनपुर ने सोमेन को जल मित्र सम्मान प्रदान किया.
नमन फाऊंडेशन ने सोमेन बाबा को नमन झारखण्ड गौरव सम्मान से सम्मानित किया. कई संस्थानो द्वारा सोमेन को उनके अविस्मरणीय योगदान के लिए सम्मानित किया गया.

वर्ष 2002 में अमेरिका के जैविक संस्थान के अध्यक्ष जे. एम. वैन्सिन ने सोमेन की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी. ग्रेट ब्रिटेन के नॉटिंघम यूनिवर्सिटी की शोधार्थी सारा जेविट ने काफी दिन सोमेन बाबा के गांव में बिताया और अपनी पीएचडी थीसिस में उनकी सक्सेस स्टोरी लिखी.

वर्ष 2018 में राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता एवं पहले ट्राइबल फिल्म निर्माता बीजू टोप्पो ने सोमेन उरांव की जीवन यात्रा पर 28 मिनट की फिल्म 'झरिया' का निर्माण किया है.

Monday, 11 May 2020

पद्मश्री मुकुंद नायक



जन्म : 15 अक्टूबर '1949
जन्म स्थान : गांव बोक्बा, ब्लॉक कोलेबीरा, जिला सिमडेगा, झारखण्ड
वर्तमान निवास : चुटिया, राँची , झारखण्ड
पत्नी : द्रौपदी देवी

जीवन परिचय - झारखण्ड के सिमडेगा जिला के एक अतिपिछड़े गांव बोक्बा में घासी जाति में जन्में मुकुंद नायक अपनी जाति का परिचय भी अपनी विशिष्ट शैली में देते हैँ - 'जहाँ बसे तीन जाइत, वहाँ बाजा बजे दिन राइत, घासी- लोहरा औ' गोडाइत' हालाँकि घासी जाति झारखण्ड के जाति वर्गीकरण के दृष्टिकोण से अनुसूचीत जनजाति नहीँ है, किन्तु झारखण्ड छत्तीसगढ़ का पुरातन इतिहास घासी जाति के बिना पूर्ण नहीँ हो सकता.

गांव में कृषक अपने खेत खलिहानों से लौटकर अखरा में एकत्रित हुआ करते थे, जहाँ एक दूसरे के दुःख दर्द खुशियों की चर्चा किया करते, मुकुंद अपनी माँ के साथ अखरा जाया करते. दिन भर की थकान मिटाने के लिए ग्रामीण लोग बाग वहाँ लोकगीत गाया करते, स्थानीय वाद्य बजाया करते, गीत-संगीत की बयार में उनकी सारी थकान मिट जाया करती. कहा जा सकता है कि मुकुंद की सांस्कृतिक पाठशाला अखरा ही थी. आज गावों में अखरा का प्रचलन कम होता जा रहा है, किन्तु अखरा गांव की संस्कृति का परिचायक है, अखरा गांव की सामाजिक पंचायत है बल्कि यह कहना कोताही नहीँ होगा कि अखरा अपने आप में ट्राइबल संसद है.

मुकुंद के पिता अशिक्षित कृषक थे, परन्तु उन्होनें प्राथमिक शिक्षा हेतू बोन्गराम के प्राइमरी स्कूल में मुकुंद का दाखिला करवा दिया, मुकुंद ने मिडिल स्कूल की पढ़ाई गांव बरवाडीह में की. उन्होनें एस एस हाई स्कूल सिमडेगा से मैट्रिक की परीक्षा उतीर्ण की और आगे की पढ़ाई के लिए टाटा कॉलेज चाईबासा चले आए.

कॉलेज की शिक्षा के बाद 1972 में मुकुंद बरवाडीह लौट आए और एक स्कूल में सहायक शिक्षक के रूप में कार्य करने लगे. इसी बीच उनका विवाह हो गया, जीवनसाथी के रूप में मिली द्रौपदी देवी, जिनके भीतर भी एक कलाकार हिलोरें ले रहा था. द्रौपदी चुटिया, राँची की रहने वाली थी , वर्ष 1974 में मुकुंद का भाग्य उन्हें चुटिया ले आया. जीवनयापन के लिए वे ट्यूशन पढ़ाने लगे. व्यक्ति की योग्यता उसकी राह आसान कर देती है, मुकुंद को उषा मार्टिन लि. में कैमिकल विश्लेषक की नौकरी मिल गई. मुकुंद के दो पुत्र नंदलाल नायक , प्रद्युम्न नायक एवं एक पुत्री चंद्रकांता हैँ . जिनमें नंदलाल लोक कलाकार व फिल्म निर्देशक के रूप में लोकप्रिय हो रहे हैँ.

उपलब्धियाँ - मुकुंद ने हाई स्कूल की पढ़ाई के दौरान ही गाना प्रारम्भ कर दिया था. कॉलेज में होने वाली प्रत्येक सांस्कृतिक गतिविधियों में हिस्सा लेने लगे. मुकुंद आदिवासी स्वयं मंडल छात्रावास में रहा करते थे , जहाँ सुबह शाम दो समय प्रार्थना होती थी, अकसर उन्हें उस समय गाने का अवसर मिला करता था ।

कॉलेज के दौरान उनकी मित्रता सोनारी, जमशेदपुर के रहने वाले जगदीश चरण लहरी से हुई , जो कविताएँ लिखा करते थे. जगदीश का काव्य पाठ आकाशवाणी, राँची में हुआ करता था. उषा मार्टिन में नौकरी के दिनोँ एक बार मुकुंद की मुलाकात कॉलेज के मित्र जगदीश से हुई, जो उन्हें आकाशवाणी राँची ले गए. उन दिनोँ उदघोषक सुगिया बहन उर्फ रोजलिन लकड़ा बहुत लोकप्रिय थीं, उन्होंने मुलाकात के दौरान जब मुकुंद का गाना सुना तो मुग्ध हो गईं, कहा जा सकता है कि मुकन्द की प्रतिभा को सबसे पहले सुगिया बहन ने ही पहचाना. मुकुंद ने अपनी पत्नी, परिवार और आस पड़ोस के लोगों को लेकर टीम बनाई और आकाशवाणी में कार्यक्रम करने लगे. 1975 से आकाशवाणी का यह सफर समय के साथ दूरदर्शन में भी आरम्भ हो गया.

यह वही समय था जब झारखण्ड आन्दोलन मूवमेंट जोर पकड़ रहा था. इतिहास गवाह है कि किसी भी आन्दोलन की सफलता के पीछे साहित्यिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों की अहम भूमिका होती है. मुकुंद अपने सहयोगियों के साथ सांस्कृतिक आयोजन किया करते और इस प्रकार के जागरण गीत लिखते -

'जागो जवान, झारखण्ड तेहू देहि ध्यान,
जागो जवान, नागपुर तेहू देहि ध्यान'


मुकुंद ने अपने सहयोगी कलाकार द्रौपदी देवी, मनकुई देवी, पारो देवी, रामेश्वर नायक, जलेश्वर नायक, मनपुरा नायक, देव चरण नायक, शिबू नायक के साथ मिलकर जनसमूह के समक्ष पहली बार जगन्नाथपुर मेला राँची में अपनी कला का प्रदर्शन किया. 1980 में रांची विश्वविद्यालय में तत्कालिन कुलपति डॉ कुमार सुरेश सिंह ने जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग का गठन किया, तब मुकुंद यूनिवर्सिटी से जुड़ गए. 1981 में अमेरिका की रिसर्च एसोसिएट प्रोफेसर डॉ कैरोल बाबिरकी झारखण्ड के संगीत और नृत्य पर शोध हेतू राँची आईं तो मुकुंद उनके साथ इस अध्ययन में जुड़े रहे. नागपुरी गीत संगीत को संरक्षित-सवंर्द्धित करने हेतू एवं कलाकारों को एक मंच देने हेतू मुकुंद ने 1985 में कुंजवन संस्था की स्थापना की. वर्ष
1988 में कुंजवन ने हांगकांग अंतरराष्ट्रीय नृत्य महोत्सव में हिस्सा लिया और काफी तारीफ बटोरी.

नागपुरी फिल्मों की शुरुआत 1992 में फिल्म ' सोना कर नागपुर ' से हुईं, जिसमें मुकुंद नायक ने गीत संगीत दिया तो एक कलाकार के रूप में पर्दे पर भी दिखे, फिर 2009 की लोकप्रिय फिल्म बाहा में अपने गीत दिए, इस फिल्म ने जर्मनी, यूएसए, फिनलैंड में भी कई अवार्ड जीते. 2019 में आई फिल्म फूलमनिया ने बड़े पर्दे पर ख्याति लूटी ही, पर उस फिल्म में मुकुंद नायक का एक मधुर गीत ' खिलल कोमलिनी मन' दर्शकों की जुबाँ पर छा गया.

जहाँ एक ओर पारम्परिक संगीत पश्चिमी सभ्यता से प्रभावित हो रहा है, व्यावसयिककरण की होड़ में अश्लील शब्दों का प्रयोग होने लगा है, ऐसे माहौल में भी ठेठ नागपुरी संगीत व गीत की परम्परा को आगे बढ़ाने के लिए कृतसंकल्प हैँ मुकुंद नायक.

झारखण्ड की लोक कला संस्कृति के महानायक मुकुंद पंचपरगनिया, बंग्ला, मुंडारी, कुड़ूख, नागपुरी, खोरठा जैसी कई भाषओं में गीत गाते हैँ, ज्यादातर स्वरचित गीत गाने वाले मुकुंद एक विद्वान गीतकार, संगीतज्ञ, ढोलकिया, नर्तक, लोक गायक, प्रशिक्षक, नागपुरी लोक नृत्य झुमइर के प्रतिपादक एवं लोक संस्कृति के वाहक हैँ.

सम्मान - लोक गायक 'मुकुंद नायक' को 2017 में कला एवं संगीत के क्षेत्र में पद्मश्री से सम्मानित किया गया. जनवरी 2019 में इन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार प्रदान किया गया. पर्यटन, कला-संस्कृति, खेल -कूद और युवा कार्य विभाग, झारखण्ड सरकार द्वारा भी मुकुंद नायक को सांस्कृतिक सम्मान प्रदान किया गया. दैनिक प्रभात खबर ने इन्हें झारखण्ड गौरव सम्मान से सम्मानित किया, दैनिक जागरण एवं लोक कला समिति ने झारखण्ड रत्न अवार्ड से सम्मानित किया. नागपुरी संस्थान द्वारा डॉ. विसेश्वर प्रसाद केसरी सम्मान , झारखण्ड हिन्दी साहित्य संस्कृति मंच द्वारा संस्कृति सम्मान के अलावा देश के भिन्न भिन्न हिस्सों में विभिन्न संस्थानों ने मुकुंद को सम्मानित किया है .

Friday, 8 May 2020

पद्मश्री तुलसी मुण्डा


जन्म : 15 जुलाई 1947
जन्म स्थान : गांव काइन्सि, ब्लॉक केन्दुझरगढ़ सदर, जिला क्योंझर, ओड़िशा

जीवन परिचय - ओडिशा के एक छोटे से गांव काइन्सि के ट्राइबल परिवार में देश की आजादी के ठीक एक माह पूर्व डॉ. तुलसी मुण्डा यानी तुलसी आपा वहाँ के बच्चों के साक्षर भविष्य की उम्मीद लेकर जन्मी । दो भाई और चार बहनों से छोटी तुलसी को पिता का प्यार ना मिल सका । विधवा माँ के साथ उनके कामों में हाथ बंटाते हुए, चूल्हा चाकी माटी से खेलती तुलसी बड़ी हो रही थी , गांव में स्कूल तो था नहीँ, जो पढ़ाई करती । उस समय 12 साल की भी नहीँ रही होगी तुलसी, जब अपनी बहन के साथ दो जून की रोटी की तलाश में अपने गांव से 63 किलोमीटर दूर बड़बिल ब्लॉक के सेरेण्डा गांव में पहुंच गई । रोजगार तो मिला , पर क्या, आयरन ओर माइंस में मजदूरी, फूल से हाथ और पत्थर को तोड़ने का काज, और तनख्वाह कितनी , 2 रुपए प्रति सप्ताह यानी 29 पैसे प्रतिदिन । यदि मुद्रास्फीति की दर को देखा जाए तो 1959 से 2020 में लगभग 7634% * की वृद्धि हुईं है, यानी आज के दृष्टिकोण से भी मात्र 22.43/- प्रतिदिन । ये आंकड़ा देना इसलिए जरूरी है, क्योंकि कुछ विद्वान कहेंगे कि उस जमाने में 29 पैसे बहुत होते थे । परन्तु इससे इतर सच्चाई यह है कि जंगलो के मालिकों को ही मजदूर बना दिया गया, उन्ही की खानों से लोहा निकालकर, उन्ही के खून से भट्टी जलाकर, लोहा गलाया गया, और ये काम बदस्तूर जारी है ।

इसी बीच वर्ष 1961 में लडकियो की शिक्षा के लिए समाज में जागरूकता फैलाने के उद्देश्य से समाजिक कार्यो के लिए प्रतिबद्ध निर्मला देशपांडे, मालती चौधरी और रोमा देवी ओडिशा आई, संयोगवश उनकी मुलाकात 14 वर्षीय मजदूर तुलसी से हुईं, जो इतना अक्षरज्ञान जरूर चाहती थी कि साप्ताहिक मजदूरी देते समय माइंस का मुंशी उससे कितने रुपयों पर अँगूठा लगवाता है और देता कितना है , यह पता रहे। गरीबी और भूख इंसान को जल्दी समझदार बना देती है, तुलसी अशिक्षित थी, उसे किताबी ज्ञान नहीँ था, किन्तु इन महिलाओं के सम्पर्क में आकर उसे शिक्षा का महत्व समझ में आने लगा । तुलसी की नई यात्रा प्रारम्भ होने लगी, राज्य के विभिन्न हिस्सों में चल रहे समाजिक शैक्षणिक संघर्ष में तुलसी उनके साथ भाग लेने लगी । वर्ष 1963 में भूदान आंदोलन पदयात्रा के दौरान विनोबा भावे ओड़िशा पहुँचे । गरीब ग्रामीणों के जीवन को उत्कृष्ट बनाने के लिए आचार्य विनोबा की प्रतिबद्धता में युवती तुलसी उनके पदचिन्हों पर चल पड़ी । उस पदयात्रा पर तुलसी ने विनोबा से वादा किया कि वह जीवन भर उनके दिशानिर्देशों और सिद्धांतों का पालन करेगी। तुलसी दी ने सभी ट्राइबल्स को अपना परिवार माना, अविवाहित रहीं ।


योगदान - लगभग एक साल बाद वर्ष1964 में आचार्य विनोबा के आदर्शों और लक्ष्यों से उत्साहित और उनकी सामाजिक सेवा प्रशिक्षण से लैस हो कर तुलसी सेरेण्डा गांव लौटी और माइंस में कार्यरत ट्राइबल श्रमिकों के बच्चों के लिए महुआ वृक्ष के तले एक स्कूल खोला ।

ट्राइबल्स बहुल इलाकों की जितनी अनदेखी हुईं है, वह पीड़ा एक ट्राइबल ही समझ सकता है । सेरेण्डा गांव को चयन करने का कारण यह नहीँ था कि तुलसी आपा ने इस गांव में मजदूरी की, बल्कि कारण यह था कि उन्होनें गांव के दर्द को ठीक से समझा । वर्ष 2011 की जनगणना के दौरान सेरेण्डा गांव की कूल जनसंख्या 2282 है , जिसमें 63% लोग ट्राइबल हैँ ।

लेकिन यह सफर इतना आसान नहीँ था, बच्चे अपने माता पिता के साथ माइंस में लौह अयस्क चुनने का कार्य किया करते थे । तब तुलसी आपा ने रात्रि विद्यालय प्रारम्भ किया, स्वयं घर घर जाकर श्रमिकों के घरों से बच्चों को बुलाकर लाती, गांव के मुखिया समझदार थे, और आने वाली पीढ़ी के लिए चिन्तित भी, धीरे धीरे बच्चे स्कूल में जुटने लगे । पढ़ाई प्रारम्भ हुईं, देश के स्वतंत्रता आन्दोलन के किस्से, महान नेताओं और महापुरुषों की कथा कहानियाँ सुनाकर, यानी चरित्र निर्माण कार्यशाला से । धीरे धीरे रात वाली कक्षाएँ दिन में लगने लगी, ट्राइबल्स अपने बच्चों को पूरा दिन तुलसी आपा की देखरेख में स्कूल में छोड़कर काम पर चले जाया करते, तुलसी मुड़ी और सब्जी बेचा करती, वही मुड़ी वह बच्चों को भी खिलाया करती, अब 30 बच्चे जुटने लगे थे ।

दो तीन ऐसे ग्रामीण नवयुवक भी साथ जुड़ गए, जो प्राथमिक शिक्षा प्राप्त थे, वे भी छोटे बच्चों को अक्षर ज्ञान करवाते । खर्च बढ़ने लगा, लेकिन जहाँ चाह वहाँ राह, ग्रामीणों ने स्कूल को मदद के रूप में चावल देना शुरू कर दिया । बच्चों का व्यवहार बदल रहा था, वे साफ स्वच्छ रहने लगे, ग्रामीण माता पिता को यह बदलाव भा रहा था । गर्मी की कड़ी धूप और बारिश में महुआ के पेड़ के नीचे स्कूल का संचालन असम्भव था, इसका उपाय भी ट्राइबल ग्रामीणों ने ही निकाला, 1966 में पहाड़ के पत्थरों को काटकर गांव के बाहर एक भवन तैयार किया गया, उस पर पैन्ट से नाम लिखा गया ' आदिवासी विकास समिति ' ।

तुलसी आपा ने उड़ीसा के खनन क्षेत्र में एक विद्यालय स्थापित कर भविष्य के सैकड़ों ट्राइबल बच्चों को शोषित दैनिक श्रमिक बनने से बचाया है। समय के साथ टाटा स्टील एवं त्रिवेणी के अलावा वैसी कम्पनियों ने अपने निगमित समाजिक उत्तरदायित्व (सी.एस.आर.) के तहत मदद करना आरम्भ कर दिया, जो उस क्षेत्र में खनन कार्य कर रही थीं ।

शिक्षा के प्रति समर्पित तुलसी आपा निःस्वार्थ भाव से अनवरत सक्रिय रहीं , अगले 50 वर्षों में, उनके प्रयास से 17 स्कूलों की स्थापना हुईं, उस ट्राइबल क्षेत्र के 100 किलोमीटर के दायरे में लगभग 25000 लड़के लड़कियों को शिक्षित करने का श्रेय तुलसी को जाता है । आज आदिवासी विकास समिति स्कूल 10 वीं कक्षा तक शिक्षा प्रदान करता है , प्रतिवर्ष 500 से अधिक छात्र छात्राएं मैट्रिक की परीक्षा पास करते हैँ, जिनमें आधे से अधिक लड़कियां होती हैं।

तुलसी आपा का मानना ​​है कि ट्राइबल्स की दासता के कारण हैँ - गरीबी, बेरोजगारी,नशा, अंधविश्वास और भय , किन्तु सबसे मुख्य कारण है - निरक्षरता । हमारा देश भले आजाद हो गया है, किन्तु गावों में आज भी मानसिक गुलामी है और सभी समस्याओं का जड़ है अशिक्षा । डॉ तुलसी ने समाज सेवा, शिक्षा के प्रसार, ग्रामीणों के जीवन स्तर को ऊपर उठाने और नशा उन्मूलन अभियान में ही अपना सर्वस्व जीवन परमार्थ में अर्पित कर दिया ।

सम्मान- ट्राइबल्स के मध्य साक्षरता के प्रसार के लिए विख्यात सामाजिक कार्यकर्ता तुलसी मुण्डा को वर्ष 2001 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी के कार्यकाल में पद्मश्री से सम्मानित किया गया ।
उन्हें 2008 में कादिम्बनी सम्मान प्रदान किया गया । महामहिम उपराष्ट्रपति ने 10 जून 2009 को तुलसी आपा को लक्ष्मीपत सिंहानिया- आई आई एम लखनऊ राष्ट्रीय नेतृत्व पुरस्कार से सम्मानित किया । 2011 में ओडिशा डेयरी फाऊंडेशन द्वारा तुलसी मुण्डा को समाज सेवा के लिए ओडिशा लिविंग लीजेंड अवार्ड प्रदान किया गया था । सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ ओडिशा , कोरापुट के तृतीय दीक्षांत समारोह में 1 जुलाई 2013 को तत्कालिन केंद्रीय मन्त्री, मानव संसाधन विभाग द्वारा तुलसी मुण्डा को डाक्टरेट की मानद उपाधि प्रदान की गई । फरवरी 2016 में द टेलीग्राफ द्वारा इन्हें ट्रू लिजेण्ड्स अवार्ड से सम्मानित किया गया ।

निर्माता अनुपम पटनायक एवं निर्देशक आमीया पटनायक द्वारा उनके जीवन पर आधारित 121 मिनट की बायोपिक 'तुलसी आपा' में उनकी भूमिका वर्षा नायक ने अदा की है, इस फिल्म का प्रीमियर 2015 में 21वें कोलकाता अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में सम्पन्न हुआ, जहाँ इसे भरपूर प्रशंसा मिली । 2016 में चतुर्थ तेहरान जैस्मीन इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के अलावा शिमला, बेंगलुरु, नासिक एवं हरियाणा में भी इस फिल्म की स्क्रीनिंग की गई और फिर 19 मई 2017 को भारत के सिनेमाघरों में रिलीज हुईं । नवम्बर 2019 से एमेजॉन प्राईम वीडियो पर आने वाली पहली ओडिया मूवी है तुलसी आपा ।


*Inflation rate in India between 1959 and today has been 7,633.95% 

Wednesday, 6 May 2020

पद्मश्री भज्जू श्याम


जन्म : 1971
जन्म स्थान : गांव पाटनगढ़, जिला डिंडौरी, मध्यप्रदेश
वर्तमान निवास : भोपाल, मध्यप्रदेश
माता : मात्रे सिंह
पत्नी : दीपा श्याम


जीवन परिचय - ट्राइबल जाति गोंड की एक शाखा है 'प्रधान' । जब ग्रामीण कृषकों की फसल तैयार हो जाती थी, तो प्रधान लोग घर घर जाकर पुराने किस्से कहानी सुनाया करते, देवी देवताओं की कथा सुनाते, उनकी वंशावली बताते - इसी परम्परागत ट्राइबल परिवार में जन्मे भज्जू सिंह श्याम । अपने गांव की स्कूल से10वीं कक्षा तक की पढ़ाई करने के बाद भज्जू के पास गांव में कोई जीविका का साधन नहीँ था, सो सोलह वर्ष की आयु में अमरकंटक चले गए, वहाँ पौधे लगाने का काम मिला पर भज्जू वहाँ टिक नहीँ पाए । वहाँ से भज्जू भोपाल चले गए और चौकीदार की नौकरी ज्वाइन कर ली, किन्तु एक दिन भोर में सोते हुए पकड़ लिए गए, उनकी तनख्वाह काट ली गई, उन्होने उस नौकरी को छोड़ दिया और इलेक्ट्रिशियन का कार्य करने लगे, पर मन उसमें भी नहीँ रमा । क्योंकि भज्जू के अंदर का कलाकार हिलौरे भर रहा था ।

भज्जू के दो भाई और एक बहन हैँ, इनकी माँ अपनी परम्परा के अनुसार गोंड त्यौहारों में दीवार, आंगन और लकड़ी के दरवाजों में लिपाई पुताई किया करती थीं, सफेद, पीली, गेरु मिट्टी से की जाने वाली इस कलाकारी को ढींगना कहते हैँ , इस कार्य में भज्जू अपनी माँ का सहयोग करते थे, कहा जा सकता है कि उनके भीतर के कलाकार को उनकी माँ ने ही पहला अवसर प्रदान किया था । भज्जू की पत्नी दीपा भी कलाकार हैँ, इनके एक पुत्र नीरज और एक पुत्री अंकिता हैँ ।

भज्जू के चाचाजी जनगढ़ सिंह श्याम ने कम उम्र में ही गोंड कलाकृति में अपना विशिष्ट स्थान बना लिया था, उनकी पेंटिंग्स की एक्जीबिशन लगने लगी थी, वे मात्र 22 वर्ष की उम्र में 1980 में मध्य प्रदेश के प्रसिद्ध कला व सांस्कृतिक केंद्र एवं संग्रहालय 'भारत भवन' से जुड़ चुके थे, उनके पास गोंड आर्ट के आर्डर आने लगे थे, उन्होने गांव से कुछ लोगों को अपने सहायक के रूप में जोड़ लिया था, उन्होने भज्जू को भी 1993 में अपने पास बुला लिया । जनगढ़ सिंह श्याम स्केच बनाया करते और भज्जू उनमें रंग भरा करते, धीरे धीरे भज्जू पॉइंट भी करने लगे । लगभग तीन वर्ष तक भज्जू यही करते रहे और जनगढ़ श्याम के साथ ही रहा करते ।

बाघ, हिरण, कछुए, मगरमच्छ जैसे पशु , पेड़ पौधे, पत्तियाँ, ठाकुर देव, बाड़ा देव, कलसिन देवी आदि अन्य गोंड देवी देवताओं को अपने कैनवास पर उकेरने वाले जनगढ़ की गोंड कलाकृति 'जनगढ़ कलम' की लोकप्रियता और माँग देश विदेश में बढ़ रही थी, भज्जू श्याम की भी कुछ पेंटिंग्स तैयार हो चुकी थी, उनके चाचा और उनके सहयोगियों की गोंड पेटिंग्स की एक प्रदर्शनी दिल्ली में आयोजित हुई, जिसमें भज्जू की पाँच पेंटिंग्स रुपए 1200/- में बिक गई ।

उपलब्धियाँ - और फिर सफर प्रारम्भ हुआ भज्जू की लोकप्रियता का, वर्ष 1998 में पेरिस में आयोजित ट्राइबल आर्ट प्रदर्शनी 'मूसी डेस आर्ट्स डेकोरेटिफ्स' में उनको आमंत्रण मिला । वर्ष 2001 में विख्यात क्यूरेटर पद्म भूषण राजीव सेठी उन्हें लंदन के एक रेस्तरां की दीवारों पर एक म्यूरल्स (भित्ति चित्र) बनाने के लिए ले गए । भज्जू और राम सिंह इन दो कलाकारों ने 'मसाला जोन' रेस्टूरेंट में दो महीनों तक अद्भभुत काम किया, यह काम उनके लिए एक वर्कशॉप (कार्यशाला) की तरह था, उन्होने ऐक्क्रेलिक कलर से दीवारों पर पेड़ पौधे पत्तियों को बिल्कुल अलग तरह से उकेरा, जिसकी भरपूर सराहना हुई ।

जब वो भारत लौटे, तो लोगों से अपने लंदन भ्रमण का अनुभव साझा किया और अपने लंदन प्रवास के दौरान हुए अनुभवों व यादों को गोंड शैली में कैनवास पर उकेरा । इसी बीच किसी कार्यशाला के दौरान उनकी मुलाकात चेन्नई के पब्लिकेशन हाउस तारा बुक्स की संस्थापक गीता वोल्फ से हुई, उन्होने भज्जू की लंदन प्रवास यादो पर आधारित पेंटिंग्स देखी और देखती रह गईं, उन पेंटिंग्स में छिपी कामर्शियल संभावनाओं को गीता वोल्फ ने पहचाना और उनको एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया । नवम्बर 2004 में तारा बुक्स ने 48 पृष्ठ की 'द लंदन जंगल बुक' नाम से पेंटिंग्स का संकलन प्रकाशित किया, जो अत्यधिक सराहा गया, ना केवल भारत में इसका दूसरा एडिशन प्रकाशित हुआ बल्कि यूरोप , फ्रांस, नीदरलैंड, इटली, कोरिया, ब्राजील, मेक्सिको, स्पेन में विभिन्न भाषाओं में यह पुस्तक छपी और खूब बिकी, अनुमानतः इसकी 35000 प्रतियां बिक चुकी हैँ । अब तक भिन्न भिन्न देशों और भाषाओं में उनकी 12 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैँ । इनकी पुस्तक द नाइट लाइफ ऑफ ट्रीज को बोलोग्ना रागज्‍जी पुरस्‍कार प्राप्‍त हुआ है , इस पुस्तक में दुर्गाबाई और राम सिंह उरवेली के साथ मिलकर भज्जू ने कार्य किया । भज्जू की अन्य पुस्तकें हैँ - ऑरिजिन्स ऑफ आर्ट : द गोंड विलेज ऑफ पाटनगढ़, अलोन इन द फॉरेस्ट, दैट्स हाऊ आई सी थिंग्स, द फ्लाइट ऑफ मेरमेड । भज्जू ने गोंड समुदाय की कहानियों को समेटते हुए एक पुस्तक भी लिखी है 'क्रिएशन', जिसका प्रकाशन मार्च 2015 में हुआ ।

उनकी हर पेंटिंग के पीछे एक कहानी या संस्मरण छिपा है । द लंदन जंगल बुक के कवर पर छपी तस्वीर में एक मुर्गा और लंदन के एलिजाबेथ टॉवर को दर्शाया गया है । गांव में लोगों को समय का आभास मुर्गे की बांग से होता है तो लंदन में समय बताने के लिए एलिजाबेथ टॉवर पर बिग बेन घड़ी लगी है , दोनोँ का एक ही काम है, इन दोनोँ कल्पनाओं को मिश्रित कर भज्जू ने कैनवास पर उतार दिया, जिसकी सराहना पूरे यूरोप में हुई ।



भज्जू लंदन की जिस होटल में ठहरे हुए थे और जिस किंग क्रॉस में अवस्थित मसाला जोन रेस्टूरेंट में कार्य कर रहे थे, वहाँ आना जाना एक लाल रंग की 30 नम्बर की बस से किया करते थे, उनकी कल्पना की दौड़ान ने माना कि यह बस एक वफादार साथी की तरह है, जो रास्ता नहीँ भटकती, उन्होने गोंड शैली में उस बस का चित्रण एक कुत्ते के रूप में किया, जो कलाप्रेमियों को बहुत भाया ।

भज्जू ने देखा कि लंदन में धरती के ऊपर जितने लोग नहीँ दिखते, उससे ज्यादा लोग अण्डरग्राउण्ड मेट्रो रेल में दौड़ रहे हैँ, ट्राइबल्स केंचुआ को पाताल का देवता मानते है, भज्जू ने अपनी कल्पनाशक्ति से मेट्रो रेल और केंचुआ का सम्मिश्रण उकेर दिया, कलाप्रेमियों को इस पेंटिंग ने काफी आकर्षित किया।

बादलों के ऊपर उड़ता हुआ हाथी, जिसके पंख लगे हों, इस कल्पना को पहली बार भज्जू ने ही कैनवास पर उतारा । भज्जू की विख्यात पेंटिंग्स हैँ - सेड कैट, द मून एट नाइट, लिव्स, व्हेन टू टाइम्स मीट, द किंग ऑफ द अंडरवर्ल्ड, द मिरक्ल ऑफ फ्लाइट, बीकमिंग ए फॉरनर, द एग ऑफ ओरिजिन्स, द अनबॉर्न फिश, एयर, द बर्थ ऑफ आर्ट, द सैक्रेड सीड्, द होम ऑफ द क्रिएटर, स्नेक्स एण्ड अर्थ, फैट कैट, जर्नी ऑफ द माइंड । ये पेंटिंग्स इतनी पसंद की गई कि इनकी हजारॉ प्रतियाँ प्रकाशित हुईं ।



नवम्बर 2004 में ही भज्जू की पेंटिंग्स की प्रदर्शनी म्यूजियम ऑफ लंदन में लगाई गई, जो तीन माह तक चली, वहाँ इनकी पुस्तक ने इनको विश्वव्यापी ख्याति दिलवाई और फिर तो प्रारम्भ हो गया भज्जू की कलाकृतियों के विश्वभर में प्रदर्शनियों का दौर । यूके, जर्मनी, हालैंड, रूस इत्यादि कई देशों की आर्ट गैलरी में भज्जू की कला की धूम मच गई । वर्ष 2005 में इटली के विख्यात शहर मिलान की अर्टेयुटोपिया गैलरी 'प्रोविंसिया डि मिलानो' में , नीदरलैंड के शहर हेग में सालाना आयोजित होने वाले लोकप्रिय 'क्रॉसिंग बॉर्डर फेस्टिवल' में, लंदन के द म्यूजियम ऑफ डॉकलैंड्स एवं नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम में आयोजित उनकी प्रदर्शनियाँ चर्चित रहीं ।

भज्जू श्याम की एकल प्रदर्शनी 'माँ मात्रे' की लोकप्रियता बढ़ते जा रही है, वर्ष 2016 में ओजस आर्ट्स नई दिल्ली में, 2017 कनाड़ा में, 2018 हॉन्गकॉन्ग, 2019 भारत भवन भोपाल में गोंड आर्ट छाया रहा । देश विदेश के कई निजी एवं संस्थागत संग्रहालयों में भज्जू की पेंटिंग्स ने अपना विशिष्ट स्थान बनाया है । भज्जू पहले ट्राइबल कलाकार हैँ जिन्होंने सेंट आर्ट इण्डिया फ़ाऊंडेशन के साथ लोदी डिस्ट्रिक्ट दिल्ली में अपनी कला प्रदर्शित की ।

एक ओर भज्जू श्याम की कला शैली में निखार आता चला गया, उनकी व गोंड पेंटिंग्स की लोकप्रियता व माँग विदेशो में बढ़ती गई, दूसरी ओर उनके गांव पाटनगढ़ के लोगों में गोंड पेटिंग के प्रति जुड़ाव बढता गया, आज पाटनगढ़ समृद्ध हो रहा है, वहाँ के लोगों की आजीविका का मुख्य साधन गोंड पेटिंग है, इस कला व व्यवसाय से गांव में तकरीबन 100 परिवार और भोपाल में 40 कलाकार जुड़े हैँ ।



सम्मान - ब्रिटिश संस्कृति का प्रतिबिंब अपने कैनवास पर उकेरने वाले दुनिया भर में प्रसिद्ध गोंड कलाकार भज्जू श्याम को 2018 में पद्मश्री अवार्ड से सम्मानित किया गया । वर्ष 2001 में इन्हें मध्यप्रदेश सरकार ने 'बेस्ट इंडिजिनस आर्टिस्ट' का अवार्ड दिया था, 2008 में इटली के बोलोग्ना चिल्ड्रेन बुक फेयर में द नाइट लाइफ ऑफ ट्रीज के लिए, वर्ष 2011 में इन्हें ब्राजील में क्रेसकर मैगजीन द्वारा बेस्ट चिल्ड्रेन बुक अवार्ड एवं वर्ष 2015 में विख्यात जयपुर साहित्य महोत्सव में ओजस आर्ट सम्मान से सम्मानित किया गया । रविवार, 28 जनवरी 2018 को प्रधानमंत्री ने मन की बात में खुले दिल से भज्जू श्याम की तारीफ की ।


























Sunday, 3 May 2020

पद्मश्री 'जंगल की दादी' लक्ष्मीकुट्टी


जन्म : 1943
जन्म स्थान : कल्लार वन क्षेत्र, जिला तिरुवनंतपुरम, केरल
वर्तमान निवास : कल्लार, जिला तिरुवनंतपुरम, केरल
पिता : चथाडी कानी
माता : कुन्जु थेवी
पति : माथन कानी

जीवन परिचय - पर्यटकों को आकर्षित करने वाले केरल के तिरुवनंतपुरम के कल्लार जंगलों में रहने वाली ट्राइबल महिला 'लक्ष्मीकुट्टी' वहाँ 'वनमुथास्सी' के नाम से विख्यात है । वनमुथास्सी एक मलयालम शब्द है जिसका हिन्दी अर्थ है - 'जंगल की दादी' । वे जंगल के दो किलोमीटर भीतर बसी एक ट्राइबल कॉलोनी में बांस और ताड़ के पत्तों की झोपड़ी में रहती है और उस झोपड़ी का नाम उन्होनें 'शिवज्योति' रखा है । लक्ष्मीकुट्टी को बचपन में पिता का प्यार नहीँ मिला, जब वे मात्र दो वर्ष की थी तब उनके पिता चल बसे । चार भाई बहनों में सबसे छोटी लक्ष्मीकुट्टी का बचपन संघर्षमय रहा, एक ओर अपनी माँ को कड़ी मेहनत करते देखती , दूसरी ओर गांव से 9 किमी दूर वीधुरा गांव में अवस्थित सरकारी स्कूल में पढ़ने जाती । उस स्कूल में कक्षा पांचवी तक पढ़ाई करने के बाद कुशाग्र बुद्धि लक्ष्मीकुट्टी कल्लार के एकल विद्यालय में एक अनुशासनप्रिय कठोर शिक्षक इंचियम गोपालन से पढ़ने लगी और 8 वीं कक्षा तक पढ़ी ।

केवल 16 वर्ष की आयु में ही लक्ष्मीकुट्टी का विवाह उनके सगे ताऊ के बेटे माथन से हुआ । लक्ष्मीकुट्टी का दाम्पत्य जीवन लगभग सफल रहा, इनके तीन पुत्र हुए, धरणीन्द्रन, लक्ष्मणन और शिवा । किन्तु धरणीन्द्रन की मृत्यु वन में हाथियों द्वारा कुचले जाने से हो गई, वहीँ शिवा भी अपने पीछे एक पुत्री पूर्णिमा को छोड़कर हार्टअटैक से ईश्वर के धाम को सिधार चुके हैँ, पति माथन की मृत्यु भी 2016 में हो गई थी, अब लक्ष्मीकुट्टी अपने दूसरे बेटे लक्ष्मणन, जो रेलवे में टिकट परीक्षक हैँ , के साथ रहती हैँ ।

लक्ष्मीकुट्टी के ताऊ सह ससुर स्थानीय चिकित्सक थे, लक्ष्मी उन्हें सहयोग किया करती, उन्होने लक्ष्मी के भीतर छिपी प्रतिभा को पहचाना और उन्हें चिकित्सा के क्षेत्र में प्रोत्साहित करने लगे । लक्ष्मीकुट्टी का झुकाव जड़ी बूटी व झाड़ियों की तरफ बढ़ता गया । समय के साथ साथ लक्ष्मीकुट्टी को पाँच सौ से ज्यादा तरह के औषधीय गुणों वाले पौधों का गहरा ज्ञान हो गया । मलयालम, संस्कृत, हिंदी और अंग्रेजी की जानकार लक्ष्मीकुट्टी ने वनों में छिपी प्राकृतिक सम्पदा के औषधीय मूल्यों के गहन अध्ययन पर आधारित एक पुस्तक लिख ड़ाली 'नाट्टारीवूकल कट्टारीवूकल' , जिसका प्रकाशन वर्ष 2007 में हुआ । जिसके साथ ही लक्ष्मीकुट्टी चर्चा में आई, एक बार स्थानीय कवि सम्मेलन के मंच पर उनकी पुस्तक का उदाहरण देते हुए केरल की प्रसिद्ध कवियत्री सुगाथा कुमारी ने कहा कि -

'कभी लिखना बंद मत करो , अपने शब्दों के माध्यम से अपना संघर्ष जारी रखना चाहिए '

योगदान - जंगल के बीच वेंचिपारा नदी के समीप शिवज्योति , यानी लक्ष्मीकुट्टी का घर, गाय के गोबर से लीपी हुई कच्ची जमीन वाला झोपड़ा, जिसके छोटे से किचन में रखा है लकड़ी का एक बड़ा सा चूल्हा, झौपडे के हर कोने में फैली जड़ी-बूटियाँ, पत्तियाँ और जड़ें , चारों ओर फैली आयुर्वेदिक औषधियों की मनभावन गंध, पास ही देवी पार्वती का मन्दिर - एक नजर में ये दृश्य है लक्ष्मीकुट्टी की क्लीनिक सह दवा निर्माण यूनिट का ।

लुप्तप्राय सी होती जा रही पारम्परिक चिकित्सा पद्धति की ज्ञाता लक्ष्मीकुट्टी अपने झोपडे में 500 से ज्यादा तरह की हर्बल दवाईयाँ तैयार करती हैँ । सालों भर ना केवल देश भर से बल्कि विदेशो से भी लोग उनसे इलाज करवाने एवं उनके चमत्कारिक चिकित्सकीय ज्ञान का लाभ लेने कल्लार पहुंचते हैँ ।

कल्लार के वनक्षेत्र के कोने कोने में घूमकर औषधीय पौधों को खोजने वाली लक्ष्मीकुट्टी के मस्तिष्क में वहाँ के वन का मानचित्र अंकित हो गया है । वनों में साँप व विषैले जीव बहुतायत में पाए जाते हैँ, लक्ष्मीकुट्टी को सांप काटने के बाद उपयोग की जाने वाली दवाई बनाने में महारत हासिल है, इस दवा को बनाने की विधि उन्होने अपनी माँ से सीखी । पहले यदि किसी ग्रामीण को कोई साँप काट देता था, तो ग्रामीण उस साँप को पत्थरो से कुचल कर मार डालते थे, लक्ष्मीकुट्टी ने कहा कि कभी भी उस जीव को मारो मत , केवल पहचानो कि किस सरीसृप या कीड़े ने काटा है ताकि उपचार बेहतर हो सके । धार्मिक लक्ष्मीकुट्टी अपने मरीज के लिए प्रार्थना करती हैँ , दीपक जलाती हैँ और जिस विषैले जीव ने काटा हो, उसके लिए भी प्रार्थना करती है ।

अम्मा लक्ष्मीकुट्टी 'केरला फॉलक्लोर एकेडमी' में शिक्षण का कार्य भी कर रही हैँ, कई विश्वविद्यालयों में वे गेस्ट लेक्चरर की हैसियत से व्याख्यान देती है । साथ ही वे शौकिया कविताएँ और कहानियाँ भी लिखती हैँ । उन्होने अपने घर के आसपास काफी औषधीय पौधरोपण किया है ।

वैद्यरानी लक्ष्मीकुट्टी आमलोगों को कहती हैँ कि यदि सम्भव हो तो अपने किचन गार्डेन में या अपने घर के आंगन में या अपने फेक्ट्री परिसर में करीया पत्ता, हल्दी और मक्का अवश्य लगायें, इन तीनों में औषधीय गुण हैँ । करीया पत्ता वातावरण को शुद्ध करता है, वायु प्रदूषण को कम करता है वहीँ हल्दी शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को विकसित करती है और मक्का में कैंसर प्रतिरोधक क्षमता है ।

विश्वस्तरीय पहचान होने के बावजूद सादगी पूर्ण जीवन जीने वाली लक्ष्मीकुट्टी का यह मानना है कि इंसान को संतुलित जीवन जीना चाहिए, खुशी मिलने पर ना अत्यधिक प्रसन्न होना चाहिए और कष्ट मिलने पर ना अत्यधिक दुखी होना चाहिए । मंत्र हों या दवा हो अथवा रोग हो, सभी ईश्वर का स्वरूप हैँ , हमें पूरी श्रध्दा से उनका वन्दन करना चाहिए ।

'पॉइजन हीलर' लक्ष्मीकुट्टी बहुआयामी प्रतिभा की धनी हैँ , 76 वर्ष की आयु में भी सक्रिय लक्ष्मीकुट्टी चिकित्सक, शिक्षक, लेखिका, कवि , पर्यावरणविद, गहरे जंगलो की रक्षक एवं सबसे बड़ी बात कि वे एक ऐसी समाजसेविका हैँ जिनका कोई विकल्प नहीँ है ।

सम्मान - वनमुथास्सी यानी जंगल की दादी 'लक्ष्मीकुट्टी ' को पारम्परिक दवाइयों के क्षेत्र में सराहनीय कार्य के लिए वर्ष 2018 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया । रविवार, 28 जनवरी 2018 को प्रधानमंत्री ने मन की बात में लक्ष्मीकुट्टी की चर्चा की और यह भी कहा था कि आज हम 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' की बात करते हैं लेकिन सदियों पहले हमारे शास्त्रों में, स्कन्द-पुराण में कहा गया है कि एक बेटी 10 बेटों के बराबर होती है । वर्ष 2016 में भारतीय जैव विविधता कांग्रेस ने उनके योगदान को मान्यता दी। लक्ष्मीकुट्टी को केरल सरकार ने 1995 में 'नाट्टू वैद्य रत्न पुरस्कार' से सम्मानित किया था । केरल की ट्राइबल संस्कृति व सभ्यता से भलीभाँति परिचित वैद्यरानी लक्ष्मीकुट्टी को जवाहरलाल नेहरू ट्रॉपिकल बोटैनिकल गार्डन, केरल विश्वविद्यालय, केरल राज्य जैव विविधता बोर्ड, अंतर्राष्ट्रीय जैव विविधता केंद्र इत्यादि कई संस्थानों ने सम्मानित किया है।

Saturday, 2 May 2020

गंगा (लॉकडाउन पीरियड में)

हिमालय की चोटियों से निकलकर
तुम्हारे गांव गांव में डोलती गंगा
मैं गंगा
कल कल करती गंगा
कल कल बहती गंगा ।

मेरे ही पानी से खेती करते हो,
मेरे पानी से 400 तरह की मछलियाँ पाते हो,
अब तो मेरे पानी से बिजली भी बनाने लगे हो,
हरिद्वार हो या इलाहबाद मेरे ही पानी में नहाते हो,
बोतलों में भरकर मेरा पानी पूजा के लिए ले जाते हो, ऋषिकेश में रैफ्टिंग क्याकिंग स्पोर्ट्स भी करने लगे हो ।

पहले मेरे पानी से कमाया,
जब पेट नहीं भरा ,
तो मुझ पर पुल और बाँध बनाकर कमाया,
फिर पोर्ट बना कर कमाया,
फिर भी पेट नहीं भरा,
तो अब मेरी सफाई के नाम पर ही कमा रहे हो !

जानते हो ,
धरती के नुकीले पत्थरो से
स्वयं को चोट पहुंचाती हुई
2525 किलोमीटर बहती हूँ ।

क्यों ?
क्योंकि तुम मुझे माँ कहते हो,
माँ गंगा !

इसीलिए बहती हूँ
तुम्हें पीने का पानी देने के लिए,
तुम्हारी भूख मिटाने के लिए,
तुम्हारे खेतो को सींचने के लिए ।

और तुम !
एक ओर माँ कहते हो,
सुबह शाम आरती करते हो,
दूसरी ओर
डेली 3000 टन कचड़ा मेरे सर पर डाल देते हो ।

समय के साथ बुढ़ापा,
स्वाभाविक हैं, आना ही था ,
किन्तु बीमार नहीं थी मैं ।
अरे ! मेरे भारत में,
मेरे अपनों ने,
हाँ तुमने !
मुझे बीमार बना दिया ।

लेकिन आज तुम खुद डरे हुए हो
खुद से
खुद के पैदा किए हुए कोरोना से
कोविड 19 से !

घरों में कैद हो
गाड़ियां बन्द
फैक्ट्रियां बन्द
सबकुछ बन्द ।

सब चिन्तित हैँ....
पर सच कहूँ
मैं निश्चिन्त हूँ खुश हूँ !
मेरे ऊपर कचड़े का प्रेशर कम हो रहा है
मैं साफ हो रही हूँ
स्वयं प्रकृति मुझे साफ कर रही है
स्वयं समय मुझे साफ कर रहा है ।

मैं गंगा
कल कल करती गंगा
कल कल बहती गंगा
कही स्वर्णरेखा बनकर
कहीं कावेरी बनकर बहती गंगा ।

संदीप मुरारका
शनिवार, 2 मई' 2020 

पद्मश्री कमला पुजारी


जन्म : 1949
जन्म स्थान : जिला कोरापुट, ओड़िशा
वर्तमान निवास : गांव पटरापुट, जेयपोर से 15 किमी, बोईपारीगुड़ा के समीप, जिला कोरापुट, ओड़िशा


जीवन परिचय - ओडिशा के कोरापुट जिले के एक छोटे से गांव में ट्राइबल परिवार में जन्मी कमला पुजारी बचपन से ही खेतों की मिट्टी और बीजों के साथ खेलती हुई बड़ी हुई । इनोवेशन या एक्सप्रिमेण्ट्स केवल इंडस्ट्रीज में ही नहीँ होते, एक गरीब किसान का बच्चा अपने खेतॉ में भी कई नए प्रयोग करता है, कुछ वैसा ही था कमला का बचपन । कमला का परिवार पारम्परिक खेती से जुड़ा हुआ था, वही वर्षा के जल पर निर्भरता, वही रासायनिक खाद, वही सरकारी बीज , किन्तु कमला इन परम्परागत पद्धतियों को छोड़ने हेतू ओडिशा के जेयपोर में एमएस स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन से जुड़ गई, वहाँ उन्होने बुनियादी खेती की तकनीक सीखी। अनपढ़ होने के बावजूद कमला पुजारी ने धान के विभिन्न किस्म के संरक्षण को लेकर अपनी अलग पहचान बनाई है।

योगदान - एमएस स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन में प्रशिक्षण समाप्त होने के बाद कमला जैविक खेती में जुट गई । कमला स्वयं तो जैविक खेती करती ही थी , साथ ही गांव के अन्य किसानों को भी रासायनिक उर्वरकों का उपयोग बंद करने के लिए प्रोत्साहित करने लगी। जैविक खेती के लिए समर्पित कमला पुजारी ने फाउंडेशन के सहयोग से अपने गांव की कुछ अन्य महिलाओं के साथ मिलकर एक बीज बैंक की स्थापना की ।

कमला और उनकी सहयोगी ग्रामीण महिलाओं ने कुछ समूह बनाए और आस-पास के गांवों में घर-घर जाकर जैविक खेती के बारे में जागरूकता फैलाने लगी । किसानो ने पाया कि रासायनिक खाद का उपयोग छोड़ने पर उनके खेतों की मिट्टी की उर्वरता पहले की अपेक्षा बढ़ने लगी है । नतीजा, कमला के प्रयासों के परिणामस्वरूप पटरापुट एवं आस पास के कई गावों में किसानों ने रासायनिक खाद का इस्तेमाल करना बन्द कर दिया ।

कमला ने लुप्तप्राय और दुर्लभ प्रकार के 100 से ज्यादा बीज जैसे धान, हल्दी, तिल्ली, काला जीरा, महाकांता, फूला , घेंटिया आदि एकत्र किए हैं। विशेषकर कमला ने धान की वैसी देशी किस्मों का एकत्रण व सरंक्षण किया, जो प्रजातियां विलुप्तप्राय हो गई थी ।

वर्ष 2002 में, कमला जैविक खेती पर आयोजित एक कार्यशाला में भाग लेने के लिए दक्षिण अफ्रीका के सबसे बड़े शहर जोहान्सबर्ग में गई । जहाँ जैविक खेती के लिए किए जा रहे उनके प्रयासों के लिए दुनिया भर के प्रतिभागियों ने उनकी सराहना की ।

वर्ष 2018 में, मुख्यमंत्री ने 'ओडिशा राज्य योजना बोर्ड' के सदस्य के रूप में कमला को मनोनीत किया । कमला पहली ट्राइबल महिला हैँ, जिन्हें ओड़िशा में यह गौरव प्राप्त हुआ ।

सम्मान - आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणास्रोत 'कमला पुजारी' को धान के बीज की प्रजातियों के संग्रहण एवं जैविक खेती के क्षेत्र में किए गए अभूतपूर्व योगदान के लिए 2019 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया । उन्हें वर्ष 2002 में दक्षिण अफ्रीका में 'इक्वेटर इनिशिएटिव अवार्ड' से सम्मानित किया गया था । उन्हें 2004 में ओडिशा राज्य सरकार द्वारा 'सर्वश्रेष्ठ महिला किसान' का सम्मान प्रदान किया गया । वहीँ नई दिल्ली में इन्हें ' कृषि विशारद सम्मान' से सम्मानित किया गया । 26 मार्च 2017 को ओड़िशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने भुवनेश्वर के ओड़िशा युनिवर्सिटी ऑफ़ एग्रीकल्चर एण्ड टेक्नोलॉजी में 'कमला पुजारी महिला हॉस्टल' का शिलान्यास किया है ।

Friday, 1 May 2020

पद्मश्री कैनाल मैन दैतारी नायक


जन्म : 1949
जन्म स्थान : गांव तालबैतरणी, जिला क्योंझर, ओड़िशा
वर्तमान निवास : गांव तालबैतरणी, प्रखण्ड बांसपोल, जिला क्योंझर, ओड़िशा
पत्नी : समीरा नायक

जीवन परिचय - 'कैनाल मैन यानी नहर पुरुष' के नाम से विख्यात दैतारी नायक का जन्म ओड़िशा के छोटे से गांव वैतरणी में ट्राइबल परिवार में हुआ । दैतारी का परिवार कृषि कार्यो से जुड़ा है, ये केन्दु पत्ता व आमपापड़ बना कर बेचते हैँ । इनके पुत्र का नाम आलेख है । दैतारी की कहानी की तुलना बिहार के माउंटेन मैन दशरथ मांझी से की जा सकती है ।

योगदान - दैतारी नायक के गांव के लोग खेती पर निर्भर थे, किन्तु सिंचाई की व्यवस्था नहीँ होने के कारण खेती नगण्य थी और गांव के किसान गरीबी का जीवन जीने को मजबूर थे । गांव के लोगों ने कई बार स्थानीय प्रशासन से अनुरोध किया किन्तु उनका गांव नजरंदाज होता रहा । प्रखण्ड बांसपोल, तेलखोई, हरिचंदनपुर के गांव पहाड़ियों से घिरे थे, इसलिए यहाँ ना केवल सिंचाई की बल्कि पीने के पानी की भी किल्लत थी । ये सभी गांव ट्राइबल बहुल हैँ, दैतारी ने अपने पुरखों से सुन रखा था कि 'वर्षा के जल को सामने वाले पहाड़ों की श्रृंखला ने रोक रखा है यदि वो पहाड़ ना होते तो हमारे गावों में भी जल होता ।' दैतारी ने यह बात ग्रामीणों से साझा की तो सभी ने यह कहकर टाल दिया कि इसी कार्य के लिए वे लोग प्रशासन से गुहार कर रहे हैँ । तब दैतारी ने कंहा कि यदि प्रशासन सहयोग नहीँ कर रहा तो ना करे, यह कार्य हम गांव वाले मिलकर करे । यह तो वही बात हो गई कि राजा भागीरथ कठोर तपस्या कर गंगा को पृथ्वी पर ले आए थे । पर इतना कठोर तप, इतनी कड़ी मेहनत, करे कौन ? सभी ग्रामीण इस प्रस्ताव पर हँस पड़े और उनका मजाक उड़ाकर अपने अपने घरों को लौट गए । मानो दैतारी को यह बात चुभ गई, आज का भागीरथ एक कुदाल और बरमा लेकर पहाड़ो को काटकर जल देवता के लिए नई राह बनाने में जुट गया । ट्राइबल किसान 'दैतारी नायक' वर्ष 2010 से 2013 तक अकेले ही गोनासिका के पहाडो को खोदता रहा, खोदता रहा, चार साल, लगातार, खोदता रहा, तीन किलोमीटर एकल नहर को खोद डाला । जहाँ चाह वहाँ राह, एक दिन ऐसा आया जब पानी की धारा उन पहाड़ों के बीच से उस 'दैतारी नहर ' से होती हुई ग्रामीणों के खेतॉ तक पहुँच गई ।

सिंचाई के लिए वर्षा जल पर निर्भर रहने वाले और पीने के लिए तालाबों के गंदे पानी का उपयोग करने वाले ग्रामीण आश्चर्य व खुशी से झूम उठे । तीन किलोमीटर नहर अब बैतरणी गाँव के आसपास लगभग 100 एकड़ भूमि को पानी प्रदान करती है और आज तक पानी की कमी नहीं हुई है।

ठीक ही कंहा जाता है कि मीडिया हनारे देश के लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ है, कैनाल मैन दैतारी की कहानी गांव तक सीमित ना रह सकी, मीडिया के जरिए अखबारों से होती हुई यह चर्चा संसद के गलियारों तक जा पहुँची ।

असीमित इच्छाशक्ति के धनी दैतारी समाज के लिए चिंतनशील हैँ, वे चाहते हैँ कि उनके द्वारा निर्मित नहर को उचित स्वरूप प्रदान करते हुए कंक्रीट का बना दिया जाए ताकि उनके गांव में आने वाली पीढ़ी को कभी सिंचाई एवं पेयजल की कमी ना हो ।

सम्मान - समाज के सामने प्रस्तुत इस अप्रतिम उदहारण के लिए को 2019 में 71वें गणतन्त्र दिवस पर 71 वर्षीय कैनाल मैन दैतारी नायक को पद्मश्री से सम्मानित किया गया ।