Thursday, 31 December 2020

पद्म विभूषण एम सी मैरी कॉम, मणिपुर

पद्मविभूषण - 2020, खेल के क्षेत्र में





जन्म : 1 मार्च, 1983
जन्म स्थान  : गांव कांगाथेइ, जिला चुराचांदपुर, मणिपुर
वर्तमान पता : ए -112, जोन- 2 , नेशनल गेम्स विलेज, लांगोल, एम सी मैरी कॉम रोड़, जिला इम्फाल वेस्ट, मणिपुर- 795004
email : mary.kom@sansad.nic.in
पिता : एम टोन्पा कॉम
माता : एम अखाम कॉम
पति : कारॉन्ग ओन्लर कॉम (फुटबॉलर)
विवाह तिथि : 12 मार्च, 2005

जीवन परिचय - आभूषणों की भूमि यानि मणिपुर. देश के सुदूर उत्तरपूर्वी छोर पर स्थित और पहा‍ड़ियों से घिरा हुआ राज्य मणिपुर. प्राकृतिक छटा से भरपूर इस खूबसूरत मणिपुर में वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या 7,41,141 थी, जिसमें मात्र 2% यानि 14,602 कॉम ट्राइबल्स थे. इसी कॉम रेम जनजातिय परिवार में जन्म हुआ एम सी मैरी कॉम का.

मैग्नीफिसेन्ट मैरी यानि शानदार मैरी के नाम से विख्यात
मैंगते चंग्नेइजैंग मैरी कॉम उर्फ एम सी मैरी कॉम के पिता पेशे से किसान थे. उनकी भी स्पोर्ट्स में रुचि थी, वे स्वयं पहलवान बनना चाहते थे और इसीलिए उनकी आंखें मैरी कॉम में एक स्पोर्ट्सपर्सन को ढूंढ़ती थी. तीन भाई बहनों में सबसे बड़ी मैरी कॉम के भाई का नाम खुपरेंग एवं बहन का नाम किन्ड़ी है. मैरी कॉम ने मणिपुर की राजधानी इम्फाल से लगभग 45 किमी पर अवस्थित मोइरांग के लोकतक क्रिश्चियन मॉडल स्कूल में कक्षा 6 तक और सेंट जेवियर स्कूल में कक्षा 8 तक पढ़ाई की. उनकी आगे की पढाई आदिमजाति हाईस्कूल, इम्फाल में हुई और उन्होनें मैट्रिक की परीक्षा राष्ट्रीय मुक्त विद्यालय से उत्तीर्ण की. उनका ग्रेजुएशन चुराचांदपुर कॉलेज से हुआ.

वर्ष 2005 में जब वे अपने कैरियर के शिखर पर थी, तब उन्होनें विवाह किया, एक माँ बनने के बाद वे फिर रिंग में लौटी और मिसाल प्रस्तुत करते हुए शानदार प्रदर्शन किया. उनके तीन बेटे और एक बेटी हैं चुंग और नेई (जुड़वां 2007) , प्रिंस (2013) और मर्लियन (2018). मैरी कॉम का परिवार क्रिश्चियन धर्म का अनुयायी है.

योगदान - मैरी कॉम के पिता उन्हें एथलीट बनाना चाहते थे. अपने स्कूल की खेल प्रतियोगिताओं में मैरी भरपूर रुचि लिया करती थी. वे वॉलीबॉल, फुटबॉल और एथलेटिक्स सहित सभी प्रकार के खेलों में भाग लिया करती.

वर्ष 1998, एशियन गेम्स में मणिपुर के डिंग्को सिंह ने बाक्सिंग में गोल्ड मैडल जीत कर खेल के उत्सुक जिन युवाओं को बाक्सिंग रिंग की ओर आकर्षित किया, उन्हीं में एक थी मैरी कॉम. मात्र 15 वर्ष की आयु में मैरी अपने पहले कोच के० कोसाना मेइतेइ से बॉक्सिंग के बेसिक रूल्स सीखने लगी. प्रशिक्षण प्राप्त करने हेतू उन्होनें
गांव छोड़ दिया और नेशनल स्पोर्ट्स एकेडमी, इम्फाल चली गई. जहाँ वे खुमान लम्पक स्टेडियम में कोच एम० नरजीत सिंह के मार्गदर्शन में प्रशिक्षित होने लगी.

वर्ष 2000, मैरी मात्र 17 वर्ष की थी, जब उन्होनें स्टेट एमेच्योर बॉक्सिंग चैम्पियनशिप जीत ली और तभी अखबार में छपी उनकी फोटो को देख उनके पिता को पता चला कि उनकी बेटी एथलीट नहीं मुक्केबाज बनने की दिशा की ओर अग्रसर है. पिता इस बात को लेकर चिन्तित थे कि मुक्केबाजी से लड़की के चेहरे पर चोट के दाग हो जाएंगे तो विवाह कैसे होगा ? यह था बेटी के प्रति पिता का प्यार ! उसी वर्ष उन्होनें पश्चिम बंगाल में आयोजित 7 वीं ईस्ट इंडिया महिला बॉक्सिंग चैम्पियनशिप में भी स्वर्ण पदक जीता.

वर्ष 2001, दिनांक 12 फरवरी, चेन्नई में आयोजित महिला राष्ट्रीय मुक्केबाजी चैम्पियनशिप में मैरी कॉम ने गोल्ड जीतकर अपने भविष्य के सारे द्वार खोल लिए.
इसी वर्ष मैरी को यूएसए में आयोजित एआईबीए वीमेन्स वर्ल्ड बॉक्सिंग चैम्पियनशीप में भाग लेने का अवसर मिला और उन्होनें 48 किग्रा श्रेणी में शानदार प्रदर्शन करते हुए सिल्वर मैडल जीत लिया.

वर्ष 2002, टर्की में आयोजित एआईबीए वीमेन्स वर्ल्ड बॉक्सिंग चैम्पियनशीप में 45 किग्रा श्रेणी में मैरी का अदभुत प्रदर्शन रहा और वे गोल्ड मैडल जीतकर विश्वविजेता बन गईं. उसी वर्ष हंगरी में आयोजित विच कप में और नई दिल्ली में आयोजित महिला राष्ट्रीय मुक्केबाजी चैम्पियनशिप भी मैरी ने गोल्ड जीता.

वर्ष 2003, हिसार में आयोजित एशियन वीमेन्स चैम्पियनशीप में 46 किग्रा श्रेणी में मैरी प्रथम स्थान पर रहीं और गोल्ड मैडल जीता.

वर्ष 2004, नार्वे में आयोजित वीमेन्स वर्ल्ड कप के 41 किग्रा में मैरी कॉम ने उम्दा प्रदर्शन करते हुए गोल्ड मैडल जीता.

वर्ष 2005, रूस में आयोजित एआईबीए वीमेन्स वर्ल्ड बॉक्सिंग चैम्पियनशिप में 46 किग्रा श्रेणी में मैरी ने देश को दूसरी बार गोल्ड दिलवा कर विश्वविजेता बनी. इसी वर्ष उन्होनें ताईवान में आयोजित एशियन वीमेन्स चैम्पियनशिप में भी गोल्ड जीता.

वर्ष 2006, नई दिल्ली में आयोजित एआईबीए वीमेन्स वर्ल्ड बॉक्सिंग चैम्पियनशिप में 46 किग्रा श्रेणी में मैरी ने भारत का मान बढ़ाते हुए फिर गोल्ड मैडल जीत लिया और तीसरी बार विश्वविजेता बनी. उस वर्ष उन्होनें डेनमार्क में वीनस वीमेन्स बॉक्स कप में प्रथम स्थान प्राप्त किया.

वर्ष 2008, चाईना में आयोजित एआईबीए वीमेन्स वर्ल्ड बॉक्सिंग चैम्पियनशिप में 46 किग्रा श्रेणी में मैरी ने फिर एक बार गोल्ड मैडल जीत लिया और चौथी बार विश्वविजेता बनी. इसी वर्ष गोवाहाटी में आयोजित एशियन वीमेन्स चैम्पियनशिप में वे दूसरे स्थान पर रहीं और सिल्वर मैडल जीता.

वर्ष 2009, वियतनाम में आयोजित एशियन इन्डोर गेम्स के 46 किग्रा श्रेणी में शानदार प्रदर्शन करते हुए गोल्ड जीता.

वर्ष 2010, बर्बडॉस में आयोजित एआईबीए वीमेन्स वर्ल्ड बॉक्सिंग चैम्पियनशिप में 48 किग्रा श्रेणी में मैरी ने अपना जलवा बरकरार रखते हुए गोल्ड झटक लिया और पांचवी बार विश्वविजेता का खिताब जीता. इसी वर्ष कजाकिस्तान में आयोजित एशियन वीमेन्स चैम्पियनशिप में 46 किग्रा श्रेणी में उन्होनें गोल्ड मैडल और चाईना में आयोजित एशियन गेम्स में 51 किग्रा श्रेणी में कांस्य पदक जीता.

वर्ष 2011, चाईना में आयोजित एशियन वीमेन्स कप में 48 किग्रा श्रेणी में मैरी ने गोल्ड मैडल जीता.

वर्ष 2012, मंगोलिया में आयोजित एशियन वीमेन्स चैम्पियनशिप में 41 किग्रा श्रेणी में उन्होनें गोल्ड मैडल जीता.

वर्ष 2012, लंदन, यूके में आयोजित समर ओलम्पिक में 51 किग्रा श्रेणी में मैरी कॉम ने कांस्य पदक लाकर सबको चौंका दिया.

वर्ष 2014, साउथ कोरिया में आयोजित एशियन गेम्स में मैरी 51 किग्रा श्रेणी में प्रथम स्थान पर रही. 

वर्ष 2017, वियतनाम में आयोजित एशियन वीमेन्स चैम्पियनशिप में 48 किग्रा श्रेणी में मैरी कॉम ने गोल्ड मैडल जीता.

वर्ष 2018, नई दिल्ली में आयोजित एआईबीए वीमेन्स वर्ल्ड बॉक्सिंग चैम्पियनशिप में 45- 48 किग्रा श्रेणी में मैरी ने फिर गोल्ड जीता और वे छठी बार विश्वविजेता बनी. इसी वर्ष आस्ट्रेलिया में आयोजित कामनवेल्थ गेम्स में भी उन्होनें ही गोल्ड जीता.

वर्ष 2019, रूस में आयोजित एआईबीए वीमेन्स वर्ल्ड बॉक्सिंग चैम्पियनशिप में 51 किग्रा श्रेणी में मैरी तीसरे स्थान पर रहीं, उन्हें कांस्य पदक मिला.

खेल प्रतिस्पर्धाओं में खिलाड़ियों के खानपान व आवास की अव्यवस्था एवं उनके साथ होने वाले दुर्व्यवहार के खिलाफ मैरी कॉम खुल कर आवाज उठाती रही. उनके लगातार प्रयासों के कारण कई बदलाव भी हुए. वे कहती हैं - "पहले मैडल पाने के लिए जीवन दाँव पर लगाओ, फिर जीवन जीने के लिए मैडल दाँव पर लगाओ, ऐसी व्यवस्था को बदलना जरूरी है. "

मणिपुर में ऐम्च्योर बॉक्सिंग खेल को बढ़ावा देने के उद्देश्य से मैरी कॉम एवं उनके पति कारॉन्ग ओन्लर कॉम द्वारा वर्ष 2006 में "मैरी कॉम रिजिनल बॉक्सिंग फाऊंडेशन" की स्थापना की गई, एनजीओ के रूप में निबंधित इस फाउंडेशन की पंजीकरण संख्या 2477/2006 है. यहाँ गरीब प्रशिक्षुओं को निःशुल्क ट्रेनिंग, भोजन व आवास की सुविधा दी जाती है. फाउंडेशन मणिपुर एमेच्योर बॉक्सिंग एसोसिएशन (एमएबीए) से भी संबद्ध है. मणिपुर सरकार ने 2013 में फाउंडेशन को इम्फाल खेल गांव में 3.30 एकड़ भूमि आवंटित की है. युवा मामले और खेल मंत्रालय के तहत राष्ट्रीय खेल विकास कोष (NSDF) के द्वारा वहाँ व्यायामशाला और आउटडोर बॉक्सिंग हॉल का निर्माण करवाया गया है. भारतीय खेल प्राधिकरण (SAI) द्वारा कोचिंग सहायता प्रदान की जाती है. वहाँ 2 बॉक्सिंग रिंग, 50 लड़कों और 50 लड़कियों के लिए अलग अलग हॉस्टल, क्वार्टर, डाइनिंग हॉल इत्यादि बुनियादी ढांचे की स्थापना की जा रही है.
https://marykomfoundation.org/

पशु हित में कार्यरत पेटा इण्डिया के अभियान का समर्थन करते हुए मैरी कॉम कहती हैं कि - "जानवरों के साथ क्रूरता बन्द करने का सबसे अच्छा तरीका है, युवाओं को करुणा सिखाना."

कलर्स टीवी, इसीपीएन स्टार स्पोर्ट्स, एम टीवी, यूट्यूब में प्रदर्शित होने वाले सुपरफाइट लीग में मैरी कॉम ब्राण्ड एम्बेसडर की भूमिका में थीं.

सांसद - वर्तमान में राज्यसभा में 245 सदस्य हैं, जिनमे 12 सदस्य भारत के राष्ट्रपति के द्वारा नामांकित होते हैं, इन्हें 'नामित सदस्य' कहा जाता है. खेल के क्षेत्र में मैरी कॉम के अतुलनीय योगदान को देखते हुए दिनांक 25 अप्रेल 2016 को महामहिम राष्ट्रपति द्वारा उन्हें उच्च सदन राज्यसभा के लिए नामित किया गया है.

सम्मान व पुरस्कार - खेल के मैदान में भारत के राष्ट्र गान व झण्डे को विश्वभर में सम्मान दिलाने वाली 6 बार की विश्वविजेता महिला मुक्केबाज एम सी मैरी कॉम को वर्ष 2006 में पद्मश्री, वर्ष 2013 में पद्म भूषण एवं वर्ष 2020 पद्म विभूषण से अलंकृत किया गया. खेल के क्षेत्र में उनके अविस्मरणीय योगदान के लिए उन्हें वर्ष 2009 में राजीव गाँधी खेल रत्न अवार्ड प्रदान किया गया. देश की शानदार मुक्केबाज मैरी कॉम को वर्ष 2003 में अर्जुन अवार्ड से सम्मानित किया गया. इंटरनेशल बॉक्सिंग एसोसिएशन द्वारा मैरी कॉम को एआईबीए वीमेन्स वर्ल्ड बॉक्सिंग चैम्पियनशिप 2009 एवं 2016 का ब्राण्ड एम्बेसडर मनोनीत किया गया. एआईबीए द्वारा उन्हें 2016 एवं 2017 में लीजेंड अवार्ड से सम्मानित किया गया. वर्ल्ड ओलम्पियंस एसोशिएसन द्वारा 2016 में गठित ओलम्पियंस फॉर लाइफ प्रोजेक्ट की सदस्य हैं मैरी कॉम. लिम्का बुक ऑफ रिकार्ड्स 2007 - पीपुल्स ऑफ द  ईयर में मैरी कॉम का नाम अंकित किया गया. वर्ष 2008 में उन्हें पेप्सी एम टीवी द्वारा यूथ आइकॉन की उपाधि दी गई. सहारा स्पोर्ट्स अवार्ड्स 2010 के तहत उन्हें स्पोर्ट्स वीमेन ऑफ द ईयर का खिताब दिया गया.

खेल की रिंग में उनकी अदभुत योग्यता को देखते हुए 29 मार्च, 2016 को मेघालय की नॉर्थ ईस्टर्न हिल यूनिवर्सिटी द्वारा मैरी कॉम को डॉक्टरेट (डीलिट्) की मानद उपाधि प्रदान की गई. दिनांक 14 जनवरी, 2019 को असम के काजीरंगा यूनिवर्सिटी द्वारा मैरी को डीफील की मानद उपाधि प्रदान की गई.

वर्ष 2012 में जब उन्होनें ओलम्पिक में कांस्य पदक जीत कर देश का मान बढ़ाया, तो कई राज्य सरकारों व संगठनों ने उन्हें लाखों रुपए की राशि पुरस्कार स्वरूप प्रदान की. मणिपुर राज्य सरकार (रुपए 50 लाख), राजस्थान सरकार (रुपए 25 लाख), असम सरकार (रुपए 20 लाख), अरुणाचल प्रदेश सरकार (रुपए 10 लाख), जनजातीय मंत्रालय, भारत सरकार (रुपए 10 लाख), पूर्वोत्तर परिषद (रुपए 40 लाख).

आत्मकथा - बॉक्सिंग रिंग में जीत के लिए अथक संघर्ष और जुनून की कहानी कहती मैरी कॉम की आत्मकथा "अनब्रेकेबल" एक पठनीय पुस्तक है. दिनांक 27 नवम्बर 2013 को हार्पर कॉलिन्स द्वारा 160 पृष्ठ की यह पुस्तक सहायक लेखिका ड़ीना सेरटो द्वारा लिखी गई है. अमेजॉन पर उपलब्ध इस पुस्तक की लिंक -

https://www.amazon.in/Unbreakable-Mary-Kom/dp/9351160092

बायोग्राफिकल स्पोर्ट्स फिल्म - दिनांक 5 सितंबर 2014 को मैरी कॉम की जीवनी पर आधारित हिन्दी फिल्म रिलीज़ हुई. निर्देशक ओमंग कुमार द्वारा निर्देशित एवं संजय लीला भंसाली द्वारा निर्मित इस फिल्म में प्रियंका चोपड़ा ने मैरी की भूमिका अदा की है. 


( पुस्तक शिखर को छूते ट्राइबल्स भाग 2 से )

पद्म भूषण तीजन बाई, छत्तीसगढ़

पद्म विभूषण - 2019  लोक कला व गायन के क्षेत्र में

जन्म : 7 सितम्बर ' 1956 (हरतालिका तीज)
जन्म स्थान : गनियारी ग्राम, भिलाई, जिला दुर्ग , छत्तीसगढ़
वर्तमान निवास : गनियारी ग्राम, भिलाई, जिला दुर्ग , छत्तीसगढ़
पिता : हुनुकलाल परधा
माता : सुखवती?
पति: तुक्का राम

जीवन परिचय - छत्तीसगढ़ की ट्राइबल जाति गोंड की उपजाति परधान में तीजन का जन्म हुआ. छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध पर्व तीजा के दिन जन्म हुआ, इसलिए इनकी माँ ने नाम रख दिया 'तीजन' . वे अपने माता-पिता की पांच संतानों में सबसे बड़ी थीं. परिवार चटाइयाँ और झाडू बुनने का काम करता था, 'झाडू' थी उनकी पारिवारिक आजीविका.

तीजन बारह वर्ष की हुई. नाना के घर गई हुई थी. नाना ब्रजलाल पंडवानी गाते थे. गांव गांव में कार्यक्रम करते थे. कार्यक्रम अमूमन रात्रि को हुआ करते थे. ज्यादातर पुरुष ही दर्शक होते थे. एक रात नाना कार्यक्रम देकर पैदल घर को लौट रहे थे. देखा पीछे पीछे 12 वर्षीय नातिन चली आ रही है. अरे ! तू कहाँ थी तीजन ? नानाजी आप पंडवानी सुना रहे थे. मैं वहीँ मंदिर में बैठी सुन रही थी. नानाजी ने देखा रास्ता भी कट जाएगा, बच्ची से गप्पें भी हो जाएगी. उन्होनें पूछा - अच्छा तीजन , बताओ तो क्या सुना ? मानो तीजन इस निमन्त्रण के इंतजार में ही थी. शकुनि द्वारा जुए में छल से प्रारम्भ होकर, युद्घ की तैयारियों से लेकर, गीता संदेश, जहर उगलता दुर्योधन, द्रौपदी का स्वाभिमान, अर्जुन की वीरता, दुशासन का वध, भीम की गदा का कमाल, भीम और हनुमान का मिलन आदि आदि. छोटी सी तीजन, मधुर छत्तीसगढ़ी बोली और धाराप्रवाह इतनी कहानियाँ. नाना ब्रजलाल की आँखे डबडबा गई. उन्हें तीजन के भीतर का कलाकार दिख गया.

अब नानाजी अपने झौपडे में तीजन को पंडवानी गायन सिखाने लगे. उनके पास था महाभारत की कहानियों का कभी ना खत्म होने वाला खजाना. अभी एक माह ही हुए थे. तीजन की माँ को पता चला कि तीजन पंडवानी में रुचि ले रही है. भाई बहनों में सबसे बड़ी, ऊपर से लड़की, घर के कामों में हाथ बटाने की बजाए, गाने गाए ! वो भी 1968 में. रूढ़िवादी माँ तीजन को अपने घर लौटा लाई. और जम कर पीटा झाडू से. डर से थरथराती तीजन के होंठो से द्रौपदी की गाथा फूट पड़ी. माँ का क्रोध सातवें आसमान पर. शुरू हुआ बालिका तीजन पर यातनाओं का दौर. कमरे में बन्द कर दिया जाता. खाना नहीँ दिया जाता. ना अक्षर ज्ञान. ना स्कूल. ना खेल का मैदान. आसान नहीँ था उनका बचपन. अंततः तेरह साल की उम्र में ब्याह दी गई तीजन.

योगदान - तीजन का विवाह हो रहा था. किन्तु वो महाभारत के किस्से गुनगुना रही थी. आखिर बच्ची ही तो थी. उसकी मधुर बोली में पंडवानी बड़ी सुहावनी लगती. आस पास की महिलाएँ मौका पाकर तीजन को पंडवानी गाने बोलती. वो गाया करती. यह बात उसके ससुराल वालों को नहीँ सुहाती थी. एक बार नजदीक के
चंद्रखुरी गांव में पंडवानी का आयोजन था. आयोजकों ने बाल कलाकार तीजन की तारीफ़ें सुन रखी थी. सो निमन्त्रण भेज दिया. पर पति से अनुमति नहीँ मिली.

"रात्रि के प्रहर में 
छोड़ मोह माया का संसार .
निकल पड़े गौतम 
करने बुद्ध जीवन को साकार."

- सदैव गौतम ही यशोधरा को नहीँ छोड़ जाते, जरूरत पड़ने पर यशोधरा भी बुद्ध की राह पर पति को छोड़ निकल सकती है.

कुछ ऐसा ही घटित हुआ तीजन के जीवन में. चंद्रखुरी गांव का निमन्त्रण मिलने के बाद तीजन मंच पर चढ़ने को बेताब थी. रात का अंधियारा. सोता हुआ पति. तानपुरा लेकर तीजन पति के घर से निकल पड़ी. तानपुरे पर लगे मोरपंख को यूँ पकड़ा मानो कान्हा की अंगुली थाम रखी हो.

पहुँच गई चंद्रखुरी. मंच पर अपना पहला कार्यक्रम देने लगी. दर्शक आवाक हो कर सुन रहे थे. एक नई  कलाकार की मीठी आवाज में पंडवानी. कि अचानक पति वहाँ पहुंच गया और मंच पर चढ़ गया. तीजन के बालों को खींचकर उसे घर ले जाने का प्रयास करने लगा . किन्तु महाभारत की कथा सुना रही तीजन के तानपुरे में अर्जुन के गांडीव और भीम के गदा की शक्ति समा गई. जिसका प्रहार पड़ा मूर्ख पति की पीठ पर. भविष्य की ओर अग्रसर तीजन की राह रुक ना पायी. बल्कि आसान हो गई.

चंद्रखुरी गाँव के लोगों ने तीजन को कार्यकम के एवज में एक बोरी चावल दिए. तीजन ने उन्हें बेचकर अपनी अलग झोपड़ी बनवा ली. 14 वर्ष की अल्पायु में तीजन ने अपने रूढ़िवादी पति को तलाक दे दिया. ससुराल के साथ साथ मायके वालों ने भी तीजन से सम्बन्ध तोड़ लिए. पर मोहल्ले की औरतें मन ही मन तीजन के साहस की तारीफ़ें किया करती. असल में हर औरत तीजन में खुद को ढूंढने लगी. किसी ने तीजन को चावल दिए, तो किसी ने साड़ियाँ तो किसी ने बरतन. यूँ शुरू हो गई तीजन की नई गृहस्थी और नई जीवन गाथा.

वर्ष 1976. तीजन पंडवानी गाने लगी. तीजन की ख्याति बढ़ने लगी. वो 18 दिनोँ की पंडवानी गाया करती. उसके आयोजन में पाँच हजार से पचास हजार तक दर्शक जुटने लगे. मेले का सा महौल होता. लोग तम्बू लगाकर आयोजन स्थल पर ही 18 -18 दिन टीक जाते. रोज गायन होता. चढ़ावा चढ़ता. तीजन जब लौटती तो उसके साथ तीन चार बैलगाड़ियों में लदे अनाज, कपड़े, बरतन जैसे उपहार और छोली भरकर सिक्के हुआ करते.

तीजन साल में ऐसी तीन चार पंडवानी करने लगी. जैसे जैसे तीजन समृद्ध होने लगी. वैसे वैसे उसकी खोई हुई रिश्तेदारी लौटने लगी. झाडू से पीटने वाली माँ और रिश्ता तोड़ लेने वाले भाई फिर जुटने लगे.

ऐसे ही किसी पंडवानी गायन के कार्यक्रम में भारत के मशहूर पटकथा लेखक, नाटककार एवं कवि हबीब तनवीर ने तीजन के अनूठे प्रदर्शन को देखा. उनकी भाव भंगिमा, छत्तीसगढ़ी बोलने का अंदाज, तानपुरा पकड़ने की स्टाइल एवं मंच पर घूम घूम कर गाने की अदा से तनवीर प्रभावित हुए बिना ना रह सके. चूंकि तनवीर स्वयं छत्तीसगढ़ के रहने वाले थे, सो भाषा पर तीजन की पकड़ को उन्होने बखूबी समझा. हबीब तनवीर तीजन को दिल्ली ले गए. वहाँ जिस कार्यक्रम में तीजन ने प्रस्तुति दी. उसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी मौजूद थीं. उन्होने स्वयं गले लगाकर तीजन की सराहना की.

निर्माता निर्देशक श्याम बेनेगल का फैमश टीवी शो था - 'भारत एक खोज' . उसके पांचवे एपिसोड से महाभारत की कथा स्टार्ट होती है. वर्ष 1988 में दूरदर्शन पर प्रदर्शित इस सीरियल में टीवी पर छा गई तीजन बाई. इसी के साथ पूरे देश में विख्यात हो गई पंडवानी और तीजन बाई.

तीजन को पंडवानी गायन के संस्कार नाना ब्रजलाल के अलावा उमेद सिंह देशमुख से मिले . तीजन रीतिकाल के महान कवि सबल सिंह चौहान की लिखी महाभारत की चौपाइयों दोहों को गाती हैँ .

पंडवानी है क्या ? कुरुक्षेत्र में लड़ा गया महाभारत युद्ध.  कौरव पांडवों के मध्य लड़ा गया युद्घ.  कुल 18 अक्षौहिणी सेनाओं द्वारा लड़ा गया युद्ध. अठारह दिनोँ तक चलने वाला युद्घ. रिश्ते नातों को ताक पर रख कर लड़ा गया युद्ध. शिष्य के द्वारा गुरु, भाई के द्वारा भाई, ताऊ चाचाओं द्वारा चक्रव्यूह रचकर भतीजे को मार दिए जाने वाला युद्ध. इन सबके पीछे श्रीकृष्ण की लीला. इसी पौराणिक कथा का गायन है पंडवानी.

"पंडवानी - पांडव वाणी अर्थात पांडवों की कथा"

पंडवानी में दो तरह की शैली विख्यात है वेदमती शैली एवं कापालिक शैली. वेदमती शैली में बैठकर गायन करते हैँ जबकि कापालिक में खड़े होकर. तीजन बाई ने कापालिक शैली में खास कथन शैली विकसित की. तीजन तानपुरा लेकर मंच पर एक कोने से दूसरे कोने तक घूमती. वाद्ययंत्रो पर बैठे साथी कलाकारों के साथ संवाद करती हुई तीजन पौराणिक कथाओं को वर्तमान किस्सों से जोड़कर सुनाने लगी. यह शैली श्रोताओं को भाने लगी. तीजन बाई निडर थी किन्तु उतनी ही सहज भी.

भारत के हर कोने में , हर गांव में, वहाँ की स्थानीय भाषा में, लोक गीत गाए जाते हैँ. उन लोकगीतों में छिपा होता है  इतिहास. हमारे देश पर कितने ही आक्रमण हुए. हमारी नालंदा यूनिवर्सिटी से लेकर पुरानी तमाम पुस्तकें नष्ट कर दी गई. पर ना हमारी संस्कृति नष्ट हुई. ना हमारा इतिहास नष्ट हो सका. क्योंकि हमारी पुरातन संस्कृति और इतिहास हमारे गांवो के लोकगीतों में समाहित है. लोक गीत अपने आप में संस्कृति के वाहक हैँ. इस सांस्कृतिक धरोहर को हम तक पहुँचाते हैँ लोकगीतों के गायक . इसी गौरवशाली परम्परा का हिस्सा है तीजन बाई.

6 जून 2018 को तीजन बाई को हार्ट अटैक आया. उन्हें आई सी यू में एडमिट कराया गया. इसके बावजूद आज भी इनके कार्यक्रम जारी हैँ. उनको आप निमन्त्रण भेजिए. वो अवश्य आएंगी. लोक कलाकार तीजन बाई साधक है. संगीत साधक.

विदेशों में भारत की सांस्कृतिक राजदूत हैँ तीजन बाई. वे जापान, जर्मनी, इंग्लैड, स्विट्जरलैंड, इटली, रूस, चाईना इत्यादि चालीस से ज्यादा देशों में अपनी कला का प्रदर्शन कर चुकी हैँ .

लोकमत समाचार में वंदना अत्रे लिखती हैँ कि मानो जितनी ऊंचाई तक हनुमान संजीवनी बूटी लाने के लिए द्रोणगिरी पर्वत को उठा कर उड़े थे. वृंदावन के कान्हा भी अपनी हथेली पर तीजन को बैठाकर उतनी ऊंचाइयों तक ले गए.

सम्मान व पुरस्कार - छत्तीसगढ़ के पंडवानी लोक गीत-नाट्य की पहली महिला कलाकार तीजन बाई को वर्ष 1988 में पद्मश्री एवं वर्ष 2003 में पद्म भूषण एवं 2019 पद्म विभूषण से अलंकृत किया गया. वर्ष 2018 में फुकुओका सिटी इंटरनेशल फाऊंडेशन, जापान द्वारा तीजन बाई को वहाँ का सर्वोच्च सम्मान प्रदान किया गया. तीजनबाई को वर्ष 2016 में एम एस सुब्बालक्ष्मी शताब्दी सम्मान से सम्मानित किया गया. वहीँ 2003 में बिलासपुर विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें डी लिट् की मानद उपाधि से सम्मानित किया गया . उन्हें 2007 में नृत्य शिरोमणि अवार्ड एवं 1995 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया. 

( पुस्तक शिखर को छूते ट्राइबल्स भाग 2 से )


Wednesday, 30 December 2020

अगली पारी को तैयार : डॉ़ अरुण सज्जन

लोयला और डीबीएमएस जैसे अंग्रेजीदां गलियारों में हिन्दी का अध्यापन करने वाले अरुण सज्जन का जीवन वृत भी बड़ा दिलचस्प है। जैसे जैसे ये बूढ़े होते चले गए, इनका साहित्य जवाँ होता गया। एक ओर अरुण सज्जन 60वीं दहलीज पर खड़े हैं तो दूसरी ओर इनकी 18 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। कोई साहित्यकार तभी सफल, जब या तो उसका लिखा लोगों द्वारा गुनगुनाया जाने लगे या उसका लिखा स्कूलों में पढ़ाया जाने लगे। मेरी जानकारी में अरुण सज्जन द्वारा रचित "भगवती चरण वर्मा की काव्य चेतना" एवं "रामचरितमानस- उत्तरकाण्ड : एक समीक्षा" यह दो पुस्तकें राँची विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम का हिस्सा बन चुकी है। साथ ही तकनीकी मशीनों से चौतरफा घिरा हर शहरी व्यक्ति उनके काव्यसंग्रह "उजास" की इन पंक्तियों को अपने अंदर महसूस करना चाहता है -

जिन्दगी की धूप कभी छाँव लिख रहा हूँ ।
शहर का रौद्र रुप सौम्य गाँव लिख रहा हूँ ॥

महात्मा बुद्ध को जहाँ ज्ञान प्राप्त हुआ- उस बिहार के 'जिला गया' में जन्म लिया, इस्पात बनाने वाली धरती - झारखण्ड के जमशेदपुर को कर्मक्षेत्र बनाया और अपने साहित्य की सुगन्ध से उत्तरप्रदेश के वाराणसी तक को सुवासित किया, ऐसे अरुण सज्जन के विषय में केवल इतना लिखना काफी होगा कि उनके नाम के दोनों शब्द उनपर सटीक बैठते हैं। अरुण यानि सूर्य, जो अपने साहित्य व शिक्षा के प्रकाश से दूनिया में उजाला फैला रहे हैं। सज्जन यानि सभ्य व सरल, ऊपर से शिक्षक, उसमें भी साहित्यकार , मानों फलों से लदा आम का पेड़,  जो पत्थर भी मारो तो बदले में वो आम ही देगा।

साहित्य, लोककला व संस्कृति पर राजनीति का प्रभाव बढ़ चुका है। हिंदी साहित्यिक संस्थाएं प्राणहीन और निष्क्रिय हो रही हैं । पुस्तकालयों में कुर्सियाँ धूल फांक रही है एवं उनके भवन राजनैतिक समाजिक कार्यक्रमों के गवाह बनने को आतुर हैं। क्षेत्रीय भाषा के प्रति बढ़ती कट्टरता हिंदी से सास बहू वाली दूरी बढ़ाने पर तुली है। साहित्यिक संवैधानिक संस्थाओं की स्थिति चरमरा चुकी है, उनके द्वार पर चरण पादुका पूजकॉ की कतार लगी है। ऐसे में लोहा का उत्पादन करने वाले जमशेदपुर में स्वर्णरेखा नदी की लहरों के मुहाने पर या जुबली पार्क के खूबसूरत वातावरण में बैठकर अरुण सज्जन जैसा व्यक्ति साहित्य सृजन कर रहा है। इनके अध्ययन, शैक्षणिक अनुभव, साहित्य धर्मिता व रचनात्मकता का लाभ साहित्य पिपासु पाठकों, शिक्षार्थियों व आने वाली पीढ़ी को प्राप्त हो। श्री अरुण सज्जन जी की षष्ठीपूर्ति पर मेरी ओर से अभिवादन एवं चरणस्पर्श ।

नियमों से बंधी व्यवस्था के दौरान वर्ष 2021 में अरुण सज्जन लोयला स्कूल की सेवा से रिटायर्ड होंगे, किन्तु मैं इसे रिटायरमेंट नहीं मानता, मेरी नजर में ये एक शॉर्ट ब्रेक है ताकि दूसरी पारी दमदार खेली जा सके। जिस प्रकार यूएसए के राष्ट्रपति जो बिडेन ने 78 -79 वर्ष की आयु में इतिहास रच दिया, वैसे ही अरुण जी का परचम साहित्यिक दूनिया में फहरे, ऐसी शुभेच्छाएृँ -

संदीप मुरारका
जमशेदपुर
जनजातीय समुदाय के महान व्यक्तित्वों की जीवनियों की पुस्तक "शिखर को छूते ट्राइबल्स"  के लेखक








Thursday, 30 July 2020

पद्मश्री रेन सोनम शेरिंग लेपचा, सिक्किम

पद्मश्री - 2007, कला के क्षेत्र में
जन्म : 3 जनवरी, 1928
जन्म स्थान : बोन्ग बस्टी, कलिम्पोंग, पश्चिम बंगाल
निधन : 30 जुलाई, 2020
पिता : निमग्ये शेरिंग तमसांग
माता : नेर्मू तमसांग पेजिंगमू
पत्नी : पद्मश्री हिलदामित लेपचा (द्वितीय विवाह)

जीवन परिचय - घोड़े की काठी के आकार के टीले और घुमावदार तीस्ता नदी की सुंदरता को खुद में समेटे पश्चिम बंगाल स्थित कलिम्पोंग हिल स्टेशन भारत के लोकप्रिय पर्यटक स्थलों में से एक है. बर्फ से ढके पहाड़ों से घिरा और विश्व की तीसरी सबसे ऊंची चोटी कंचनजंगा को अपने शिखर पर लिए कलिम्पोंग अपने प्राकृतिक सौंदर्य और औपनिवेशिक आकर्षण से सैलानियों को जम कर आकर्षित करता है. इसी खूबसूरत स्थान के एक ट्राइबल परिवार में जन्में सोनम शेरिंग लेपचा.

सविंधान (सिक्किम) अनुसूचित जनजाति आदेश, 1978 के आलोक में सिक्किम की जनजातियाँ है - भूटिया, लेपचा, लिंबू और तमांग. वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार सिक्किम में अनुसूचित जनजाति की कूल संख्या 1,11,405 है, जिसमें लेपचा जनजाति की आबादी 40,568 है. सोनम शेरिंग इसी लेपचा समुदाय से संबंधित हैं.

सोनम शेरिंग के बड़े भाई चोडुप शेरिंग लेपचा सेना में थे, उनकी मृत्यु द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान हो गई थी. वर्ष 1945, युवा सोनम तेशरिंग लेपचा 17 वर्ष की आयु में 10 गोरखा राइफल्स, पालमपुर में राइफलमैन के रूप में भर्ती हुए और देश की सीमा पर 8 माह 9 दिन अपनी सेवाएँ दी.

इनके तीन छोटे भाई हैं - ताशी, कुटेन, नुर्गी एवं एक छोटी बहन है मर्मिट. सोनम शेरिंग ने दो विवाह किए, इनके पाँच पुत्र और पाँच पुत्रियाँ हैं.

योगदान - अपने प्रशंसकों के मध्य रोंग लापोन (लेपचा मास्टर) के नाम से लोकप्रिय सोनम शेरिंग को "लेपचा - संस्कृति" के पुनरुद्धार का श्रेय जाता है. लेपचा में "लापोन" शब्द का अर्थ होता है - शिक्षक. वे कहते थे कि “जिस प्रकार तारे कभी धरती पर नहीं गिर सकते, वैसे ही लेपचा संस्कृति कभी लुप्त नहीं हो सकती."

कला और संस्कृति से प्रेम करने वाला व्यक्ति यदि दार्जलिंग, गैंगटाक व कलिम्पोंग की यात्रा करे, तो उसकी सूची में प्राकृतिक दृश्यों के अलावा एक महत्वपूर्ण स्थान का नाम रहता है - लेपचा म्यूजियम. कलिम्पोंग खासमहल के एच० एल० दीक्षित रोड़ - 734301 में अवस्थित लेपचा म्यूजियम. जहाँ लेपचा समुदाय की जीवनशैली, संस्कृति और परम्पराओं को अद्भभुत रूप से दर्शाया गया है. संगीत के प्राचीन वाद्ययंत्र, प्राचीन हथियार, हस्तशिल्प वस्तुओं, पांडुलिपियों, दुर्लभ कलाकृतियों और धार्मिक विरासतों को संजोए हुए है लेपचा म्यूजियम. सिक्किम के गावों में घूम घूम कर इन सांस्कृतिक विरासतों को एकत्रित करने व संजोने का अद्वितीय कार्य किया है सोनम शेरिंग लेपचा ने. उनके संग्रह में एक विशेष बांसुरी है, जिससे पक्षियों की आवाज निकाली जा सकती है और मधुमक्खी के छाते तक पहुंचने के लिए रस्सी की पारंपरिक सीढ़ी दर्शकों को आकर्षित करती है.

इसी म्यूजियम के एक हिस्से में सोनम शेरिंग के पुत्र नोरबू के द्वारा संगीत विद्यालय का संचालन किया जाता है, जहाँ पारम्परिक संगीत के शौकीन युवाओं को गीत, संगीत व नाटक का प्रशिक्षण दिया जाता है.

बचपन से ही सोनम शेरिंग का झुकाव लोकगीतों व नृत्य की ओर रहा. मूलतः वे माटी से जुड़े कलाकार हैं. गांव के वयोवृद्ध ट्राइबल्स के पास लोकगीतों के सिक्के बिखरे पड़े थे, सोनम शेरिंग गीतों के उन बिखरे सिक्कों को एकत्र करने लगे. ट्राइबल होने के नाते प्रकृति से उनका स्वभाविक प्रेम रहा. धीरे धीरे लोकगीतों के जरिए वे हिमालय, पहाड़ों, झरनों, नदियों, वन्य जीवों और वनस्पतियों से भरे वनों की सैर करने लगे. सोनम शेरिंग
जन्म के समय गाए जाने वाले गीत गाते, वैवाहिक अवसर एवं त्यौहारों के वैसे लोकगीत गाया करते, जिनको लोग भुला बैठे थे. लेपचा समुदाय में ऐसे भी गीत हुआ करते थे, जिनको किसी की मृत्यु हो जाने पर की जाने वाली रस्मों रिवाज के दौरान गाया जाता है - "अमाक अप्रया वाम " , संभवतः आज की तारीख में सोनम तेशरिंग एकमात्र लोकगायक है, जो इस लेपचा लोकगीत को गाते होंगे.

गायन के साथ साथ वे वाद्ययंत्र भी बजाया करते, विशेषकर ऐसे वाद्ययंत्र जो विलुप्त हो चुके थे. असल में उन्हें प्राचीन विरासत के संकलन का शौक था, इसी क्रम में वे गांवो से प्राचीन वाद्ययंत्र लाया करते और प्रायोगिक तौर पर उसे बजाया करते. कविवर वृन्द ने लिखा भी है -

करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत जात तें, सिल पर परत निसान।।


यह दोहा सोनम शेरिंग पर सटीक बैठता है. गांव के बुजुर्गों के साथ रहते रहते वे लोकनृत्य में भी पारंगत होने लगे. विभिन्न पर्व त्योहारों पर आयोजित होने वाले सार्वजनिक कार्यकर्मों में सोनम शेरिंग को लोकगीत, संगीत, नृत्य व नाटक के लिए आमंत्रित किया जाने लगा. सिक्किम में लोक कलाकर के रूप में सोनम शेरिंग की ख्याति बढ़ने लगी. कुछ युवा लड़के लड़कियों को साथ लेकर उन्होनें एक सांस्कृतिक मण्डली का गठन कर लिया.

वर्ष 1949, स्वतंत्रता दिवस पर आयोजित एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में भाग लेने सोनम शेरिंग की टीम कोलकता पहुंची, जहाँ उनके प्रदर्शन की भरपूर सराहना हुई.

वर्ष 1954, सिक्किम की राजशाही द्वारा आयोजित गीत व नृत्य आयोजन में तत्कालीन चोग्याल (राजा) सर ताशी नामग्याल द्वारा उन्हें मुख्य संयोजक मनोनीत किया गया.

वर्ष 1955, उनकी सांस्कृतिक मण्डली ने दिल्ली में आयोजित एक सरकारी कार्यक्रम में तत्कालिन प्रधानमंत्री की उपस्थिति में बेहतरीन प्रदर्शन किया.

वर्ष 1956, सिक्किम की एक संगीत प्रतियोगिता में सोनम शेरिंग को प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ, जहाँ उन्होनें
लेपचा समुदाय के लोक वाद्ययंत्र "पुनटोंग पालित" (विशेष प्रकार की बाँसुरी) का शानदार वादन किया.

14 अक्टूबर 1960, सोनम शेरिंग लेपचा अपने समुदाय के पहले व्यक्ति थे, जिनके गाए हुए लोकगीतों का प्रसारण ऑल इंडिया रेडियो में हुआ.

वर्ष 1961, दार्जलिंग के संस्कृति विभाग में लेपचा कला प्रशिक्षक के रूप में नियुक्त हुए, जहाँ वे युवाओं को लेपचा गीतों व वाद्ययंत्रों का प्रशिक्षण देते थे.

सोनम शेरिंग को लेपचा ट्राइबल एसोसिएशन का सांस्कृतिक सचिव मनोनीत किया गया. लेपचा समुदाय के पुजारियों एवं दार्जिलिंग व सिक्किम के लेपचा एसोसिएशन के सहयोग से उन्होनें 6 नवंबर 1967 को "लेपचा सामुदायिक गीत" की प्रस्तुति की.

28 दिसंबर 1967 को दार्जिलिंग में आयोजित एक भव्य समारोह में उनके द्वारा प्रस्तुत नृत्य नाटिका "तिस्ता- रोन गीत" काफी लोकप्रिय हुआ, जो सिक्किम और दार्जिलिंग हिल्स की दो प्रमुख नदियों की उत्पत्ति पर आधारित था. उन्होनें 400 से अधिक लोक गीतों, 102 लोक नृत्यों और 10 नृत्य नाटकों का मंचन किया.

8 अक्टूबर, 1969 को दार्जिलिंग में आयोजित एक राष्ट्रीय स्तरीय आयोजन में सोनम शेरिंग ने लुप्तप्राय वाद्ययंत्र "तुनबुक" और "सुतसंग" बजाया.

सोनम शेरिंग को सिक्किम के संगीत वाद्ययंत्रों पर किए गए शोध के लिए पहचाना जाता है. उन्होंने सदियों पुराने रिकॉर्ड संकलित किए और लेपचा संगीत वाद्ययंत्रों पर बारह वर्षों तक शोध कार्य किया. साथ ही गांव के ट्राइबल युवाओं को उन वाद्ययंत्रों का प्रशिक्षण दिया.

सोनम शेरिंग का यह मानना है कि परस्थितियों में आ रहे बदलाव के कारण ट्राइबल्स अपनी प्राचीन संस्कृति, परंपरा, भाषा और साहित्य को भूल रहे हैं. बिना संस्कृति वाला आदमी , बिना रीढ़ की हड्डी के आदमी की तरह होता है. अतएव उन्होनें लुप्त होते लेपचा साहित्य के पुनरुद्धार व संरक्षण के लिए मासिक पत्रिका "अचूले" का प्रकाशन आरम्भ किया. जिसका पहला अंक 2 अप्रेल, 1967 को तत्कालीन साइक्लोस्टाइल पद्धति द्वारा मुद्रित किया गया, यह प्रकाशन 1969 तक जारी रहा.

वर्ष 1970 में लेपचा भाषा में उनकी पुस्तक " लेपचा और उनके स्वदेशी संगीत वाद्ययंत्र" प्रकाशित हो चुकी है.
वर्ष 1977 में सिक्किम सरकार के शिक्षा विभाग द्वारा उनकी पुस्तक "लेपचा लोक गीत" का प्रकाशन किया गया. वर्ष 2011 में सोनम शेरिंग द्वारा संकलित लेपचा लोकगीतों की पुस्तक "वोम जाट लिंग छायो" प्रकाशित हुई.

अन्य कृतियाँ -
सम्पादन -


(i) Muk-Zek-Ding-Rum-Faat - प्रकृति की प्रार्थना
(ii) Tungrong Hlo Rum Faat - लेपचा समुदाय के पवित्र पर्वत की प्रार्थना
(iii) Lyaang Rum Faat - पृथ्वी, माटी, जल व सूर्य की प्रार्थना
(iv) Sakyoo Rum Faat - पौराणिक कथाएँ एवं प्रार्थना
(v) Tungbaong Rum Faat - देवी देवताओं की प्रार्थना
(vi) Chyu Rum Faat - हिमालय की प्रार्थना

नृत्य नाटिका -

(i) Rangyoo-Rangeet - दो नदियों पर आधारित
(ii) Nahaan Bree - लेपचा विवाह पद्धति
(iii) Konkibong - कलिम्पोंग के गांव से सम्बन्धित

हिमालय की गोद में बसे दार्जिलिंग और सिक्किम के गांव गांव की व्यापक यात्रा करने वाले बहुमुखी प्रतिभा के धनी सोनम शेरिंग लेपचा लेखक, गीतकार, संगीतज्ञ, नर्तक, लोक कलाकार, शिक्षक, शोधकर्ता, इतिहासकार व पूर्व सैनिक थे.

सम्मान एवं पुरस्कार - लोक गीत संगीत में अनुपम योगदान के लिए सोनम शेरिंग लेपचा को वर्ष 2007 में कला के क्षेत्र में देश का चौथा सर्वोच्च सम्मान पद्मश्री प्रदान किया गया. वर्ष 2011 में, गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर के 150 वें जन्म दिवस पर संगीत नाटक अकादमी ने देश के 100 प्रख्यात कलाकारों को "टैगोर अकादमी रत्न" से विभूषित किया, उस सम्मानित सूची में लोक कलाकार लेपचा का नाम टॉप 50 में अंकित किया गया. उन्हें 1995 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार भी प्रदान किया जा चुका है. सिक्किम सरकार के संस्कृति विभाग ने 1995 में उनकी उत्कृष्ट उपलब्धियों पर उन्हें "नूर मायेल कोहोम" सम्मान प्रदान किया. लेपचा संस्कृति के संरक्षण और संवर्धन हेतू उनके अतुलनीय समर्पण के लिए स्वदेशी लेपचा ट्राइबल एसोसिएशन द्वारा वर्ष 1973 में उन्हें "नूर मायेल" उपाधि से सम्मानित किया गया.




Thursday, 25 June 2020

यात्रा संस्मरण : नवलगढ़ मार्च 2019


कोविड 19 के संकट काल में ना तो किसी का ट्रैवलिंग बैग पैक हो रहा है, ना कोई एयरपोर्ट जा रहा है, ना कोई स्टेशन पर बैठकर ट्रेन का इंतजार कर रहा है. सारी ट्रैवलिंग जब बन्द है, तो पुरानी यात्राओं की याद आना स्वभाविक है. हर यात्रा का संस्मरण होता है. मेरा भी है. देश विदेश की कई यात्राओं का है. यात्राएँ या तो व्यापार सम्बन्धी रही या सैर सपाटे के लिए या धार्मिक.

किन्तु एक ऐसी यात्रा जो मात्र एक रात दो दिनों की थी चार रातो में तब्दील हो गई, और यादगार बन गई. यात्रा थी अपने गाँव की. राजस्थान के नवलगढ़ की.

सचमुच, गाँव की माटी, गाँव के मतीरे (कच्चा तरबूज) की सब्जी, शाम को मोठ् और लहसुन की चटनी के साथ गरम गरम कचौरी का देशी स्वाद, गोलगप्पे के मसाले में लाल अनार के दाने और अंगूर , लम्बी मिर्च की पकौड़ियाँ, सड़क पर घूमते मोर, मन्दिरों की भरमार, बड़ी बड़ी हवेलियाँ, गले में कैमरे लटकाए विदेशी पर्यटक.
आह नवलगढ़ । वाह राजस्थान ॥

वैसे तो मैं कई बार राजस्थान गया हूँ, खाटू श्याम, सालासर बालाजी, झुंझनू राणीसती दादी, मेहंदीपुर बालाजी, जीणमाता, शाकंभरी देवी, सरदार शहर, लक्ष्मणगढ़ , श्रीमाधोपुर, जयपुर . हर बार अपनापन सा लिए स्वागत को उत्सुक दिखता है राजस्थान. यही कारण है कि मंहगी शादियों या डेस्टिनेशन मैरिज के लिए पहली पसंद है राजस्थान. भारत में सबसे ज्यादा विदेशी सैलानियों को आकर्षित करता है राजस्थान. बालीवुड की आउटडोर शूटिंग के लिए बेस्ट इण्डियन प्लेस है राजस्थान. पुष्कर मेला य़ा खाटू मेला , अपने अनूठे मेलों के लिए प्रसिद्ध है राजस्थान. देश विदेश के हजारों साहित्यप्रेमियों का जमावाड़ा पूरे भारत में केवल जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में ही देखने को मिलेगा. ऐसा है राजे रजवाड़ों, शानो शौकत वाला ऊंट हाथी से भरा रंग बिरंगा राजस्थान.

खैर, जयपुर से लगभग 150 किलोमीटर पर झुंझनू जिले का एक प्राचीन गाँव है नवलगढ़. जिसकी हवेलियों में बनी सुंदर फ्रेस्को पेंटिंग्स दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं. दीवारों पर वाटर कलर्स से बनी इन्हीं पेंटिंग्स के चलते शेखावाटी (नवलगढ़) को ओपन आर्ट गैलरी भी कहा जाता है. हमें कुछ अच्छा सा दृश्य दिखता है तो तुरन्त होठों को मोड़ माड़ कर एक सेल्फी लेने का प्रयास करेंगे या उस जगह खड़े होकर एक फोटो क्लिक करवाएंगे. किन्तु वहीँ, विदेशी पर्यटक, दिन दिन भर पैदल सड़कों में घूम घूम कर हवेलियों की एक सदी पुरानी चित्रकारी की तस्वीरें लेते दिख जाएंगे. वर्ष1830 से 1930 के दौरान वहाँ के समर्थ व्यवसायियों ने अपनी सफलता और समृद्धि को प्रमाणित करने के उद्देश्य से सुंदर एवं आकर्षक चित्रों से युक्त हवेलियों का निर्माण कराया. इनमें भगतों की हवेली, छोटी हवेली, परशुरामपुरिया हवेली, छावछरिया हवेली, सेक्सरिया हवेली, मोरारका की हवेली एवं पोद्दार हवेली आदि प्रमुख हैं. ये रंग ये चित्रकारी ये हवेलियां किसी समय शानों-शौकत की प्रतीक थी. आज नवलगढ़ की हवेलियाँ राजस्थान की सांस्कृतिक विरासत का रूप ले चुकी हैँ . जमशेदपुर के पुराने घरों में एक या दो चौक ( घर के बीचोबीच खुला आंगन ) देखने को मिलते हैँ, पर आश्चर्य नवलगढ़ में सात चौकों की विशाल हवेली देखने को मिली.

नवलगढ़ को अब गाँव कहना अनुचित होगा. नवलगढ़ नगरपालिका की भव्य इमारत जो राज्यसभा सांसद कमल मोरारका ने अपने पिता एम.आर.मोरारका की स्मृति में बनवाई है, वो अपने आप में एक दर्शनीय भवन है. संभवतः पूरे देश का यह सबसे खूबसूरत नगरपालिका भवन है.

नवलगढ़ शहर में प्रवेश के लिए चार दिशाओं में चार बड़े बड़े दरवाजे (अगूना द्वार, बावड़ी द्वार, मंडी द्वार व नानसा द्वार) और उनके बीच नए पुराने कंस्ट्रक्शन का मिक्स वृहत बाजार. जहाँ आपको छोटे से बड़ा जरूरत का हर समान आपके मनपसंद ब्रांड का मिल जाएगा.

भारत के हर गाँव में शिव जी के मंदिर मिलेंगे. मंदिर में स्थापित होगा एक शिवलिंग. किन्तु यदि एक ही शक्ति वेदी पर भगवान शंकर के ग्यारह लिंग पर एक साथ जल चढ़ाने की इच्छा हो तो आपको अगली बार नवलगढ़ की यात्रा करनी होगी. जहाँ प्राचीन एवं भव्य ' घेर के मंदिर ' में यह अद्भुत दृश्य देखने को मिलेगा. ' घेर का मंदिर ' ना केवल ऐतिहासिक है बल्कि बिड़ला परिवार की सफलता की किस्से कहानियों को संजोए हुए है. बैठ जाइए पुजारी जी के पास और सुनिए पुरानी किदवन्तीया, लेकिन उसके बाद आप मंदिर का चप्पा चप्पा देखने खासकर छत पर जाने से खुद को रोक नहीँ पाएंगे.

नवलगढ़ में मुझे दर्शन हुए वर्ष 1776 में राजा नवल सिंह द्वारा स्थापित लोक देवता रामदेव बाबा के अति सुंदर मंदिर के, जहाँ प्रत्येक वर्ष लक्खी मेला का आयोजन होता है. इस मेला में आज भी पारम्परिक तौर पर राजपरिवार के वंशज पूजा की शुरुआत करते है. इस मेले में आकर्षण का केन्द्र होता है एक घोड़ा, कहते हैँ यह बाबा रामदेव के घोड़े का ही वंश है .इस परम्परा का निर्वाह 244 वर्षोँ से हो रहा है.

छोटा सा नवलगढ़ और कई मंदिर. सभी 250 -300 साल प्राचीन. सभी अपने आप में एक इतिहास को समेटे हुए. वास्तुकला के अद्भुत उदाहरण. मायड़ (मारवाड़ी) भाषा बोलते पुजारी. गजब की सफाई. सच में आनन्द आ गया इन मन्दिरो के दर्शन कर. बाजार के बीचोबीच गोपीनाथ जी का मंदिर, जानकी नाथ जी का मंदिर, गणेश मंदिर, कोठी रोड़ में चावण (चामुण्डा) माता का मंदिर, विशाल शिव मंदिर, बावलिया बाबा मंदिर, हनुमान जी के कई मंदिर , शीतला माता , श्याम बाबा, नरसिंह आदि मन्दिरो से भरा हुआ है नवलगढ़. आप एक दिन में सारे मन्दिरो में नहीँ जा पाएंगे.

गाँव की सड़को पर अपने चचेरे छोटे भाई कार्तिक उर्फ गुड्डू की स्कूटी पर बैठकर गलियों में घूमने में जो मजा आया, उसके सामने विदेशी गाड़ियों और सिक्स लेन सड़कों पर ड्राइविंग का मजा फेल है. गुड्डू ने गली गली लेजाकर मुझे पहुँचा दिया 'काकू की पान दुकान' . सच कहता हूँ यदि आप पान खाने के शौकीन हैँ तो ऐसा पान आपको बहुत कम जगहों पर मिलेगा. आह काकू ! वाह गुड्डू ॥

पुराने इतिहास को संजोए हुए है नवलगढ़. शेखावटी की संस्कृति का परिचायक है वहाँ के दो मुख्य दर्शनीय स्थल . पहला कमल मुरारका हवेली म्यूजियम एवं दूसरा डॉ. रामनाथ पोद्दार हवेली म्यूजियम . इनको देखकर यह भी समझ आया कि हमारे पुरखे सदियों पूर्व कितने समृद्ध रहे होंगे . क्योंकि वे व्यवसाय करते थे. आज देखादेखी की दौड़ में व्यवसायी समुदाय के बच्चे नौकरी की फेर में पड़े हैँ. इसके इतर वंचित वर्ग में एक बड़ा तबका इंटरप्योरनर बन रहा है.

ऐसा नहीँ है कि मुझे केवल ऐतिहासिक नवलगढ़ देखने को मिला बल्कि दिखा भविष्य की ओर अग्रसर नवलगढ़. लगभग 3 एकड़ में फैला यहाँ का साइंस पार्क. न्यूक्लियर गैलरी, फन साइंस, प्लानेटेरियम , विशाल डायनासोर. समय के साथ आगे बढ़ता नवलगढ़. फिर एक बार मुँह से निकल पड़ा वाह नवलगढ़ !

सबसे ज्यादा आश्चर्य यह जानकर हुआ कि नवलगढ़ में एक यूनिवर्सिटी भी है और उसके ट्रस्टी रह चुके हैँ महात्मा गांधीजी. यह महाविद्यालय राजस्थान का पहला महाविद्यालय है. जिसकी स्थापना वर्ष 1921 में हुई. सेठ ज्ञानीराम बंसीधर पोद्दार महाविद्यालय, नवलगढ़ . यह देखकर गर्व हुआ कि राजस्थानी जब पैसा कमाते हैँ तो धर्मार्थ व शिक्षार्थ खर्च भी करते हैँ. किन्तु एक टीस भी हुई कि काश अपने जमशेदपुर में भी एक यूनिवर्सिटी होती.

वैसे तो मैं तीन रात अपने दादाजी बाबुलाल जी मुरारका की हवेली में रुका. किन्तु प्रारम्भ में मेरा केवल एक रात रुकने का कार्यक्रम था. पहुँच भी रहा था देर रात को. सोचा क्यों ना हेरिटेज होटल में ठहरा जाए. सो पहली रात बिताई 'होटल रूप विलास पैलेस ' में . सच में अद्भुत ठाट बाट. पुराने दो कमरों को मिला कर एक बना दिया गया है. एक में वही पुराने पलंग,साज सज्जा, दरवाजे. साथ वाले कमरे में आधुनिक टॉयलेट. बीच की दीवार खोल कर दरवाजा लगा दिया गया. ताकि बन जाए अटैच्ड टॉयलेट. बाहर सजी बड़ी सी डायनिंग टेबल. मानो राजासाह्ब भोजन पर अभी आने ही वाले हों. देखकर लगा कि यह काम तो झारखण्ड के गाँवो में भी हो सकता है. मट्टी की दीवारे , उनपर प्राकृतिक रंगो से बनी कलाकृतियाँ, खप्पर की छत, मट्टी के बरतन. यदि अटैच्ड टॉयलेट बना दिए जाएँ. रात को ट्राइबल नृत्य हो. गेस्ट को हाइजेनिक फूड मिले. महुआ हड़िया को फ्लेवर्ड कर देशी ड्रिंक परोसी जाए. तो क्या मुम्बई पंजाब या विदेश के लोग हमारे यहाँ ट्राइबल टूरिज्म पर आना पसन्द नहीँ करेंगे ?

प्रत्येक वर्ष नवलगढ़ में मुरारका फाऊंडेशन द्वारा भव्य शेखावाटी उत्सव मेला का आयोजन किया जाता है. जिसमे राजस्थान कला, संस्कृति व पर्यटन विभाग एवं जिला प्रशासन का पूर्ण सहयोग रहता है. इस उत्सव को देखने हजारों विदेशी पर्यटक आते हैँ. वैसे इस प्रसिद्ध मेले की अपार सफलता के पीछे जिस शख्स का नेतृत्व कार्य करता है, वो हैँ राज्यसभा सांसद, पूर्व केन्दीय मंत्री, सफल उद्यमी, 74 वर्षीय समाजसेवी कमल मोरारका. जिन्होंने वर्ष 2012 में लंदन में हुई नीलामी में महात्मा गांधी से जुड़ी 29 निशानीयों को करोड़ों रुपए की बोली लगाकर खरीद लिया था. और फिर कमल मोरारका ने भारत लाई गई वस्तुओं में गांधीजी के चरखे का चक्र, चश्मा, महात्मा के खून से सनी मिट्टी व अन्य चीजों को सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे को भेंट कर दिया.

नवलगढ़ झुंझनू लोकसभा क्षेत्र के अन्तर्गत आता है. मुझे यह जानकर गर्व हुआ कि झुंझनू के पहले सांसद राधेश्याम रामकुमार मुरारका थे. नवलगढ़ के निवासी आर आर मुरारका लगातार तीन बार लोकसभा पहुँचे. और 1952 से 1967 तक सांसद रहे.

ऐसा है नवलगढ़. ऐसे हैँ नवलगढ़ के लोग. बार बार बुलाता है नवलगढ़. याद आता है नवलगढ़. आह नवलगढ़ । वाह राजस्थान ॥


संदीप मुरारका
25.06.2020


Tuesday, 23 June 2020

स्वच्छ भारत अभियान

स्वच्छ भारत अभियान - क्या यह केवल नारा है ? क्या यह केवल एक सरकारी स्लोगन है ? क्या यह केवल सरकार की योजना है ? 

नहीँ ! यह अभियान जनता का है. यह अभियान जनता के लिए है. यह अभियान जनता द्वारा संचालित होने पर ही सफलता मिलेगी.

मित्रों. बताइए -
क्या आपलोग अपनी कॉपी बुक्स स्कूल बैग गन्दा रखते हैँ ? नहीँ ना !
क्या हम लोग गन्दी प्लेट में खाना खा सकते हैँ ? नहीँ ना !
क्या हमलोग गन्दे बिस्तर पर सोना पसन्द करते हैँ ? नहीँ ना !

जब सभी लोग इतने साफ सुथरे रहते हैँ. जब सभी स्वच्छता पसन्द लोग हैँ. तो फिर देश में इस स्वच्छ भारत अभियान की जरूरत क्यों पड़ी ?

क्योंकि आपका घर स्वच्छ हैँ पर घर के बाहर कचड़े का ढेर है. आपका फ्लैट स्वच्छ है किन्तु अपार्टमेंट की सीढ़ियॉ पर पान थूका हुआ है. आपकी स्कूल स्वच्छ है पर स्कूल के बाहर निकलते ही बच्चों ने कुरकुरे और चिप्स के रैपर सड़को के किनारे फैंक दिए हैँ. नाली से लेकर सरकारी आफिस तक सभी जगह गन्दगी का अम्बार है. औरतें खुले में शौचालय जा रही हैँ. पुरुष राह चलती बिज़ी से बिजी सड़क पर दीवार की ओर मुँह करके खड़े हो जाते हैँ.

असल में कूड़ा सडको पर य़ा नाली में नहीँ फैला हुआ है. ये फैला हुआ है हमारी मनसिकता में. और यही से करनी है स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत. इस अभियान में नदी, नाले, शौचालय, पार्क , पब्लिक प्लेस या किसी ऑफिस को स्वच्छ नहीँ करना है बल्कि स्वच्छ करना है स्वयं को. अपनी मानसिकता को बदलना है. 

स्वच्छ भारत अभियान एक संदेश है . स्वच्छ भारत अभियान एक सपना है स्वच्छ देश का. स्वच्छ भारत अभियान श्रधांजलि है गाँधी जी को. स्वच्छ भारत अभियान आभार है प्रधानमंत्री जी के प्रयासों का .स्वच्छ भारत अभियान आरम्भ है 21वीं सदी के नए भारत का. 

आइए हम प्रण लें कि स्वच्छ भारत अभियान का हम हिस्सा बनेगे एवं अपने आस पड़ोस को स्वच्छ रखेंगे व दूसरों को भी प्रेरित करेंगे. 

स्वच्छ बनेगा भारत तभी तो विश्वगुरु बनेगा भारत ॥


भांजी आकांक्षा के स्कूल में स्पीच कॉम्पिटिशन के लिए लिखे गए शब्द

Sunday, 31 May 2020

अंतिम सांस तक संघर्ष हेतु संकल्पित - शिबू सोरेन

नाम : श्री शिबू सोरेन
जन्म : 11 जनवरी,1944
जन्म स्थान : टोला नामरा, गांव बरलंगा, प्रखंड गोला, जिला रामगढ़, झारखंड
वर्तमान निवास : मोराबादी, राँची, झारखंड - 834008
स्थायी पता : 14, सेक्टर 1C , पोस्ट राम मन्दिर , बोकारो स्टील सिटी, झारखंड - 827001
पिता : स्व. सोबरन मांझी
माता : स्व. सोना मनी
पत्नी : श्रीमती रूपी सोरेन

जीवन परिचय - वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार झारखंड राज्य की 32 जनजातियों की कुल जनसंख्या है़ 86,45,042, जो राज्य की कुल जनसंख्या 3,29,88,134 का 26.2 प्रतिशत है़। उसमें भी संताल जनजाति की आबादी है़ 27,52,727 यानी कुल जनसंख्या का 8.34 प्रतिशत एवं आदिवासी जनसंख्या का 31.84 प्रतिशत। संताल जनजाति की आबादी झारखंड में ही नहीं बल्कि पश्चिम बंगाल में 25,12,331, ओड़िशा में 8,94,764, बिहार में 4,06,076, असम में 2,13,139, बांग्लादेश में 3,00,061, नेपाल में 51,735 एवं देश के विभिन्न हिस्सों में फैली हुई है़। देश की सबसे बड़ी जनजाति संताल में जन्में दिशोम गुरु के नाम से विख्यात शिबू सोरेन उर्फ शिवचरण लाल मांझी।

उनदिनों शिबू सोरेन के गांव में महाजनी सूद प्रथा जोरों पर थी। गरीब किसानों को ऊँची ब्याज दर पर कर्ज देकर उनकी भूमि के कागजातों पर अँगूठा लगवा लिया जाता था, फिर ब्याज ना चुका पाने की स्थिति में महाजनों के गुर्गे गरीब किसानों के खेत हड़प लिया करते और उनपर जुल्म भी किया करते। बालक शिबू के पिता गांव में शिक्षा के प्रचार प्रसार में सक्रिय थे। दूरदर्शी विचारधारा के सोबरन मांझी की सोच थी कि आदिवासियों में इतना अक्षर ज्ञान तो अवश्य होना चाहिए कि कितनी राशि पर अँगूठा लगवाया जा रहा है, वह तो किसान स्वयं पढ़ सके। किंतु सामंती ताकतों ने अंधेरे में जल रहे उस दीपक को बुझा दिया, दिनांक 27 नवंबर,1957 को शिबू सोरेन के पिता की हत्या कर दी गई।

जब उनके पिता की निर्मम हत्या हुईं, तब बालक शिबू मात्र 13 वर्ष के थे। उनका मन उद्वेलित रहने लगा, उनकी शिक्षा जारी थी। वे बचपन से ही अपने पिता की दिखाई राह पर चल पड़े। महाजनों, सूदखोरों, सामंतवादी व्यवस्था के विरुद्ध उनका आक्रोश बढ़ता चला गया। उन्होनें सामंतवाद के खिलाफ शंख फूँक दिया, धीरे धीरे उनकी यह लड़ाई हर शोषित, पीड़ित व वंचितों की लड़ाई बन गई।

शिबू सोरेन कहते थे कि 'जमीन आदिवासियों की और कब्जा महाजनो का' - यह नहीं चलेगा। ट्राइबल्स के खेतों को ट्राइबल्स जोतते, जब फसल तैयार हो जाती, तो उसे काटने महाजनों के लोग पहुँच जाया करते। गुरुजी ने नारा दिया - 'धान काटो बाल काटो'। जब फसल तैयार हो जाती तो गुरुजी अपने साथियों के साथ पारंपरिक हथियार (तीर धनुष) लेकर पहुंच जाते और अपनी निगरानी में धान कटवाया करते। उनके सरंक्षण में किसान अपनी फसल अपने घर ले जाने लगे, इसप्रकार ग्रामीणों को उनका हक मिलने लगा।

समाज सुधारक - ट्राइबल्स में व्याप्त सामाजिक कुरुतियों से शिबू सोरेन भली भांति अवगत थे। विशेषकर देशी शराब (हड़िया, महुआ, ताड़ी) के विरुद्ध शिबू प्रतिदिन ग्रमीणों को समझाया करते। उनकी बातों से प्रभावित होकर ग्रामीण महिलाओं में जागरूकता आने लगी, उन्होनें गांवो में शराब की कई अवैध भट्टियों को ध्वस्त कर दिया।

नशाखोरी एवं अशिक्षा के विरुद्ध धरती पुत्र शिबू सोरेन ने वर्ष 1962 में मारफारी, बोकारो में 'संताल नवोदय संघ' का गठन किया। मजदूरी करने वाली आदिवासी महिलाओं का शारीरिक व आर्थिक शोषण किया जाता था, गुरुजी ने उनके हित में 'आदिवासी सुधार समिति' का गठन किया। वर्ष 1968 में समिति का पहला सम्मेलन रामगढ़ के औरंडीह गोला में संपन्न हुआ। धनबाद के टुंडी प्रखंड के पोखरिय़ा गांव में गुरुजी ने संतालों के लिए आश्रम की स्थापना की।

शिक्षा का प्रसार - वर्ष 1970 में जनजाति बाहुल्य गांवो में गुरुजी ने कई प्राथमिक विद्यालय खुलवाए। मजदूरों के लिए रात्रि विद्यालयों की शुरुआत की। उनदिनों गांवो में बिजली की व्यवस्था नहीं थी, गुरुजी ने रात्रि विद्यालयों में रोशनी के लिए हजारों लालटेन का वितरण किया।

महाजनी सूद प्रथा, अशिक्षा, शराब व आदिवासी शोषण के विरुद्ध इनके प्रयासों को कभी भुलाया ना जा सकेगा। वर्ष 1957 से लगातार 6 दशकों तक शिबू सोरेन सामाजिक जीवन में सक्रिय रहे हैं। झारखंड राज्य के गठन से लेकर विकास की गाथा कहती हर पुस्तक का एक महत्वपूर्ण व स्वर्णिम अध्याय है़ - "दिशोम गुरु शिबू सोरेन"।

झारखंड आंदोलनकारी - आजादी के पूर्व से ही ट्राइबल्स हितों की अनदेखी होती रही। दिनांक 25 अप्रैल, 1939 को झारखंड के ओड़िशा बार्डर पर सिमको नामक स्थान पर अंग्रेजों ने सैकड़ों आदिवासियों को मार गिराया, जिसका पुरजोर विरोध प्रदर्शन आदिवासी महासभा ने किया। दिनांक 1 जनवरी,1948 को सरायकेला खरसावां जिले में नरसंहार हुआ। उसके बाद ही दिनांक 1 जनवरी 1950 को आदिवासी महासभा के राजनीतिक विंग के रूप में झारखंड पार्टी का गठन हुआ और तभी से अलग झारखंड राज्य के गठन की माँग उठने लगी थी।

किंतु झारखंड गठन की माँग के आंदोलन को परवान चढ़ाया दिशोम गुरु शिबू सोरेन ने। दिनांक 4 फरवरी 1973 को धनबाद गोल्फ ग्राउंड में आयोजित विशाल सम्मेलन में गुरुजी ने अलग राज्य के आंदोलन को नई दिशा एवं गति प्रदान की। वे अपने साथियों के साथ सेम के पत्ते का रस निचोड़कर खजूर के डंठल से टॉर्च की रोशनी में दीवारों पर नारे लिख कर चेतना जगाने का कार्य किया करते थे। एक समय ऐसा आया जब आदिवासियों के परंपरागत हथियार तीर-धनुष पर बैन लगा दिया गया। इसका व्यापक विरोध होने लगा। गुरुजी दिल्ली जाकर तत्कालीन प्रधानमंत्री से मिले और तीर-धनुष पर लगा प्रतिबंध तत्काल हटाने का आदेश जारी करवाया। यह उनके करिश्माई नेतृत्व एवं चरणबद्ध आंदोलन का ही फल था कि केंद्रीय सरकार को झारखंड के गठन की स्वीकृति प्रदान करनी पड़ी और 15 नवंबर 2000 को झारखंड राज्य अस्तित्व में आया।

राजनीतिक जीवन - दिनांक 9 अगस्त 1995 में केंद्रीय सरकार ने झारखंड क्षेत्र स्वशासी परिषद् (जैक) का गठन किया, जिसके प्रथम अध्यक्ष बने आंदोलनकारी शिबू सोरेन।

मात्र 36 वर्ष की उम्र में शिबू सोरेन शोषितों की आवाज बनकर संसद पहुंचे। दिशोम गुरु की लोकप्रियता का आलम यह है कि दुमका लोकसभा क्षेत्र की जनता ने इनको 8 बार अपना सांसद चुना। निर्दलीय शिबू सोरेन पहली बार 112,160 वोट लाकर सातवीं लोकसभा में संसद पहुंचे। दूसरी बार नौवीं लोकसभा में उन्होंने झारखंड मुक्ति मोर्चा से चुनाव लड़ा और 247,502 वोट लाकर विजयी हुए। धीरे धीरे जनप्रिय शिबू सोरेन के वोट बढ़ते चले गए, चौदहवीं लोकसभा में उन्हें 339,516 वोट प्राप्त हुए।

संसदीय सफर -
सातवीं लोकसभा - 18.1.1980 से 31.12.1984
नौवीं लोकसभा - 2.12.1989 से 13.3.1991
दसवीं लोकसभा - 20.6.1991 से 10.5.1996
ग्यारहवीं लोकसभा - 16.5.1996 से 19.3.1998
तेरहवीं लोकसभा उपचुनाव - 3.6.2002 से 6.2.2004
चौदहवीं लोकसभा - 17.5.2004 से 18.5.2005
पंद्रहवी लोकसभा- 22.5.2009 से 18.5.2014
सोलहवीं लोकसभा - 16.5.2014 से 11.4.2019

राज्यसभा - गुरुजी के नाम से लोकप्रिय शिबू सोरेन 10 अप्रैल 2002 से 2 जून 2002 तक राज्यसभा सांसद रहे। वर्ष 2004 में सोरेन ने कोयला मंत्री दायित्व का भी निर्वहन किया।

मुख्यमंत्री - आदिवासी बहुल राज्य झारखंड में आदिवासियों के सर्वमान्य नेता शिबू सोरेन तीन बार मुख्यमंत्री बने. -
2.3.2005 से 12.3.2005
27.8.2008 से 19.1.2009
30.12.2009 से 1.6.2010

सर्वमान्य ट्राइबल नेता - झारखंड में 26.2 प्रतिशत ट्राइबल जनसंख्या है और इस सत्य को कोई नहीं झुठला सकता कि शिबू सोरेन ट्राइबल समुदायों के सर्वमान्य नेता हैं. आदिवासियों, वंचितों के साथ ही सभी जातियों और समुदायों के लोग शिबू सोरेन का सम्मान करते हैं। ईव्हीएम (EVM) की दलगत राजनीति अपनी जगह है, किंतु किसी भी पार्टी के वरिष्ठ नेता दिशोम गुरु शिबू सोरेन से मिलने जाते हैं तो पूरे सम्मान व आदर के साथ उनके पांव छूते हैं। झारखंड में गुरुजी शिबू सोरेन का स्थान सर्वोच्च है। जनजातीय समुदाय के नेताओं के मध्य नेतृत्व क्षमता के विकास का श्रेय दिशोम गुरु शिबू सोरेन को जाता है़।

सर्वसुलभ शिबू सोरेन सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों में सक्रिय रहे। वे ट्राइबल्स के शोषण के विरुद्ध कार्य करते रहे। गुरुजी ट्राइबल्स में व्याप्त सामाजिक बुराइयों पर दुःखी रहा करते। वे सदैव ट्राइबल्स युवाओं के मध्य शिक्षा, लोक गीत और नृत्य के प्रसार में सक्रिय रहे। गुरुजी जब अपने लोकसभा क्षेत्र दुमका में रहते, तो उनसे मिलना बहुत आसान होता था। वैसे गुरुजी को केवल दुमका तक सीमित करना गलत होगा, झारखंड ही नहीं असम, बिहार, पश्चिम बंगाल आदि राज्यों के हर उस गांव में गुरुजी की लोकप्रियता है, जहाँ एक आदिवासी भी निवास करता है़। समाज में इनके अविस्मरणीय योगदान को शब्दों में समेटना असंभव है। झारखंड की माटी का कण कण गुरुजी का आभारी है।

संतान - तीन पुत्र
स्व. दुर्गा सोरेन, पूर्व विधायक, जामा विधानसभा क्षेत्र
श्री हेमंत सोरेन, मुख्यमंत्री, झारखंड सरकार
श्री बसंत सोरेन, विधायक, दुमका विधानसभा क्षेत्र

पुत्रवधू -
श्रीमती सीता सोरेन, विधायक, जामा विधानसभा क्षेत्र

पुत्री -
श्रीमती अंजली सोरेन

Friday, 29 May 2020

पद्म भूषण कड़िया मुंडा, झारखण्ड


पद्म भूषण - 2019 सार्वजनिक मामलों के क्षेत्र में

जन्म : 20 अप्रैल' 1936
जन्म स्थान : टोला चांडिलडीह, गांव अनिगाड़ा, जिला खूँटी, झारखण्ड
वर्तमान निवास : गांव अनिगाड़ा, ब्लॉक खूँटी, जिला खूँटी, झारखण्ड
पिता : हाडवा मुण्डा
माता : चाम्बरी देवी
पत्नी : सुनन्दा देवी


जीवन परिचय - झारखंड के खूँटी जिला के अनिगाड़ा गांव में गुलामी के दौरान एक ट्राइबल परिवार में कड़िया मुंडा का जन्म हुआ. उन्होंने मैट्रिक तक की पढ़ाई गांव से ही की. फिर गांव से 40 किलोमीटर दूर रांची आ गए. कुशाग्र मुंडा ने रांची विश्वविद्यालय से स्नातक और फिर मानवशास्त्र में एम ए किया. मुंडा के दो पुत्र जगरनाथ एवं अमरनाथ और तीन पुत्रियाँ हैँ. इनकी पुत्री चंद्रावती शारु जो पेशे से शिक्षिका हैँ, 2015 में अपने खेत के कच्चे आमों को स्वयं सब्जी बाजार में बैठकर बेचा और सादगी की एक मिसाल कायम की.

राजनीतिक परिचय - मुंडा अपने कॉलेज के दिनोँ में ही सामाजिक कार्यों में रुचि लेने लगे. उन्होंने समाज के अतीत और वर्तमान के विभिन्न पहलुओं का गहन अध्ययन किया. पंडित दीनदयाल उपाध्याय की विचारधारा एवं अटल बिहारी बाजपेयी के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर मुंडा भारतीय जनसंघ से जुड़ गए. गांव के किसानों की बीज , खाद या सिंचाई की समस्याओं को लेकर अक्सर प्रखण्ड कार्यालय जाया करते एवं उनके निदान का भरसक प्रयास करते. अनुशासित व समय के पाबंद मुंडा संगठन में भी जगह बनाने लगे. ट्राइबल क्षेत्र की मूलभूत आवश्कताओं की समझ रखने वाले मुंडा की पैठ गहरी होती गई. मण्डल व जिला स्तर पर अपने दायित्वों का बखूबी निर्वहन करने वाले मुंडा को 1975 में बिहार प्रांतीय कमिटी के सह सचिव का दायित्व दे दिया गया.

1977 में लोकसभा चुनाव आ गए. उनदिनों 'भारतीय लोक दल' के 'हलधर किसान' चिन्ह पर चुनाव लड़ा गया. पार्टी ने कूल 405 सीटों पर प्रत्याशी उतारे, जिनमें 295 सीटों पर जीत हासिल हुईं. पार्टी ने खूँटी लोकसभा के लिए कड़िया मुंडा पर विश्वास जताया और वे उस खरे उतरे. मुंडा 91859 वोट लाकर विजयी हुए. पहली बार केंद्र में गैर-कांग्रेसी सरकार बनी. मुंडा पहली बार सांसद बने. पहली बार में ही उन्हें स्टील एवं माईन्स मंत्रालय के राज्यमंत्री के रूप में बड़ी जिम्मेदारी मिली.

1996 में अटल बिहारी वाजपेयी के तेरह दिन के कार्यकाल में कड़िया मुंडा कल्याण मंत्री रहे. वर्ष 2000 में कृषि एवं ग्रामीण उद्योग मंत्री बने. 2003 में कोयला मंत्री एवं 2004 में गैर-पारंपरिक ऊर्जा स्रोत मंत्री पद का निर्वहन किया. मुंडा ने 8 जून 2009 से 12 अगस्त 2014 तक लोकसभा उपाध्यक्ष पद को सुशोभित किया.

यूँ तो कड़िया मुंडा आठ बार सांसद रहे. किन्तु भारतीय राजनीति की विडम्बना देखिए, इनके मात्र तीन कार्यकाल ही पूरे हुए. शेष पाँचो लोकसभा किसी ना किसी कारण से अल्पावधि में ही भंग हो गई. यदि आठों कार्यकाल पूर्ण होते तो वे लगभग 14575 दिनोँ तक सांसद रहते, किन्तु इनका संसदीय कार्यकाल मात्र 8852 दिन का रहा. भारत की छठी लोकसभा तो मात्र 298 दिनोँ तक ही चल सकी थी. जबकि नौवीं 467 दिन, ग्यारहवीं 673 दिन एवं बारहवीं लोकसभा मात्र 404 दिन की रही.

सांसद :
छठी लोकसभा - 23.3.1977 से 14.1.1980
नौवीं लोकसभा - 2.12.1989 से 13.3.1991
दसवीं लोकसभा - 20.6.1991 से 10.5.1996
ग्यारहवीं लोकसभा - 16.5.1996 से 19.3.1998
बारहवीं लोकसभा- 19.3.1998 से 26.4.1999
तेरहवीं लोकसभा- 10.10.1999 से 6.2.2004
पंद्रहवीं लोकसभा - 22.5.2009 से 18.5.2014
सोलहवीं लोकसभा- 26.5.2014 से 23.5.2019

खूँटी लोकसभा देश में अपने आप में एक विचित्र लोकसभा है. इसका एक किनारा ओडिशा को छूता है तो दूसरा किनारा छत्तीसगढ़ को. यदि लोकसभा क्षेत्र में एक कोने से दूसरे कोने तक सफर तय करना हो तो दूरी लगभग 250 किलोमीटर है. इसके अंतर्गत अलग अलग 4 जिलों में छह विधानसभा क्षेत्र हैँ. सरायकेला-खरसांवा जिला के 'खरसांवा', रांची जिला के 'तमाड़', खूंटी जिला में 'खूंटी' व 'तोरपा' तथा सिमडेगा जिला में 'सिमडेगा' व 'कोलेबिरा' विधानसभा क्षेत्र आते हैं. किन्तु यह मुंडा का करिश्माई व्यक्तित्व ही था जो हर बार चुनाव में वोट बढ़ते चले गए. 2014 के चुनाव में मुंडा को 269185 वोट मिले.

अपने क्षेत्र में प्रायः पैदल घूमने वाले कड़िया मुंडा विधायक भी रहे. वर्ष 1982 में बिहार के खिजरी विधानसभा क्षेत्र में जब उपचुनाव हुआ तो मुंडा पहली बार विधायक बने. झारखंड गठन के बाद 2005 में एक बार पुनः मुंडा ने खिजरी का प्रतिनिधित्व किया.

संगठन में मुंडा ने विभिन्न दायित्वों का निर्वहन किया. 1980 में भाजपा के राष्ट्रीय कार्यसमिति सदस्य, 1982 में भाजपा अनुसूचित जनजाति मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष, 1998 भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष इत्यादि.

सरकार की विभिन्न समितियों एवं महत्वपूर्ण पदों की जिम्मेदारी समय समय पर कड़िया मुंडा को सौपी गई. 1977 में इस्पात मंत्रालय की हिन्दी समिति के अध्यक्ष.1990 में सदस्य - विज्ञान प्रौद्योगिकी समिति , वन एवं पर्यावरण समिति, उद्योग मंत्रालय की परामर्शदात्री समिति. 1991 में अनुसूचित जाति एवं जनजाति के कल्याण के लिए समिति, 1994 शहरी एवं ग्रामीण विकास समिति, अनुसूचित जाति जनजातियों के आरक्षण सम्बन्धी समिति, खाद्य आपूर्ति एवं सार्वजनिक वितरण समिति, नागरिक उड्डयन के लिए परामर्शदात्री समिति , चीनी एवं खाद्य तेल मामलों की समिति.

संसद में कई समितियों उसमितियों के अध्यक्ष के तौर पर मुंडा की उल्लेखनीय भूमिका रही - संसद भवन की सुरक्षा सयुंक्त समिति, बजट समिति, निजी सदस्य विधेयक एवं प्रस्ताव समिति, पुस्तकालय समिति, सांसदो के लिए कार्यालय एवं कंप्यूटर उपलब्ध कराने सम्बन्धित समिति.

जमीनी राजनेता मुंडा भारतीय संसदीय समूह समिति, चिल्ड्रेन फोरम, जल संरक्षण और प्रबंधन फोरम, यूथ फोरम, जनसंख्या और सार्वजनिक स्वास्थ्य फोरम, ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन फोरम के उपाध्यक्ष भी रहे.

सर्वसुलभ मुंडा सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों में सक्रिय रहे. वे ट्राइबल्स के शोषण के विरुद्ध कार्य करते रहे. मुंडा ट्राइबल्स में व्याप्त सामाजिक बुराइयों पर दुःखी रहा करते. वे सदैव ट्राइबल्स युवाओं के मध्य शिक्षा, लोक गीत और नृत्य के प्रसार में सक्रिय रहे. मुंडा यदि अपने लोकसभा क्षेत्र में रहते, तो उनसे मिलना बहुत आसान था. वे गांवों के लोगों से घूम- घूम कर जानते कि इस बार की खेती कैसी रही और पेड़ों पर फल की पैदावार कैसी हुईं. ऐसे सरल मुंडा चीन, फ्रांस, लंदन, नेपाल, नॉर्थ कोरिया, सिंगापुर, थाईलैंड व युएई इत्यादि देशों का भ्रमण कर चुके हैँ.

केंद्र में मंत्री रहते हुए खेतों में हल चलाने वाले सरल स्वभाव के मुंडा अपनी राजनीतिक व्यस्तताओं के बावजूद खेल आयोजनों के लिए समय अवश्य निकाल लिया करते थे. हॉकी एवं फुटबॉल उनके पसंदीदा खेल रहे. मुंडा के लम्बे राजनैतिक जीवन में किसी अपराध, भ्रष्टाचार या विवाद में उनका नाम कभी नहीं आया. वे चुनावों में होने वाले बेहिसाब खर्चों के विरुद्ध प्रयासरत रहे.

सम्मान - अपनी सादगी और कार्य के प्रति समर्पण के लिए पहचाने जाने वाले ट्राइबल राजनेता सह पूर्व लोकसभा उपाध्यक्ष कड़िया मुंडा को वर्ष 2019 में सार्वजनिक मामलों के क्षेत्र में उनके अविस्मरणीय योगदान के लिए देश का तीसरा सर्वोच्च सम्मान पद्म भूषण प्रदान किया गया. झारखण्ड में यह सम्मान उनके अलावा मात्र टाटा स्टील के पूर्व चैयरमैन रूसी मोदी एवं क्रिकेटर महेन्द्र सिंह धौनी को प्राप्त हुआ है.






पद्मश्री डॉ आर डी मुंडा


जन्म : 23 अगस्त' 1939
जन्म स्थान : देवड़ी, तमाड़, राँची, झारखण्ड
निधन:  30 सितम्बर' 2011 कैंसर से
मृत्यु स्थल : अपोलो हास्पिटल,राँची, झारखण्ड
पिता : गंधर्व सिंह मुंडा
माता : लोकमा मुंडा
पत्नी : अमिता मुंडा

जीवन परिचय - झारखण्ड के राँची जिले के प्रसिद्ध देवड़ी माता मन्दिर वाले गांव के ट्राइबल परिवार में रामदयाल मुंडा का जन्म हुआ. उनकी प्राथमिक शिक्षा अमलेसा लूथरन मिशन स्कूल तमाड़ में एवं माध्यमिक शिक्षा खूंटी हाई स्कूल में हुई. उन्होने 1963 में रांची विश्वविद्यालय से मानव विज्ञान में स्नातक किया. कुशाग्र बुध्दि मुंडा उच्चतर शिक्षा अध्ययन एवं शोध के लिए शिकागो विश्वविद्यालय, अमेरिका चले गए जहां से उन्होंने भाषा विज्ञान में 1968 में पीएचडी की. फिर वहाँ उन्होंने तीन वर्षोँ तक दक्षिण एशियाई भाषा एवं संस्कृति विभाग में शोध और अध्ययन किया. डॉ मुंडा 1972 - 81 से अमेरिका के मिनिसोटा विश्वविद्यालय के साउथ एशियाई अध्ययन विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर के रूप में अध्यापन कार्य करने लगे. वहाँ शिक्षण कार्य के अलावा साऊथ एशिया फोक की नृत्य संगीत टीम के सदस्य रहे और सांस्कृतिक आयोजनों में भाग लेते रहे.

मिनिसोटा विश्वविद्यालय में रहते हुए डॉ मुंडा को अमेरिकन युवती हेजेल एन्न लुत्ज से प्रेम हो गया फिर दोनों ने 14 दिसंबर 1972 को विवाह भी किया, किन्तु कुछ वर्षोँ बाद वह संबंध टूट गया. हेजेल से तलाक के बाद 28 जून 1988 को उन्होंने अमिता मुंडा से दूसरा विवाह किया. उनके इकलौते पुत्र हैँ प्रो. गुंजल इकिर मुण्डा.

योगदान - डॉ रामदयाल मुंडा भारत के ट्राइबल समुदायों के परंपरागत और संवैधानिक अधिकारों को लेकर बहुत सजग थे. लेकिन उनका मानना था कि प्रत्येक ट्राइबल का शिक्षित होना अति आवश्यक है, तभी ट्राइबल आन्दोलन सफल होगा, ट्राइबल्स को उनके अधिकार प्राप्त हो सकेंगे और ट्राइबल्स का विकास होगा.

रांची विश्वविद्यालय में तत्कालिन कुलपति डॉ कुमार सुरेश सिंह के आग्रह पर डॉ मुंडा 1982 में भारत लौट आए और जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग के गठन एवं विकास में अपना योगदान देने लगे. डॉ मुंडा 1983 में ऑस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी, कैनबेरा में विजिटिंग प्रोफेसर रहे. न्यूयॉर्क की साईरॉक्स यूनिवर्सिटी में 1996 में एवं जापान की टोक्यो यूनिवर्सिटी ऑफ फॉरेन स्टडीज में 2011 में भी उन्होंने विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में अपनी सेवाएँ दी.

डॉ मुंडा 1985 - 86 में रांची विश्वविद्यालय के उप-कुलपति रहे और फिर 1986 - 88 तक कुलपति रहे.
राँची यूनिवर्सिटी में उनकी सादगी के कई किस्से लोकप्रिय हैँ, अपने कक्ष की अपनी टेबल और चेयर वे स्वयं साफ किया करते. राँची यूनिवर्सिटी में सरहुल महोत्सव की परम्परा की शुरुआत उनके द्वारा ही की गई थी. डॉ मुंडा 1990- 95 जेएनयू , नई दिल्ली एवं 1993 - 96 नॉर्थ इस्टर्न हिल यूनिवर्सिटी, मेघालय के कार्यसमिति सदस्य रहे.

डॉ मुंडा ने 1977- 78 में अमेरिकन इन्स्टिट्यूट ऑफ इण्डियन स्टडीज से , 1996 में यूनाइटेड स्टेट्स - इण्डिया एजुकेशन फ़ाऊंडेशन से एवं 2001 में जापान फाऊंडेशन से फेलोशिप प्राप्त की.

उन्होंने झारखंड की आदिवासी लोक कला, विशेषकर ‘पाइका नृत्य’ को वैश्विक पहचान दिलाई. जुलाई 1987 में मास्को, सोवियत संघ में भारत महोत्सव हुआ था, जिसमें डॉ मुंडा ने सांस्कृतिक दल का नेतृत्व किया एवं उनकी टीम ने 'पाइका नृत्य' की अविस्मरणीय प्रस्तुति की.

वर्ष 1988 में बाली, इंडोनेशिया में हुए अंतरराष्ट्रीय संगीत कार्यशाला में भी डॉ मुंडा और उनके दल ने भाग लिया. मनीला, फिलीपींस में आयोजित अन्तराष्ट्रीय नृत्य एलायंस, ताइपे, ताईवान के अन्तराष्ट्रीय लोक नृत्य महोत्सव, यूरोप के ट्राइबल एवं दलित अभियान में डॉ मुंडा ने पाइका नृत्य की प्रस्तुतियाँ दी.

डॉ मुंडा 1988 में संयुक्त राष्ट्र संघ से जुड़ गए. वे जेनेवा में यू एन कार्यसमूह में नीति निर्माता रहे. न्यूयॉर्क के द इण्डियन कॉनफेडेरेशन ऑफ इण्डिजिनियस एण्ड ट्राइबल पीपुल्स आईसीआईटीपी में वरिष्ठ पदाधिकारी रहते हुए डॉ मुंडा ने बेबाक तरीके से ट्राइबल हितों को रखा. उनका मानना था पूरा देश मरुभूमि बनने के कगार पर है. केवल जहाँ जहॉ ट्राइबल्स रहते हैं, वहीं थोड़ा जंगल बचा है. अतः यदि जंगल को बचाना है तो ट्राइबल्स को बचाना होगा.

भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय के अन्तर्गत भारतीय मानवविज्ञान सर्वेक्षण विभाग में डॉ मुंडा ने वर्ष 1988 से 91 तक अपनी सेवाएँ दी. झारखण्ड आंदोलन के दौरान गृह मंत्रालय भारत सरकार द्वारा एक झारखंड विषयक समिति का गठन किया गया था, डॉ मुंडा 1989-1995 तक इसमेँ सदस्य रहे. कमिटी के कार्यकलापों एवं उनके अनुभवों पर आधारित कई आर्टिकल्स इण्डिया इंटरनेशनल सेंटर के त्रैमासिक पत्रिका में प्रकाशित हुए.

राष्ट्रीय शिक्षा नीति की समीक्षा के लिए 1990 में आचार्य राममूर्ति की अध्यक्षता में एक समीक्षा समिति का गठन हुआ था, जिसमें बतौर सदस्य डॉ मुंडा ने झारखण्ड (तत्कालिन बिहार) का प्रतिनिधित्व किया. डॉ मुंडा 1997 में अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के सलाहकार समिति सदस्य तथा 1998 में केंद्रीय वित्त मंत्रालय की फाइनांस कमेटी के सदस्य रहे. नवम् योजना आयोग, राष्ट्रीय महिला आयोग, मानवाधिकार शिक्षा की स्थायी समिति, विश्विद्यालय अनुदान आयोग, सामाजिक और आर्थिक कल्याण के संवर्धन के लिए राष्ट्रीय समिति , साहित्य अकादमी, राष्ट्रीय शिक्षक शिक्षा परिषद, वन अधिकार अधिनियम के अंर्तगत गठित अनुसूचित जनजाति एवं वनवासियों के लिए नीति निर्धारण समिति, सामाजिक न्याय और अधिकारिता समिति, जनजातीय मामलों के मंत्रालय की सलाहकार समिति इत्यादि कई केंद्रीय स्तरीय समितियों में डॉ मुंडा को सदस्य मनोनीत किया गया.

सामाजिक कार्यों व ट्राइबल्स उत्थान में सक्रिय डॉ मुंडा विभिन्न संस्थानों व संगठनो से जुड़े रहे तथा समय समय पर विभिन्न दायित्वों का निर्वहन किया. यथा भारतीय आदिवासी संगम, आदिम जाति सेवा मंडल, राँची यूनिवर्सिटी पीजी टीचर्स एसोसिएशन, बिंदराय इंस्टीट्यूट फॉर रिसर्च स्टडी एण्ड एक्शन चाईबासा, अखिल भारतीय साहित्यिक मंच नई दिल्ली, भारतीय साहित्य विकास न्यास.

देशज पुत्र डॉ मुंडा ने पूरी दुनिया के ट्राइबल समुदायों को संगठित किया. प्रत्येक वर्ष 9 अगस्त को "वर्ल्ड ट्राइबल डे" मनाया जाता है, इस परंपरा को शुरू करवाने में उनका अहम योगदान रहा है. खूँटी जिला में डोमबारी पहाड़ी पर बिरसा मुण्डा की 18 फिट ऊँची प्रतिमा की स्थापना में उनकी मुख्य भूमिका रही.

झारखण्ड आंदोलन के दौरान मोटर साइकिल में घूमने वाले प्रोफेसर मुंडा ने सांस्कृतिक साहित्यिक अलख जगाई -

अखंड झारखंड में
अब भेला बिहान हो
अखंड झारखंड में..
और समय अइसन आवी न कखन,
लक्ष भेदन लगिया,
उठो-उठो वीर,
धरु धनु तीर
उठो निजो माटी लगिया ...

राजनीतिक पारी खेलते हुए डॉ मुंडा 1991 से 1998 तक झारखंड पीपुल्स पार्टी के प्रमुख अध्यक्ष रहे. राज्यसभा में 245 सदस्य होते हैं. जिनमे 12 सदस्य भारत के राष्ट्रपति के द्वारा नामांकित होते हैं. इन्हें 'नामित सदस्य' कहा जाता है. डॉ मुंडा की अतुलनीय योग्यता व विद्वता को देखते हुए दिनांक 22 मार्च 2010 को राज्यसभा के लिए नामित किया गया.

डॉ मुंडा ने अमेरिका, रूस, आस्ट्रेलिया, फिलीपिंस, चीन, जापान, इंडोनेशिया, ताईवान सहित कई देशों का दौरा किया. 1987 में स्विट्जरलैंड के जेनेवा में आयोजित इण्डिजिनियस पापुलेशन, 1997 में डेनमार्क के कोपेनहेगन में आयोजित इण्डिजिनियस एकॉनामी , 1998 में नागपुर में इंटरनेशल एलायंस फॉर इण्डिजिनियस पीपुल्स ऑफ द ट्रॉपिकल फॉरेस्ट, 1999 में इंदौर में सयुंक्त राष्ट्र संघ के स्थायी फोरम, 2000 में जर्मनी के बर्लिन में खेल एवं शिकार , 2002 में स्वीडेन के उपसाला, न्यूयॉर्क एवं बैंकाक में देशज लोगों के विभिन्न मुद्दों पर आधारित अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों में डॉ मुंडा ने भाग लिया.

साहित्यकार डॉ रामदयाल ने मुंडारी, नागपुरी, पंचपरगनिया, हिंदी, अंग्रेजी में गीत-कविताओं के अलावा गद्य साहित्य रचा है. उनकी संगीत रचनाएं बहुत लोकप्रिय हुई हैं. इन्होंने कई महत्वपूर्ण अनुवाद किए.

कृतियाँ -
मुंडारी गीत - हिसिर
कुछ नए नागपुरी गीत
मुंडारी गीतकार श्री बुधु बाबू और उनकी रचनाएँ
मुंडारी व्याकरण
मुंडारी, हिन्दी व नागपुरी कविताएँ - सेलेद
प्रोटो खेरवारियन साउंड सिस्टम - शिकागो यूनिवर्सिटी
एई नवा कानिको - मुंडारी में सात कहानियाँ
नदी और उसके सम्बन्ध तथा अन्य नगीत
वापसी, पुनर्मिलन और अन्य नगीत
कविता की भाषा
देशज व ट्राइबल का परिचय
आदिवासी अस्तित्व और झारखंडी अस्मिता के सवाल
आदि धर्म, भारतीय आदिवसियों की धार्मिक आस्थाएं
अदान्दि बोंगा - वैवाहिक मंत्र
बा (एच) बोंगा - सरहुल मंत्र
गोनोई पारोमेन बोंगा - श्रद्धा मंत्र
सोसो बोंगा - भेलवा पूजन
जी टोनोल - मन बंधन
जी रानारा - मन बिछुड़न
एनीयोन - जागरण
महाश्वेता देवी की ' बिरसा ' का बंग्ला से हिन्दी अनुवाद

अंग्रेजी में अनुवाद -
जगदीश्वर भट्टाचार्य का संस्कृत नाटक हास्यार्णव प्रहसनम्
जितेंद्र कुमार का हिन्दी उपन्यास 'कल्याणी'
नागार्जुन का आंचलिक उपन्यास 'जमनिया का बाबा'
जयशंकर प्रसाद का प्रसिद्ध हिन्दी नाटक 'ध्रुवस्वामिनी'
जयशंकर प्रसाद का हिन्दी उपन्यास 'तितली'
रामधारी सिंह दिनकर का काव्य 'रश्मिरथी'

वर्ष 2010 में अखरा द्वारा निर्मित फिल्म गाड़ी लोहरदगा मेल में प्रेरणास्त्रोत डॉ मुंडा कहते हैँ नाच गाना ट्राइबल का कल्चर है, जब काम पर जाओ तो नगाड़ा लेकर जाओ और जब थकान हो जाए, काम से जी ऊबने लगे तो थोड़ी देर नगाड़ा बजाओ.

डॉ मुंडा कहते थे 'नाची से बांची' - इसी को शीर्षक बनाकर राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता एवं पहले ट्राइबल फिल्म निर्माता बीजू टोप्पो ने 2017 में डॉ रामदयाल के जीवनचरित पर आधारित 70 मिनट की फिल्म का निर्माण किया है. फिल्म में जनजातीय जीवन को काफी जीवंत तरीके से सामने रखा गया . इस फिल्म ने कई राष्ट्रीय पुरस्कार बटोरे हैँ.

शोधार्थी, शिक्षक, अंतरराष्ट्रीय स्तर के भाषाविद्, समाजशास्त्री, साहित्यकार, अप्रतिम ट्राइबल कलाकार , बाँसुरी वादक, संगीतज्ञ, राज्यसभा सांसद डॉ रामदयाल मुंडा के बहुमुखी व्यक्तित्व की गाथा को शब्दों में समेटना असम्भव है.

सम्मान एवं पुरस्कार - झारखण्ड की प्रमुख बौद्धिक और सांस्कृतिक शख्सियत रामदयाल मुंडा को 2010 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया. 2007 में उन्हें संगीत नाटक अकादमी का सम्मान प्रदान किया गया. झारखण्ड सरकार द्वारा मोहराबादी, राँची में डॉ रामदयाल मुंडा जनजातीय कल्याण शोध संस्थान एवं संग्रहालय का संचालन हो रहा है. वर्ष 2013 में राँची होटवार स्थित कला भवन में डॉ मुंडा की प्रतिमा की स्थापना की गई.
23 अगस्त 2018 को शोध संस्थान में उनकी मूर्ति का अनावरण किया गया. राँची राजकीय अतिथशिाला के सामने रामदयाल मुंडा पार्क बना हुआ है.

उनकी रचना सरहुल मंत्र की दो पंक्तियाँ -

हे स्वर्ग के परमेश्वर, पृथ्वी के धरती माय... जोहार !
हम तोहरे के बुलात ही, हम तोहरे से बिनती करत ही, हामरे संग तनी बैठ लेवा, हामरे संग तनी बतियाय लेवा, एक दोना हड़िया के रस, एक पतरी लेटवा भात, हामर संग पी लेवा, हामर साथे खाय लेवा..

इन पंक्तियों में डॉ मुंडा स्वर्ग के परमेश्वर को, पृथ्वी की धरती माता को, शेक्सपीयर, रवींद्रनाथ टैगोर, मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन, सिदो-कान्हु, चांद-भैरव, बिरसा मुंडा, गांधी, नेहरू, जयपाल सिंह मुंडा जैसे धरती पुत्रों को, जो ईश्वर के पास चले गए हैँ, उनको आमंत्रण भेजते हैँ

Tuesday, 26 May 2020

पद्मश्री गुलाबो सपेरा, राजस्थान 2016 कला



पद्मश्री - कला (लोक नृत्य)
जन्म : 3 नवम्बर' 1972
जन्म स्थान : गांव कोटड़ा, जिला अजमेर, राजस्थान
वर्तमान निवास : मुखर्जी कॉलोनी, गेट संख्या 4, शास्त्रीनगर, जयपुर, राजस्थान
पति : सोहन नाथ, लोक कलाकार (ढोलक)

जीवन परिचय - राजस्थान की एक घुमक्कड़ जाति है कालबेलिया, जो शहर या गांव के बाहर तंबू लगाकर रहती है. एक स्थान पर ये लोग ज्यादा नहीँ टिकते थे. राजस्थान की इसी ट्राइबल जाति में पैदा हुई थी गुलाबो सपेरा.

गुलाबो के जन्म की कहानी भी बड़ी विचित्र है. गुलाबो के पिता साँपो का खेल दिखाने शहर की ओर गए हुए थे. गुलाबो की माँ को प्रसव पीड़ा हुई. कालबेलिया औरतों ने प्रसव करवाया, शाम को 5 बजे के आसपास लड़की पैदा हुई. पहले ही तीन भाई तीन बहन मौजूद थे, अब एक और लड़की. उस जमाने में लड़की पैदा करना भी गुनाह था. गुलाबो की माँ बेसुध थी. उनकी नवजात लड़की छीन ली गई और रेत में दफना दी गई. गुलाबो की मौसी अंधेरा होने का इंतजार करने लगी और रात 11 बजे जाकर नवजात शिशु को निकाल लाई. ताकि गुलाबो की माँ एक बार अपनी बच्ची को गले लगाकर रो सके. पाँच घंटे रेत में दबा नवजात बच्चा भी कहीं जीवित रह सकता है भला. मौसी ने शिशु को लाकर माँ की गोद में डाल दिया. माँ फफककर रो पड़ी और गोद में पड़ी बच्ची भी. दैवीय कृपा से बच्ची जीवित थी. दूसरे दिन पिता वापस लौट आए. चूँकि बच्ची धनतेरस के दिन पैदा हुई थी सो उसका नाम रखा गया 'धनवंती' .

पिता अपनी बेटी से बहुत प्यार करते और डरते कि कबीले की औरतें इसे पुनः मारने का प्रयास ना करें. वे साँपो का खेल दिखाने जहाँ भी जाया करते , धनवंतरी को साथ ले जाया करते. साँपो का खेल देखने के बाद श्रध्दालु उन्हें दूध पिलाया करते. जो दूध बच जाता, उसे धनवंती को पिला दिया जाता. इसप्रकार साँपो का बचा हुआ दूध बड़ी होने लगी धनवंतरी.

सड़कों पर साँप का खेल चलता रहता वहीँ चादर पर शिशु धनवंती सोयी रहती, कभी कभार संपेरे पिता उसके ऊपर साँप डाल दिया करते. दर्शकों को बड़ा आनन्द आता. पैसे अच्छे मिलने लगे. साँपो के साथ खेलते खेलते बड़ी होने लगी धनवंती.

साल भर की हुई थी धनवंती कि उसकी तबीयत बहुत बिगड़ गई, इतनी कि वैद्य ने जवाब दे दिया. उस समय उनलोगों का तंबू जहाँ बना हुआ था, वहीँ समीप ही एक मजार थी. पिता धनवंती को बहुत प्यार करते थे, उसे गोद में लेकर दौड़े, मजार के समक्ष भूमि पर लिटा दिया और रोते रोते प्रार्थना करने लगे. थोड़ी ही देर में मजार पर चढ़ा हुआ एक गुलाब फूल बच्ची धनवंती के ऊपर गिरा और वह आँखे खोल अपने पिता को पुकारने लगी. आश्चर्यचकित पिता धनवंती व उस गुलाब फूल को लेकर अपने तंबू में लौट आए और अपनी बेटी को नया नाम दिया 'गुलाबो' .

गुलाबो पढ़ नहीँ पाई. 1986 में चौदह वर्ष की उम्र में ही इनका विवाह हो गया. इनकी पाँच संतान हैँ दो पुत्र दिनेश और भवानी एवं तीन पुत्रियाँ हैँ राखी, हेमा एवं रूपा.

योगदान - गुलाबो तीन वर्ष की उम्र से ही गले में साँप लपेटे सड़कों पर नाचने लगी थी. बीन, पूंगी और डफली की धुन पर उसका लचीला शरीर थिरकने लगता था. राजस्थान में प्रत्येक वर्ष कार्तिक पूर्णिमा के समय पुष्कर मेला का आयोजन होता है, जिसमें बड़ी संख्या में देशी विदेशी पर्यटक आते हैँ. मेले में गुलाबो के समुदाय के लोग भी इस आस से पहुंचते कि कुछ अतिरिक्त आमदनी हो जाएगी. गुलाबो 8 वर्ष की उम्र से पुष्कर मेला में जाने लगी और बीन की धुन पर अपनी नृत्य करती. सिक्कों के साथ साथ नोट भी उछलते.

वर्ष 1985 में पुष्कर मेले में घूमते हुए राजस्थान पर्यटन विभाग के अधिकारी हिम्मत सिंह एवं सांस्कृतिक कार्यकर्ता सह विख्यात लेखिका तृप्ति पाण्डे एक गोलाकार भीड़ के पास पहुंचे. झांककर देखा कि वहाँ कुछ संपेरे साँपो को नचा रहे थे, उन्ही साँपो के बीच नाच रही थी तेरह वर्षीय लड़की. दोनोँ की दृष्टि कालबेलिया नृत्य कर रही गुलाबो पर पड़ी और वे देखते ही रह गए. नृत्य समाप्त होने पर तृप्ति ने गुलाबो के पिता से कहा कि आपकी लड़की के शरीर में मानो हड्डी ही नहीँ है. इतना लचीलापन और इतनी शानदार प्रस्तुति. इस कलाकार का स्थान सड़कों पर नहीँ मंच पर है.

कुछ ही दिनोँ बाद दिल्ली में एक कार्यक्रम आयोजित था. राजस्थान पर्यटन विभाग की ओर से गुलाबो को दिल्ली लाया गया. जहाँ गुलाबो ने पहली बार मंच पर अपनी कला का प्रदर्शन किया. एक ऐसा प्रदर्शन जिसमें दर्शकों से उसे सिक्के नहीँ मिले, उसे मिली तालियों की गड़गड़ाहट.

उसी दर्शक दीर्घा में उपस्थित थे विख्यात क्यूरेटर पद्म भूषण राजीव सेठी , जो बड़े शांत भाव से उस ट्राइबल कलाकार की कला को देख रहे थे. उनके दिमाग में यूएसए में चल रहे फेस्टिवल ऑफ इण्डिया को और यादगार बनाने की योजना चल रही थी. जून 1985 में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी भी उस आयोजन में शरीक होने वाले थे. राजीव सेठी कालबेलिया नृत्य से प्रभावित हुए ना रह सके और इसी के साथ तय हो गया गुलाबो की यूएसए यात्रा का कार्यक्रम. परन्तु सफलता इतनी आसानी से नहीँ आती, गुलाबो दिल्ली में ही थी, उसके घर से खबर आई कि उसके पिता का निधन हो गया है. गुलाबो जयपुर के लिए रवाना हुई. शाम को अपने घर पहुँची. अपने पिता के शव के अन्तिम दर्शन किए. दूसरे दिन पिता की अंत्येष्टि थी और दूसरे ही दिन गुलाबो की यूएसए फ्लाईट. निर्णय कठिन था. किन्तु आँखो में आँसू लिए पिता की यादों और उनके चरणों के स्पर्श को अपने हृदय में अंकित कर गुलाबो रात दो बजे जयपुर से दिल्ली की ओर निकल पड़ी. इधर जयपुर में पिता के शव की आग ठण्डी नहीँ हुई थी, उधर वाशिंगटन में घूँघट से अपने आंसुओ को छिपाए गुलाबो थिरक रही थी. ऐसे शुरू हुआ मेलों में नाचने वाली गुलाबो का अंतरराष्ट्रीय स्तर की नृत्यांगना बनने का सफर.

अपने ही लिखे गानों को खुद ही गाने वाली और अपने ही गीतों पर नृत्य करने वाली गुलाबो ने ऐसी ख्याति पाई कि आज तक डेनमार्क ,ब्राजील, यू एस ए, जापान इत्यादि 165 देशों में उनके कार्यक्रम आयोजित हो चुके हैँ.

नृत्य संगीत में वैश्विक पहचान बनाने वाली गुलाबो ने प्रसिद्ध फ्रांसीसी संगीतकार थियरी ’टिटी’ रॉबिन के साथ एसोसिएट होकर कई कार्यक्रम किए. वर्ष 2002 उनदोनों का एक सयुंक्त 14-ट्रैक एल्बम 'राखी' काफी लोकप्रिय हुआ. थियरी रॉबिन और वेरोनिक गुइलियन द्वारा फ्रेंच में गुलाबो पर एक पुस्तक 'डांसेस गिताने डू राजस्थान' भी लिखी गई है.

विख्यात तो गुलाबो 1985 में हुई, जब पहली बार उनका कार्यक्रम दिल्ली एवं यूएसए में हुआ. उसके पूर्व 1983 में एक हॉलीवुड मूवी की शूटिंग राजस्थान में हो रही थी, उसमें इनका नृत्य शामिल हुआ. उसके बाद कई हिन्दी फिल्मों में इन्होंने नृत्य किए. गुलामी, बंटवारा, क्षत्रिय इत्यादि, विशेषकर निर्देशक जे. पी. दत्ता की फिल्मों में गुलाबो अवश्य दिखा करती थी. वर्ष 2013 में राजस्थान की फिल्म भंवरी का जाल एवं 2014 में राजु राठौड़ की सफलता में भी गुलाबो का योगदान है.

संजय दत्त और सलमान खान की मेजबानी में कलर्स टीवी के रियलिटी शो बिग बॉस सीजन 5 में शक्ति कपूर, जूही परमार, महक चहल जैसे फिल्म कलाकारों के साथ गुलाबो सपेरा ने भाग लिया. वर्ष 2011 में आयोजित इस लोकप्रिय टीवी शो में वे 14 दिनोँ तक रहीं.

गुलाबो का मानना है कि स्टेज ही उसके लिए मन्दिर है और दर्शक ही भगवान. वह कहतीं हैँ कि पूरे समर्पित भाव से नृत्य करें, इतनी तन्मयता से नृत्य करें कि यदि नृत्य के बीच में चाहे साउंड सिस्टम बन्द हो जाए या गीत की आवाज आनी बन्द हो जाए, पूरा होने तक नृत्य नहीँ रुकना चाहिए. उनकी इन्हीं विशेषताओं के कारण जयपुर की महारानी गायत्री देवी उन्हें पुत्री तुल्य स्नेह दिया करती. एक बार जैसलमेर में महारानी गायत्री देवी द्वारा आयोजित एक समारोह में गुलाबो बतौर अतिथि आमंत्रित थी. लोगों ने उन्हें नृत्य के लिए आग्रह किया. रात 10 बजे जो नृत्य प्रारम्भ हुआ वो सुबह 5 बजे तक चला. दर्शक डिनर करना भूल गए, ऐसी अदाकारा है गुलाबो सपेरा.

विश्व फलक पर कालबेलिया नृत्य की पहचान स्थापित करने वाली गुलाबो सपेरा नई पीढ़ी की छात्राओं को प्रशिक्षण दे रहीं हैँ. देश विदेश में विशेष कर जयपुर और डेनमार्क में इनके द्वारा प्रशिक्षण शिविर आयोजित किए जाते हैँ. आजकल गुलाबो पुष्कर में डांस एकेडमी की स्थापना में भी सक्रिय हैँ. गुलाबो सपेरा ने जयपुर में एक एनजीओ ' गुलाबो सपेरा नृत्य एवं संगीत संस्थान ' की भी स्थापना की है, जो राजस्थान सोसायटी एक्ट में पंजीकृत है, पंजीकरण संख्या 28/जयपुर/2006-07 दिनांक 13.04.2006 है.

गुलाबी शहर जयपुर में रहने वाली गुलाबो नृत्य करते समय 16 किलो राजस्थान के पारम्परिक चाँदी के जेवर और काले कपड़े पहनती है. इस ड्रेस की भी अपनी एक कहानी है. गुलाबो ने अपने जीवन में पहली फिल्म सात वर्ष की आयु में देखी 'आशा' . फिल्म देखकर लौटने के बाद गुलाबो के मन मस्तिष्क में रीना रॉय का लोकप्रिय गीत 'शीशा हो ये दिल हो' और उनकी काली ड्रेस छा गई. जो आगे चलकर उनका पसंदीदा लिबास बन गया.

सम्मान एवं पुरस्कार - अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त ट्राइबल नृत्यांगना गुलाबो सपेरा को 2016 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया. फरवरी' 2019 में गुलाबो को जापान में यूनेस्को पुरस्कार प्रदान किया गया. उन्हें विभिन्न संस्थानो द्वारा समय समय पर कई पुरस्कारों से नवाजा गया - राष्ट्रपति पुरस्कार, संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, टाइम्स म्यूजिक अवार्ड, राणा अमेरिका अवार्ड, अम्बेडकर अवार्ड, राजस्थान गौरव अवार्ड, गुजरात गौरव अवार्ड, गुंजन पुरस्कार आदि. वे 2010 में भास्कर वीमेन फॉर द ईयर के लिए नामित हुईं.


Ref :
i) The Indian Express , Jaipur Edition 29 January' 2016 story Written By Sri Mahim Pratap Singh .

ii) Interview of Gulabo Sapera on YouTube , Total Junction dated 7 April 2019

Saturday, 23 May 2020

पद्मश्री थांगा डारलोंग, त्रिपुरा 2019

पद्मश्री - कला (बाँसुरी)
जन्म : 20 जुलाई ' 1920
जन्म स्थान : बॉबे कैलाशाहर, जिला उनाकोटि ,
अगरतल्ला से 150 किलोमीटर, त्रिपुरा
पिता : हाकवुंगा डारलोंग

जीवन परिचय - नार्थ ईस्ट की एक अनुसूचित जनजाति है डारलोंग, इस समुदाय के लोग भारत में केवल त्रिपुरा में मिलेंगे, वो भी संख्या में 25000 से कम. यानि 37 लाख की आबादी वाले त्रिपुरा में डारलोंग समुदाय 1% से भी कम है. इसी समुदाय में जन्में थांगा डारलोंग.

योगदान - आधुनिकता की दौड़ में परम्पराओं को ताक पर रख दिया जाता है. लेकिन परम्पराएँ ही इंसान को उसके अतीत से जोड़ती है. परम्पराएँ समुदायों का इतिहास बताती हैँ. ऐसी ही एक परम्परा के वाहक हैँ थांगा डारलोंग.

नृत्य, गीत और संगीत यह ट्राइबल समुदायों की विशेषता होती है. डारलोंग समुदाय में बांस से एक वाद्य यंत्र 'रोजेम' बनाया जाता था. थांगा के पिता रोजेम बनाने और बजाने में निपुण थे. उन्हें देखकर थांगा बचपन से ही रोजेम बजाने लगे. फिर उन्हें उस्ताद डारथुमा डारलोंग का सान्निध्य मिला और वे रोजेम वाद्ययंत्र में पारंगत होने लगे.

थांगा रोजेम की बारीकियों से अवगत होने लगे और धीरे धीरे गांव के हर त्यौहार में बजाने लगे. थांगा जब धुन छेड़ते तो लोगों के पांव थिरकने लगते. उनकी लोकप्रियता बढ़ने लगी. देश के विभिन्न स्थानों में थांगा को रोजेम बजाने का अवसर मिला. थांगा अपनी संगीत कला के प्रदर्शन के लिए जापान आदि कई देशों में गए.

मिट्टी की दीवारों और टीन की छत वाली झोपड़ी में रहने वाले थांगा पारम्परिक संगीत के वाहक हैँ. उन्होने ना केवल पारम्परिक वाद्य यंत्र को संरक्षित किया बल्कि अपने समुदाय के युवाओं को प्रशिक्षित भी कर रहे हैँ.

त्रिपुरा यूनिवर्सिटी में वर्ष 2016 में थांगा डारलोंग के जीवनचरित पर 74 मिनट की फिल्म 'ट्रि ऑफ टंग्स' बनी, जिसके निर्देशक थे जोशी जोसेफ.

सम्मान एवं पुरस्कार - त्रिपुरा में आज तक मात्र पाँच लोगों को पद्मश्री अवार्ड्स प्राप्त हुए हैँ, जिनमें चौथे हैँ थांगा डारलोंग. वैसे ये राज्य के पहले ट्राइबल हैँ जिनको पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया गया. वर्ष 2014 में नईदिल्ली में इनको संगीत नाटक अकादमी सम्मान प्रदान किया गया. 2015 में थांगा को शैक्षणिक फेलोशिप अवार्ड प्राप्त हुआ. 2016 में थांगा राज्य स्तरीय वयोश्रेष्ठ सम्मान से सम्मानित हुए. भारत सरकार के सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने 2017 में इन्हें राष्ट्रीय वयोश्रेष्ठ सम्मान प्रदान किया. 2019 में पद्मश्री सम्मान के पश्चात 28 फरवरी 2019 को त्रिपुरा के मुख्यमंत्री ने 99 वर्षीय थांगा को अटल बिहारी बाजपेयी लाइफटाइम ऐचिवमेंट अवार्ड से सम्मानित किया. 

Thursday, 21 May 2020

पद्मश्री भागवत मुर्मू ' ठाकुर'

पद्मश्री - सामाजिक कार्य
जन्म : 28 फरवरी ' 1928
जन्म स्थान : गांव बेला, पोस्ट माटिया, जिला जमुई, बिहार - 811312
निधन:  30 जून ' 1998
मृत्यु स्थल : गांव के अपने घर में

जीवन परिचय - बिहार के जमुई जिला के खैरा प्रखण्ड के बेला गांव के ट्राइबल परिवार में भागवत मुर्मू का जन्म हुआ. स्कूली शिक्षा पूर्ण होने पर भागवत मुर्मू राँची आ गए और वहीँ संत जेवियर कॉलेज में पढ़ने लगे.

योगदान - कॉलेज के दिनोँ में ही भागवत सामाजिक कार्यों में रुचि लेने लगे. स्नातक के बाद वे 1952 में संथाल पहाड़िया सेवा मंडल, देवघर से जुड़ गए. भागवत मुर्मू 'ठाकुर' ट्राइबल, दलित, पिछड़े व कमजोर वर्ग के उत्थान कार्यों में सक्रिय रहने लगे. 1957 में बिहार विधानसभा चुनावों की घोषणा हो गई. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भागवत को 'झाझा विधानसभा' से चुनावी मैदान में उतार दिया. उस जमाने में कांग्रेस का चुनाव चिन्ह 'दो बैलों की जोड़ी' थी. भागवत ने जीत दर्ज की और पाँच वर्षोँ तक लगातार ट्राइबल्स व पिछड़े वर्ग की आवाज बन कर बिहार विधानसभा में शोभायमान रहे. भागवत 1989 से 1991 विधान परिषद सदस्य रहे.

साहित्यकार भागवत मुर्मू 'ठाकुर' कविता, कहानी, गीत लिखते रहे. उनकी रचनाएँ हिन्दी, संथाली व बंग्ला में होती थी. उन्होंने देवनागरी लिपि में कई संथाली पुस्तकें लिखी. उनकी कई पुस्तकें एवं रचनाएँ विभिन्न यूनिवर्सिटी के सिलेबस में शामिल हैँ. विशेष कर उनके द्वारा लिखे गए दोङ गीत यू पी एस सी सिलेबस का हिस्सा है.उनकी पुस्तक दोङ सेरेञ (दोङ गीत) के संथाली ( ᱥᱟᱱᱛᱟᱲᱤ ) एवं हिन्दी दोनोँ संस्करण एमेजॉन पर उपलब्ध हैँ.

कृतियाँ -
सोहराय सेरेञ ( सोहराय गीत)
सिसिरजोन राङ ( काव्य संग्रह)
बारू बेड़ा (उपन्यास)
मायाजाल (कहानी)
संथाली शिक्षा
हिन्दी संथाली डिक्शनरी
कोहिमा (12 लोककथाएँ ) नागालैंड भाषा परिषद द्वारा प्रकाशित

श्रीमद्भागवत जिस तरह सरल व लोकप्रिय धार्मिक ग्रंथ है, अपने नाम की ही तरह भागवत मुर्मू का जीवनचरित भी सरल व लोकप्रिय रहा.

पुरस्कार एवं सम्मान - भागवत मुर्मू ' ठाकुर' देश के पहले ट्राइबल थे, जिनको पद्मश्री सम्मान से नवाजा गया. सामाजिक कार्यों एवं साहित्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान के लिए उन्हें 16 मार्च 1985 को पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया गया. इन्हें नालंदा विद्यापीठ द्वारा कवि रत्न सम्मान प्राप्त हुआ एवं भारतीय भाषा पीठ द्वारा डी लिट् की उपाधि दी गई.

पद्मश्री चित्तू टुडू, बिहार

जन्म : 31 दिसम्बर ' 1929
जन्म स्थान : साहूपोखर, पोस्ट श्याम बाजार, प्रखण्ड बौंसी, जिला बांका, बिहार - 813104
निधन:  13 जुलाई ' 2016
मृत्यु स्थल : गांव के अपने घर में
पत्नी : रानी सोरेन

जीवन परिचय - बिहार के भागलपुर प्रमण्डल के बौंसी गांव के एक ट्राइबल परिवार में चित्तू टुडू का जन्म हुआ. गांव में स्कूली शिक्षा हुई, चित्तू की पहचान एक योग्य व अनुशासित छात्र की रही. चित्तू ने ब्रिटिश शासन में मैट्रिक की परीक्षा पास की. देश में स्वतंत्रता आंदोलन जोरों पर था, हर युवा आजादी के यज्ञ में अपनी आहुति देना चाहता था. चित्तू के मन भी से देश के लिए कुछ करने का एक जज्बा हिलोरे ले रहा था. चित्तू ने अपनी भूमिका तय की और कूद पड़े. वे संथाल परगना कांग्रेस कमेटी से जुड़ गए. उसी क्रम में उनका सम्पर्क स्वतंत्रता सेनानी लाल बाबा से हुआ. चित्तू को स्वतंत्रता आंदोलन के बड़े नेताओं की जन सभा में दुभाषिये के रूप में कार्य करने का दायित्व दिया गया . चित्तू ट्राइब्ल्स बहुल क्षेत्रों में जाकर जनसम्पर्क करते एवं स्वतंत्रता सेनानियों के संदेश जनजातीय समुदाय तक पहुँचाते.

आजादी के बाद वर्ष 1950 में सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग में प्रचार संगठनकर्ता के रूप में सरकारी नौकरी में उनकी नियुक्ति हो गई. सूचना एवं जन-सम्पर्क विभाग में गीत नाट्य शाखा के संथाली भाषा के संगठनकर्ता, 1958 में अपर जिला जन-सम्पर्क पदाधिकारी, 1959 में जिला जनसम्पर्क पदाधिकारी, 1977 में उप जनसम्पर्क निदेशक और 1984 में संयुक्त निदेशक के पद पर प्रोन्नत हुए. अपने परिश्रम, व्यवहार व योग्यता के बल पर पदोन्नति प्राप्त करते हुए चित्तू अपनी सेवावधि में पाकुड़, चाईबासा, डाल्टनगंज, राँची और भागलपुर में कार्य किया तथा 1990 में संयुक्त निदेशक के पद से सेवानिवृत हुए। सफल वैवाहिक जीवन जीने वाले चित्तू को एकमात्र सन्तान हुई हीरामनी टूडू .


योगदान - सरकारी सेवा में रहते हुए ही चित्तू संथाली लोक गीत लिखने लगे. विभिन्न पत्र–पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ प्रकाशित और आकाशवाणी से प्रसारित होने लगी. इनके संथाली लोक गीतों का संग्रह 'जवांय धुती' काफी लोकप्रिय कृति है. इस पुस्तक के कई गीत सिदो कान्हु यूनिवर्सिटी के पाठ्यक्रम में शामिल हैँ. उन्होंने कई जीवनियों एवं नाटकों का संथाली में अनुवाद किया.

इनकी पुस्तक 'सोने की सिकड़ी - रुपा की नथिया ' आज भी साहित्यप्रेमियों की पसंद बनी हुई है और अमेजॉन पर उपलब्ध है. झारखण्ड में तेजी से बदलते सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिदृश्य में संथालों की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती जा रही है. आज की बदली हुई स्थिति में संथाल ट्राइबल्स के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन के विभिन्न पहलुओं पर गहन शोध एवं अध्ययन की आवश्यकता प्रबल होती जा रही है. संथाल समुदाय में प्रत्येक मौसम, त्योहार और अवसरों के लिए अलग-अलग गीतों के विधान हैं. दोङ अर्थात् विवाह गीतों के अतिरिक्त सोहराय, दुरूमजाक्, बाहा, लांगड़े रिजां मतवार, डान्टा और कराम प्रमुख संथाली लोकगीत हैं. बापला अर्थात् विवाह संथालों के लिए मात्र एक रस्म ही नहीं, वरन् एक वृहत् सामाजिक उत्सव की तरह है जिसका वे पूरा-पूरा आनन्द उठाते है. इसके हर विधि-विधान में मार्मिक गीतों का समावेश है. इन गीतों में जहाँ एक ओर ट्राइबल्स जीवन की सहजता, सरलता, उत्फुल्लता तथा नैसर्गिकता आदि की झलकें मिलेंगी, वहीं दूसरी ओर उनके जीवन-दर्शन, सामाजिक सोच, मान्यता, जिजीविषा तथा अदम्य आतंरिक शक्ति से भी अनायास साक्षात्कार हो जाएगा. विविधताओं से परिपूर्ण परम्परागत संथाली जीवन की झलक 'सोने की सिकड़ी - रुपा की नथिया ' में है. इसके अलावा इन्होंने संथाल में प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की जीवनी लिखी.
रास बिहारी लाल के हिन्दी नाटक ’’नए-नए रास्ते ’’ का संथाली भाषा में अनुवाद किया.

बिहार सरकार के सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग ने चित्तू टुडू द्वारा रचित संथाली लोक गीतों का उनके ही कंठ स्वर और संगीत निर्देशन में ग्रामोफोन रिकार्ड तैयार कराकर ट्राइबल क्षेत्रों में वितरण करवाया.  संथाली लोक गीतों की संरचना और नृत्य संगीत निर्देशन, कोरियोग्राफी में उनकी दक्षता, प्रवीणता और पांडित्य को देखते हुए बिहार सरकार ने उनके नेतृत्व और निर्देशन में 1976 से 1986 तक प्रतिवर्ष गणतंत्र दिवस के समारोह पर लाल किला दिल्ली में होनेवाले आयोजन में ट्राइबल नर्तक दल को भेजा.

चित्तू को राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के सानिध्य का अवसर भी प्राप्त हुआ. चित्तू साहित्यिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों में काफी सक्रिय रहते. वे विभिन्न संस्थानों से जीवनपर्यंत जुड़े रहे. चित्तू संथाली सांस्कृतिक सोसाइटी, रांची के संस्थापक उपाध्यक्ष तथा संथाली साहित्य परिषद, दुमका के अध्यक्ष रहे. टुडू नई दिल्ली स्थित नृत्य कला अकादमी के सदस्य भी रहे. 1970 के दशक में होड़ संवाद नामक साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन होता था.  चित्तू इसके सम्पादक मंडल में सदस्य रहे.

यत्र-तत्र बिखरे आदिवासी लोक नर्तकों की खोज कर उन्हें संगठित करने, संरक्षण देने और उनको मंच प्रदान करने की दिशा में चित्तू ने अहम् भूमिका निभायी. शिक्षा के पैरोकार चित्तू चाहते थे कि हर ट्राइबल बच्चा शिक्षित हो और इसके लिए हर गांव में एक स्कूल हो. अपने पैतृक गाँव बौंसी में छात्रावास एवं विद्यालय निर्माण हेतू चित्तू ने पाँच एकड़ भूमि दान की.

टुडू बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे. साहित्यकार , नर्तक , गायक , वादक , समाज सुधारक औऱ इन सबसे बढ़कर एक महान इंसान.

पुरस्कार एवं सम्मान - सामाजिक कार्यों एवं आदिवासी लोक संस्कृति के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान के लिए 6 अप्रैल 1993 को चित्तू टुडू को पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया गया. वे पूरे भारत में दूसरे ट्राइबल थे, जिन्हें पद्मश्री सम्मान से नवाजा गया. वर्ष 1986 में इनको बिहार राजभाषा विभाग द्वारा सम्मानित किया गया.

Wednesday, 13 May 2020

पद्मश्री जल पुरुष सिमोन उरांव

जन्म : 1932
जन्म स्थान : खक्सी टोली, गांव हरिहरपुर जामटोली, ब्लॉक बेड़ो, जिला राँची, झारखण्ड
वर्तमान निवास : साई ग्राम रोड़, बेड़ो बाजार, जिला मुख्यालय से लगभग 45 किमी, जिला राँची, झारखण्ड
पिता : बोरा उरांव
माता : बुधनी उरांव
पत्नी : बिरजिनिया उरांव 

जीवन परिचय - झारखण्ड की राजधानी राँची के सुदूर गांव खक्सी टोला में जनजातीय परिवार में सिमोन बाबा के नाम से लोकप्रिय सिमोन उरांव मिंज का जन्म हुआ था. पिता तीन भाई थे, एक चाचा फौज में भी गए और द्वितीय विश्वयुद्ध में लड़े, उस समय सैनिक की जान की कीमत पाँच रुपए मासिक हुआ करती थी. पिता कृषि की आजीविका से जुड़े थे, किन्तु सिंचाई की असुविधा के कारण गांव में कृषि नगण्य हो गई थी, वर्ष में चार माह जमकर बारिश हुआ करती थी, पर जल सरंक्षण की कोई सुविधा तो थी नहीँ, ना ही छोटे मोटे बाँध मूसलाधार बारिश में टीक पाते थे, सो गांव के लोगों की आजीविका अब कृषि नहीँ बल्कि पेड़ों की लकड़ियाँ बेचना हो चला था. पिता ने जैसे तैसे सोमेन को चौथी कक्षा तक पढ़ाया या यूँ कहें कि अक्षर ज्ञान करवाया. सूखे ने घर को सूखा दिया, गरीबी ऐसी बढ़ी कि जमीन की मालगुजारी के चालीस रुपए बकाया हो गए, पिताजी चुका ना सके, सो एक खेत नीलाम हो गया. सात साल की उम्र में सोमेन बकरी चराने लगे. परिवार की गरीबी का आलम यह था कि मडुआ का रोटी और सरई का फल खाकर गुजर बसर होती. इसी गरीबी में 1955 में विवाह भी हो गया, एक तो गरीबी, ऊपर से घर में नए सदस्य का प्रवेश . गांव में किसी से पता चला कि लगभग 50 किलोमीटर दूर चुटिया में सिविल कंस्ट्रक्शन का कार्य हो रहा है, पर जाते कैसे, कोई साधन तो था नहीँ, लेकिन भूख को चाहिए था भोजन और भोजन के लिए जरूरी था रोजगार. सोमेन प्रतिदिन भोर में पाँच बजे ही चुटिया के लिए निकल पड़ते और देर रात लौटते, प्रतिदिन 50 किलोमीटर पैदल जाना, वहाँ पसीना बहाना और फिर 50 किलोमीटर वापस आना. यह संघर्ष उन युवाओ के लिए प्रेरक है जो कम पॉकेट मनी मिलने पर यदि अपनी जरूरत पूरा करने के लिए ट्यूशन भी कर लेते हैँ, तो उसे संघर्ष का नाम देते हैँ.

सोमेन को तीन पुत्र हुए , जोसेफ, सुधीर और आनन्द. जिनमें आनन्द का निधन 2013 में हो गया. सोमेन का परिवार कैथोलिक धर्म का भी अनुयायी है. सोमेन बाबा जतरा टाना भगत को अपना आदर्श मानते हैँ.

योगदान - सोमेन ही नहीँ गांव के कई अन्य लोग भी रोजगार की आस में चुटिया जाने लगे. सोमेन तो प्रतिदिन रात को लौट आते थे, परन्तु उनके कई साथी वहीँ रहने लगे, यानी गांव से पलायन आरम्भ हो गया. एक ओर गांव की गरीबी, दूसरी ओर बेरोजगारी और अब पलायन की एक नई समस्या, सिमोन को यह सब कचोटने लगा.

सोमेन के गांव में छः झरने थे, सघन बारिश भी हुआ करती थी, किन्तु सिंचाई की व्यवस्था नहीँ थी, सोमेन ने ग्रामीणों को बांध बनाने का प्रस्ताव दिया किन्तु सहयोग नहीँ मिला. कुछ ग्रामीण तो इस प्रस्ताव पर हँस पड़े कि यह उनके बस का नहीँ. कुछ को अपनी जमीन जाने का भय सताने लगा. आत्मविश्वास से लबरेज सोमेन ने हार नहीँ मानी. 1961 में कुदाल लेकर अकेले निकल पड़े. धीरे-धीरे ग्रामीणों का साथ मिलने लगा. गांव के झरिया नाला के गायघाट के पास नरपतना में 45 फिट का बांध बनाया गया. किन्तु अगले ही मानसून के दौरान तेज बारिश में बांध बह गया.

उसी वर्ष उन्होनें गांव के पास पहाड़ियों की तलहटी में एक जलाशय बनाने के लिए ग्रमीणों को प्रेरित किया. इसका लाभ यह हुआ कि गांव में सब्जियों की भरपूर पैदावार हुई. अगले वर्ष नरपतना के बांध का मरम्मतीकरण एवं सुदृढ़ीकरण किया गया. सोमेन ने खक्सी टोला के निकट छोटा झरिया नाला में 1975 में दूसरे नए बाँध का निर्माण किया. 1980 के आसपास सिमोन के प्रयास से लघु सिंचाई योजना के अन्तर्गत हरिहरपुर जामटोली के निकट देशवाली बाँध का निर्माण हुआ. साथ ही अगले कुछ वर्षों में अलग अलग प्रयासों में अंतबलु, खरवागढ़ा व अन्य कई स्थानों में चेकडैम बने. सोमेन ने ग्रामीणों की मदद से साढ़े पाँच हजार फीट लम्बी कच्ची नहर निकाली. आज इन्हीं बांधों से सरकार द्वारा हजारों फिट पक्की नहर निकालकर खेतों तक पानी पहुंचाया जा रहा है. सिमोन बड़े बांधो के खिलाफ हैँ, इनका मानना है कि छोटे छोटे बांध बनने चाहिए, क्योंकि ये पर्यावरण को नुकसान नहीँ पहुँचाते.

बांध के अलावा सोमेन ने अधिक से अधिक तालाब खुदवाने पर जोर दिया. हरिहरपुर जामटोली, बिलति, भस्नांडा, बारीडीह, बोदा, महरू, हुटार, हरहंजी आदि गाँवों में कई तालाबों का निर्माण हुआ. हर टोले में पीने के पानी के लिए कुएँ खुदवाए.

सोमेन ने कहा कि बरसात का पानी नालों और नदियों से होता हुआ, समुद्र में चला जाता है, इसे रोको. यानी जल संग्रहण पर जोर दिया. उन्होंने कहा कि नलकूप जमीन के नीचे के पानी को को सोख लेते हैँ, इसलिए नलकूप की जगह कुएँ और तालाब खोदे जाएं, यानी जल संरक्षण पर जोर दिया.

सोमेन के प्रयासों से 2000 एकड़ से अधिक भूमि पर खेती होने लगी है. जहॉ साल में एक फसल नहीँ होती थी, वहीँ सिंचाई की व्यवस्था हो जाने पर कई योग्य कृषक एक से ज्यादा फसल कर रहे हैँ. विशेषकर उस क्षेत्र मे सब्जियों की पैदावार में काफी वृद्धि हुई है. बेड़ो ब्लॉक की सब्जियाँ राँची, जमशेदपुर, बोकारो व कोलकत्ता तक जातीं हैँ.

उरांव जनजाति में गांव समाज का संचालन स्वशासन प्रणाली के अन्तर्गत किया जाता है. गांव के धार्मिक क्रिया कलाप 'पाहन' द्वारा संचालित किए जाते हैँ. पाँच से ज्यादा गांवो के संगठन को 'पड़हा' कहते हैँ और इसका प्रमुख 'पड़हा राजा' कहलाता है. 1964 में सोमेन को बारह गांवो का पड़हा राजा चुन लिया गया. आज सोमेन वहाँ के 51 गांवो के पड़हा राजा हैँ.

1967 में भारी आकाल पड़ा, लोग दाने दाने को मोहताज हो रहे थे. ऐसे में सिमोन ने सामूहिक खेती पर बल दिया. गांव में जो भी खेती से सम्बन्धित हल, बैल,पम्प,मशीनरी, इक्यूपमेंट इत्यादि थे, वे सब एक जगह एकत्रित किए गए. प्रतिदिन किसी एक कृषक के खेत को तैयार किया जाता और सभी मिलकर उसपर काम करते. धीरे धीरे गांव के सभी खेतों में जोताई और बुआई हो गई. करीब करीब 250 एकड़ खेतों में मुख्यतः गेहूँ बोया गया. दैवीय कृपा से फसल भी अच्छी हुई. आज के गावों में पारिवारिक हिस्सों में बंटे छोटे छोटे खेतों के लिए इस प्रकार की सामूहिक खेती की अपार संभावनाएँ हैँ.

सोमेन की समाजसेवा की यात्रा यहीं नहीँ रुकी. उन्होंने 1976 में सामाजिक वानिकी कार्यक्रम शुरू किया. स्वयं प्रतिवर्ष 1000 वृक्षारोपण का लक्ष्य निर्धारित किया, साथ ही ग्रामीणों को वृक्ष लगाने के लिए प्रोत्साहित किया. अपने जल अभियान से जोड़ते हुए उन्होंने प्रचारित किया कि वृक्ष जल संसाधनों के क्षरण को रोकने
में सहायक हैँ. लोगों प्रोत्साहित हुए, उनके गांवो में आजतक जामुन, आम, साल, कटहल के लगभग 50 हजार से ज्यादा वृक्ष लगाए जा चुके हैँ. सिमोन पेडों की कटाई के कट्टर विरुद्ध हैँ, जंगल माफियाओं का विरोध करने पर इन्हें जेलयात्रा भी करनी पड़ी है.

सोमेन ने प्रत्येक गांव में 25 सदस्यीय ग्राम समिति का गठन किया. जो जल संरक्षण, जल संग्रहण, वृक्षारोपण, सामूहिक खेती, सब्जियों की मार्केटिंग को प्रोत्साहित करती है और पेड़ों की अवैध कटाई को रोकती है. प्रत्येक सप्ताह बृहस्पतिवार को इन ग्राम समितियों की बैठक होती है. किसी ना किसी एक समिति की बैठक में सोमेन बाबा स्वयं भी उपस्थित रहते हैँ. यदि गांव में कोई छोटा मोटा विवाद होता है तो ग्रामीण उसकी पंचायती करवाने सोमेन बाबा के पास आते हैँ. सोमेन उन्हें एक बात अवश्य समझाते हैँ कि 'आदमी से नहीं, जमीन से लड़ो, उसपर अन्न का कारखाना तैयार करो, विकास होगा, तुम्हारा भी, गांव का भी. अगर विनाश करना है तो आदमी से लड़ो.'

बहुमुखी प्रतिभा के धनी सोमेन का फूस और टीन से बना घर छोटे बड़े कई थैलों से भरा पड़ा है, जिनमें कई प्रकार की जड़ी बूटियाँ हैँ. क्योंकि सोमेन बाबा लोगों का देशी इलाज भी करते हैँ, जड़ी बूटी से दवा बनाते हैँ, अनपढ़ सोमेन आयुर्वेदिक चिकित्सक भी हैँ.

वर्ष 2009 में बारिश न होने के कारण सूखे की मार खेल रहे झारखंड को आधिकारिक रूप से सूखाग्रस्त घोषित कर दिया गया था. वैसी विपरीत परिस्थितियों में भी बेड़ो ब्लॉक के कई गांवो में अच्छी फसल हुई, जिसका सम्पूर्ण श्रेय सोमेन उरांव के जल संग्रहण अभियान को जाता है.

भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा प्रधानमंत्री ग्रामीण विकास फेलो के रूप वर्ष 2012-14 के लिए सोमेन बाबा का चयन किया गया. सोमेन उरांव जलछाजन विभाग, झारखण्ड सरकार के ब्रांड एम्बेसडर हैँ.

सोमेन बाबा की सादगी का आलम यह है कि सम्मान के क्रम में आजतक उन्हें जो फूलमाला पहनाई गई या गुलदस्ता दिया गया, बाबा ने उन्हें फेंका नहीँ, बल्कि अपने के घर में रखा हुआ है.

सम्मान - झारखण्ड के जल पुरुष के नाम से लोकप्रिय पर्यावरणविद पड़ाह राजा सोमेन उराँव मिंज उर्फ सोमेन बाबा को जल संरक्षण, जल संग्रहण, वन एवं पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में उनके अतुलनीय योगदान के लिए 2016 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया. वर्ष 2012 में विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर विकास भारती विशुनपुर ने सोमेन को जल मित्र सम्मान प्रदान किया.
नमन फाऊंडेशन ने सोमेन बाबा को नमन झारखण्ड गौरव सम्मान से सम्मानित किया. कई संस्थानो द्वारा सोमेन को उनके अविस्मरणीय योगदान के लिए सम्मानित किया गया.

वर्ष 2002 में अमेरिका के जैविक संस्थान के अध्यक्ष जे. एम. वैन्सिन ने सोमेन की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी. ग्रेट ब्रिटेन के नॉटिंघम यूनिवर्सिटी की शोधार्थी सारा जेविट ने काफी दिन सोमेन बाबा के गांव में बिताया और अपनी पीएचडी थीसिस में उनकी सक्सेस स्टोरी लिखी.

वर्ष 2018 में राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता एवं पहले ट्राइबल फिल्म निर्माता बीजू टोप्पो ने सोमेन उरांव की जीवन यात्रा पर 28 मिनट की फिल्म 'झरिया' का निर्माण किया है.

Monday, 11 May 2020

पद्मश्री मुकुंद नायक



जन्म : 15 अक्टूबर '1949
जन्म स्थान : गांव बोक्बा, ब्लॉक कोलेबीरा, जिला सिमडेगा, झारखण्ड
वर्तमान निवास : चुटिया, राँची , झारखण्ड
पत्नी : द्रौपदी देवी

जीवन परिचय - झारखण्ड के सिमडेगा जिला के एक अतिपिछड़े गांव बोक्बा में घासी जाति में जन्में मुकुंद नायक अपनी जाति का परिचय भी अपनी विशिष्ट शैली में देते हैँ - 'जहाँ बसे तीन जाइत, वहाँ बाजा बजे दिन राइत, घासी- लोहरा औ' गोडाइत' हालाँकि घासी जाति झारखण्ड के जाति वर्गीकरण के दृष्टिकोण से अनुसूचीत जनजाति नहीँ है, किन्तु झारखण्ड छत्तीसगढ़ का पुरातन इतिहास घासी जाति के बिना पूर्ण नहीँ हो सकता.

गांव में कृषक अपने खेत खलिहानों से लौटकर अखरा में एकत्रित हुआ करते थे, जहाँ एक दूसरे के दुःख दर्द खुशियों की चर्चा किया करते, मुकुंद अपनी माँ के साथ अखरा जाया करते. दिन भर की थकान मिटाने के लिए ग्रामीण लोग बाग वहाँ लोकगीत गाया करते, स्थानीय वाद्य बजाया करते, गीत-संगीत की बयार में उनकी सारी थकान मिट जाया करती. कहा जा सकता है कि मुकुंद की सांस्कृतिक पाठशाला अखरा ही थी. आज गावों में अखरा का प्रचलन कम होता जा रहा है, किन्तु अखरा गांव की संस्कृति का परिचायक है, अखरा गांव की सामाजिक पंचायत है बल्कि यह कहना कोताही नहीँ होगा कि अखरा अपने आप में ट्राइबल संसद है.

मुकुंद के पिता अशिक्षित कृषक थे, परन्तु उन्होनें प्राथमिक शिक्षा हेतू बोन्गराम के प्राइमरी स्कूल में मुकुंद का दाखिला करवा दिया, मुकुंद ने मिडिल स्कूल की पढ़ाई गांव बरवाडीह में की. उन्होनें एस एस हाई स्कूल सिमडेगा से मैट्रिक की परीक्षा उतीर्ण की और आगे की पढ़ाई के लिए टाटा कॉलेज चाईबासा चले आए.

कॉलेज की शिक्षा के बाद 1972 में मुकुंद बरवाडीह लौट आए और एक स्कूल में सहायक शिक्षक के रूप में कार्य करने लगे. इसी बीच उनका विवाह हो गया, जीवनसाथी के रूप में मिली द्रौपदी देवी, जिनके भीतर भी एक कलाकार हिलोरें ले रहा था. द्रौपदी चुटिया, राँची की रहने वाली थी , वर्ष 1974 में मुकुंद का भाग्य उन्हें चुटिया ले आया. जीवनयापन के लिए वे ट्यूशन पढ़ाने लगे. व्यक्ति की योग्यता उसकी राह आसान कर देती है, मुकुंद को उषा मार्टिन लि. में कैमिकल विश्लेषक की नौकरी मिल गई. मुकुंद के दो पुत्र नंदलाल नायक , प्रद्युम्न नायक एवं एक पुत्री चंद्रकांता हैँ . जिनमें नंदलाल लोक कलाकार व फिल्म निर्देशक के रूप में लोकप्रिय हो रहे हैँ.

उपलब्धियाँ - मुकुंद ने हाई स्कूल की पढ़ाई के दौरान ही गाना प्रारम्भ कर दिया था. कॉलेज में होने वाली प्रत्येक सांस्कृतिक गतिविधियों में हिस्सा लेने लगे. मुकुंद आदिवासी स्वयं मंडल छात्रावास में रहा करते थे , जहाँ सुबह शाम दो समय प्रार्थना होती थी, अकसर उन्हें उस समय गाने का अवसर मिला करता था ।

कॉलेज के दौरान उनकी मित्रता सोनारी, जमशेदपुर के रहने वाले जगदीश चरण लहरी से हुई , जो कविताएँ लिखा करते थे. जगदीश का काव्य पाठ आकाशवाणी, राँची में हुआ करता था. उषा मार्टिन में नौकरी के दिनोँ एक बार मुकुंद की मुलाकात कॉलेज के मित्र जगदीश से हुई, जो उन्हें आकाशवाणी राँची ले गए. उन दिनोँ उदघोषक सुगिया बहन उर्फ रोजलिन लकड़ा बहुत लोकप्रिय थीं, उन्होंने मुलाकात के दौरान जब मुकुंद का गाना सुना तो मुग्ध हो गईं, कहा जा सकता है कि मुकन्द की प्रतिभा को सबसे पहले सुगिया बहन ने ही पहचाना. मुकुंद ने अपनी पत्नी, परिवार और आस पड़ोस के लोगों को लेकर टीम बनाई और आकाशवाणी में कार्यक्रम करने लगे. 1975 से आकाशवाणी का यह सफर समय के साथ दूरदर्शन में भी आरम्भ हो गया.

यह वही समय था जब झारखण्ड आन्दोलन मूवमेंट जोर पकड़ रहा था. इतिहास गवाह है कि किसी भी आन्दोलन की सफलता के पीछे साहित्यिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों की अहम भूमिका होती है. मुकुंद अपने सहयोगियों के साथ सांस्कृतिक आयोजन किया करते और इस प्रकार के जागरण गीत लिखते -

'जागो जवान, झारखण्ड तेहू देहि ध्यान,
जागो जवान, नागपुर तेहू देहि ध्यान'


मुकुंद ने अपने सहयोगी कलाकार द्रौपदी देवी, मनकुई देवी, पारो देवी, रामेश्वर नायक, जलेश्वर नायक, मनपुरा नायक, देव चरण नायक, शिबू नायक के साथ मिलकर जनसमूह के समक्ष पहली बार जगन्नाथपुर मेला राँची में अपनी कला का प्रदर्शन किया. 1980 में रांची विश्वविद्यालय में तत्कालिन कुलपति डॉ कुमार सुरेश सिंह ने जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग का गठन किया, तब मुकुंद यूनिवर्सिटी से जुड़ गए. 1981 में अमेरिका की रिसर्च एसोसिएट प्रोफेसर डॉ कैरोल बाबिरकी झारखण्ड के संगीत और नृत्य पर शोध हेतू राँची आईं तो मुकुंद उनके साथ इस अध्ययन में जुड़े रहे. नागपुरी गीत संगीत को संरक्षित-सवंर्द्धित करने हेतू एवं कलाकारों को एक मंच देने हेतू मुकुंद ने 1985 में कुंजवन संस्था की स्थापना की. वर्ष
1988 में कुंजवन ने हांगकांग अंतरराष्ट्रीय नृत्य महोत्सव में हिस्सा लिया और काफी तारीफ बटोरी.

नागपुरी फिल्मों की शुरुआत 1992 में फिल्म ' सोना कर नागपुर ' से हुईं, जिसमें मुकुंद नायक ने गीत संगीत दिया तो एक कलाकार के रूप में पर्दे पर भी दिखे, फिर 2009 की लोकप्रिय फिल्म बाहा में अपने गीत दिए, इस फिल्म ने जर्मनी, यूएसए, फिनलैंड में भी कई अवार्ड जीते. 2019 में आई फिल्म फूलमनिया ने बड़े पर्दे पर ख्याति लूटी ही, पर उस फिल्म में मुकुंद नायक का एक मधुर गीत ' खिलल कोमलिनी मन' दर्शकों की जुबाँ पर छा गया.

जहाँ एक ओर पारम्परिक संगीत पश्चिमी सभ्यता से प्रभावित हो रहा है, व्यावसयिककरण की होड़ में अश्लील शब्दों का प्रयोग होने लगा है, ऐसे माहौल में भी ठेठ नागपुरी संगीत व गीत की परम्परा को आगे बढ़ाने के लिए कृतसंकल्प हैँ मुकुंद नायक.

झारखण्ड की लोक कला संस्कृति के महानायक मुकुंद पंचपरगनिया, बंग्ला, मुंडारी, कुड़ूख, नागपुरी, खोरठा जैसी कई भाषओं में गीत गाते हैँ, ज्यादातर स्वरचित गीत गाने वाले मुकुंद एक विद्वान गीतकार, संगीतज्ञ, ढोलकिया, नर्तक, लोक गायक, प्रशिक्षक, नागपुरी लोक नृत्य झुमइर के प्रतिपादक एवं लोक संस्कृति के वाहक हैँ.

सम्मान - लोक गायक 'मुकुंद नायक' को 2017 में कला एवं संगीत के क्षेत्र में पद्मश्री से सम्मानित किया गया. जनवरी 2019 में इन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार प्रदान किया गया. पर्यटन, कला-संस्कृति, खेल -कूद और युवा कार्य विभाग, झारखण्ड सरकार द्वारा भी मुकुंद नायक को सांस्कृतिक सम्मान प्रदान किया गया. दैनिक प्रभात खबर ने इन्हें झारखण्ड गौरव सम्मान से सम्मानित किया, दैनिक जागरण एवं लोक कला समिति ने झारखण्ड रत्न अवार्ड से सम्मानित किया. नागपुरी संस्थान द्वारा डॉ. विसेश्वर प्रसाद केसरी सम्मान , झारखण्ड हिन्दी साहित्य संस्कृति मंच द्वारा संस्कृति सम्मान के अलावा देश के भिन्न भिन्न हिस्सों में विभिन्न संस्थानों ने मुकुंद को सम्मानित किया है .