Tuesday, 25 January 2022

राष्ट्र रूपी वृक्ष की जड़ हैं आदिवासी

सम्मुन्नत भारत के निर्माण में साहित्य (आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों की जीवनियों) की भूमिका

राष्ट्र रूपी वृक्ष की जड़ हैं आदिवासी
- संदीप मुरारका

साहित्य के बिना क्या राष्ट्र निर्माण की परिकल्पना की जा सकती है़, शायद नहीं! विधा चाहे जो हो काव्य, कहानी, नाटक, निबंध, लघुकथा, आत्मकथा या जीवनियाँ, साहित्य के बिना किसी भी राष्ट्र की संस्कृति अथवा इतिहास का संरक्षण संभव नहीं है़। कहा जा सकता है़ कि साहित्य एवं समाज एक दूसरे के पूरक हैं। भारतीय साहित्य अपने आपमें इतना विशाल है कि इसके आरंभ और वर्तमान को पूर्ण रुप से जान लेना बहुत कठिन है। हमारे देश में वाचिक साहित्य, शिलालेख, ताम्रलेख, काष्ठलेख, पांडुलिपियाँ यत्र तत्र बिखरे पड़े हैं। पुराणों से लेकर वर्तमान समकालीन साहित्य का एक बहुत बड़ा हिस्सा इतिहास को समर्पित है़। आज जब भारतीय इतिहास का पुनर्मूल्यांकन किया जा रहा है़, तो इस विषय पर गौर करना आवश्यक है़ कि क्या भारत के स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में जनजातियों के योगदान की अनदेखी नहीं की गई? यह ऐतिहासिक भूल एक सोची समझी रणनीति के तहत हुई या अनजाने में, किंतु यह कटु सत्य है़ कि भारतीय इतिहास ने आदिवासियों की संघर्ष गाथा लिखने में न्याय नहीं किया। इतिहास के पन्ने हों या देशभर के स्कूली पाठ्यक्रम, आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों को उचित स्थान नहीं दिया गया।

चँवर छत्र सिंहासन की रोशनी में जो लड़े, वो इतिहास हो गए,
जल जंगल जमीं के लिए अंधकार में जो लड़े, वो खाक हो गए।

पुस्तक "आदिवासी और वनाधिकार" के लेखक ग्लैडसन डुंगडुंग लिखते हैं कि दुनिया को एक दिन आदिवासी दर्शन के पास ही लौटना है। उनका मानना है़ कि आदिवासियों के साथ लेखकों एवं साहित्यकारों ने बहुत बेईमानी की है़।

रानी लक्ष्मीबाई -

वर्ष 1842 में लक्ष्मीबाई का विवाह झाँसी के मराठा शासित राजा गंगाधर राव नेवालकर के साथ हुआ और वे झाँसी की रानी बनीं। सितंबर 1851 में रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया। परन्तु चार महीने की उम्र में ही उसकी मृत्यु हो गयी। सन् 1853 में राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य बहुत अधिक बिगड़ जाने पर उन्होंने एक पुत्र को गोद लिया,दत्तक पुत्र का नाम दामोदर राव रखा गया। पुत्र गोद लेने के दूसरे दिन ही 21 नवंबर,1853 को राजा गंगाधर राव की मृत्यु हो गयी।

महाराजा ने यह आदेश दिया था कि उनकी मृत्यु के पश्चात इस चार वर्षीय बच्‍चे को वारिस माना जाएगा और झांसी के प्रशासन की बागडोर रानी लक्ष्मीबाई के हाथों में होगी। लेकिन महाराजा के निधन के बाद गवर्नर-जनरल लॉर्ड डलहौजी ने दामोदर राव के दावे को विलय की फर्जी नीति गोद निषेध अधिनियम (Doctrine of Lapse) के तहत खारिज कर दिया।

अंग्रेजों ने अपनी विलय नीति के तहत बालक दामोदर राव के खिलाफ ब्रिटिश अदालत में मुकदमा दायर कर दिया। हालांकि मुकदमे में बहुत बहस हुई, रानी लक्ष्मीबाई की ओर से आस्ट्रेलिया के विद्वान अधिवक्ता जॉन लैंग ने 22 अप्रैल 1854 को लंदन की अदालत में पक्ष रखा लेकिन असफल रहे।

परंतु अंग्रेजों के पक्ष में एकतरफा फैसला सुनाते हुए मुकदमा खारिज कर दिया गया। अंग्रेजों द्वारा राज्य का खजाना जब्त कर लिया गया। रानी लक्ष्मीबाई को झाँसी का किला छोड़कर झाँसी के रानीमहल में जाना पड़ा। पर उन वीरांगना ने हिम्मत नहीं हारी और हर हाल में झाँसी राज्य की रक्षा करने का निश्चय किया। उन्होंने एक स्वयंसेवक सेना का गठन किया, जिसमें महिलाओं की भी भर्ती की गयी और उन्हें युद्ध का प्रशिक्षण दिया गया। वीर रानी लक्ष्मीबाई ने मात्र 29 वर्ष की उम्र में अंग्रेज साम्राज्य की सेना से युद्ध किया और 18 जून,1858 को रणभूमि में वीरगति को प्राप्त हुईं।

रानी के बेटे दामोदर को लड़ाई के मैदान से सुरक्षित ले जाया गया। किंतु दामोदर ने रानी की शहादत के दो साल बाद ही ग्यारह वर्ष की उम्र में अंग्रेजों के सामने आत्म समर्पण कर दिया। राजनीतिक एजेंट सर रिचर्ड शेक्‍सपियर ने उनकी मदद की और उनको रु. 10 हजार वार्षिक पेंशन मुहैया कराई गई। एक कश्‍मीरी टीचर को उनका संरक्ष‍क बनाया गया और सात अनुयायियों को साथ रखने की अनुमति दी गई। दामोदर राव इंदौर में ही बस गए, वर्ष 1906 में उनकी मृत्यु हुई। उनकी मृत्यु के बाद कुछ मासिक पेंशन उनके पुत्र लक्ष्मण राव को भी मिलती रही। उनका परिवार आज भी इंदौर में रहता है़ और झाँसी वाले के नाम से विख्यात है़।

यहाँ यह भी गौरतलब है़ कि रानी लक्ष्मीबाई की मृत्यु के दो दिनों बाद ही ग्वालियर महाराजा जयाजीराव सिंधिया ने अंग्रेजों की जीत की खुशी में जय विलास महल में जनरल रोज और सर रॉबर्ट हैमिल्टन के सम्मान में भोज व रंगारंग नृत्य का आयोजन किया था। राज्यसभा सांसद ज्योतिरादित्य माधवराव सिंधिया उन्हीं जयाजीराव सिंधिया की पाँचवी पीढ़ी में जन्में हैं। हिंदी की जानी मानी कवियत्री सुभद्रा कुमारी चौहान लिखती हैं, ''बुंदेलों हर बोलो के मुंह हमने सुनी कहानी थी, अंग्रेजों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी राजधानी थी। ''

शहीद वीरांगना रानी अवंती बाई लोधी -

इतिहास के स्वर्णिम पन्नों में और कई वीरांगनाओं के नाम दर्ज हैं, जिनमें एक हैं मध्यप्रदेश के रामगढ़ रियासत की रानी अवंती बाई लोधी, जिनका विवाह वर्ष 1848 में रामगढ़ रियासत के राजकुमार विक्रम जीत सिंह के साथ हुआ। वर्ष 1851 में उनके ससुर रामगढ़ राजा लक्ष्मण सिंह की मृत्यु हो गई। जिसके बाद अवंतीबाई के पति विक्रम जीत सिंह का रामगढ़ रियासत के राजा के रूप में राजतिलक किया गया। कुछ समय बाद अवंती बाई ने दो बेटों को जन्म दिया, जिनका नाम अमान सिंह और शेर सिंह रखा गया।

वर्ष 1855 में एक दुर्घटना में राजा विक्रम जीत सिंह की मृत्यु हो गई। राजकुमार अमान सिंह और शेर सिंह के नाबालिग होने से राजकाज रानी अवंती बाई ने अपने हाथों में ले लिया, जो अंग्रेजी हुकूमत को रास नहीं आया। इस दौरान अंग्रेजों ने रामगढ़ पर 'कोर्ट ऑफ वार्ड' (court of ward) लागू कर दिया। जो अंग्रेजी हुकूमत के विस्तार हेतु लार्ड डलहौजी की राज्य हड़प नीति के तहत बनाया गया एक क्रूर कानून था। जिसके तहत जिस राज्य का राजा शासन करने में अक्षम हो, राजा की मृत्यु हो गयी हो, या फिर कोई वारिस नहीं न हो, नाबालिग हो, या फिर राज्य को संभालने वाला कोई उत्तराधिकारी न हो, राजा विक्षिप्त हो ऐसे राज्य पर कोर्ट ऑफ वार्ड लागू कर दिया जाता था।

परंतु रानी भी झुकने के लिए तैयार नहीं थी, उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह का बिगुल फूंक दिया। इधर मंडला के डिप्टी कमिश्नर वाडिंगटन ने भी इस विद्रोह को कुचलने की पूरी तैयारियाँ कर ली। अंग्रेजों की सशस्त्र सेना ने चारों तरफ से रानी की सेना पर धावा बोल दिया। कई दिनों तक रानी की सेना और अंग्रेजी सेना में युद्ध चलता रहा, रानी के पास सेना बल व संसाधन सीमित थे, अंततः अंग्रेज अवंती बाई की सेना पर भारी पड़ते गए।

20 मार्च 1858, देवहारगढ़ की पहाड़ी पर चल रहे इस युद्ध में रानी की सेना के कई सैनिक घायल हो गए, रानी को खुद बाएं हाथ में गोली लगी। जिससे उनकी बंदूक छूटकर गिर गई। अपने आप को चारों ओर से घिरता देख वीरांगना अवंतीबाई लोधी ने अपने अंगरक्षक से कटार छीनी और खुद को भोंक कर अपने प्राणों की आहुति दे दी।

पुनः यहाँ भी गौरतलब है़ कि रानी अवंती बाई लोधी के साथ हुए युद्ध में अंग्रेजों का साथ रीवा नरेश रघुराज सिंह जू देव बहादुर ने दिया था। इस सेवा के बदले अंग्रेजों ने जू देव को ना केवल रीवा का राजा बने रहने दिया बल्कि सोहागपुर (शहडोल) और अमरकंटक परगना को उनके शासन में बहाल कर दिया गया और महाराजा की उपाधि प्रदान की गई। उन्हीं की वंश परंपरा से आए महाराजा मार्तंड सिंह आजाद भारत में सांसद चुने गए। उनके पुत्र पुष्पराज सिंह विधायक और मध्य प्रदेश सरकार में मंत्री रह चुके हैं। पुष्पराज सिंह के पुत्र दिव्यराज सिंह सिरमौर से विधायक चुने जा चुके हैं।

किद्वंतियो के अनुसार रीवा राजघराने ने ही अकबर को 10 साल की उम्र में तब शरण दी थी, जब उनके पिता हुमायूँ  बेलग्राम युद्ध में शेरशाह सूरी से हार के बाद भारत से भाग गए थे। राजकुमार रामचंद्र सिंह और अकबर साथ खेलकर बड़े हुए, आगे भी दोनों दोस्त बने रहे। रीवा महाराज रामचंद्र सिंह ने अकबर को दिल्ली के तख्त पर सत्तासीन होने के बाद उपहार स्वरुप दो नवरत्न भेजे, जिनको इतिहास तानसेन और बीरबल के नाम से जानता है़।

इतिहास ने अपने पन्नों में पूना के मराठा शासक पेशवा बाजीराव द्वितीय का नाम भी दर्ज किया साथ ही उनके दत्तक पुत्र नाना साहेब 'धोंडूपन्त' को भारतीय स्वतंत्रता के प्रथम संग्राम का एक शिल्पकार बतलाया है़।

मुगल साम्राज्य के अंतिम शहंशाह बहादुर शाह को भी इतिहास ने स्वतंत्रता सेनानी का तमगा देते हुए उनके और मेजर हडसन के वार्तालाप को खुब तव्वजो दी है़।
मेजर - "दमदमे में दम नहीं है ख़ैर मांगो जान की.. ऐ ज़फर ठंडी हुई अब तेग हिंदुस्तान की.."
जफर - "ग़ज़ियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की.. तख़्त ऐ लंदन तक चलेगी तेग हिंदुस्तान की.."

वर्ष 1988 में भारत सरकार द्वारा 60 पैसे की एक टिकट जारी की गई, जिसका शीर्षक था - प्रथम स्वाधीनता संग्राम, जिसमें 6 नाम अंकित थे रानी लक्ष्मी बाई, बेगम हज़रत महल,तात्या टोपे, बहादुर शाह जफर, मंगल पांडे और नाना साहेब। उपरोक्त डाकटिकट में बेगम हजरत महल का चित्र भी प्रकाशित था। बेगम महल का असली नाम मुहम्मदी ख़ानुम था, भले ही वे पेशे से तवायफ थीं, किंतु अवध नवाब
वाजिद अली शाह के निर्वासन के बाद उन्होंने जिस राजनीतिक सूझबूझ का प्रदर्शन करते हुए अवध की गद्दी पर अपने पुत्र बिरजिस क़द्र को आसीन कर दिया और अंग्रेजों से भी टकरा गई। उनकी वीरता ने इतिहास में उनको भरपूर स्थान दिलवाया। आज लखनऊ से लेकर काठमांडू तक उनके स्मारक बने हुए हैं।

इस बात पर हम आज भी इठलाते हैं कि हमारे रणबांकुरो ने, हमारी वीरांगनाओं ने खुब लड़ा। ये हमारे लिए गौरव का विषय था और सदैव रहेगा। किंतु एक अप्रकाशित रह गया सत्य यह भी है कि ये लड़ाईयाँ, विद्रोह, युद्ध सब अपने अपने राज्य को बचाने के लिए था, अपने किले, अपने महल, अपने खजाने, अपने उत्तराधिकार, अपने सिंहासन, अपने रुतबे को बचाने के लिए था। अंग्रजों ने फूट डालो राज्य करो की नीति के तहत किसी रियासत के राजा की चमक बने रहने दी, किसी की बढ़ा दी और किसी की छीन ली। अंग्रेजों की फूट डालो राज करो नीति इतनी कारगर साबित हुई कि आज भी उसका अनुपालन शिद्दत से किया जाता है़। अधिकांशतः स्थानीय स्तर की छोटी से छोटी संस्था से लेकर राष्ट्र स्तर के बड़े से बड़े संस्थान में इसी नीति के अनुसार शासन प्रशासन संचालित किया जा रहा है़। महाराणा प्रताप व कुंवर सिंह जैसे कुछेक नाम छोड़ दिए जाएँ तो लगभग हर राजा व नवाब ने अंग्रेजों के सामने घुटने टेकते हुए अपनी- अपनी शर्तें रखी। परंतु अंग्रेज उनकी कमजोरियाँ भांप चुके थे, जो राजा ऐशोआराम पसंद व अय्याश था, उसे सिपहसलार बना कर उसी के संसाधनों का इस्तेमाल कर पड़ोसी राजा को कुचल दिया गया। अंग्रेजी साम्राज्य फैलता गया, जबकि अंग्रेज लंदन से ना तो लाखों सैनिक लेकर आए थे और ना ही अकूत धन।

जनजातियों का योगदान -

देशभर के कलमकारों ने भी 1857 के स्वाधीनता संग्राम को ही भारत का पहला आंदोलन मानते हुए खुब कविताएँ कहानियाँ व उपन्यास लिख डाले। जबकि उसके पूर्व अंग्रेजों के विरुद्ध कई विद्रोह हो चुके थे और वो लड़ाईयाँ ना सत्ता के लिए थी, ना सिंहासन के लिए। वे लड़ाईयाँ जल जंगल जमीन के लिए लड़ी गई, अपने हक के लिए लड़ी गई, अग्रेजों व सामंतवादी व्यवस्था के विरुद्ध लड़ी गईं। निःस्वार्थ लड़ी गई, देश के लिए लड़ी गई।

वर्ष 1771 से 1784 तक ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध लंबी लड़ाई लड़ने वाले बिहार के बाबा तिलका मांझी ने अंग्रेज प्रशासक ऑगस्टस क्लीवलैंड की हत्या कर दी, तब ब्रिटिश बौखला उठे। कैप्टन आयरकूट के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना के साथ जबरा पहाड़िया उर्फ तिलका मांझी एवं संताल वीरों की मुठभेड़ हुई। सुल्तानगंज में हुई इस लड़ाई में तिलका के कई लड़ाके मारे गए एवं उनको गिरफ्तार कर लिया गया। निर्मम अंग्रेज तिलका को चार घोड़ों से बांधकर घसीटते हुए भागलपुर ले गए, जहाँ 13 जनवरी, 1785 को एक विशाल वटवृक्ष पर उन्हें सरेआम फांसी दे दी गई। इस आंदोलन में
फूलमनी मझिआइन का योगदान भी अविस्मरणीय था।

वर्ष 1831 में महानायक बुधु भगत, सुर्गा मुंडा, सिंदराय मानकी, बिंदराय मानकी, जोआ भगत द्वारा अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ा गया कोल विद्रोह संभवतः देश का पहला संगठित आंदोलन था।

अपने जीवन के 37 साल असीरगढ़ किले की जेल में बिताने वाले संबलपुर, ओड़िशा के सुरेंद्र साए अंग्रेजी सेना द्वारा 1840 में पहली बार गिरफ्तार किए गए थे।

9 जुलाई, 1855 को झारखंड के पाकुड़ जिला के संग्रामपुर में ब्रिटिश सेना के कैप्टन मर्टिलो के साथ हुई जंग में संताल वीर चांद भैरव शहीद हो गए।

संताल विद्रोह के महानायक भाई सिदो कान्हू को 26 जुलाई, 1855 को झारखंड के साहेबगंज जिला के बरहेट प्रखंड में अवस्थित गाँव पंचकठिया में बरगद के पेड़ पर फांसी से लटका दिया गया। ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ प्रारंभ उस हूल आंदोलन में अंग्रेजों की फायरिंग से हजारों आदिवासी मारे गए थे, जिस कहानी का चश्मदीद गवाह है़ झारखंड के पाकुड़ में अवस्थित मर्टिलो टॉवर, जो आज भी सिदो कान्हू चांद भैरव फूलो झानो व आदिवासी शहीदों की शौर्य गाथा गाता है़।

इस हूल आंदोलन के दौरान हूल नायिका फूलो झानो ने अंग्रेजों की सेना के 21 जवानों को मौत के घाट उतार दिया था। ऐसा नहीं है़ कि आदिवासी नायिकाओं ने केवल अंग्रजों के विरुद्ध लड़ाईयाँ लड़ी, बल्कि संघर्ष का यह गौरवशाली इतिहास काफी पुराना रहा है़। पन्द्रवीं सदी में पठान शेरशाह सूरी जब फतह पर निकला तो रोहतासगढ़ में उरांव जनजाति की वीरांगना सिनगी देई, कईली देई और चम्पू देई के नेतृत्व में जोरदार प्रतिरोध किया गया। उन महान नायिकाओं की स्मृति में आज भी उरांव स्त्रियाँ अपने माथे पर तीन बिंदिया या खड़ी लकीरें गोदवाती हैं।

दिनांक 21 अक्टूबर, 1857 को चैनपुर, शाहपुर और लेस्लीगंज स्थित अंग्रेजों के कैंप पर आक्रमण करने वाले पलामू आंदोलन के सूत्रधार नीलांबर पीतांबर हों या वर्ष 1880 में झारखंड के गुमनाम शहीद तेलंगा खड़िया अथवा
इंडियन रॉबिनहुड के नाम से विख्यात मध्य प्रदेश के तंट्या भील, जिनको 4 दिसंबर, 1889 को फांसी दे दी गई।

इनमें ना तो कोई राजा था, ना कोई बादशाह, ना कोई रानी, ना कोई बेगम, ना ही ये लड़ाईयाँ राज्य की सत्ता बचाने के लिए लड़ी गई, ना सिंहासन बचाने के लिए, ना खजाने के लिए और ना ही महल के लिए। ये लड़ाईयाँ जल जंगल जमीन के लिए लड़ी गई, अपने हक के लिए लड़ी गई, अग्रेजों व सामंतवादी व्यवस्था के विरुद्ध लड़ी गईं। निःस्वार्थ लड़ी गई, देश के लिए लड़ी गई। आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों की वीरता की गाथाओं को ना तो इतिहास के पन्नों में दर्ज किया जा सका और ना स्कूली पाठ्यक्रम में पढ़ाया जा सका।

यदि भारत का पहला स्वाधीनता संग्राम 1857 था, तो 1771- 84 में तिलका का विद्रोह क्या था? वर्ष 1831 का कोल विद्रोह और 1840 में सुरेंद्र साए का उलगुलान क्या था? वर्ष 1855 के हूल आंदोलन (संताल विद्रोह) को अनदेखा कर इतिहास कैसे लिखा जा सका?

मराठाओं के पास, राजाओं के पास, बादशाहों के पास प्रचार तंत्र थे, धन संपदा के मंत्र थे, भाट चारण जैसे दरबारी थे। इसीलिए बाजीराव पेशवा हों या शिवाजी महाराज, उनकी स्टोरीज को खुब लिखा गया और खुब प्रसारित किया गया। अब तो स्थिति यह है़ कि ऐतिहासिक किरदारों की झूठी सच्ची प्रेम कहानियों पर फिल्में बनाकर सैकड़ों करोड़ के कारोबार किए जा रहे हैं,यथा; बाजीराव मस्तानी, पद्मावत, रजिया सुल्तान, जोधा अकबर।

किंतु प्रचार प्रसार से दूर रहने वाले आदिवासियों के पास ना तो अपना इतिहास गढ़वाने के लिए इतिहासकार थे, ना दरबार के पैसों पर पलने वाले चाटुकार, ना वंश का वर्णन करने वाले मागध, ना समयानुसार स्तुति करने वाले वंदीजन, ना वैसे महल जिनमें तस्वीरें या मूर्तियाँ लगाई जा सकती। एक ओर पाँच सितारा हैरिटेज होटलों में तब्दील कर दिए गए राजाओं के महल विलासिता की दास्तां बयां करते हैं और दूसरी ओर इतिहास उनके संघर्ष की गाथा कहते नहीं अघाता।

जबकि आदिवासी राष्ट्र रूपी वृक्ष की जड़ हैं, इनकी जीवनियाँ इतिहास के कई बंद दरवाजों को खोल सकती है़।हालांकि आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों की जीवनियों पर शोध प्रारंभ हुए हैं, पर अभी भी जो कार्य हुआ है वह नाकाफी है़। जीवनियाँ साहित्य की एक प्रमुख विधा है, इस विधा में काफी काम हुआ है़। केवल कोई उपेक्षित रह गया तो वो हैं आदिवासी। सम्मुन्नत भारत के निर्माण में आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों की जीवनियों की महत्ती भूमिका को सुनिश्चित किया जाना आवश्यक है़।

संदर्भ :
1. आदिवासी दर्शन और साहित्य (2015) - वंदना टेटे

2. Recollections of the Campaign in Malwa and Central India Under Major General Sir Hugh Rose (Reprint 2016)- John Henry Sylvester

3.  सिर पर तलवार के वार से मारी गई थीं रानी लक्ष्मीबाई - रेहान फ़ज़ल, बीबीसी संवाददाता, 20 जून 2017, अपडेटेड 25 जनवरी 2019

4. रामगढ़ की मर्दानी - चंद्रभान सिंह लोधी

5. वर्ष 1988 में जारी 60 पैसे का डाकटिकट - प्रथम स्वतंत्रता संग्राम

6. स्वतंत्रता सेनानी वीर आदिवासी - शिवतोष दास

- संदीप मुरारका
पुस्तक शिखर को छूते ट्राइबल्स भाग 1 -3 के लेखक
जमशेदपुर, झारखंड
9431117507
keshav831006@gmail.com




Note :
Title - 7 words
Abstract - 250 words
Article - 2403 words
Reference - 85 words
Photo (one) - 250 words
Total - 2995 words



ग्रेट इंडिया

*ग्रेट इंडिया* 

स्वामी विवेकानंद के बचपन में घर का नाम वीरेश्वर रखा गया था, उनका औपचारिक नाम नरेंद्रनाथ दत्त था। आगे चलकर वे स्वामी विवेकानंद के नाम से प्रसिद्ध हुए। हालांकि उनके महान व्यक्तित्व के पीछे नेम गेम का कोई योगदान नहीं था, उनका नाम वीरेश्वर होता या नरेंद्र या विवेकानंद, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता, उनको महान बनाया उनकी विचारशीलता ने, उनको विश्वव्यापी पहचान मिली उनके ओजस्वी और सारगर्भित व्याख्यानों से। वे एक ऐसे धर्म गुरु हुए, जिनमें यह कहने की हिम्मत थी कि "इस देश के तैंतीस करोड़ भूखे, दरिद्र और कुपोषण के शिकार लोगों को देवी देवताओं की तरह मंदिरों में स्थापित कर दिया जाये और मंदिरों से देवी देवताओं की मूर्तियों को हटा दिया जाये।" 

खैर अभी विषय उनके विचारों पर चिंतन का नहीं है़। अभी विषय है़ नाम बदलने का!  हमने विकलांग को दिव्यांग कहना आरंभ कर दिया। आह! क्या सुकून!! बॉम्बे मुंबई बन गया, मद्रास चेन्नई, कलकत्ता कोलकात्ता, उड़ीसा ओड़िशा, इलाहाबाद प्रयागराज, बैंगलोर बेंगलुरु, गुड़गांव गुरुग्राम और ना जाने कितने शहरों के नाम बदल गए। सच में नाम बदलते ही ये सारे शहर व राज्य अविकसित से सीधे विकसित की श्रेणी में आ गए। भले सरकारी दस्तावेजों में नए नामकरण के लिए करोड़ों रुपए खर्च (स्वाहा) हो गए, पर विकास भी उतनी ही तेजी से दौड़ पड़ा। इन नए नाम वाले क्षेत्रों में एक तो भ्रष्ट्राचार बिल्कुल समाप्त हो गया, दूसरा इन स्थानों को पुराना नाम मिलते ही यहाँ अपराधिक घटनाएँ बिल्कुल समाप्त हो गई। यहाँ की जनता जो बंबई, मद्रास, कलकत्ता, उड़ीसा, इलाहाबाद, बैंगलोर, गुड़गांव जैसे शब्दों के बोझ तले दबकर नारकीय जीवन जीने को मजबूर थी, अब देवताओं के स्वर्ग तुल्य रमणीय स्थानों के समकक्ष स्थान पर रहने की फील कर रही है़। 

अभी एक और राज्य के नाम बदलने की कवायद चल रही है़। पश्चिम बंगाल विधानसभा ने पश्चिम बंगाल का नाम बदलकर बांग्ला करने का प्रस्ताव पास किया है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का कहना है़ कि राज्य के नौकरशाहों को केंद्र सरकार द्वारा आयोजित बैठकों में वेस्ट बंगाल नाम होने के कारण वर्ण क्रम के अनुसार सबसे अंत में बोलने का मौका मिलता है। यानी कि केंद्र सरकार में अंग्रेजी वर्णमाला के अनुसार वक्ताओं को आमंत्रित किया जाता है़। वेस्ट बंगाल का नाम बदलते ही संभवतः उत्तराखंड एवं उत्तरप्रदेश सरकार सक्रिय हो जाएगी, क्योंकि उनके नाम अंतिम पायदान पर चले जाएंगे। 

खैर, छोड़िए राज्य व राष्ट्रीय स्तर को, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बात करते हैं। आपको कितना फर्क पड़ता है़ कि ग्रेट ब्रिटेन को कोई ब्रिटेन कहे या यू के या यूनाइटेड किंगडम। आपको कितना फर्क पड़ता है़ कि कोई अमेरिका को यू एस कहे या यूएसए या अमेरिका या यूनाइटेड स्टेट ऑफ अमेरिका। बर्मा का नाम म्यांमार हो जाने से वहाँ से एक्सपोर्ट इंपोर्ट करने वालों के व्यापार में इजाफा हुआ क्या? अब हॉलैंड को नीदरलैंड कहा जाए या नीदरलैंड को हॉलैंड, किसी इंडियन को ही नहीं, विश्व के किसी देश के नागरिक को इससे ना फर्क पड़ता है़, ना कोई इस बात की नोटिस लेता है़। 

नाम बदलने की मानसिकता या एक नाम रखने की संकीर्णता, ऐसे अभियानों से मुझे राजनीति की बू आती है़। जिनका मकसद होता है़ विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार जैसे गंभीर मुद्दों को छोड़कर नाम जैसे मुद्दों में उलझाए रखना और युवाओं को नाम अभियान की एक नई अफीम चटा कर उनके अर्द्धविकसित मस्तिष्कों में कूड़ा भरना। 

अजी, हमें गर्व होना चाहिए इंडिया गेट पर, मेक इन इंडिया अभियान पर, एयर इंडिया पर, टीम इंडिया पर, रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया पर, टाइम्स ऑफ इंडिया पर, हर उस नाम पर जहाँ इंडिया जुड़ा हो, जहाँ भारत जुड़ा हो। वैसे भी अपने देश में कल्चर है़ घर में अलग नाम से पुकारा जाता है़, बाहर अलग नाम होता है़। मत चलाइए ऐसा कोई अभियान जिसमें इंडिया शब्द की पहचान खत्म होती हो। क्योंकि ऐसा होता है़ तो इससे उत्साहित एक वर्ग विशेष कल राष्ट्रगान जन गण मन को बदलने की बात करेगा, हो सकता है़ उसके बाद तिरंगे से हरा या केसरिया रंग हटाने की मांग हो, देवनागरी की जगह संस्कृत, पालि, मगधी या ब्रज लिपि लागू करने का मुद्दा उठ जाए। वैश्विक स्तर पर इंडिया की पहचान भारत के रुप में मत बनाइए, उसे ग्रेट इंडिया के रुप में बनाइए। यदि महा अभियान ही शुरु करना हो तो यह करें कि "हर धार्मिक संस्थान के अंतर्गत एक यूनिवर्सिटी प्रारंभ हो।"

Sunday, 23 May 2021

कोरोना काल की विकट परिस्थितियाँ और हमारा समाज

कोरोना काल की विकट परिस्थितियाँ और हमारा समाज

कोरोना.... एक बिन बुलाई हुई आपदा, एक वैश्विक महामारी, जो ना केवल अपने शहर में, बल्कि हर शहर, हर गाँव, हर देश में यूँ पाँव पसारती चली गई। मानो एक बार फिर विश्व विजय को ब्रिटिश या सिकन्दर की सेना निकल पड़ी हो। चारों ओर नकारात्मकता, बीमारी, दवाईयाँ, रेमेडिशीवीर, ऑक्सीजन,  मास्क, आईसीयू, वेंटिलेटर, अस्पतालों में बेड की कमी का शोर। तो टीवी चैनलों पर आरोप प्रत्यारोप लगाते राजनैतिक प्रतिद्वन्दी और उन्हें उकसाते एंकरों की रिपोर्ट। हास्पिटल में चीखते चिल्लाते परिजन तो प्लास्टिक में लिपटी हुई लाशें। ना पूर्ण विधि विधान से अन्तिम संस्कार, ना अस्थि विसर्जन, ना मृत्यु भोज और ना दशकर्म। ऊपर से शमशान घाट पर लम्बी कतारें, खराब पड़े फर्नेस, लकड़ियों की कमी से जूझते घाट।

उन सबके ऊपर जीवनरक्षक दवाइयों के आसमान छूते दाम, इंजेक्शन की कालाबाजारी, ऑक्सीजन सिलेण्डर की कमी का लाभ उठाते कुछ निर्दयी, कोरोना टेस्ट के नाम पर खुली लूट, ऑनलाइन इलाज के नाम पर लूट मचाते कुछेक डाक्टर्स, एक एक दिन में हजारों का बिल थमाते कुछेक अस्पताल, आपदा में अवसर तलाशती एक अराजक बिरादरी ।

आश्वासनों का पिटारा लिए हुए राजनैतिक विज्ञापन, मौत और बीमारी के झूठे आंकड़े से लब्बोदार सरकारी विज्ञप्तियाँ, और फिर एक लॉकडाउन। बंद पड़े धंधे, भूख और भविष्य की चिन्ता में पिसता हुआ आम इंसान। घर को लौटते मजदूर, सूखे खेत, खाली पड़े आटा दाल के कनस्तर, असुरक्षित नौकरियाँ और अनिश्चित भविष्य। उसके ऊपर अभी तीसरी लहर का भय !

पहली लहर में बूढ़े बुजुर्गों को खोया, दूसरी लहर में हजारों युवा काल के गाल में समा गए, कोई छोटे बच्चों को छो़ड गया, तो कोई कम उम्र की पत्नी को, किसी का कर्ज बाकी रह गया तो किसी का सपना, बूढ़े माँ पिता को अपने बेटे की लाश भी देखने को ना मिली, पता नहीं उन युवा मृतकों की लाडली अब कैसे डाक्टर बनेगी, बेटा कैसे इंजिनियरिग कर पाएगा। ऊपर से तीसरी लहर में बच्चों के लिए चेतावनी!

किन्तु जिस प्रकार अंधेरे में भी जुगनू जगमगाया करते हैं, उसी प्रकार कोरोना काल की विकट परिस्थितियों में हमारे समाज की भूमिका साकारात्मक रही, सहयोगात्मक रही। जहाँ एक ओर लोग कोरोना पीड़ित होकर घरों में आइसोलेशन में कैद थे, ना कोई सब्जी लाने वाला, ना कोई खाना बनाने वाला, वैसे में कोई गुरु के लंगर के नाम से खाने का पैकेट बांट रहा था तो कोई अग्रसेन आहार के नाम से भोजन के पैकेट पहुँचा रहा था। कोई जैन, कोई चित्रगुप्त, तो कोई आदिवासी समाज के नाम पर विटामिन की गोलियाँ वितरित कर रहा था, तो कोई अपने इष्ट देवता के नाम पर फल, दूध, सब्जियाँ बांट रहा था।

जहाँ एक ओर आपदा में अवसर ढूंढते लोग ऑक्सीजन की कालाबाजारी कर रहे थे, वहीं उद्यमी वर्ग बिना प्रचार बिना जातपात पूछे निःशुल्क ऑक्सीजन सेवा प्रदान कर रहा था।

मैंने जहाँ एक ओर अखबार के पहले पन्ने पर  हास्पिटल में बेड की कमी की रिपोर्ट पढ़ी, वहीं दूसरी ओर उसी अखबार के भीतरी पन्नों में मारवाड़ी धर्मशालाओं और गुरुद्वारों को  अस्थायी कोविड सेन्टर में तब्दील होने की तस्वीरें भी देखी।

अत्यधिक लाशों के दबाव से इलेक्ट्रिक फर्नेस जब खराब हो गए, सरकार ने सामूहिक शवदाह प्रारम्भ कर दिया, एक एक चिता पर पंद्रह सोलह लाशें जलाई जाने लगी, शमशान घाटों में लकड़ियों की कमी हो गई, वैसे में एक आह्वान पर समाज के व्यवसायियों ने घाटों के बाहर लकड़ियों के ढ़ेर लगा दिए।

लॉकडाउन के दौरान जब पुलिस कर्मी, सफाईकर्मी और प्रशासन का निचला वर्ग सड़कों पर अपनी ड्यूटी निभा रहा था , सदियों से ही उपेक्षित वर्गविशेष सड़क के किनारे रिक्शे ठेले के नीचे दुबका हुआ टुकुर टुकुर खाली सड़क को निहार रहा था, स्टेशन बस स्टैंड के बाहर तिरपाल के नीचे अधनंगा इंसान भूखा पड़ा था, तब हमारे समाज के कुछ उत्साही समाजसेवियों ने ही उनके पेट में अन्न का दाना डाला।

जहाँ एक ओर लाखों करोड़ की सरकारी चिकित्सा व्यवस्था चरमरा उठी, तब भी आपसी सहयोग से संचालित होने वाले संघ मंच समिति कमिटी सम्मेलन जैसे संस्थान सेवा को खड़े दिखायी पड़े, कोई एम्बुलेंस सेवा दे रहा था, कोई भाप की मशीन उपलब्ध करा रहा था, कोई मास्क बांट रहा था, कहीं कोई सूद तो कहीं कोई विश्वास कोरोना कीट बांट रहा था, और तो और कई संस्थानों ने बेजुबान पशु पक्षियो के चारा दाना पानी तक की व्यवस्था की।

ना तख्त काम आए, ना ताज काम आए,
छतों पर लहराते झण्डे भी काम ना आए।
घर से निकलते ही करता था, राम सलाम जिनसे,
शायद उन्हीं में से कोई रुप बनाकर खुद राम आए॥

- संदीप मुरारका
(आदिवासी विमर्श पर लिखने वाले गैरआदिवासी लेखक)








Monday, 29 March 2021

राजस्थान दिवस 2021 पर विशेष आर्टिकल

रायबहादुर बद्रीदास गोयनका -
भारत के सबसे बड़े और पुराने बैक - स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया में चेयरमैन वर्ष 1933 से1957 तक चेयरमैन रहे



पद्मश्री लाला मुल्क राज सराफ -
जम्मू कश्मीर की पत्रकारिता के जनक (Father of Journalism in Jammu & Kashmir) कहे जाने वाले मुल्क राज सराफ साहित्यिक जगत की एक ऐसी शख्सियत थे, जिन्होंने उर्दू, डोगरी और अंग्रेजी भाषा में अविस्मरणीय कार्य किए। उन्होनें वर्ष1924 में जम्मू कश्मीर के पहले उर्दू दैनिक "रणवीर" का प्रकाशन प्रारंभ किया।





पद्मश्री प्रेमलता अग्रवाल -
जिन्होंने विश्व के सातों महाद्वीपों के सर्वोच्च शिखरों पर तिरंगा लहराया और "सेवन सम्मिट पर्वतारोहण अभियान" फतह किया। विश्व के सातों महाद्वीप के सबसे ऊँचे पहाड़ों के शिखर को छूने के अभियान को "सेवन सम्मिट" कहा जाता है।

पद्मभूषण गंगा प्रसाद बिड़ला -

भारत में इंजीनियरों का निर्माण करने वाली इकाई बीआईटी (बिड़ला इन्स्टिट्यूट ऑफ टेक्नॉलजी), मेसरा, राँची की स्थापना करने वाले गंगा प्रसाद बिड़ला ओरिएण्ट पेपर एण्ड इंडस्ट्रीज, हिन्दुस्तान मोटर्स, हैदराबाद इंडस्ट्रीज लिमिटेड जैसे कई सफल उद्योगों के चेयरमैन रहे ।

पद्मभूषण केशव प्रसाद गोयनका -

टायर, इन्फॉर्मेशन, टेक्नोलॉजी, फार्मास्यूटिकल, एनर्जी, प्लांटेशन के क्षेत्र में सक्रिय आरपीजी समूह का विस्तारीकरण करने वाले सफलतम उद्योगपति एवं समाजसेवी




पद्मश्री कन्हैयालाल सेठिया -
आ तो सुरगां नै सरमावै, ईं पर देव रमण नै आवै,
ईं रो जस नर नारी गावै,धरती धोरां री !" - इस अमरगीत की रचना करने वाले कन्हैयालाल सेठिया राजस्थानी भाषा के प्रसिद्ध कवि थे।




पद्मश्री हर्षवर्धन नेवटिया -
हॉस्पिटलिटी, हाउसिंग, रियल एस्टेट, हेल्थकेयर, एजुकेशन फील्ड्स में सक्रिय देश के विख्यात व्यवसायी हर्षवर्धन नेवटिया "अंबुजा नेवटिया ग्रुप" के चेयरमैन हैं एवं कई अभिनव उपक्रमों के संस्थापक हैं।



पद्मभूषण इंदू जैन  -
देश की सबसे अमीर व सफल महिलाओं में एक अग्रवाल जैन महिला का नाम शुमार है - इंदु जैन, जो भारत के सबसे बड़े मीडिया ग्रुपों में एक "बेनेट कोलमैन एण्ड कंपनी (बीसीसीएल)" की चेयरपर्सन हैं। यह समूह टाइम्स ऑफ इंडिया, द इकोनॉमिक टाइम्स, महाराष्ट्र टाइम्स, नवभारत टाइम्स, मुम्बई मिरर, बैंगलोर टाइम्स जैसे प्रतिष्ठित समाचार पत्रों का मालिक है।

पद्मभूषण सुरेश कुमार नेवटिया -
गुजरात अंबुजा सीमेंट्स लिमिटेड (GACL) की स्थापना करने वाले संघर्षशील उद्यमी सुरेश कुमार नेवटिया वर्ष तक 2009 तक ग्रुप चेयरमैन रहे और जीवनपर्यन्त "चेयरमैन एमेरिटस"

पद्मभूषण डॉ० दिनेश नन्दिनी डालमिया -
अक्षर और शब्द के निर्माण में जुटी दिनेश नन्दिनी के लगभग 12 गद्यगीत संग्रह, 11 काव्य संग्रह, 11 उपन्यास और 3 कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। वे अखिल भारतीय लेखिका संघ  "ऋचा" एवं साहित्यिक पत्रिका "ऋचा" की संस्थापक रही हैं। दिनेश नन्दिनी डालमिया "ऋचा" अपने आप में एक युग थीं, एक परंपरा थीं।

पद्मभूषण हरिशंकर सिंहानिया -
देश के बड़े एवं 100 वर्ष पुराने औद्योगिक घराने जे.के. समूह के चेयरमैन रहे हरिशंकर सिंहानिया ने देश- विदेश में कई औद्योगिक संगठनों का नेतृत्व किया था। वे पंद्रह सालों तक भारतीय प्रबंधन संस्थान, लखनऊ (IIM) के निदेशक मंडल के चेयरमैन रहे एवं फेडरेशन ऑफ इण्डियन चैम्बर ऑफ कामर्स एण्ड इंडस्ट्रीज (FICCI) के अध्यक्ष रहे।

पद्मभूषण डॉ़० लक्ष्मी मल्ल सिंघवी -
जानेमाने कवि, लेखक, भाषाविद, संविधान विशेषज्ञ और प्रसिद्ध न्यायविद डॉ़० लक्ष्मी मल्ल सिंघवी सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता थे। वे सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन ट्रस्ट के संस्थापक अध्यक्ष रहे। प्रत्येक वर्ष 9 नवम्बर को उनके जन्मदिवस पर "राष्ट्रीय विधिक सेवा दिवस" ​​मनाया जाता है।

पद्मश्री शोभना भरतिया -
देश के प्रसिद्ध मीडिया हाउस हिंदुस्तान टाइम्स समूह की चेयरपर्सन शोभना भरतिया ने एडिटोरियल डायरेक्टर रहते हुए वर्ष 2005 में एचटी मीडिया के सार्वजनिक इक्विटी लॉन्च के माध्यम से 400 करोड़ की पूँजी जुटाकर मीडिया के क्षेत्र में एक रिकार्ड बनाया।



पद्मश्री शीला झुनझुनवाला -
हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग से ‘साहित्य-रत्न’ एवं प्रयाग महिला विद्यापीठ से ‘विदुषी आनर्स’ शीला झुनझुनवाला।  दैनिक हिन्दुस्तान के शीर्ष पर पहुँच कर पहली महिला संपादक बनने का गौरव प्राप्त किया एवं हिन्दी पत्रकारिता में अनेक आयाम स्थापित किये।


पद्मविभूषण घनश्यामदास बिड़ला -
अपनी उद्यमिता, सत्यता, उच्च कोटि के चरित्र तथा ईमानदारी के लिये विख्यात घनश्यामदास जी उर्फ जी ड़ी बाबू ने अपने पैतृक स्थान पिलानी में भारत के श्रेष्ठ  तकनीकी संस्थान बिड़ला प्रौद्योगिकी एवं विज्ञान संस्थान (बिआईटी,पिलानी) की स्थापना की। वर्ष 1927 में उन्होंने "इण्डियन चैम्बर ऑफ कामर्स एंड इन्डस्ट्री" (Ficci) की स्थापना की।

पद्मश्री संत नारायणदास जी महाराज-
जयपुर के त्रिवेणी धाम के पीठीधीश्वर संत नारायणदास जी महाराज के मुख पर हमेशा सीता-राम का नाम रहता था। ईश्वर की अनन्य भक्ति, आध्यात्म, सत्संग और समाज की सेवा में जीवन उत्सर्ग करने वाले महाराज जी की याद में त्रिवेणीधाम की ईंट ईंट आज भी आँसू बहाती है।

पद्मश्री डॉ़० सीता राम लालस -
राजस्थानी हिन्दी वृहत कोश के 11 खण्ड हैं, जिनमें 7772 पृष्ठों में लगभग 2 लाख शब्दों का समावेश है और इस महान ग्रन्थ के रचयिता हैं सीता राम लालस। उन्होंने असाध्य परिश्रम से राजस्थानी के प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थों, प्रकाशित पुस्तकों, लोक-साहित्य, लोकगीत, बोलचाल की भाषा एवं आधुनिक राजस्थानी के साहित्यिक प्रकाशनों से विपुल शब्दों का संकलन किया है।

पद्मश्री भरत गोयनका, बैंगलूरु -
सॉफ्टवेयर की दुनिया में विख्यात नाम टैली (Tally solutions) के सह संस्थापक एवं वाइस चेयरपर्सन भरत गोयनका को "भारतीय सॉफ्टवेयर उत्पाद उद्योग के पिता" के रूप में जाना जाता है। विशेषकर छोटे और मध्यम व्यवसायियों में टैली के साधारण अकाउंटिंग पैकेज काफी लोकप्रिय हैं। भारतीय कारोबारियों के वित्तीय जीवन को सरल बनाने में टैली की भूमिका अतुलनीय है।

पद्मभूषण सीताराम सेकसरिया -
देश की अग्रणी साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था "भारतीय भाषा परिषद" के संस्थापक सीताराम सेकसरिया को विभिन्न साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं शिक्षण संस्थानों की स्थापना का श्रेय जाता है। वे जीवनपर्यंत स्त्री शिक्षा के प्रचार, प्रसार व पुरस्कार के लिए कार्यरत रहे, कोलकत्ता के विख्यात श्री शिक्षायतन कॉलेज की शुरुआत उन्होंने ही की थी।

पद्मविभूषण डॉ० बालकृष्ण गोयल -
डॉ़० बालकृष्ण गोयल का नाम देश के उन गिने चुने लोगों में शुमार है, जिन्हें देश के तीन सर्वोच्च सम्मानों से विभूषित किया गया। वर्ष 2005 में पद्मविभूषण, वर्ष 1990 में पद्मभूषण एवं वर्ष 1984 में पद्मश्री से सम्मानित डॉ़ गोयल बॉम्बे हॉस्पिटल इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज में मानद डीन और चीफ कार्डियोलॉजिस्ट रहे साथ ही 25 वर्षों तक जेजे हॉस्पीटल ग्रांट मेडिकल कॉलेज- मुंबई के कार्डियोलॉजी विभाग में निदेशक-प्रोफेसर रहे।

पद्मभूषण सत्यनारायण गोयनका -
महात्मा बुद्ध द्वारा प्रकाशित साधना विपशना (विपश्यना) का अद्भुत ज्ञान भारत से लगभग 2000 साल पहले विलुप्त हो गया था, उसे पुनः भारत लाने व विश्व विख्यात करने का श्रेय आचार्य सत्यनारायण गोयनका को जाता है। उन्होंने बोरिवली मुम्बई में "ग्लोबल विपाशना पगौड़ा" का निर्माण करवाया, जहाँ 8000 साधक एक साथ बैठकर ध्यान कर
सकते है।

पद्मभूषण राजश्री बिड़ला -
आदित्य बिड़ला समूह के द्वारा की जा रही सीएसआर गतिविधियों के लिए गठित संस्था "आदित्य बिड़ला सेंटर फॉर कम्युनिटी इनिशिएटिव्स एंड रूरल डेवलपमेंट (ABCCIR)" के अध्यक्ष दायित्व का निर्वहन करते हुए राजश्री बिड़ला ने समाजसेवा के कई नए आयाम स्थापित किए हैं।

पद्मभूषण डॉ० विजयपत सिंहानिया -
एडवेंचर एवं स्पोर्ट्स के शौकीन विजयपत सिंहानिया ने
67 वर्ष की आयु में गर्म हवा के गुब्बारे (Hot Air Balloon) में बैठकर 69852 फीट की उड़ान भरी और एक नया वर्ल्ड रिकार्ड स्थापित किया।


पद्मभूषण राहुल बजाज -
लगभग 100 साल पुराने देश के बड़े औद्योगिक घराने "बजाज समूह" के चेयरमैन राहुल बजाज की ख्याति उनके विशाल नेटवर्थ के कारण नहीं बल्कि उनके विशाल व्यक्तित्व के कारण है। पूर्व राज्यसभा सांसद राहुल बजाज भारतीय उद्योग परिसंघ (CII), सोसाइटी ऑफ इंडियन ऑटोमोबाइल मैन्युफैक्चरर्स (SIAM) एवं इंडियन एयरलाइंस के अध्यक्ष रह चुके हैं।

पद्मश्री रामेश्वर लाल काबरा-
कड़ी प्रतिस्पर्धा के इस युग में लगभग 900 से ज्यादा तरह के इलेक्ट्रिकल प्रोडक्ट्स का निर्माण करने वाले एवं 850 मिलियन यूएस डॉलर वार्षिक टर्नओवर के साथ विश्व के लगभग 85 देशों में अपनी उपस्थिति दर्ज करने वाले राम रत्ना ग्रुप ऑफ कम्पनीज (आर आर ग्लोबल) के संस्थापक
रामेश्वर लाल काबरा ना केवल उद्योग बल्कि समाजसेवा में भी उतने ही सक्रिय हैं। वन बन्धु परिषद (FTS) के अध्यक्ष पद पर रहते हुए वे संस्था को काफी ऊँचाइयों तक ले गए।

पद्मश्री रामअवतार पोद्दार 'अरुण' -
महाकवि पोद्दार रामावतार 'अरुण' हिदी साहित्य के महान शब्द-शिल्पी और भारतीय संस्कृति के अमर गायक थे। लगभग 45 से ज्यादा मूल्यवान ग्रंथों की रचना करने वाले अरुण जीवनपर्यत लिखते रहे। उन्होनें काव्य की सभी विधाओं पर लिखा- महाकाव्य, खंड काव्य, गीतिकाव्य, आत्मकथा, उन्होंने सबको मूल्य और प्रतिष्ठा दी। उनकी कई कृतियां विश्वविद्यालयीन पाठ्यक्रम में शामिल हैं, जिन पर तीस से अधिक छात्रों ने पीएचडी की है।
पद्मविभूषण जानकीबाई बजाज -
सादगी की प्रतिमूर्ति, गाँधीवादी, खद्दरधारी, स्वतन्त्रता सेनानी, भूदान आंदोलनकारी, गोसेवी, दानी पर स्वयं पर मितव्ययी, पतिव्रता देवी अनसूया स्वरुप जानकी बाई की जीवन गाथा बहुत निश्छल व अनुकरणीय है। उनके देहान्त पर देश के महान उद्योगपति जे० आर० ड़ी० टाटा ने अपने उदगार व्यक्त करते हुए कहा था कि "एक महान गांधीवादी महिला जिन्होंने देश की सेवा में स्वयं को उत्सर्ग कर दिया।"


संदीप मुरारका
जमशेदपुर
9431117507
पुस्तक शिखर को छूते ट्राइबल्स भाग 1 और 2 के लेखक















Sunday, 21 February 2021

समीक्षा : पर्दे के पीछे राजनेता - कवि कुमार

कई पुराने संस्मरणों,  कड़वी मीठी यादों व जीवन के अनुभवों को समेटकर कलमबद्ध करने का प्रयास है पुस्तक "पर्दे के पीछे राजनेता" । संताल युवा बबलू मुर्मू की राजनीतिक पारी व उसके जीवन का अवसान लेखक ने किन विपरीत परिस्थितियों में लिखा। छिहत्तर वर्षीय जवाहर लाल शर्मा की फाईल का मामला हो या पूर्व वित्त मन्त्री स्वर्गीय एम पी बाबू का बयान कि "भाजपा को वेश्यालय ना बनाएं" - इन विषयों पर बेबाक लिखने की हिम्मत की है पिछले चार दशक से पत्रकारिता कर रहे कवि कुमार ने।

अपने ही साथियों द्वारा बहिष्कार का दंश झेल चुके कवि कुमार ने जिस साफगोई से लिखा है, "चरणपादुका पूजन के इस युग में" ऐसे पन्नों का मिलना असम्भव है। केन्द्रीय मन्त्री अर्जुन मुण्डा का मिलनसार स्वभाव और राज्य सरकार के मन्त्री बन्ना गुप्ता का जुझारुपन दोनों ही इस पुस्तक में परिलिक्षित होता है। राजनीति से जुड़े लोग हों या सामान्य लोग, यह पुस्तक अवश्य पढ़नी चाहिए। लेखक कवि कुमार द्वारा लिखी गई 97 पृष्ठों की पुस्तक 'पर्दे के पीछे राजनेता' मात्र 100 रूपए में किंडल पर उपलब्ध है।




Saturday, 13 February 2021

गोवा और लोहिया

गोवा

मौज मस्ती, सैर सपाटे, हनीमून और छुट्टियों के लिए प्रसिद्ध डेस्टिनेशन गोवा में लोग या तो समुद्री किनारों (Sea Beach) का लुफ्त उठाने जाते हैं या नाइट लाइफ एन्जॉय करने। ऐसा लगता है मानो गोवा का अर्थ है आलीशान क्रूज के कैसीनो में जुआ खेलना, दिनभर बीयर पीना और रात को जमकर डांस करना। क्या छवि बना लेते हैं हम किसी भी स्थान की !

हालाँकि यह गलती हमारी नहीं है, गोवा टूरिस्ट गाईड उठाइए, उसमें दर्शनीय स्थलों की एक फ़ेहरिस्त मिलेगी - पालोलेम बीच, बागा बीच, दुधसागर वॉटरफॉल, बॉम जिसस बसिलिका, अगुआडा फोर्ट, सैटर्डे नाईट मार्केट, मंगेशी मंदिर, नेवेल एविएशन म्यूजियम, टीटो नाईट क्लब, मार्टिन कॉर्नर, अंजुना बीच, चोराओ द्वीप, मिरामार बीच, से कैथेड्रल चर्च, रैचौल सेमिनरी चर्च, चर्च औफ आवर लेडी, स्पाइस गार्डेन इत्यादि।

बागा बीच में पैरासीलिंग और बनाना राईड करनी हो या डॉल्फिन देखनी हो, मोलम नेशनल पार्क में हाईकिंग या ट्रैकिंग करनी हो, दूनिया से बेखबर होकर हेडफोन लगाकर
पालोलेम बीच में थिरकना हो या अगुआडा किले में फोटोग्राफी करनी हो, तड़क भड़क शॉपिंग का मजा लेना हो या लाउड म्यूज़िक का , लज़ीज़ सी फूड खाना हो या हिप्पी कल्चर देखना हो अथवा प्राकृतिक सौन्दर्य का आनन्द लेना हो - छोटे से गोवा में सबकुछ है।

मात्र 14.59 लाख आबादी वाले छोटे से राज्य गोवा में आयरन ओर की खदानें भी हैं और काजू की खेती भी। मात्र 2 जिलों वाले गोवा में 2 सांसद और 40 विधायक हैं। बॉम्बे हाई कोर्ट का पणजी बेंच ही गोवा का उच्च न्यायालय है। गोवा प्रति व्यक्ति जीडीपी के मामले में भारत का सबसे अमीर राज्य है - जो राष्ट्रीय औसत का 2.5 गुना है।

बहुत कम लोगों को ज्ञात होगा कि भारत रत्न स्वर कोकिला लता मंगेशकर एवं पद्मविभूषण आशा भोंसले गोवा मूल की हैं। अपनी स्वच्छ छवि, सादगी व ईमानदारी के लिए विख्यात पद्मभूषण मनोहर पर्रिकर जैसे नेता गोवा के मुख्यमंत्री रहें हैं। गोवा की रत्नगर्भा भूमी ने देश की कई चर्चित हस्तियों को जन्म दिया, यथा : मराठी अभिनेत्री आशालता वाबगांवकर, अभिनेत्री मीनाक्षी शिरोडकर, अभिनेता रोहित रेड्डी, पार्श्व गायिका शेफाली अल्वरेस, टी वी एक्ट्रेस परनीत चौहान, वैज्ञानिक रघुनाथ अनंत माशेलकर, पर्यावरणविद क्लाउड अल्वरेस, शास्त्रीय संगीतकार पंडित जितेन्द्र अभिषेकी , संगीतकार ट्रम्पेटर क्रिस पेरी, जिनके एक्जीविशन 22 देशों में लगे ऐसे कार्टूनिस्ट मारियो दे मिरांडा, अर्जुन अवार्ड विजेता फुटबॉलर ब्रूनो कॉटिन्हो, सीएसआईआर के डायरेक्टर जनरल रघुनाथ माशेलकर, साहित्य अकादमी से सम्मानित कवि मनोहर राय देसाई एवं
बालकृष्ण भगवन्त बोरकर, उद्योगपति वासुदेव सलगांवकर, आयुर्वेदिक चिकित्सक रामचंद्र पांडुरंग वैद्य इत्यादि।

डॉ़० राम मनोहर लोहिया

किन्तु इन सब नामों के अलावा और एक नाम है, जिनका जन्म भले ही गोवा में ना हुआ हो, किन्तु आज यदि गोवा भारत का अभिन्न अंग है, तो उसका एक मात्र श्रेय उस शख्सियत को जाता है, वो हैँ डॉ़० राम मनोहर लोहिया। गुजरात में स्थापित सरदार वल्लभ भाई पटेल के स्मारक स्टैच्यू ऑफ यूनिटी का जो राजनैतिक महत्व है या दिल्ली में राजघाट की जो ऐतिहासिक महत्ता है, कुछ वैसी ही महिमा है गोवा के मार्गाओ- पजीफोंड के इसिडोरियो बापिस्ता रोड़ में अवस्थित लोहिया मैदान की, जहाँ राम मनोहर लोहिया की प्रतिमा स्थापित है।

वो लोहिया, जिनके विषय में संसद में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने प्रधानमंत्री प० जवाहर लाल नेहरु के समक्ष यह कह दिया कि -

तब कहो, ढोल की य’ पोल है,
नेहरू के कारण ही सारा गण्डगोल है।

फिर ज़रा राजा जी का नाम लो।
याद करो जे.पी. को, विनोबा को प्रणाम दो।
"तब कहो, लोहिया महान है।
एक ही तो वीर यहाँ सीना रहा तान है।"

और जब पुनः प्रकाश हो ;
बोलो, कांगरेसियों ! तुम्हारा सर्वनाश हो।

और वो लोहिया, जिनके न रहने पर महान कवि सर्वेश्वरदयाल सक्सेना ने यह लिख कर उन्हें याद किया कि -

संतो की दूकानों के आगे
खड़ी रहेगी उसकी मचान
भेड़ों के वेश में निकलते कमीने तेंदुओं पर
तनी रहेगी उसकी दृष्टि ।
ओ मेरे देशवासियों
बनना हो जिसे बने नए युग का सिरमौर...
"अभी तो उसके नाम पर
एक चिनगारी और ।"

वहीं वर्ष 1966 में नरेश सक्सेना लिखते हैं कि -
एक अकेला आदमी
गाता है कोरस
खुद ही कभी सिकन्दर बनता है
कभी पोरस ।
एक पेड़ का जंगल
शिकायत करता है वहाँ जंगलियों के न होने की।

लोहिया ना तो स्कूली किताबों में पढ़ाये जाते हैं और ना ही टीवी पर दिखलाये जाते हैं। लेकिन फिर भी यदि उनको जानना हो तो कविवर ओंकार शरद की ये पंक्तियाँ काफी है -

'लोहिया चरित मानस' का कर्म पक्ष शेष हुआ।
आज दिल्ली का एक घर खाली है,
और कॉफी हाउस की एक मेज सूनी है;
बगल की दूसरी मेज पर लोग करते हैं बहस-
लोहिया को स्वर्ग मिला, या मिला नरक!
जिसने जीवन के तमाम दिन बिताए भीड़ों और जुलूसों में,
और रातें, रेल के डिब्बो में, अनेकानेक वर्ष काटे कारागारों में,
जो जूझता ही रहा हर क्षण दुश्मनों और दोस्तों से;
जिसका कोई गाँव नहीं, घर नहीं,
वंश नहीं, घाट नहीं, श्राद्घ नहीं;
पंडों की बही में जिसका कहीं नाम नहीं;
जिसने की नहीं किसी के नाम कोई वसीयत,
उसके लिए भला क्या दोजख, और क्या जन्नत!
मुझे तो उसके नाम के पहले 'स्वर्गीय' लिखने में झिझक होती है;
उसे 'मरहूम' कलम करने में सचमुच हिचक होती है!

वर्ष 1932 - "बर्लिन विश्वविद्यालय" से डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त करने वाले लोहिया के शोध का विषय था - "नमक सत्याग्रह" ।

वर्ष 1946 - देश आजादी की ओर बढ़ रहा था, संविधान सभा के गठन की घोषणा हो चुकी थी, अगले माह जुलाई 1946 में संविधान सभा के लिए चुनाव होने वाले थे। देश भर के सभी स्वतन्त्रता सेनानी लम्बी लड़ाई के बाद एक छोटे ब्रेक के मूड में नजर आ रहे थे। मात्र 36 वर्ष की उम्र के युवा स्वतन्त्रता सेनानी एवं कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के साप्ताहिक मुखपत्र के सम्पादक डॉ० लोहिया 11 अप्रैल 1946 को आगरा जेल से रिहा हुए और अपने मित्र डॉ० जूलियाओ मेनेज़ेस के निमंत्रण पर गोवा पहुँचे। वहाँ पहुंचते ही वे बीमार पड़ गए।

गोवा ब्रिटिश के नहीं बल्कि पुर्तगाल शासन के अधीन था और स्वतन्त्रा सेनानी लोहिया ने यह देखा कि पुर्तगालियों के शासन में अंग्रेजो से भी ज्यादा क्रूरता है। गोवा के लोगों को संवैधानिक अधिकार तो दूर बल्कि मौलिक अधिकार भी प्राप्त नहीं थे। पुर्तगालियों ने गोवा में किसी भी तरह की सार्वजनिक सभा पर रोक लगा रखी है। इस गुलामी और अत्याचार को देखकर लोहिया अपनी बीमारी को भूल गए। उन्होनें 200 लोगों को जमा करके एक बैठक की, जिसमें तय किया गया कि नागरिक अधिकारों के लिए आंदोलन छेड़ा जाए।

दिनांक 18 जून 1946, गोवा में जबरजस्त बारिश हो रही थी, उसके बावजूद लोहिया के आहवान पर भारी भीड़ जुटी, जिसमें लोहिया ने पुर्तगाली दमन के विरोध में आवाज उठाई। पुर्तगाल शासन को पहली बार चुनौती मिली थी, पुर्तगाली बौखला गए और उन्होनें लोहिया को गिरफ्तार कर लिया। गोवा के पहले स्वतन्त्रता सेनानी डॉ़० राम मनोहर लोहिया मडगांव की जेल में बन्द कर दिए गए।

भारत में लोहिया की गिरफ्तारी की सूचना फैलने लगी, उनके पक्ष में चौतरफा आवाज उठने लगी, स्वयं महात्मा गाँधी ने 'हरिजन' में लेख लिखकर पुर्तगाली सरकार की कड़ी आलोचना की और लोहिया की गिरफ़्तारी पर उन्होंने सख्त आपत्ति जताई। अंततः दबाव में पुर्तगालियों ने लोहिया को रिहा कर दिया, परन्तु उनके गोवा प्रवेश पर पाँच साल का प्रतिबंध लगा दिया। किन्तु तबतक लोहिया का निशाना सध चुका था, गोवा के लोगों में विद्रोह के स्वर फूटने लगे, आजादी की लड़ाई के लिए गोवा का मानस बन चुका था।
दिनांक 29 सितम्बर 1946, जिद्दी लोहिया के मस्तिष्क में गोवा की आजादी घूम रही थी, वे फिर गोवा पहुँच गए, फिर वही जनसभा, वही गिरफ्तारी, इस बार दस दिनों की जेल, फिर गांधीजी का नैतिक समर्थन, फिर जेल से छूटे, पर छूटते छूटते लोहिया के विचारों की सान पर गोवा स्वतन्त्रता आन्दोलन की धार तेज हो गई।

दिनांक 15 अगस्त 1947, भारत आजाद हो गया, भारत व पाकिस्तान का बंटवारा भी हो गया, दोनों देशों ने सांप्रदायिक दंगे भी झेले, दोनों ओर के सभी नेता अन्य प्राथमिकताओं में उलझे थे। किन्तु लोहिया को देश का वर्तमान नक्शा स्वीकार नहीँ था, उनका स्वप्न वृहत भारत का था, उनका लक्ष्य गोवा का भारत में विलय था।

दिनांक 22 जुलाई 1954, दादरा व नागर हवेली जो पुर्तगालियों के अधीन थी, रातों रात वहाँ के क्रांतिकारियों ने
दादरा पुलिस स्टेशन में हमला कर दिया, पुलिस अधिकारी अनिसेतो रोसारियो की हत्या कर दी और पुलिस चौकी पर भारतीय तिरंगा फहराया दिया गया। दादरा मुक्त प्रान्त घोषित कर दिया गया और जयंतीभाई देसी वहाँ की पंचायत के मुखिया बनाए गए। इस अप्रत्याशित कारवाई से गोवा में पुर्तगाली कमजोर पड़ने लगे।

दिनांक 28 जुलाई 1954, नारोली पुलिस चौकी पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और आजाद गोमान्तक दल के सदस्यों ने हमला कर दिया, सभी पुर्तगाली पुलिस अफसरों को आत्मसमर्पण करना पड़ा, अंततः नारोली की आजादी की घोषणा हो गई।

दिनांक 2 अगस्त 1954, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और आजाद गोमान्तक दल के स्वयंसेवक सिलवासा की ओर बढ़ चले, उनके बढ़े हुए मनोबल, उनके भीतर जल रही आजादी की आग को देखकर सिलवासा के तत्कालीन पुर्तगाली कप्तान फिदल्गो व उनके सैनिक भाग निकले।
सिलवासा भी मुक्त घोषित कर दिया गया।

वर्ष 1955, लोहिया की जलाई हुई आजादी की मशाल गोवा के हर हिस्से में पहुँच रही थी, उनके अनुयायी जगह जगह आजादी की अलख जगाने में जुटे थे, उनमें अग्रणी मधु लिमये गिरफ्तार कर लिए गए, लोहिया पर दबाव बनाने के लिए पुर्तगालियों ने मधु लिमये को दो वर्षों तक जेल में रखा, पर हर यातना के बाद भी ना मधु लिमये टूटे, ना लोहिया झुके।

वर्ष 1955, गोवा के मुद्दे पर भारत और पुर्तगाल के बीच तनाव गहराने लगा, भारत सरकार ने गोवा पर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए, पाकिस्तान ने गोवा में चावल और सब्जियाँ निर्यात करना आरम्भ कर दिया, पुर्तगाली आसानी से गोवा को छोड़ने के मूड में नहीं थे।  

नवम्बर 1961, पुर्तगाली सैनिकों ने गोवा के मछुआरों पर गोलियां चला दी, जिसमें एक व्यक्ति की मौत हो गई, इसके बाद माहौल बिगड़ने लगा, गोवा में सत्याग्रहियों ने आजादी की लड़ाई को अंजाम तक पहुँचा दिया था, उनकी आंखें  अब भारत की ओर टिकी थीं, इधर भारत में गोवा के विलय का माहौल बनाने में लोहिया सफल रहे, प्रधानमंत्री पण्डित नेहरु ने तत्कालीन रक्षा मंत्री केवी कृष्णा मेनन के साथ आपातकालीन बैठक की और सुनिश्चित हुआ "गोवा मुक्ति अभियान - ऑपरेशन विजय"।

17 दिसम्बर 1961, लोहिया का आजाद गोवा का सपना सच होने के करीब पहुँच गया, भारत ने 30 हजार सैनिकों को ऑपरेशन विजय के तहत गोवा भेजने का फैसला किया।इसमें वायुसेना, जलसेना एवं थलसेना - तीनों ने भाग लिया। यह संघर्ष लगभग 36 घण्टे से अधिक समय तक चला। वायुसेना ने सटीक हमले किए और पुर्तगाली ठिकानों को नष्ट कर दिया। दमन में पुर्तगालियों के खिलाफ मराठा लाइट इंफैंट्री ने मोर्चा संभाला तो दीव में राजपूत और मद्रास रेजिमेंट ने हमला बोला। इधर वायुसेना के बमबर्षक विमानों ने मोती दमन किले पर हमला कर पुर्तगालियों के होश उड़ा दिए तो नौसेना के युद्धपोत आईएनएस दिल्ली ने पुर्तगाल के समुद्री किनारों पर हमला कर दिया। पिछले 36 घंटो में 30 पुर्तगाली सैनिक मारे जा चुके थे, चौतरफा हमले से पुर्तगाल ने घुटने टेक दिए।

19 दिसम्बर 1961, गोवा में पदस्थापित पुर्तगाली गवर्नर मैन्यू वासलो डे सिल्वा ने भारत के सामने सरेंडर कर दिया,  लोहिया का स्वप्न पूर्णता की ओर था, 451 साल पुराने औपनिवेशिक शासन का अंत हुआ, गोवा में भारत का तिरंगा झण्डा लहराने लगा।

भारत की आजादी के 14 साल बाद गोवा स्वतंत्र हुआ, इसका श्रेय हर उस स्वतंत्रता सेनानी व सत्याग्रही को जाना चाहिए, जिसने गोवा की आजादी के लिए संघर्ष किया। गोवा की स्वतंत्रता का श्रेय भारत के उन 22 सैनिकों को जाना चाहिए, जो ऑपरेशन विजय के दौरान शहीद हो गए। किन्तु लोहिया को कोई श्रेय नहीं चाहिए, क्योंकि गोवा की कृतज्ञ माटी को यह पता है कि गोवा में आजादी का बिगुल किसने फूंका था और इसी बात का गवाह है गोवा के मार्गाओ- पजीफोंड के इसिडोरियो बापिस्ता रोड़ में अवस्थित लोहिया मैदान की, जहाँ राम मनोहर लोहिया की प्रतिमा स्थापित है।

दिनांक 12 अक्टूबर 1967, प्रखर वक्ता, चिन्तक, कुशल संगठक, स्वतंत्रता सेनानी, समाजवादी, लोकसभा सांसद डॉ़० राममनोहर लोहिया ने मात्र 57 वर्ष की आयु में सरकारी अस्पताल में प्राण त्याग दिए और अन्तिम संस्कार भी हुआ तो कहाँ - दिल्ली के निगम बोध घाट के विद्युत शवदाह गृह में, बिना किसी धार्मिक कर्मकाण्ड के, ना पुष्प, ना चंदन, ना घी, ना तिलांजलि।

वर्ष 2020, आवश्यकता इस बात की है, इतिहास जीवित रहे, पन्नों में, दिलों में, स्मृतियों में, साथ साथ स्मारकों में। इसके लिए संकल्पित है डॉ़० राममनोहर लोहिया रिसर्च फाउंडेशन, जिसका संकल्प है कि गोवा एयरपोर्ट व गोवा यूनिवर्सिटी का नामकरण लोहिया के नाम पर हो और इसके लिए पूरे देश भर में घूम घूम कर प्रयासरत हैं युवा पत्रकार व शोधार्थी अभिषेक रंजन सिंह, जो फाउंडेशन के संस्थापक अध्यक्ष भी हैं। 

संदीप मुरारका
जमशेदपुर, झारखण्ड
जनजातीय समुदाय के महान व्यक्तित्वों की जीवनियों की पुस्तक "शिखर को छूते ट्राइबल्स" के लेखक








जनजातीय लोककला

संस्कार भारती
कला साधक संगम (ऑनलाइन) 2021
साहित्य विधा
(ख) जनजातीय लोककला

झारखण्ड के जल, जमीं औ' आसमां,
हो, मुण्डा , संथाल , बीरहोर और उराँव ।

अण्डमान निकोबार द्वीप में 'जारवा' जनजाति,
कर्नाटक में "कोलीधर", आंध्र में "चेंचू" जनजाति ।

केरल में 'पनियान', अरुणाचल में 'जिन्गपो लोग',
महाराष्ट्र के 'गोंड' और राजस्थान के 'मीणा' लोग ।

छत्तीसगढ़ में 'कोरकू', गुजरात में बसे हैं 'कोकना' ,
ओड़िसा में 'बोण्डा' , असम में 'बोड़ो' का ठिकाना ।

देश के हर कोने में बसी है जनजाति,
सभ्यता है पुरातन ये, है देश की संस्कृति ।

लोक गीत, नृत्य, जनजातीय कलाकार,
संजोए प्राचीन वाद्ययंत्र, प्राचीन हथियार।
हस्तशिल्प वस्तुएँ और प्राचीन पाण्डुलिपियाँ,
धार्मिक विरासतें औ' अति दुर्लभ कलाकृतियाँ।

लोक संस्कृति के संरक्षक व संवर्द्धक,
जनजातीय हैं पुरातन सभ्यता के संवाहक ।

आदिवासी 'रोजेम' और ढोल बजाता है,
वह मांदर में जीता है, वह खेतों में गाता है।

गोंड पेंटिंग्स का दिवाना है यूएस यूरोप,
कालबेलिया पर हर विदेशी झूम जाता है।

सुकरी अज्जी के लोकगीतों में छिपा इतिहास,
तीजन की पंडवानी कौन नहीं सुनना चाहता है।

बदलते इतिहास ने भुला दी भले कई कहानियाँ,
मिटा दी समयचक्र ने भले कई पुरानी निशानियाँ ।

फिर भी ना मिट ना पाई हस्ती हमारी,
विज्ञान पर भी पड़ती परम्पराएँ भारी ।

जनजातीय लोककला खोलती कई द्वार है,
छिपा हुआ है ज्ञान इनमें, छिपे हुए संस्कार हैं॥

प्रतिभागी -
संदीप मुरारका
जमशेदपुर
9431117507
murarkasan@gmail.com