Saturday, 1 April 2017

जिंदगी शहर हो गयी

रोज़मर्रा की रेल्लम रेल , ठेलम ठेल,
जिंदगी की भागा भागी , आपा धापी ॥

टेढ़ी मेढि चाल चलते ऑटो रिक्शा ,
हाथ दिखाते ही रुक जाती है बस ॥

मिलती नहीँ यहाँ फुर्सत खाने की भी ,
हो रहे सबके सब बेवजह व्यर्थ व्यस्त ॥

ऊँची ऊँची बिल्डिंगें , बड़े बड़े मॉल ,
गंदी गंदी नालियाँ ,गंदी गंदी गालियाँ ॥

बड़ी बड़ी गाडियाँ, बड़े बड़े लोग ,
मन के खाली , सूट बूट का बोझ ॥

जलने को कतार में सजी अर्थियाँ,
ऑफीस को लेट होती उनकी पीढियाँ ॥

ना भौंरे ना मधुमक्खी ना फूलों का रस ,
बेवजह जिंदगी ने लगा रखी कशमकश ॥

बहते बहते हाय , नदी भी यहाँ ज़हर हो गयी ,
यूँ लगता है मानो, जिंदगी अब शहर हो गयी ॥

संदीप मुरारका
दिनांक 8 जनवरी' 2017 रविवार
सम्वत 2073, पौष शुक्ल दशमी

बुद्ध

रात्रि के प्रहर में
छोड़ मोह माया का संसार ,

निकल पड़े गौतम
करने बुद्ध जीवन को साकार ,

खोल दिये कुंडल
गले का हार औ' शृंगार ,

घुटने टेके बैठा सारथी
समक्ष उसके उठाई तलवार

काट डाले घुंघराले केश अपने
भेज दिया यशोधरा को उपहार ,

लो भेंट मेरी ओर से अंतिम बार
करती रही जिन लटों से तुम प्यार ,

और उछाल दिये कुछ केश
उपर , आकाश के उस पार ,

कि न छूना धरती को तुम
प्रारम्भ हुआ बुद्ध का संसार ।

आम्रपाली का आतिथ्य स्वीकार
पहुँचे भोजन को वेश्या के  द्वार ,

ढीले ना छोडो वीणा के तार
कसो ना इतना कि टूटे बार बार ,

धम्मपद ग्रंथ को दिया आकार
किया बहुजन हिताय का प्रचार ,

हे महात्मा, हे महामानव, हे गौतम
करो आप मेरा प्रणाम स्वीकार ,

हो तुम नबी या कोई अवतार ,
हे बुद्ध आपको बारम्बार नमस्कार ॥

संदीप मुरारका
दिनांक 1अप्रील 2017 शनिवार
चेत्र शुक्ल 5 विक्रम सम्वत 2074

Monday, 13 March 2017

होली

होली के रंग में रंगा है कोई ,
कोई नशे में ही मशगूल है ।

चढ़ा नशा किसी को भंग का ,
कोई सत्ता के नशे में चूर है ।

हो रहा दहन गोबर के उपलों काठ का ,
पर राक्षसी होलिका अब जलती नहीँ ।

ना प्रह्लाद जैसे भक्त बच पाते है ,
ना ही नरसिंह अब बचाने आते हैं ।

अब अबीर गुलाल कम उड़ते हैं ,
ताश पत्तों के दौर ज्यादा चलते हैं ।

अब ठंडाई नहीँ पीसवायी जाती है ,
शराब की बोतलें खुलवाई जाती है ।

मिलन का रहा नहीँ अब त्योहार ,
बजाने गाने का बढ़ गया कारोबार ।

ढप चंग गीतों की मस्ती हुई धूमिल ,
इवेंट वालों की सजती फूहड़ महफिल ।

उपाधी वितरण से लोग ऊबने लगे ,
फेसबुक पर ही सबको विश करने लगे ।

महामूर्ख सम्मेलन में अब कोई जाता नहीँ ,
कवि सम्मेलन में दूसरा दौर आता ही नहीँ ।*

त्योहार नहीँ ये अब केवल सेलिब्रेसन है ,
किसी का हॉलिडे, किसी का सीजन है ।

दौर चला है अब पानी बचाने का ,
याद आता दौर वो ड्रम में डूबाने का ।

काश वो दिन फ़िर लौट आते ,
फटते कपड़े, पर दिल जुड़ जाते ।

उछलता कीचड़ भले सड़कों पर ,
पर मैल दिल के सारे मिट जाते ॥

संदीप मुरारका
दिनांक 12 मार्च 2017 रविवार
फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा 2073

*पहले दो दौर कवितायें पढी जाती थी , जिसमे केवल गम्भीर श्रोता रुकते थे एवम कवि अपनी श्रेष्ठ रचनओं का पाठ करते थे ।

Wednesday, 11 January 2017

चाँद

लोग कहते हैं कि वो रोज़ आया करता था ,
पर मैंने नहीँ देखा उसे काफी दिनो से ,

सच्ची ! या तो वो किसी डर से छिप जाया करता था,
   या मेरी छत छोड़ बाकियों के आया करता था ।

सच में पिछली कई रातें मैंने अँधेरों में बीता दी ,
उसके इंतजार में अपनी आँखे भी सुज़ा ली ।

पर हाँ , कल मिला वो ,
अब कोई शिकायत नहीँ मुझे ।
कहा उसने मुझे , अब रोज़ मिला करेगा ।

खुली महफिल में भी ,
साथ कभी कभी दिया करेगा ।

कह दिया मैंने भी उससे ,
ए चाँद ! यूँ ना रुठा कर ।
हो शिकायत कोई तुम्हे ,
तो सीधे मुझसे कहा कर ।
मिल बैठ बातो को हम सुलटा लिया करेंगे ।

समझौता हो चुका हमदोनो में अब ।
ए मयंक ,
माना कि प्रतिनिधि है तू समय का ।
पर दोस्ती का भी लिहाज कर लिया कर ।

ए निशापति ,
दोस्ती बचपन में खीर वाली याद कर लिया कर ।

माना कि तोड़े मैंने अनुशासन कई तेरे ।
पर तोड़ी थी उस समय प्यालियाँ कई तूने मेरी भी ।

ए शशि ,
उन अपराधों को तू भी तो दिल पे धरा कर ।

चल हटा , अब न रूठना ना मैं तुझको भुलुँगा ।
पर यार , मेरी ही खिड़की पर नहीँ ,
सबकी पर एक बार तू दिख जाया कर ।

सच तेरे बिना 'रात' बहुत काली होती है ।
अरे अमावस में तो , तैयारियाँ रहती है दिये की ।
पर बिन बताये ना आने से तेरे ,
रातें नरक सी मालूम होती है ॥

संदीप मुरारका
दिनांक 11 जनवरी 2017 बुधवार
सम्वत 2073 पौष शुक्ल चतुर्दशी

Friday, 6 January 2017

ठकुरानी

विचित्र ये दुनिया , विचित्र है ये संसार ,
अप्रतिम सौंदर्य की मूर्ति थे श्रीकृष्ण ,
स्वयं भगवान श्री विष्णु के अवतार ।

बावजूद करना पड़ा प्रभु को अपहरण ,
करने रुक्मणि के साथ विवाह संस्कार ॥

सत्यभामा , सत्या , कालिंदी और मित्रविंदा,
बनी पटरानी लक्ष्मणा, जाम्बवन्ती औ' भद्रा ॥

भय मुक्त करने पृथ्वी को , किया नरकासुर का संहार , मुक्त हुई उसके बंधन से राजकुमारियाँ सोलह हजार ,
देकर स्थान पत्नी का, किया केशव ने सबका उद्धार ॥

अलग अलग महल हर रानी का , अलग अलग ठाट ,
गोविंद की लीलाओं से , द्वारका नगरी थी बाग बाग ।

खुश थी सभी रानियाँ, जनता की भी खुशियाँ अपार ,
रोज़ मनाते होली दिवाली , राजा प्रजा और रिश्तेदार ॥

द्वारका में मनता था उत्सव रोज़ , संगीत साज शृंगार ,
इधर रोती ब्रज की गोपियाँ, लूट गया था जिनका प्यार ॥

इधर गोपियाँ, उधर रानियां एक सौ आठ सोलह हजार ,
फ़िर भी अतृप्त मन , टूटा दिल, ह्रदय में शून्य आकार ।

कौन थी वो ? छिन लिया जिसने गोविंद का चैन ,
फीकी फीकी रहती जिसके बिना गिरधर की रैन ।

किया नहीँ विवाह उससे , दिया नहीँ अपना नाम ,
पर हर मंदिर में आज उसी के साथ दिखते श्याम ।

अधूरी है उसके बिना, गिरधर मुरारी की हर मूरत ,
सूना है हर मंदिर, जहाँ न हो उस प्रेयसी की सूरत ।

अजी! ठकुरानी थी वो बरसाने की, राधा उसका नाम ,
दुनिया दीवानी घनश्याम की , राधा के दीवाने श्याम ॥

संदीप मुरारका
दिनांक 7 जनवरी'2017 शनिवार
सम्वत 2073, पौष शुक्ल नवमी

Thursday, 5 January 2017

विशुद्ध प्रेम

नाना उग्रसेन के मथुरा नगरी की शोभा आपार ,
थी बड़ी बड़ी हवेलियाँ औ' ऊँचे ऊँचे तोरण द्वार ।

वृंदावन था ठेठ गाँव, केवल गौएँ बाछे और ग्वाल,
रोज़ वही माखन, वही दही, वही चावल और दाल ।

मथुरा में तो हाय वासुदेव जी के ठाट ही निराले थे,
गहने तो गहने , वहाँ के तो कपड़े भी चमक वाले थे ।

यहाँ वृंदावन में वन वन भटकती गँवार ग्वालन गोपियाँ,
गले तुलसी, माथे मोरपंख, हाथ में बाँसुरी वाले कन्हैया ।

मथुरा नगर की सजी धजी सुंदर सुंदर नवयौवनाएँ,
वृंदावन में रहा करती थी बँजारिनो सी गोप बालायें ।

मथुरा की गलियों में, इत्र लगा युवतियाँ फिरा करती थी,
पर बाँसुरी कृष्ण की तो वृंदावन में ही बजा करती थी ।

कर ले सोलह शृंगार , भले मथुरा की कन्यायें,
रास लीला तो वृंदावन जी में ही हुआ करती थी ।

कपड़े , तन, खूबसूरती या पैसा जहाँ, वहाँ प्रेम कैसा ?
मन,समर्पण औ त्याग जहाँ, मिले प्रेम वहाँ कृष्ण जैसा ॥

संदीप मुरारका
दिनांक 5 जनवरी'2017 गुरुवार
सम्वत 2073, पौष शुक्ल सप्तमी

नववर्ष अभिनंदन

बीत गये वर्ष बहुत सारे
कई आशायें बदली निराशा में

बदला बहुत कुछ
कहीँ रिश्ते बदले तो कहीँ नाते

कोई मित्र दगा दे गया
और कोई हँसने का मौका

बड़े अजीब थे वो कुछ महीने जब
आईना पहचानने से इन्कार करने लगा था

तब कुछ बढे थे कुछ हाथ इस ओर
यादों को सहेजे हुए पार हुआ साल

उम्मीदों को जगाते हुए
नई रोशनी नई किरण लाते हुए

आया फ़िर एक नया साल
लेकर नई सीख , नई मुस्कुराहट

स्वागत पूरे ह्रदय से ए नववर्ष तेरा
अभिनंदन वन्दन स्वीकार करो मेरा ॥

दिनांक 5 जनवरी 2017